वायु के युवा होने की उलटबांसी : जनसंदेश टाइम्‍स 25 दिसम्‍बर 2012 के स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित



एक भागा जा रहा है और दूसरा दौड़ा आ रहा है। भागने दौड़ने का यह आयोजन रोजाना की जिंदगी में घटता है। घटते हुए भी सिमटता नहीं, फैलता है। साल के अंत में इसमें अद्भुत तीव्रता आती है। भागना और दौड़ना, किसी को पकड़ना और पहले से पकड़े हुए को छोड़ना, गति के वे रस हैं कि इनकी लोकप्रियता में ‘आने’ की प्रबल भागीदारी है। पंखे की तरह घटनाएं घटती रहती हैं और इस बहाने साहित्‍य रचा जाता है। पंखा वहीं स्थिर रहता है। एक ही जगह टंगा हुआ घूमता रहता है। वहीं लटके चिपके सारी दुनिया का चक्‍कर लगा लेता है। वह न भी घूमे तब भी प्रेरणा लेने वाला तो उसे हासिल कर ही लेगा। चाहे वह अपनी सूंघन-शक्ति के बल पर उसे पंखे की वायु से ही युवा रूप में बदल ले। वायु जब उर्दू माफिक पढ़ने पर युवा हो जाती है, तब प्रचंड अंधड़ कहलाती है। उसके वेग से दिग्‍गज धराशायी हो जाते हैं। अभी बीते सप्‍ताह ऐसा एक अंधड़ गुजरात में आया, जिससे केन्‍द्र की धुरी की बहुत दुर्गति हुई।  रही सही कसर, बस में बलात्‍कार ने पूरी कर दी।

विचारों की उत्‍पत्ति जब हो रही होती है, तब नींद पास फटक नहीं सकती है। आप चाहे कितनी ही कोशिश करके देख लें। न नींद होगी, न नींद के विचार होंगे और मन जो सोने के बाद, उस तरह के सपनों में उछल कूद मचाता है, वह मन में ऐसे ऐसे अनूठे विचारों का वायस बनता है कि अचंभित रह जाना पड़ता है। मन में उछल-कूद मचाते विचारों को सहेजने के लिए मन का जागना बहुत जरूरी है। इन विचारों की मौत न हो, इसके लिए स्‍वप्‍न नहीं, नींद का न होना अनिवार्य शर्त है। आप रात में नींद आने तक जितना भी सोचते हैं, अगर उसे लिखकर नहीं रखेंगे तो बामुश्किल दो चार प्रतिशत भी याद रख पाएंगे, इसमें मुझे संदेह है। अपने तईं मुझे पूरा विश्‍वास है क्‍योंकि मैं न लिखूं तो सब भूल जाता हूं। बिसराने के इस जोखिम से बचने के लिए लिपिबद्ध कर लेना या ध्‍वनि रिकार्ड करना सर्वोत्‍तम माना गया है और इसके मनवांछित परिणाम देखे गए हैं।

जितनी भी कृतियों की रचना हुई है, वे सब रात के अंधेरे की दिव्‍य उपज हैं। चाहे वे प्रेमचंद की कहानियां हों, या ‘हार की जीत’ कहानी। चेतन भगत के उपन्‍यास उनकी रात की चेतना की जीवंत मिसाल हैं। आजकल महुआ माजी चर्चा में है, वे भी यह स्‍वीकार करती हैं कि रात में लिखने से, सृष्टि के रचने जैसी दिव्‍य अनुभूति का अहसास होता है। जबकि उनका लेखन संदेह के घेरे में घिर गया है, क्‍या मालूम इस वजह से अंधेरे के वजूद पर भी प्रश्‍नचिन्‍ह लग जाए। उन्‍होंने नहीं लिखा, उन्‍होंने तो सिर्फ पहले से रचे हुए को अपने तरीके से भुनाया है। इस भुनाने को बाजारवाद का प्रभाव कहा जाएगा। आप कितना ही अच्‍छा लिख लें किंतु उसे पाठकों तक न पहुंचा पाएं अथवा पाठकों तक तो पहुंचा दें परंतु विवाद न करवा पाएं, तो सब करा-धरी और लिखा-पढ़ी फिजूल है। बाजार की दिशा विवादों से तय होती है। विवाद वह कार है जो बाजार रूपी सड़क पर सर्राटे से सरपट दौड़ती है, विवाद रूपी कार की गति, कहो कैसी रही ?

4 टिप्‍पणियां:

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