पीएम पद की मिठाई खाने की लालसा : दैनिक जनवाणी 26 फरवरी 2013 स्‍तंभ 'तीखी नज़र' में प्रकाशित


चोर पुलिस का खेल चल रहा है। एक बच्‍चे ने जिद की है कि वह तो पुलिस बनेगा। चोर बनकर तो अपनी सारी कलाबाजियां दिखला चुका है। अब उसे पुलिस बनकर भाग्‍य आजमाने दो। वह पुलिस बन जाता है और खूब कहर ढाता है। सारे चोर यानी चोर बने बच्‍चे बिखर जाते हैंखेल बंद हो जाता है। अब खेल के खेल में हालत यह हो गई है कि सब पुलिस ही बनना चाहते हैंचोर तलाशने से भी नहीं मिल रहे हैं। जबकि सारे चोर हैं और मुखौटों का वर्चस्‍व है।
पीएम की कुर्सी खाली नहीं हैकोई शख्‍स उस पर चुपचाप कब्‍जा जमाए बैठा है। वह मन में लड्डू फोड़ रहा है कि इस बार पीएम बनने का मौका एक जवान को दूंगा। जवान मन ही मन मान बैठा है कि वही भविष्‍य का पीएम बन सकता है। दूसरे काम करते हुए भी उसकी निगाहें कुर्सी पर हैं। वह कुर्सी पर बैठने के चक्‍कर में घोड़ी पर भी नहीं बैठ रहा है। कहीं इधर वह घोड़ी पर बैठाउधर कुर्सी पर कोई और बैठ गया तो घोड़ी पर बिना सवारी किए घूमने का आनंद लिया जा सकता है, पर एक बार कुर्सी न मिली तो सारा खेल बिखर जाएगा। वह कुर्सी को अपने लिए हकीकत मान आत्‍ममुग्‍ध है, उसकी आत्‍ममुग्‍धता परवान पर है।
चोर पुलिस का खेल नेपथ्‍य में पहुंच गया है। अब पीएम की कुर्सी के चारों ओर गहमागहमी मच चुकी है। जिनसे अपने घर की कुर्सियां भी छीन ली गई हैंवह भी घर से बाहर निकल आए हैं। वे सब चिल्‍ला रहे हैं,चीख पुकार मची हुई है। यह चीख पुकार आतंक की नहीं है। पर उनके पीएम बनते ही जरूर आतंक फैलेगा। पब्लिक इससे परिचित है पर वह मजबूर है .मजबूर पब्लिक मजदूर के माफिक है। वह उनके हित में अपने वोट को हिट करेगीइसे सब जानते हैं। बिना वोट के पीएम की कुर्सी पर बैठने की कवायद तेज है।
कुर्सी के खेल में कोई गोदी से उतर आता हैकोई अपनी माया दिखलाता हैकोई यूं ही डींगें हांक रहा है,मतलब सब एक कुर्सी को अपनी पूरी ताकत से अपनी ओर खींचने में जुट गए हैं। देश यह देखने में इतना बिजी हो गया है कि देश के शरीर में कहीं पीड़ा हो रही हैपीड़ा उन जख्‍मों में है जो उसे अभी ताजा-ताजा लगे हैं। जख्‍म मौसमी हैं पर उनके लिए बजट तैयार किया जा रहा है। इस बीच नींद आनी स्‍वाभाविक है। माया से अभिभूत एक नेत्री नींद में है। दिन में सोते हुए सपनों में निमग्‍न हैं। नींद में वह बड़बड़ा भी रही है। उनका बड़बड़ाना लालकिले पर पीएम के भाषण के माफिक है। नींद में दिए गए भाषण और उसकी नींद पूरी तरह से सुर्खियों में है। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्ड्स वाले इस घटना को शामिल करने की औपचारिकताएं पूरी कर रहे हैं। यह देख समझकर वे खूब खुश हैंदेश भी खुश हैउनके मातहत भी खुश हैं। चारों ओर से खुशी फूट-फूट कर रिसायमान है।
कोई नहीं चाह रहा है कि यह मायावी तिलिस्‍म टूटे। इसे सपनों की पीएम बने रहने दो। सपनों में ही लालकिले पर भाषण करने दो। उधर कोई पीएम की गोदी में उचककर बैठने को आतुर है। कयास लग रहे हैं कि पीएम तो वही बनेंगे पर पीएम की कुर्सी पहले खाली तो हो !
पीएम न बनने के दुख पर सब चुप हैंकोई दुखी नहीं होना चाहता। पीएम बनने के सुख सबकी आंखों में स्‍वप्‍न की चमक को निखार रहे हैं। इस कुर्सी को हथियाने के लिए न जाने कितना सहना पड़ता हैसहकर भी चुप रहना पड़ता हैपर पीएम बनने की भूख है कि मिटती नहीं । पीएम का पद पकवान सरीखा है जबकि यह वह जलेबी नहीं है जो सीधी हो। सीधी जलेबियां राजनीति में तो मिलती नहीं हैं। सब खीर खाना चाहते हैंएक साथ टूट भी पड़ते हैं पर जिस बरतन पर वे एक साथ भूखों की तरह लारातुर हैंवह रसमलाई है। खीर पर एक चौकस बिल्‍ली की नजर हैवह उसे अपने जवान होते बच्‍चे को खिलाएगी। उसने सारे जोड़-तोड़ और जुगाड़ बिठा लिए हैं।

दिलसुख नगरवासी दुखी हैं : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 26 फरवरी 2013 स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित


