फांसी का शून्‍यकाल टूट गया : दैनिक जनवाणी 12 फरवरी 2013 स्‍तंभ तीखी नजर में प्रकाशित



फांसी के हौसले इस कदर बुलंद हुए कि गरदनें बुरी तरह दहशतजदा हो गई हैं। वे सोच रही हैं कि सभी कारनामों को दिमाग ने अंजाम तक पहुंचाया था। समझावन लाल ने भी भरपूर समझाया था पर दिमाग की समझ में नहीं आना था, सो नहीं आया।  मामला गरदनों से रस्सियों की सौदेबाजी का सामने आया है। मीडिया ने अपनी आदत के मुताबिक इसे मिलीभगत का नाम दिया है, कोई सांठ गांठ बतला रहा है। मीडिया इसलिए मजबूर है क्‍योंकि इसी से टीआरपी में इजाफा होता है।  फांसी सुर्खियों में है जबकि रस्सियों के इतिहास खंगाले जा रहे हैं। किसी भी रस्‍सी को सुर्ख लाल नहीं पाया गया है। कातिल रस्सी है पर दोष जल्‍लाद के सिर मढ़ा गया है। वही सजाधारक के पैर छूता और माफी मांगता पाया गया है और रस्सियां किसी शातिर नेता के माफिक साफ बच निकलती हैं क्‍योंकि वे आरी की तरह गरदन नहीं कतरती हैं।
संगत का असर किस तरह दुर्गति करता है, दिखाई दे रहा है। इसी वजह से कहा गया है कि पुलिस की न दोस्‍ती भली और न दुश्‍मनी। वह किसी पर कभी भी अपने डंडों से कहर का जहर बरपा देती है। पुलिस मनी के लालच और डंडे की ताकत के वशीभूत हो अपने खुद के मन को बिसरा बैठी है। जिस पर बीतती नहीं है, वह क्‍यों याद करेगा। इसलिए सब चुप हैं। गलों को भय का ग्रहण लग गया है। गलों के बाहर रस्‍सी का डर इतना व्‍यापक असर डाल रहा है कि गले के भीतर खराश होनी लगी है और डर रिस रिस कर बाहर आ, सबको डरा रहा है। यह खिचखिच किसी गोली के चूसने से भी नहीं खींची जा सकी है। मौत के भय को यूं ही हल्‍के में लेकर भला आज तक कोई खारिज कर सका है। उपनामों और नामों में निडर, निर्भय, निर्भीक, बहादुर जैसी उपमाओं को जोड़कर भी खौफ का आलम मिटाए नहीं मिट रहा है।
रस्‍सी का इतिहास कुंए से भी अधिक पुराना है, बाल्‍टी से इसका पुराना याराना है। पहले पानी निकलाने के लिए रस्‍सी सहारा बनती रही है। रस्‍सी पर लटक कर बाल्‍टी कुंए में बेखौफ उतर जाती है और भरी बाल्‍टी से इंसान अपनी ताकत और बुद्धि के बल पर पानी पा लेता है, नाम बाल्‍टी का और उस पानी से इंसान नहा लेता है, पी लेता है, प्‍याऊ लगाकर परोपकार भी करता है। बाल्‍टी पर डर का महल नहीं बनता है, कुंए के पानी को भी कई बार लगता है डर कि कहीं बाल्‍टी गिर गई तो उसका सिर न फूट जाए। कुछ अधिक बुद्धिमान लोगों को खुदकुशी के लिए पानी में कूदते देखा गया है। ऐसे लोग पानी लाने के लिए कूदते हैं किंतु उन्‍हें कुंए से बाहर निकालने के लिए भी रस्‍सी ही संबल बनती है। होली के दिनों में कितने ही भंगेड़ी कुंए में भांग तलाशने के लिए उतर जाते हैं। वे कुंए में भांग को मुहावरा नहीं, सच्‍चाई मान लेते हैं। रस्‍सी की ताकत को इग्‍नोर करना न तब अच्‍छा था और न अब भला है। रस्‍सी का जबकि रेस में कोई योगदान नहीं रहता है पर रेप में वह कई बार रंगी हुई पकड़ी गई है। रस्‍सी की सरंचना और उसके गठन की अद्भुत कारीगरी की उपमा सिर्फ लकडि़यों के उस गट्ठर से दी जा सकती है,  जिनका गट्ठर बनाकर तोड़ना एक अकेले के बूते में नहीं होता। पानी जरूर पानी पानी कर देता है पर रस्‍सी कभी रस्‍सी रस्‍सी नहीं कर पाती है।
नेता लोगों आजकल अपने बयानों को गुनगुनाते हैं जबकि पब्लिक और मीडिया उन्‍हें भुनभुनाहट मानता है। यह आहट निराली होती है जबकि जब गरदनों में रस्‍सी का फंदा डाला जाता है तो न कोई आहट होती है और न तनिक सी सरसराहट सुनाई देती है। इसका अर्थ कानों के खराब होने अथवा कानों में दीवार होने से न लगाया जाए। यह माहौल की जरूरत को रेखांकित करने का अनोखा सरकारी अंकन है। फांसी से बचता सरकारी खर्चा है इसलिए रोज उसे ही दिए जाने की गर्मागर्म चर्चा है। 

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