बजट का रेड कार्पेट : जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' 5 मार्च 2013 अंक में प्रकाशित



बजट के हंगामे के बीच में महंगाई खूब खुश हो रही थी कि एकाएक मंगल से इंवीटेशन मिल गया है। मंगल, चांद, शुक्र से या बुध से मिला आमंत्रण आंखों को सपनीली कर देता है कि इस बार तो एलियन से मुलाकात हुई समझो। जिनसे अब तक फिल्‍मों में ही मिलते रहे हैं। फिल्‍में चाहें धूम मचाती रही होंवे धूम एक दो तीन कुछ भी हो सकती हैं पर एलियन सब एक जैसे ही होते होंगे, एलियन जो हैं। किसी धूम में उसे मुसीबतों से घिरा दिखला दो किंतु एलियन कभी मुसीबतों से घिरे हुए नहीं होते हैं बल्कि वे मुसीबतों के तारणहार होते है। मुसीबत चाहे महंगाई होमिलावटी हलवाई हो,बजट की रुसवाई हो या आम पब्लिक की रहनुमाई होइन सबसे मुक्ति दिला ही देता है एलियन। एलियन कपड़े नहीं पहनता, फिर भी वह लियोनी नहीं होता है और न ही धमाल मचाता है। एलियन चर्चा में रहता हैचर्चा ही उसके वस्‍त्र हैं। वह विवस्‍त्र होते हुए भी अशालीन नहीं है। उसे देखकर किसी के मन में उत्‍तेजना नहीं होती। यही एलियन की खूबी है। अपनी इसी खासियत की वजह वह सबको लुभाता है। जितना प्‍यार उसे बच्‍चे करते हैं,उतना ही किशोर, अधेड़ और बुजुर्ग करते हैं। सिर्फ जानवरों ने न उन्‍हें पहले देखा होता है और न उनकी कल्‍पना की होती हैइसलिए वे जरूर अप्रत्‍याशित बर्ताव करते हैं। पर यह व्‍यवहार वैसा नहीं होता जैसा लियोनी को देखकर या पूनम पांडे को देखकर खुद-ब-खुद हो जाता है।
बात मंगल की हो रही थी। दूसरे ग्रहों के सामने अपनी जमीन बौनी लगती है। जमीन तक हम अपने अपने बस्‍तों के साथ बसतेहैं। उसकी खूबियों और खामियों से परिचित होते हैं। इसलिए उससे होने वाले नफा नुकसानों को अच्‍छी तरह जानते हैं। मानवीय प्रकृति है कि वह सदा नफा और मुनाफा ही बटोरना चाहता है। खामी उसे रास नहीं आती हैउससे वह बचता है। जहां उसका बस चलता है वह खामी के भी लाभ बतलाकर उसे बहुत चालाकी से सामने वाले को सौंप देता है। मानव इसी लिए महान है कि वह खुद को इंसान समझता है, जबकि वह हैवानियत की खान है।  हैवान किसी को इंसान कैसे समझ सकता है, इसलिए वह भी नहीं समझता।
बजट यूं तो ऐसी ऋतु है जो एक नियत समय पर आती हैमहंगाई को खूब भाती है। आम पब्लिक को रुलाती है। पर नेता और सत्‍ताधारी उसके कारण शातिर हंसी हंस रहे होते हैं। उसी के बहाने पब्लिक को डसते हैं। उनके वोटों को अपनी कुर्सी के चारों ओर कसने के कसबंधन के लिए वे अपना धन भी न्‍यौछावर करने में परहेज नहीं करते हैं। बजट मौसम है या ऋतु है पर पब्लिक को नहीं भाती है। उसे तो मजबूरन उसे झेलना पड़ता है। वह इसके लिए अभिशप्‍त है। जबकि देश के लिए यह कमाई का मौका होता है। इस बहाने खजाने भरे जाते हैं। जबकि देखने में ऐसा लगता है कि सब धन उलीचा जा रहा है। उलीचा कम ही जाता है पर इस उलीचने से सत्‍ता में पहुंचने का लाल रंग का गलीचा बिछकर अपनी भव्‍यता में तैयार हो जाता है। उसी रेड कारपेट के जरिए सब कुछ अपने अपने खाते में उलीच लिया जाता है।

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