आतंक की चर्चा होते ही इंसानियत के दुश्‍मनों का जिक्र शुरू हो जाता हैउन्‍हें शून्‍य ही सहीअंक देने की प्रक्रिया गति पकड़ लेती है। जबकि आतंक सिर्फ इंसानियत के दुश्‍मन ही बरपाते होऐसा भी नहीं है। इस बार मौसम खूब आतंकित कर रहा है मौसम ने पिछली बार भी बारिश के बाद आसमान से बेहिसाब पानी बहाकर खूब अठखेलियां की थीं। पर इस बार उसने अपनी सभी सीमाएं तोड़ दी हैं। एक नटखट बच्‍चे की तरह कहता है कि अब शरारत नहीं करूंगा और नजर हटते ही दोबारा से अपनी अठखेलियों का नजारा दिखला देता है। मौसम इस बार छोटा बच्‍चा हो गया है और कहता फिर रहा है दिल तो बच्‍चा है जी। पर क्‍या करें जब बच्‍चा ही अपनी हरकतों से रुलाना शुरू कर दे।  
मौसम का जायजा लेने वाला विभाग अब इतना होशियार हो गया है कि उसे मौसम की शरारतों का सटीक भविष्‍यबोध हो चला है। वह  बतला देता है कि दोबारा से ठंड आने वाली है। ठंड आए इसके लिए बरसात और कड़ाके की सर्दी जरूरी है और  आप सोचते रह जाते हैं लेकिन बाहर ओले गिरने-पड़ने लगते हैं। बजट सताने को बेचैन है। बजट की असरदार चिंगारियां गाहे-बगाहे  बरस भर चमकती रहती हैं। वह बात दीगर है कि लुभावनी अदा पब्लिक को नहींसौदेबाजों को भाती है। पैट्रोल की कीमतें बढ़ती हैं तो पंप मालिक खुश हो लेते हैं। सब्जियों के रेट चढ़ते हैं तो लोकल रेहड़ी वाले सब्‍जी विक्रेताओं की चांदी हो जाती है। प्‍याजआलूटमाटर और तो और लौकीसीताफल वगैरह भी अपनी रेटबाजियां दिखलाने से बाज नहीं आते हैं। सब्जियां, सब्जियां ही रहती हैं पर खरीदार गृहणियों के हाथों से तोते उड़ जाते हैं। उन तोतों को चौकस बाज झपट लेते हैं। माना आप सरकस नहीं देख रहे हैं पर आपकी भूमिका सरकस के जोकर की मानिंद है।
मौसम का आतंकबजट का आतंकपैदल चलने में भी डरघर से बाहर निकलने और घर में छिपे रहने में भी डर, इसे ही आतंक कहते हैं। आतंकवादियों को फांसी दे सकते होदे भी रहे होएक कसाब को निपटा दियादूसरे अफजल की गर्दन लुढ़का दी। पर पब्लिक जानना चाह रही है कि कीमतों की गर्दन किस दिन काटी जाएगी। बिजलीपानी की कीमतों से मंत्रियों ने अपने निजी रिश्‍ते जोड़ लिए हैं। उनमें गिरावट आएगी या नहीं, यह दूर की रिश्‍तेदारी पब्लिक को आतंकित कर रही है।
जब इतने सारे आतंक हों तो इनसे कैसे बचना मुमकिन है, बिजली के करंट से बचना चाहते हैं तो बिजली चली जाती है। पानी के रेट से डर लगता है तो नलकों में पानी की जगह हवा बहनी बंद हो जाती है। सब्जियां,दालेंइंधनटैक्‍स सब अपनी-अपनी तेज धारदार तलवारें लेकर कूद पड़े हैं। क्‍या कहा तलवारें दिखलाई नहीं दे रही हैंयही तो बजट और मौसम के आतंक का तिलिस्‍म है। दिखाई कुछ नहीं देता बल्कि यूं कहें कि दिखलाई देना बंद हो जाता है और गरदनें कटनी शुरू हो जाती हैं। इस बंद से प्रेरित होकर श्रमिक के हितों की पैरवी करने वाले नगरशहरराज्‍य और देश को बंद कर देते हैं। ताले तो नहीं लगातेपर जड़ देते हैंलड़ लेते हैं। भारत बंद की जड़ताबजट की धारमौसम की मारफूटते बम, सबका दम निकालने में जुट गए हैं. नगर का नाम चाहे दिलखुश होपर अब इन सबसे दिल दुखता है। 

आज ओपन है बंद : दैनिक ट्रिब्‍यून 22 फरवरी 2013 स्‍तंभ 'गागर में सागर' में प्रकाशित



आज मोहब्‍बत बंद है’ गीत फिजा में गूंज रहा है जबकि भारत बंद है’ जब भारत बंद होगा तो मोहब्‍बत पर तो अपने आप ही लॉक लग जाएगा। पहले चार अक्षर उस लोकप्रिय फिल्‍मी गीत के नामजिसने मोहब्‍बत को बंद बतला कर एक जमाने में मोहब्‍बत करने वालों के कलेजे में तूफान मचा दिया थावैसे ही जैसे अंधड़ आता है। उसी गीत का सकारात्‍मक संदेश यह है कि मोहब्‍बत तो बंद हो सकती है लेकिन हिंसारक्‍तपातखून खराबामारपीटी नहीं शुरू होनी चाहिए। इसके विपरीत भारत बंद और उधर हिंसा का नंगा नाच ओपन हो चुका है। वैसे सच्‍चाई यह है कि धरती का आधार प्रेम है। प्रेम से ताकतवर कुछ नहीं है। प्रेम के बिना झगड़े भी नहीं है। किसी से प्रेम होगा तो किसी से उसी प्रेम के लिए झगड़ा भी होगा। यही इस सृष्टि का सनातन सत्‍य है। लोकतंत्र में मत शक्तिस्‍वरूपा है।
भारत बंद बुराईयों को हटाने के लिए प्रेम का शक्ति प्रदर्शन है। बुराईयां जिन्‍हें सत्‍ता वाले अच्‍छाईयां मानते हैं और बे-सत्‍ता वाले ? विरोध करने का एक तरीका भारत बंद करने का चला आ रहा है। महात्‍मा गांधी जी ने अनशन का रास्‍ता अपनाया। बे-सत्‍ता वालों ने भारत बंद का। लेकिन मेरी समझ में अब तक यह समझ नहीं आया कि भारत बंद’ कहां पर किया जाता है। इसके लिए किसी भारत घर की व्‍यवस्‍था नहीं है। काले धन की तरह इसे किसी विदेशी भूमि पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है। चिडि़याघर काफी लंबे चौड़े होते हैं लेकिन उसमें से चिडि़यों को बाहर निकालेंतब भारत को बंद करने की सोचें। परंतु चिडि़याएं कौओं के लिए अपना घर खाली करने से रहीं और अपने साथ तो वे उन्‍हें रखेंगी नहीं। और उस छोटे से चिडि़याघर में भारत को कैसे बंद कर पाएंगे। माना कि भारत दुकानों में बसता हैबसों में टहलता हैऑटो और टैक्सियों में सफर करता है,रिक्‍शे पर सवारी करता हैकिसी को पैदल भी नहीं निकलने देंगे और खुद भाईगिरी करते छुट्टे घूमेंगे। गाय की तरह तो घूमने से रहेसांड की तरह ही घूमेंगे। सोचते हैं कि उनकी इस बहादुरी से सत्‍ता उनके सामने घुटने टेक देगी जबकि सत्‍ता यानी सरकार के घुटने कभी अपने नहीं हुएवह तो सदा इसके उसके तेरे या मेरे घुटनों का इस्‍तेमाल करती है।
भारतभारत न हुआ कोई गुनहगार हो गया। इसे तुरंत बंद कर दो। पेट्रोल के रेट कैसे बढ़ाएसीएनजी के रेट क्‍यों बढ़ाएकीमतों को बंद नहीं करके रखा इसलिए भारत को तो बंद होना ही होगा। भारत बंद होगा तो रेट खुल जाएंगेयह नहीं समझ रहे कि खुलते ही रेट और ऊपर चढ़ जाएंगे। फिर किसे किसे बंद करवाएंगे। भारत क्‍या हैअगर संसद भारत हैनेता भारत है तो क्‍या उन्‍हें बंद करना इतना आसान है। बंद करना है तो पुलिस के अत्‍याचारों को करोब्‍यूरोक्रेसी में भ्रष्‍टाचार फैलाने वालों को काबू करोअच्‍छाइयों के दुश्‍मनों को करो। नेताओं की बकवास को बंद कर नहीं पा रहे हो और भारत बंद करने के ठेके उठा रहे हो।
सचमुच में बंद करने का इतना ही मन है तो कन्‍या भ्रूण हत्‍या को करोप्रसव पूर्व लिंग जांच को करोमिलावटी दवाईयों को रोकोअपनी बंद करने की ताकत को इनके खिलाफ झोंको। क्‍या आप नहीं जानते कि एक चूहे को चूहेदानी में बंद करने के लिए भी कितनी मशक्‍कत करनी होती हैबिना यह जाने चल दिए हैं कि पूरा भारत बंद करेंगे। पहले एक चूहा तो चूहेदानी में बंद करने का जौहर दिखलाओ। भारत बंद करने का आशय देश की सक्रियता को किडनैप करके देश को नुकसान पहुंचाने से है जबकि देश का अपहरण तो पहले से ही नेताओं ने निजी लाभ के लिए कर रखा है और उसके लिए घोटालेघपलों में पूरी मुस्‍तैदी से बेखौफ होकर जुटे रहते हैं। मैं तो नहीं चाहता कि बंद रूपी ग्रहण का वायरस  मोहब्‍बत या भारत को लगेआप क्‍या महसूस कर रहे हैं ?

