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भ्रष्टाचार और महंगाई पर सरकार प्रहार करेगी परंतु हमेशा की तरह हार जाएगी । इस हार में ही जीत है क्योंकि सरकार जीत गई तो महंगाई और भ्रष्टाचार दोनों ही नाराज हो जायेंगे। दोनों जब खुश हैं तब तो यह सौंदर्य है, अगर नाराज हो गईं तो न जाने कितनी फिल्मों में मुख्य भूमिका में दिखलाई दें। सरकार जनता को खुश करने के लिए इन पर गाहे-बगाहे प्रहार रूपी हार पहनाती रहती है और आत्म-मुग्ध रहती है। जिससे सामंजस्य और सौहार्दपूर्ण मौसम बना रहता है। भ्रष्टाचार को भूत और महंगाई को दानव बतलाने वाली सरकार रावण से तो मुक्ति पा नहीं सकी और सच तो यह है कि पाना ही नहीं चाहती है। भूत और दानव से क्यों छुटकारा पाना चाहेगी। सरकार कहती तो सदा यही रहती है कि दोनों से अपनी पूरी ताकत से निपटेगी, पर वो खुद निपट जाती है, सच तो यह है कि पट जाती है।
महंगाई का चिल्लाना सरकार सह नहीं सकती है, इसकी चिल्लाहट से सरकार के संकट में घिरने भय रहता है इसलिए साईलेंट किलर की तरह सक्रिय रखा जाता है और जनता चिल्लाती रहती परंतु सरकार उस ओर से बेफिक्र है, यह बेफिक्री पांच साल के लिए तय है। सरकार सब कुछ बर्दाश्त कर सकती है परंतु महंगाई का रोना उसे स्वीकार्य नहीं है।
भ्रष्टाचार तो अनेक रूपों में मौजूद है। आप किस किसको हटायेंगे। दूसरों को हटाते हटाते अपना मुख भी उन्हीं में दिखलाई देगा और आप हटाते हटाते शर्मा जायेंगे, फिर नहीं हटा पायेंगे और भ्रष्टाचार को हटाने के कार्य से खुद ही किनारा कर जायेंगे। भ्रष्ट आचार रिश्वत भी है, तीखा बोलना भी है, झूठ बोलना भी है और सच्चाई जानते हुए मौन रहना भी भ्रष्ट आचार ही माना गया है। भ्रष्टाचार का दायरा बहुत व्यापक है। जितने रियलिटी शो हैं, सब भ्रष्टाचार के नये नये खुले अड्डे है। क्रिकेट तो ऐसा खेल है, जिसमें जब तक भ्रष्टाचार न शामिल हो, उसमें भरपूर रंग-तरंग का अहसास ही नहीं होता है।
फिर भ्रष्टाचार एक ऐसा भूत है, जो अतीत है, पर सामने मौजूद है, मतलब वर्तमानीय भूत। आज भी और अतीत भी तथा भविष्य भी। इस भूत की पेड़ पर उल्टी लटक इतनी मजबूत है कि पेड़ टूट जाए, पर इसकी अकड़ इतने गहरे तक पैठ चुकी है कि जाती नहीं । अतीत, वर्तमान और भविष्य में अपनी पूरी चमक दमक के साथ मौजूद भ्रष्टाचार भूत होते हुए भी मौजूद हैं। सबके अपने भरपूर भरे-पूरे जलवे हैं।
महंगाई को दानव बतलाया जा रहा है, जबकि वो स्त्रीलिंग है और स्त्रीलिंग होते हुए भी महंगाई की मजबूती प्रत्येक प्रकार के देवता और पुरूष दोनों को मात करती है, इसलिए दानव कहलाई जाती है। वरना इसे दानवी भी कहा जा सकता था, अभी तक तो यूं ही लगता था कि दानव से दानवी अधिक शक्तिशाली होती है परंतु महंगाई को दानव कहकर यह मिथक भी तोड़ डाला गया है।
मिथक मिथ्या होते हुए भी संस्कृति और मन में इस कदर बस जाते हैं कि वे आरंभ से रचे हुए नजर आते हैं। फिर भी यह पता लगाना बहुत मुश्किल होता है कि वे आरंभ हुए थे, ऐसा जान पड़ता है, मानो सृष्टि-संस्कृति का अटूट रिश्ता हों और उनसे निजी रिश्ते बन जाते हैं जो कभी मिट नहीं पाते हैं।
महंगाई और भ्रष्टाचार को भूत और दानव बतलाकर ऐसी जुगलबंदी को बेनकाब किया गया है, जो पहले से ही निर्वस्त्र है परंतु इसका श्रेय लूटने से भला सरकार क्यों वंचित रहे।
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