टमाटर का कड़वा रस : डीएलए 19 जुलाई 2013 में प्रकाशित

टमाटर और सेब दोनों लाल और दोनों आजकल मिल रह हैं बढ़े भाव।  मैं शहंशाह होता तो जरूर ‘टमाटरमहल’ बनवाता क्‍योंकि सेब के भाव बहुधा बढ़े होते हैं। बनिस्‍वत इसके सब्जियों को ऐसे मौके बहुत मुश्किल से मिलते हैं।  गौरतलब यह है कि टमाटर की पौ निन्‍यानवै पहली बार हुई है। सब्जियों में राजनीति की करामात पब्लिक को करारी मात देती रही है। एक बार लौकी के रस को साजिशन कातिल करार दिया जा चुका है। प्‍याज, आलू पब्लिक का रस निचोड़ते रहे हैं।  टमाटर की बढ़ती रूमानियत देखकर सेब का दुखी होना स्‍वाभाविक है।  सेब के चाहने वाले स्‍वास्‍थ्‍य के लिए उपयोगी होने पर भी महंगा होने के कारण उससे नजरें बचाकर निकलने को मजबूर हैं। दुमदार का जमाना है इसलिए आजकल टमाटर की पूछ वाली पूंछ बहुत लंबी हो गई है। टमाटर के लाल गाल वाला रूप आजकल लुभा नहीं, जला रहा है। टमाटर क्रांति का उद्घोष हो चुका है जिसकी वजह से टमाटर की सूरत पर एक्‍स्‍ट्रा एनर्जी वाली चमक दिखाई दे रही है।

टमाटर के दिन-रात इस कदर फिरे हैं कि ‘मेरा दिन मेरी रात’ है, वाली बात सुर्खियों में है।  वैसे इसे ‘सोशलमीडिया पर टमाटर’ और ‘टमाटर पर सोशलमीडिया’ ज्‍यादा सटीक है। ‘टमाटरमहल’ बनाने की बात पता चली तो टमाटर लाज से तमतमा गया, ‘टमाटरमहल’ क्‍या मुझे मुमताज की तरह बेगम समझ लिया है सबने।  

टमाटर को शहंशाह मानने वाले रिकमंड करते हैं कि टमाटर बिना शहंशाह हुए सब्जियों का, दालों का गम दूर करता है, उसमें नई निराली चटकारियत भरता है इसलिए उसे बेगम ही कहा जाए। बेगम की खूबी गम को दूर करती है।

टमाटर की औकात वही पुरानी पर नई पहचान मिली है।  सब्जियों, दालों में घुसकर टमाटर सदा से परोपकार करता रहा है। यह उसका गुप्‍त परोपकार है। परोपकार वाला भाव टमाटर को विरल ऊंचाईयां दे रहा है जिसमें वह अपनी उपयोगिता को दूसरों में निस्‍वार्थ भाव से घुला-मिला रहा है, इसी में उसका बडप्‍पन है और यही जीवन का सच्‍चा सार है। व्‍यायाम करते हुए एक कमजोर से छोटे से पौधे पर टमाटर मजबूती से जमा रहता है और यही उसकी लालिमा का रहस्‍य है। पर आज टमाटर इसलिए दुखी है क्‍योंकि उत्‍तराखंड में आई बाढ़ ने उसका चेहरा पूरी तरह काला कर दिया है और यह इंसान की शैतानी फितरत का काम है, टमाटर को यह मलाल है इसलिए वह शर्म से भी लाल है।  

नीयत खराब होना आज इंसान होने के नये मायने हैं, जो बाढ़ से बरबाद जिंदा लोगों से उनका माल-असबाब लूटकर सरेआम खाई में धक्‍का दे रहे थे मतलब आज का इंसान बदनियति का संगम है। जो मंदिरों की तिजोरी पर लुटेरा बनकर मौजूद है, वही तथाकथित इंसान टमाटर को महंगा बेच रहा है, पीडि़तों के दुख में उसका सुख और लाभ छिपा हुआ है। टमाटर जानता है कि लुटेरों के चेहरों पर छाई रक्‍त की घिनौनी लालिमा है जो सामने वाले के शरीर से रक्‍त का हेमोग्‍लोबिन का लेबल कम कर रही है।

टमाटर महसूस कर रहा था कि उसे सुर्खियों में देखकर आलू, प्‍याज, बैंगन, घिया, तोरई, सीताफल जैसी सब्जियां ईर्ष्‍या से जल-भुनकर खूब महंगी हो रही हैं। जबकि यह सब इंसानी लालच की बानगी है। इंसान किसी मौके का फायदा उठाने से नहीं चूकता। टमाटर का मिले दिव्‍य ज्ञान के बावजूद कि सब्जियों का कोई दोष नहीं है,  फिर भी आज सच का टमाटर कड़वा लगने लगा है।

आजकल मासिक के जून 2013 अंक में 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' की समीक्षा प्रकाशित : पढि़एगा मत



बालमन के पर्यावरण को दूषित होने से बचाएं : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट 6 जून 2013 के ब्‍लॉग राग स्‍तंभ में प्रकाशित