हेलीकॉप्‍टर घोटालुओं को पद्म पुरस्‍कार : जनवाणी दैनिक में 19 फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित


होशियारी का हेलीकॉप्‍टर : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 19 फरवरी 2013 के 'उलटबांसी' में प्रकाशित



होशियारी का हेलीकाप्‍टर क्रैश हो गया है।  हैश्‍के, हेलीकाप्‍टर और हार्ड डिस्‍क क्रम कोई भी रहे पर इस त्रिवेणी के संगम ने गमसंग कर दिया है। गमसंग करना ही हेलीकाप्‍टर सौदे की उलटबांसी है। पानी के महाकुंभ की अनहोनी सब जानते हैं। हेलीकाप्‍टर के मामले में करोड़ों की दलाली से घोटाले के हवाईकुंभीय तेवर सामने आए हैं। इस मामले को यूं तो दबाने की कोशिशें की जा रही हैं पर इंधन अभी बाकी है इसलिए हेलीकाप्‍टर की उड़ान रोकी नहीं जा सकी है। धन समेटने के फेर में इंधन पूरी तरह खर्च न हो पाना, इस सौदे की बुराई बनकर सामने है। सामान्‍यत: कंप्‍यूटर की हार्ड डिस्‍क यूं तो फाइलें चट से हजम कर लेती है पर इस मामले में उसका पेट खराब होने से लक्‍कड़ पत्‍थर हजम नहीं हो पाया। उन्‍हीं पत्‍थरों से अब हैश्‍के और उसके साथियों की हजामत बन रही है।
हेलीकाप्‍टर चिंतित नहीं है और न चिंतित है हार्ड डिस्‍क। जो चिंता और चिंतन में जुटे हैं उन्‍हें सब जानते पहचानते हैं, जो नहीं पहचाने गए हैं, उन्‍हें पहचानने की प्रक्रिया जोरों पर है। आखिर मामला 360 करोड़ रुपये से अधिक धन की दलाली का है। इससे देश के तेजी से हो रहे विकास की झलक मिलती है। दो, चार या दस करोड़ के घोटाले सुनकर गर्वित होने के दिन बीते रे भैया, अब हेलीकाप्‍टर युग आयो रे।
विकास की धीमी रफ्तार से जो शर्मिन्‍दा रहे हों, उनक लिए अब गर्व करने का समय है। ‘बवाले हेलीकाप्‍टर उबाले घोटाला’ बनकर सामने है। ‘ह’ अक्षर का रुतबा ही तो है कि जिसकी वजह से  नई त्रिवेणी हैश्‍के, हेलीकाप्‍टर और हार्ड डिस्‍क चर्चा में बने हैं। सारी सुर्खियां सिर्फ कंप्‍यूटर के खाते में ही क्‍यों जाएं, इसलिए हार्ड डिस्‍क ने मिटाए गए राज उगलने की घोषणा कर दी है।  
ह अक्षर से हंसने वाले दिन अब बीत गए हैं। अ से अनार और आ से आम भी अब न तो चर्चा में हैं और न स्‍कूलों में पढ़ाए जा रहे हैं। नई वर्णमाला और पढ़ाई का ककहरा विकसित हो रहा है। नर्सरी में दाखिले के जितने पेचोखम हैं, सब आजमाए जा रहे हैं। कल्‍पना की जा सकती है कि निकट भविष्‍य में घोटाले पाठ्यक्रम का महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा बनेंगे और जिनमें उत्‍तीर्ण होना सफलता का एक नया मानदंड बनेगा। अ से अमिताभ और आ से आलू .... जो भी कुछ भी वर्णमाला में जोड़ लो पर खुश रहने के लिए ह से हंसना जीवन में बचा रहने दो द वाले दलालों। ह से हथियार, ह से हाहाकार, ह से होनोलुलू और ह से हिम्‍मत नहीं ... अब ह की ताजा जुगत सुर्खियों में छाई है, यूं ही तो नहीं बेवजह बारिश आई है। किसी के रोने की कीमत पर हंसना बंद करो जालिमों, माना कि नशेमन पर तुम्‍हारा ही कब्‍जा है। पर यह मत भूलो कि चतुराई से चहकने वालों के दिन लद गए हैं। ह से हुलसो मत, हंसना जीवन में बहुत जरूरी है। संभल जाओ कि ह वाला हाथ अब कमजोर पड़ रहा है। पब्लिक की मजबूती के दिनों ने फिर से पंख खोल लिए हैं, उनकी उड़ान कुलांचे भरने वाली है। आ रही जो होली है, उसे मत समझो कि दीवाली है।

कलियों ने घूंघट खोले ... : दैनिक हिंदी मिलाप में 19 फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित


रोज-ब-रोज दाल गल रही है : श्रीटाइम्‍स दैनिक के 'परजातंतर' स्‍तंभ में 15 फरवरी 2013 के अंक में प्रकाशित


प्‍यार का मौसम : दैनिक जागरण 15 फरवरी 2013 स्‍तंभ 'फिर' से' में प्रकाशित

फेसबुक पर फांसी से संवाद : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 12 फरवरी 2013 के स्‍तंभ उलटबांसी में प्रकाशित



मुन्‍नाभाई : फांसी महारानी आज तो खूब खुश हो।
फांसी : खुशी की ही बात है कि आतंकवादियों को निपटाने में मेरी भूमिका निरंतर काम आ रही है।
मुन्‍नाभाई : लेकिन किसी का जीवन लेना,  ईश्‍वर के काम में इंसान का सीधा दखल है।
फांसी : दखल है पर इस दखल की शुरूआत आतंकवादियों ने ही की है।
मुन्‍नाभाई : जरूरी नहीं है कि बुराई मिटाने के नाम पर बुरे इंसान को ही मिटा दिया जाए, उसे सुधारने की कोशिश की जा सकती है।
फांसी : अनेक बार बुरे इंसान को मिटाना बहुत जरूरी इसलिए हो जाता है क्‍योंकि इससे कम पर समझौता करने से अवाम में गलत और सरकार के ढीला होने का संदेश जाता है।
मुन्‍नाभाई : फिर भी प्राणिमात्र का जीवन छीनना सर्वसम्‍मति से स्‍वीकार्य क्‍यों नहीं है ?
फांसी : इसका कारण प्रत्‍येक प्राणि के जीवन के प्रति भारतीय संस्‍कृति का अनुराग भाव है।
मुन्‍नाभाई : लेकिन रस्‍सी की सक्रिय भूमिका का अलग से जिक्र न किया जाना ?  
फांसी : सबको मिलकर ही मेरा रूप निखरता है, यह टीमभावना है।
मुन्‍नाभाई : पर फांसी देकर मारने में तड़पाने के निहितार्थ छिपे हैं ?
फांसी : गोली से मरने में ऐसा मजा कहां ?
मुन्‍नाभाई : मरने में भी भला किसी को मजा आया है ?
फांसी : यह किसी मरने वाले से पूछो तो जानो।
मुन्‍नाभाई : मतलब मरने में भी मजा, यह तो ...
फांसी : तड़पने वाला तो मरने में मजा पाता है इसलिए सरकार इस पर रोक लगाती
है।
मुन्‍नाभाई : सरकार क्‍यों नहीं चाहती कि पब्लिक किसी भी तरह का मजा लूटे ?
फांसी : अगर सरकार ऐसा चाहती होती तो सबसे पहले महंगाई और भ्रष्‍टाचार की गरदन रस्‍सी से जकड़ती। पर मजे पर सरकार का एकाधिकार बना रहेगा।
मुन्‍नाभाई : सरकार चाहती तो बहुत है पर उसकी कोशिशें चुनाव के आसपास ही दिखाई देती हैं।
फांसी : वह सरकार के हाथी वाले वे दांत हैं जो दिखलाने के लिए होते हैं।
मुन्‍नाभाई: मतलब तुम यह कहना चाह रही हो कि यह सब वोट लूटने के हथकंडे हैं।
फांसी : तुम सही समझे मुन्‍ना, वरना तुम्‍हें समझाने को मुझे सर पड़ता धुन्‍ना,  पर फिर भी न समझा पाती।।
मुन्‍नाभाई: अन्‍ना को तो तुमने नहीं समझाया फिर उन्‍हें कैसे समझ आया कि लोक के साथ साथ उन्‍हें भी पागल ...   ?
फांसी : अपनी हद में रहो मुन्‍ना।
मुन्‍नाभाई: कैसी हद ?
फांसी : सुनो मुन्‍ना, अन्‍ना की नीयत तो बिल्‍कुल साफ थी।
मुन्‍नाभाई : फिर ?
फांसी : फिर क्‍या, उसे तो बहकाया गया, बरगलाया गया।
मुन्‍नाभाई : फिर वह अपनों के खिलाफ ही बोलने लगा।
फांसी :  और गन्‍ने की मिठास जाती रही।
मुन्‍नाभाई : सारा जमाना कड़वाहट से भर गया।
फांसी : और अब भी कड़वाहट मन में बसी हुई है। सरकार अपने षडयंत्र में सफल हो गई।  इसलिए आज मेरी स्‍वीकार्यता बढ़ती जा रही है। जबकि मुझ महारानी से गले मिलने के लिए कोई तैयार नहीं है। क्‍योंकि उन्‍हें उम्‍मीद है कि किसी राष्‍ट्रीय अवकाश के लिए दिन उन्‍हें भी छुट्टी मिल जाएगी और वे उम्र की कैद से बाहर आ सकेंगे।

तभी यकायक लाइट गई और फेसबुक पर फांसी से हो रही बात टूट गई।

गरीबी की पहचान : आई नेक्‍स्‍ट 12 फरवरी 2013 स्‍तंभ खूब कही में प्रकाशित


गरीब की नई परिभाषा योजना आयोग की एक विशेषज्ञ समिति के बतलाने के बाद से देशभर में गरीब होने के लिए होड़ मच गई है। नतीजा, अब लोग करोड़पति नहीं, गरीब होने के लिए बेताब हैं। आज गरीब वह है जिसका नाम ‘गरीब’ है, किंतु गरीबदास, गरीब नहीं है। अमीर होने के खूब सारे दुख हैं, गरीब होने के इस भारत देश में तमाम सुख हैं। गरीब का दास, गरीब नहीं, गारंटिड अमीर है। अमीरदास गरीब हो सकता है। पर गरीब का दास गरीब ही रहेगा।

गरीबी में पहले शून्‍य की भरमार हुआ करती थी, जिससे उसे चीन्‍हने में बहुत आसानी होती थी।  गरीब कौन है, यह बहस इतनी जोरों पर है, जिसके मुकाबले पीएम की कुर्सी पर कब्‍जाने की होड़ धीमी पड़ गई है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि जो इंकम टैक्‍स नहीं चुका पा रहा है या चुकाने से बचने की जुगत में लगा रहता है, वह गरीब मान लिया गया है। जो दाल रोटी नहीं जुगाड़ पा रहा, गरीब वह नहीं, बल्कि वह है जो पिज्‍जा, बर्गर, हॉट डॉग नहीं खा रहा है। सब गरीब होना चाहते हैं, गरीब को ही बिना रुपये खर्च किए चूल्‍हा और गैस सिलैंडर सरकार बांट रही है। बांटने वालों ने लाइन लगा रखी है जबकि लेने वाले नदारद हैं।

मोबाइल होना अमीरी की पहचान है किंतु मिस काल करना गरीबी की नई पहचान है। गरीबी नियोजित और सुनियोजित होने लगी है। जिसकी गरीबी प्रायोजित हो जाती है, वह समझ लेता है कि अब वह असली गरीब हो गया है। गरीबी एक महिला है, वह महिला होते हुए भी सुरक्षित नहीं है। बस में बैठकर भी वह असुरक्षित इसलिए है क्‍योंकि बस में पुरुष है।

आपके पड़ोसी के पास एसी, कार, वाशिंग मशीन, फ्रिज है तो आप अमीर हैं। अमीर के पड़ोस में अमीर ही रह सकता है, गरीब कैसे रहेगा। जबकि देश में डेमोक्रेसी है, इस क्रेसी के जितने डेमो हैं, सब क्रेजी हो गए हैं, यह संगत का ताजा असर है।  देश के सभी हाईवे रोड खूब अमीर हैं, उन पर कार, ट्रक, बस दौड़ते हैं और सारे टैक्‍स चुकाते  हैं।  सारा टैक्‍स सड़क के बैंक एकाउंट में जमा होता है जिसका थोड़ा अंश वसूलने वाले अपनी जेबों में भी डाल लेते हैं। इससे खास फर्क सरकारी महकमों को नहीं पड़ता।

फांसी का शून्‍यकाल टूट गया : दैनिक जनवाणी 12 फरवरी 2013 स्‍तंभ तीखी नजर में प्रकाशित



फांसी के हौसले इस कदर बुलंद हुए कि गरदनें बुरी तरह दहशतजदा हो गई हैं। वे सोच रही हैं कि सभी कारनामों को दिमाग ने अंजाम तक पहुंचाया था। समझावन लाल ने भी भरपूर समझाया था पर दिमाग की समझ में नहीं आना था, सो नहीं आया।  मामला गरदनों से रस्सियों की सौदेबाजी का सामने आया है। मीडिया ने अपनी आदत के मुताबिक इसे मिलीभगत का नाम दिया है, कोई सांठ गांठ बतला रहा है। मीडिया इसलिए मजबूर है क्‍योंकि इसी से टीआरपी में इजाफा होता है।  फांसी सुर्खियों में है जबकि रस्सियों के इतिहास खंगाले जा रहे हैं। किसी भी रस्‍सी को सुर्ख लाल नहीं पाया गया है। कातिल रस्सी है पर दोष जल्‍लाद के सिर मढ़ा गया है। वही सजाधारक के पैर छूता और माफी मांगता पाया गया है और रस्सियां किसी शातिर नेता के माफिक साफ बच निकलती हैं क्‍योंकि वे आरी की तरह गरदन नहीं कतरती हैं।
संगत का असर किस तरह दुर्गति करता है, दिखाई दे रहा है। इसी वजह से कहा गया है कि पुलिस की न दोस्‍ती भली और न दुश्‍मनी। वह किसी पर कभी भी अपने डंडों से कहर का जहर बरपा देती है। पुलिस मनी के लालच और डंडे की ताकत के वशीभूत हो अपने खुद के मन को बिसरा बैठी है। जिस पर बीतती नहीं है, वह क्‍यों याद करेगा। इसलिए सब चुप हैं। गलों को भय का ग्रहण लग गया है। गलों के बाहर रस्‍सी का डर इतना व्‍यापक असर डाल रहा है कि गले के भीतर खराश होनी लगी है और डर रिस रिस कर बाहर आ, सबको डरा रहा है। यह खिचखिच किसी गोली के चूसने से भी नहीं खींची जा सकी है। मौत के भय को यूं ही हल्‍के में लेकर भला आज तक कोई खारिज कर सका है। उपनामों और नामों में निडर, निर्भय, निर्भीक, बहादुर जैसी उपमाओं को जोड़कर भी खौफ का आलम मिटाए नहीं मिट रहा है।
रस्‍सी का इतिहास कुंए से भी अधिक पुराना है, बाल्‍टी से इसका पुराना याराना है। पहले पानी निकलाने के लिए रस्‍सी सहारा बनती रही है। रस्‍सी पर लटक कर बाल्‍टी कुंए में बेखौफ उतर जाती है और भरी बाल्‍टी से इंसान अपनी ताकत और बुद्धि के बल पर पानी पा लेता है, नाम बाल्‍टी का और उस पानी से इंसान नहा लेता है, पी लेता है, प्‍याऊ लगाकर परोपकार भी करता है। बाल्‍टी पर डर का महल नहीं बनता है, कुंए के पानी को भी कई बार लगता है डर कि कहीं बाल्‍टी गिर गई तो उसका सिर न फूट जाए। कुछ अधिक बुद्धिमान लोगों को खुदकुशी के लिए पानी में कूदते देखा गया है। ऐसे लोग पानी लाने के लिए कूदते हैं किंतु उन्‍हें कुंए से बाहर निकालने के लिए भी रस्‍सी ही संबल बनती है। होली के दिनों में कितने ही भंगेड़ी कुंए में भांग तलाशने के लिए उतर जाते हैं। वे कुंए में भांग को मुहावरा नहीं, सच्‍चाई मान लेते हैं। रस्‍सी की ताकत को इग्‍नोर करना न तब अच्‍छा था और न अब भला है। रस्‍सी का जबकि रेस में कोई योगदान नहीं रहता है पर रेप में वह कई बार रंगी हुई पकड़ी गई है। रस्‍सी की सरंचना और उसके गठन की अद्भुत कारीगरी की उपमा सिर्फ लकडि़यों के उस गट्ठर से दी जा सकती है,  जिनका गट्ठर बनाकर तोड़ना एक अकेले के बूते में नहीं होता। पानी जरूर पानी पानी कर देता है पर रस्‍सी कभी रस्‍सी रस्‍सी नहीं कर पाती है।
नेता लोगों आजकल अपने बयानों को गुनगुनाते हैं जबकि पब्लिक और मीडिया उन्‍हें भुनभुनाहट मानता है। यह आहट निराली होती है जबकि जब गरदनों में रस्‍सी का फंदा डाला जाता है तो न कोई आहट होती है और न तनिक सी सरसराहट सुनाई देती है। इसका अर्थ कानों के खराब होने अथवा कानों में दीवार होने से न लगाया जाए। यह माहौल की जरूरत को रेखांकित करने का अनोखा सरकारी अंकन है। फांसी से बचता सरकारी खर्चा है इसलिए रोज उसे ही दिए जाने की गर्मागर्म चर्चा है। 

गरीबी की पहचान : डीएलए दैनिक में 11 फरवरी 2013 में प्रकाशित



गरीब की नई परिभाषा योजना आयोग की एक विशेषज्ञ समिति के बतलाने के बाद से देशभर में गरीब होने के लिए होड़ मच गई है। नतीजा, अब लोग करोड़पति नहीं, गरीब होने के लिए बेताब हैं। आज गरीब वह है जिसका नाम ‘गरीब’ है, किंतु गरीबदास, गरीब नहीं है। अमीर होने के खूब सारे दुख हैं, गरीब होने के इस भारत देश में तमाम सुख हैं। गरीब का दास, गरीब नहीं, गारंटिड अमीर है। अमीरदास गरीब हो सकता है। पर गरीब का दास गरीब ही रहेगा।

गरीबी में पहले शून्‍य की भरमार हुआ करती थी, जिससे उसे चीन्‍हने में बहुत आसानी होती थी।  गरीब कौन है, यह बहस इतनी जोरों पर है, जिसके मुकाबले पीएम की कुर्सी पर कब्‍जाने की होड़ धीमी पड़ गई है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि जो इंकम टैक्‍स नहीं चुका पा रहा है या चुकाने से बचने की जुगत में लगा रहता है, वह गरीब मान लिया गया है। जो दाल रोटी नहीं जुगाड़ पा रहा, गरीब वह नहीं, बल्कि वह है जो पिज्‍जा, बर्गर, हॉट डॉग नहीं खा रहा है। सब गरीब होना चाहते हैं, गरीब को ही बिना रुपये खर्च किए चूल्‍हा और गैस सिलैंडर सरकार बांट रही है। बांटने वालों ने लाइन लगा रखी है जबकि लेने वाले नदारद हैं।

मोबाइल होना अमीरी की पहचान है किंतु मिस काल करना गरीबी की नई पहचान है। गरीबी नियोजित और सुनियोजित होने लगी है। जिसकी गरीबी प्रायोजित हो जाती है, वह समझ लेता है कि अब वह असली गरीब हो गया है। गरीबी एक महिला है, वह महिला होते हुए भी सुरक्षित नहीं है। बस में बैठकर भी वह असुरक्षित इसलिए है क्‍योंकि बस में पुरुष है।

आपके पड़ोसी के पास एसी, कार, वाशिंग मशीन, फ्रिज है तो आप अमीर हैं। अमीर के पड़ोस में अमीर ही रह सकता है, गरीब कैसे रहेगा। जबकि देश में डेमोक्रेसी है, इस क्रेसी के जितने डेमो हैं, सब क्रेजी हो गए हैं, यह संगत का ताजा असर है।  देश के सभी हाईवे रोड खूब अमीर हैं, उन पर कार, ट्रक, बस दौड़ते हैं और सारे टैक्‍स चुकाते  हैं।  सारा टैक्‍स सड़क के बैंक एकाउंट में जमा होता है जिसका थोड़ा अंश वसूलने वाले अपनी जेबों में भी डाल लेते हैं। इससे खास फर्क सरकारी महकमों को नहीं पड़ता।

योजना आयोग की इस विशेषज्ञ समिति ने भिखारियों, कबाडि़यों, माली, स्‍वीपर और मजदूरों को भी गरीब माना है। इससे सड़कों पर भिखारियों, कालोनियों में कबाडि़यों, पार्कों में मालियों और सड़कों पर सफाईकर्मियों की संख्‍या में रिकार्ड तेजी आई है, इस तेजी को गिन्‍नीज बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्ड में शामिल करवाने की कवायद चल रही है। हाथ से कपड़े धोने वाला, मोबाइल फोन में बेलेंस नहीं है, इसलिए चिल्‍लाकर बात करने वाला गरीब है। जो देश की संसद के दर्शन नहीं कर पा रहा है, वह भी गरीब है। यह जानकर संसद के पास इकट्ठी भीड़ एकदम से छंट गई है, आंसू गैस भी नहीं छोड़नी पड़ी है, पुलिस भी डंडे चलाकर बदनाम होने से बच गई है।

सूने समय में व्यंग्य के नए तेवर : दैनिक राष्‍ट्रीय सहारा में आलोक पुराणिक की कलम से 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' की पुस्‍तक समीक्षा



व्यंग्य पर विलाप सुदीर्घ हो चला है। व्यंग्य उनके साथ खत्म हो गया, या इनके साथ खत्म होने वाला है, यह विमर्श लगातार चल रहा है। बल्कि अब तो इस विमर्श में यह उद्दंडता आ गयी है कि कुछ खलीफा टाइप के व्यंग्यकार खुद ही यह कहते पाये जाते हैं कि हमारे बाद व्यंग्य का क्या होगा! उनसे यह पूछने का मन होता है कि प्रभो आपके रहते ही व्यंग्य का क्या हो रहा है। आपके बावजूद व्यंग्य चले जा रहा है, तो इससे व्यंग्य के पर्याप्त बेशर्म और सामक्थ्‍र्यवान होने के संकेत मिलते हैं। व्यंग्य खत्म हो चुका है उन पुरानी पत्रिकाओं के साथ, जो समय के साथ नहीं चल पाने की वजह से काल कवलित हो गयीं- इस आशय की घोषणाएं नियमित अंतराल पर हो रही हैं। आउटडेटेड हो चुकी पत्रिकाएं खत्म हो गयीं, यह शोक का विषय नहीं है। नयी स्थितियों के हिसाब से जो माध्यम खुद को नहीं बदल रहे हैं, उनको मरने से कोई नहीं रोक सकता। संक्षेप में पत्रिकाओं के लंबे-लंबे व्यंग्य लेखों, व्यंग्य कहानियों के दौर लगभग खत्म हुए। अब के व्यंग्यकार के पास मोटे तौर पर विकल्प हैं कि या तो वह अत्यंत जुगाड़ू और लगभग गिरोहबंदी से चलने वाली बहुत ही कम सरकुलेशन वाली पत्रिकाओं के अत्यल्प सीमित संकुचित पाठकवर्ग के लिए लिखकर खुद को पंजीकृत व्यंग्यकार मानता रहे या दूसरा विकल्प यह है कि पुस्तक प्रकाशकों से निवेदन कर-करके किताबें छपवा ले, जिनके लिए प्रकाशक तमाम तरह की खरीद योजनाओं में ग्राहक तो तलाश सकता है, पर पाठक तलाशना उसकी व्यावसायिक मजबूरी नहीं है। पाठक विहीन होकर लिखना, लिखते रहना भी एक किस्म की प्रतिबद्धता की मांग करता है। कई लेखकों के पास ऐसी प्रतिबद्धता होती है। पर सबके पास नहीं है। ऐसे में तीसरा विकल्प यह है कि लेखक तमाम अखबारों में नियमित व्यंग्य लिखे, जैसा अविनाश वाचस्पति करते रहे हैं। वह अखबारी व्यंग्य के माहिर व्यंग्यकार हैं। ऐसा कई बार देखा गया है कि जिन व्यंग्यकारों को अखबार नहीं छापते या जो नये हिसाब से लिखने में खुद को असमर्थ पाते हैं, वह नियमित अंतराल पर यह घोषणाएं करते हैं कि हाय-हाय अखबार का व्यंग्य भी कोई व्यंग्य है। व्यंग्य तो वही, जो गिरोहबंदी वाली अत्यल्प संकुचित सरकुलेशन वाली पत्रिकाओं में छपे। ऐसे माहौल में भी अविनाश वाचस्पति व्यंग्य के साथ अखबारों में सक्रिय हैं, इससे साफ होता है कि व्यंग्य का शून्यकाल नहीं है। यद्यपि उनकी पुस्तक का नाम यही है। अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आलोच्य पुस्तक हाल के व्यंग्य के नये तेवर को साफ करती है। उसके विषय, उसके प्रस्तुतीकरण को लेकर नयी बातें सामने रखते हैं। अखबार की शब्द सीमा में रहकर धारदार तरीके से अपनी बात रखने के लिए सिर्फ हुनर काफी नहीं होता, होमवर्क की भी जरूरत होती है। नेता और बीवी पर लिखकर नाम और दाम कमाने के दिन गये। अखबार साफ करते हैं कि नये जमाने के विषयों को पढ़िए, समझिए, तब आइए व्यंग्य के मैदान में। अविनाश वाचस्पति ने नये हालात को बखूबी समझा है, तब उन पर कलम चलायी है। 1990 के बाद देश-दुनिया कैसे बदली है, यह समझने के लिए यह किताब जरूरी है, जो बहुत रोचक, महीन और मारू अंदाज में बताती है कि देखते ही देखते सब कुछ बदल रहा है। तकनीक ने बहुत कुछ बदल दिया है। माऊस का मतलब सिर्फ चूहा नहीं रहा। चूहे की बोली  नामक व्यंग्य में अविनाश लिखते हैं- चूहों ने कंप्यूटर के आविष्कार के साथ ही माऊस के नाम से कंप्यूटर नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। बिल और बिल के भाषाई खेल अविनाश ने बहुत असरदार तरीके से रेखांकित किये हैं, जैसे-मोबाइलधारक को अपना मोबाइल का बिल भी दुश्मन लगता है, बल्कि यूं कहना चाहिए कि इंसान को सभी प्रकार के बिल पीड़ा देते है।.. एक चूहा ही है, जिसे अपने बिल से खूब प्यार होता है।..। अर्थव्यवस्था में हो रहे नये बदलावों पर भी अविनाश कड़ी निगाह रखते हैं। जादू की छड़ी व्यंग्य लेख में वह लिखते हैं- वे गरीबी की सीमा सुंदरी से मिलवा रहे हैं या बत्तीसी दिखा रहे हैं। शहरियों पर अपनी बत्तीसी चमकाने का मौका भी हाथ से नहीं छोड़ेंगे। यह नहीं कि 36 ही बतला देते, तो पता तो चलता कि सरकार और पब्लिक में 36 का आंकड़ा है। 36 के आंकड़े के जरिये गहरी चोट की है अविनाश ने। की बोर्ड पर कुत्ते नामक व्यंग्य लेख में व्यंग्यकार ने नयी तकनीक के माध्यम से इंसानी चरित्र को समझने की कोशिश की है। इस लेख में वह लिखते हैं कि ब्रिटि‍श चिकित्सा विज्ञान अकादमी के वैज्ञानिकों की मानें, भविष्य में कुत्ते कंप्यूटर के की बोर्ड पर टकाटक टाइप करते नजर आयेंगे।..यह भी संभव है कि फ्लाइंग किस देते भी दिखलाई दे जायें।..अभी तक तो बाइक सवारों द्वारा मोबाइल और सोने की चेनें झपटने की खबरें पढ़ने में आती हैं, जल्द ही बेबाइक कुत्ते इन करतूतों को अंजाम देते दिखलाई देंगे।.. कुल मिलाकर आलोच्य व्यंग्य संग्रह बताता है कि विषयों का कोई टोटा नहीं है, अगर लेखक अपने परिवेश को गहराई से देखने की कोशिश करे। संग्रह यह भी बताता कि थोड़े में बहुत कहने का हुनर अगर नहीं है, तो पाठक तलाशना मुश्किल ही नहीं, असंभव कोटि का काम हो जाएगा। बहरहाल, व्यंग्य का शून्यकाल बताता है कि व्यंग्य नये तेवर दिखा रहा है और नये विषय सामने ला रहा है।

देश छोड़ने से देश के गिरने का अंदेशा ! दैनिक हिंदी मिलाप 7 फरवरी 2013 अंक में ''बैठे ठाले' स्‍तंभ में प्रकाशित



एक फिल्‍मकार ने जब खुले-आम ऐलान कर दिया कि वह देश के हालात से दुखी होकर देश को छोड़ देगा, तब मालूम हुआ कि देश के न गिरने की असली वजह उनके द्वारा देश को पकड़ कर रखना था। इससे यह भी पता चला कि न जाने कितने फिल्‍मकारों, कलाकारों ने देश को संभाल रखा है। जनता में अब तक यही सन्देश जा रहा था कि इन्होंने तमाम करेंसी नोटों को ही पकड़ा हुआ है। इसी के कारण आयकर विभाग भी उनसे कर वसूलने की जुगत में साल भर सक्रिय रहता है। इस भेद के जग-जाहिर होने से नेताओं के चेहरों पर अजीब तरह की खुशी चमकने लगी है कि उन पर बे-वजह ही देश के धन का मुंह काला करने और उसे अगवा करके विदेशी बैंकों की कैद में रखने का आरोप निरंतर लगाया जाता है। एक योगी बाबा ने तो इसी मुद्दे पर खूब ख्‍याति लूटी है और आकाश-पाताल एक कर रखा है। फिल्‍मकार के हालिया बयान के बाद योगी बाबा की सारी धौंस धरी रह गई है। 

सरकार ने सभी स्‍तरों पर बहुत कोशिशें की थीं पर पता नहीं चल रहा था कि देश के रुकने का असली कारण क्‍या है ?पेट्रोल, डीजल, आलू, गोभी, दाल, प्‍याज और दूध, चावल जैसी जरूरी चीजों को महंगा करने के बाद भी देश में तनिक सी हरकत न महसूस होना सदा से चिंतनीय रहा है। इसे हिलता हुआ देखने के लिए इलैक्‍ट्रानिक्‍स आइटम्‍स, कंप्‍यूटर, मोबाइल,लैपटाप से करेंट लगाने सरीखी चीजों की कीमतें बढ़ाने पर भी देश कोमा से बाहर नहीं आ पा रहा है। महंगाई का कद और मद दोनों बढ़ने के बावजूद देश मुर्दे के माफिक संज्ञाशून्‍य कैसे है? 

सरकार को बार बार ऐसा भी महसूस हुआ था कि किसी ने देश को किसी खूंटे से बांध रखा है। जबकि खूंटे से बंधने के बाद भी खूंटे से छूटने की कोशिश जानवर भी जरूर करता है। देश का विकास इतनी सारी कोशिशों के बाद सागर न सही, नदी जितना होना चाहिए था।  जबकि वह न तालाब जितना हो रहा था और न कुंए जितना ही, ऐसा लगता था कि कुंए में मेढकों की भी मौत हो गई है।

देश को पकड़ने वाले की नीयत कैसी है, उसका चाल चलन और चरित्र संदिग्‍ध तो नहीं है ? हो सकता है कि देश की पुलिस ने देश को पकड़ रखा हो क्‍योंकि पकड़ा-धकड़ी के मामलों में पुलिस का नाम सबसे पहले आता है। जबकि सच्‍चाई यह भी है कि पुलिस को मासूम पब्लिक को पकड़ने से ही कहां फुरसत मिलती है बल्कि कभी कभार उसे पब्लिक पर आंसू गैस छोड़ने और ठंडे पानी की तेज बौछार छोड़ने की अतिरिक्‍त जिम्‍मेदारी भी सौंप दी जाती है। ऐसे मौके पुलिस को बामुश्किल मिलते हैं इसलिए वह इससे हासिल होने वाली खुशी को बर्दाश्‍त नहीं कर पाती और बेइंतहा खुशी में डंडो का उपयोग करना शुरू कर देती है। उसे इतना भी मालूम नहीं चलता कि डंडे मारने से मासूम पब्लिक की पिटाई हो रही है या महिलाओं अथवा बच्‍चों की टांग-तुड़ाई । वह अपने ‘डंडा मारो और हड्डी पसली तोड़ो अभियान’ में इस कदर जुटती है कि उसे अपने पीने, खाने, ओढ़ने, सोने तक का होश नहीं रहता। इसलिए जब उसे अपनी इन शौर्यगाथाओं के चित्र खींचने या वीडियो बनाने की जानकारी मिलती है तो वह कैमरों की पिटाई भी शुरू कर देती है।

वह तो भला हो कि फिल्‍मकार अभिव्‍यक्ति की आजादी के चलते बतला पाए कि वे देश छोड़ देंगे। जिसके निहितार्थ यह हैं कि आप अब संभाल लीजिए देश को, कहीं गिर गिरा गया तो फिर आप यह मत कहिएगा कि चेताया नहीं। उधर सरकार इस चिंता में घुली जा रही है कि देश को छोड़ देने पर गिरने का श्रेय उसके होते हुए कोई दूसरा कैसे ले सकता है ? इस वज़ह से संयुक्त राष्ट्र में उसकी किरकिरी भी हो सकती है। सरकार किसी कलाकार या आम आदमी की किरकिरी को बर्दाश्त कर सकती है पर जब बात विश्व-मंच की हो, तो वह चुप नहीं बैठ सकती। इसलिए देश के गिरने का श्रेय वह किसी और को नहीं देने के लिए कटिबद्ध है !

देश गिरने का अंदेशा ! : दैनिक जनवाणी 5 फरवरी 2013 के तीखी नजर स्‍तंभ में प्रकाशित



एक फिल्‍मकार ने जब खुले-आम ऐलान कर दिया कि वह देश के हालात से दुखी होकर देश को छोड़ देगा, तब मालूम हुआ कि देश के न गिरने की असली वजह उनके द्वारा देश को पकड़ कर रखना था। इससे यह भी पता चला कि न जाने कितने फिल्‍मकारोंकलाकारों ने देश को संभाल रखा है। जनता में अब तक यही सन्देश जा रहा था कि इन्होंने तमाम करेंसी नोटों को ही पकड़ा हुआ है। इसी के कारण आयकर विभाग भी उनसे कर वसूलने की जुगत में साल भर सक्रिय रहता है। इस भेद के जग-जाहिर होने से नेताओं के चेहरों पर अजीब तरह की खुशी चमकने लगी है कि उन पर बे-वजह ही देश के धन का मुंह काला करने और उसे अगवा करके विदेशी बैंकों की कैद में रखने का आरोप निरंतर लगाया जाता है। एक योगी बाबा ने तो इसी मुद्दे पर खूब ख्‍याति लूटी है और आकाश-पाताल एक कर रखा है। फिल्‍मकार के हालिया बयान के बाद योगी बाबा की सारी धौंस धरी रह गई है। 
सरकार ने सभी स्‍तरों पर बहुत कोशिशें की थीं पर पता नहीं चल रहा था कि देश के रुकने का असली कारण क्‍या है ?पेट्रोलडीजलआलूगोभी, दालप्‍याज और दूधचावल जैसी जरूरी चीजों को महंगा करने के बाद भी देश में तनिक सी हरकत न महसूस होना सदा से चिंतनीय रहा है। इसे हिलता हुआ देखने के लिए इलैक्‍ट्रानिक्‍स आइटम्‍सकंप्‍यूटरमोबाइल,लैपटाप से करेंट लगाने सरीखी चीजों की कीमतें बढ़ाने पर भी देश कोमा से बाहर नहीं आ पा रहा है। महंगाई का कद और मद दोनों बढ़ने के बावजूद देश मुर्दे के माफिक संज्ञाशून्‍य कैसे है
सरकार को बार बार ऐसा भी महसूस हुआ था कि किसी ने देश को किसी खूंटे से बांध रखा है। जबकि खूंटे से बंधने के बाद भी खूंटे से छूटने की कोशिश जानवर भी जरूर करता है। देश का विकास इतनी सारी कोशिशों के बाद सागर न सहीनदी जितना होना चाहिए था।  जबकि वह न तालाब जितना हो रहा था और न कुंए जितना ही, ऐसा लगता था कि कुंए में मेढकों की भी मौत हो गई है।
देश को पकड़ने वाले की नीयत कैसी हैउसका चाल चलन और चरित्र संदिग्‍ध तो नहीं है हो सकता है कि देश की पुलिस ने देश को पकड़ रखा हो क्‍योंकि पकड़ा-धकड़ी के मामलों में पुलिस का नाम सबसे पहले आता है। जबकि सच्‍चाई यह भी है कि पुलिस को मासूम पब्लिक को पकड़ने से ही कहां फुरसत मिलती है बल्कि कभी कभार उसे पब्लिक पर आंसू गैस छोड़ने और ठंडे पानी की तेज बौछार छोड़ने की अतिरिक्‍त जिम्‍मेदारी भी सौंप दी जाती है। ऐसे मौके पुलिस को बामुश्किल मिलते हैं इसलिए वह इससे हासिल होने वाली खुशी को बर्दाश्‍त नहीं कर पाती और बेइंतहा खुशी में डंडो का उपयोग करना शुरू कर देती है। उसे इतना भी मालूम नहीं चलता कि डंडे मारने से मासूम पब्लिक की पिटाई हो रही है या महिलाओं अथवा बच्‍चों की टांग-तुड़ाई । वह अपने डंडा मारो और हड्डी पसली तोड़ो अभियान’ में इस कदर जुटती है कि उसे अपने पीनेखानेओढ़नेसोने तक का होश नहीं रहता। इसलिए जब उसे अपनी इन शौर्यगाथाओं के चित्र खींचने या वीडियो बनाने की जानकारी मिलती है तो वह कैमरों की पिटाई भी शुरू कर देती है।
वह तो भला हो कि फिल्‍मकार अभिव्‍यक्ति की आजादी के चलते बतला पाए कि वे देश छोड़ देंगे। जिसके निहितार्थ यह हैं कि आप अब संभाल लीजिए देश कोकहीं गिर गिरा गया तो फिर आप यह मत कहिएगा कि चेताया नहीं। उधर सरकार इस चिंता में घुली जा रही है कि देश को छोड़ देने पर गिरने का श्रेय उसके होते हुए कोई दूसरा कैसे ले सकता है इस वज़ह से संयुक्त राष्ट्र में उसकी किरकिरी भी हो सकती है। सरकार किसी कलाकार या आम आदमी की किरकिरी को बर्दाश्त कर सकती है पर जब बात विश्व-मंच की हो, तो वह चुप नहीं बैठ सकती। इसलिए देश के गिरने का श्रेय वह किसी और को नहीं देने के लिए कटिबद्ध है !

गरीबी की पहचान : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 5 फरवरी 2013 के उलटबांसी स्‍तंभ में प्रकाशित


गरीब की नई परिभाषा योजना आयोग की एक विशेषज्ञ समिति के बतलाने के बाद से देशभर में गरीब होने के लिए होड़ मच गई है। नतीजाअब लोग करोड़पति नहीं,गरीब होने के लिए बेताब हैं। आज गरीब वह है जिसका नाम गरीब’ हैकिंतु गरीबदासगरीब नहीं है। अमीर होने के खूब सारे दुख हैंगरीब होने के इस भारत देश में तमाम सुख हैं। गरीब का दासगरीब नहींगारंटिड अमीर है। अमीरदास गरीब हो सकता है। पर गरीब का दास गरीब ही रहेगा।
गरीबी में पहले शून्‍य की भरमार हुआ करती थीजिससे उसे चीन्‍हने में बहुत आसानी होती थी।  गरीब कौन हैयह बहस इतनी जोरों पर हैजिसके मुकाबले पीएम की कुर्सी पर कब्‍जाने की होड़ धीमी पड़ गई है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि जो इंकम टैक्‍स नहीं चुका पा रहा है या चुकाने से बचने की जुगत में लगा रहता है,वह गरीब मान लिया गया है। जो दाल रोटी नहीं जुगाड़ पा रहागरीब वह नहीं,बल्कि वह है जो पिज्‍जाबर्गरहॉट डॉग नहीं खा रहा है। सब गरीब होना चाहते हैं,गरीब को ही बिना रुपये खर्च किए चूल्‍हा और गैस सिलैंडर सरकार बांट रही है। बांटने वालों ने लाइन लगा रखी है जबकि लेने वाले नदारद हैं।
मोबाइल होना अमीरी की पहचान है किंतु मिस काल करना गरीबी की नई पहचान है। गरीबी नियोजित और सुनियोजित होने लगी है। जिसकी गरीबी प्रायोजित हो जाती है,वह समझ लेता है कि अब वह असली गरीब हो गया है। गरीबी एक महिला हैवह महिला होते हुए भी सुरक्षित नहीं है। बस में बैठकर भी वह असुरक्षित इसलिए है क्‍योंकि बस में पुरुष है।
आपके पड़ोसी के पास एसीकारवाशिंग मशीनफ्रिज है तो आप अमीर हैं। अमीर के पड़ोस में अमीर ही रह सकता हैगरीब कैसे रहेगा। जबकि देश में डेमोक्रेसी है,इस क्रेसी के जितने डेमो हैंसब क्रेजी हो गए हैंयह संगत का ताजा असर है।  देश के सभी हाईवे रोड खूब अमीर हैंउन पर कारट्रकबस दौड़ते हैं और सारे टैक्‍स चुकाते  हैं।  सारा टैक्‍स सड़क के बैंक एकाउंट में जमा होता है जिसका थोड़ा अंश वसूलने वाले अपनी जेबों में भी डाल लेते हैं। इससे खास फर्क सरकारी महकमों को नहीं पड़ता।
योजना आयोग की इस विशेषज्ञ समिति ने भिखारियोंकबाडि़योंमालीस्‍वीपर और मजदूरों को भी गरीब माना है। इससे सड़कों पर भिखारियोंकालोनियों में कबाडि़यों,पार्कों में मालियों और सड़कों पर सफाईकर्मियों की संख्‍या में रिकार्ड तेजी आई है,इस तेजी को गिन्‍नीज बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्ड में शामिल करवाने की कवायद चल रही है। हाथ से कपड़े धोने वालामोबाइल फोन में बेलेंस नहीं हैइसलिए चिल्‍लाकर बात करने वाला गरीब है। जो देश की संसद के दर्शन नहीं कर पा रहा हैवह भी गरीब है। यह जानकर संसद के पास इकट्ठी भीड़ एकदम से छंट गई हैआंसू गैस भी नहीं छोड़नी पड़ी हैपुलिस भी डंडे चलाकर बदनाम होने से बच गई है।