यह दुनिया पागल खाना। खाने के अद्भुत व्यंजन है पर फिर भी सामने किसी पागल को देखकर खाने को मचलता है दिल। भूल जाता है इंसान कि वह तो शाकाहारी है पर फिर भी पागल खाने की लाचारी है। चारा खाएगा तब भी पागल बन जाएगा। मन कहता है कि जो पागल खाएगा, वह अक्लमंद कहलाएगा। अक्लमंद कहलाना अक्ल की मंदी नहीं, बुद्धिमानी कहलाती है, शिखर पर पहुंचाती है। पागल खाने में मिलता है आनंद। पर खाना हम कम चाहते हैं कि किसी को भेज दें पागल खाने में। वह वहां पर पेट भर भर कर खाए, मजे उड़ाए और मांसाहारी हो जाए।
भारत वह देश है जहां पर अंडों को भी आलू माना जाता है, अंडा खाना खिलाना शाकाहारी और आप पागल खा - चबा लो तब भी शाकाहारी। यह कैसा विरोधाभास है, मेरी समझ में नहीं आता है। इसलिए मैं खुद को और दूसरे मुझे पागल मानते हैं और मैं उनकी इस सोच से इत्तेफाक रखता हूं। स्वयं को पागल स्वीकारना और इत्तेफाक रखना गलत इसलिए नहीं है क्योंकि इससे कई प्रख्यात सम्मान जुड़े हुए हैं। कुछ हर साल होली पर रंग के माफिक बरसते हैं।
मेरा मानना है कि किसी को पागल बतलाना, मानना अवश्य ही दूषित वृत्ति का परिचायक है। यह वृत्ति इतनी खतरनाक हो चुकी है कि नाम लो आगरा का और कानों में पागल शब्द गूंजने लगता है। ताजमहल का ताज भी पागल में तब्दील दिखाई देने लगता है। जो इस गूंज को मन के भीतर तक शिद्दत से महसूस करते हैं, मालूम नहीं उन्हें सचमुच में पागल माना जाए या नहीं। मांसाहारी या शाकाहारी होने से पागल होने अथवा न होने का कोई अंर्तसंबंध नहीं है। वैसे संबंध तो है इसे आप लिव-इन-रिलेशनशिप मान सकते हैं। शिप मतलब पानी में तैरने वाला जहाज।
जहाज के बारे में यह आम धारणा है कि वह हवा में उड़ता है। सिर्फ जहाज ही नहीं उड़ता अपने साथ सैंकड़ों यात्रियों को लेकर उड़ता है। इन सैकड़ों में कितने तो कौतूहलवश पहली बार जहाज में बैठ कर उड़ रहे होते हैं, कितने ही सैकड़ों बार उड़ चुके होते हैं और जहाज कई हजार बार। इसे ही संबंधों का आपसी अटूट बंध माना जाता है। अनेक सफरियों का यह सफर अंतिम बन जाता है। मतलब अंत का आरंभ शुरूआत से!
अब तो आसमान में फिर भी जहाजों का यातायात दिखलाई देता है पर पहले ऐसा नहीं था। बहुत कोशिश करने पर आसमान में दो चार घंटे में एक जहाज उडता नजर आता था। जब हम बच्चे थे तब आकाश की ओर नजरें गड़ाए ध्यान में मग्न रहते थे और शर्त लगाते थे कि इस बार पूर्व दिशा से विमान आता दिखाई देगा या पश्चिम अथवा उत्तर या दक्षिण से। इसका मतलब यह नहीं कि जहाज कम थे या यह आपकी नजरों का दोष है। इसे जहाज के यात्रियों या क्रू - मेंबर्स का रोष भी नहीं कहा जाएगा। रोष यानी गुस्से में कभी चालक यानी पायलट को भी नहीं होना चाहिए। क्रोध में अथवा मद्यपान करके ड्राइविंग सदा नुकसानदेह होती है। गुस्से के बिना यूं तो जीवन सिर्फ संतों का होता है, पर मन में उनके गुस्सा उपजता है जिसे वह भीतर ही भीतर पी जाते हैं और फेस को इससे मुक्त दिखलाते हैं।
जीवन को जीवंत रखने के लिए उष्ण तापमान चाहिए। जिसके लिए संतुलन जरूरी है, वही कामयाबी का सूत्र है, बिना संतुलन के कुछ भी नहीं टिकाऊ नहीं है। संतुलन की कमी हो तो हम सब जमीन पर लेटे दिखाई दें। पृथ्वी और ग्रहों को अंतरिक्ष में टिके रहने के लिए संतुलन वाली साधना का घनघोर महत्व है। यही साधना जीवन को साधती है। पर साधना नाम होने पर भी इस ओर आकर्षण कम ही होता है। इस ओर खिंचाव सदा जीवन के लिए फायदेमंद रहता है। अब फायदा मंद हो या तीव्र, नफा तो नफा ही है। सब नफे के गुलाम हैं। जीवन की एक तय मियाद है, गिनती की सांसें हैं, इन सांसों को उपयोग में लाकर समाज का कल्याण किया जा सकता है। पर इसके लिए अपने स्वार्थीपन, लालचमन से बाहर आना होगा और इसी से बाहर आने में तथाकथित इंसान को दिक्कत महसूस होती है और मन के इस चंचल सफर को पागलपन ही कहा जाएगा कि पागल खाने की बात मन को साधने पर आकर विराम ले रही है। यह वृत्ति रचनाकारों में पाई जाती है जिसे लेखकीय गुण कहा गया है। इसे ही कल्पना के साथ संजो कर रचनात्मकता में रचा जाता है। यह रचना सचमुच में बहुत ही अद्भुत है। तब इसे पागलखाना नहीं, विचारों की कलात्मक साधना माना गया है। आप भी इसे मन के भीतर के किसी कोने में पूरी उष्णता से स्वीकार करते हैं न।
- अविनाश वाचस्पति
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबधायी हो।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-06-2014) को "कविता के पांव अतीत में होते हैं" (चर्चा मंच 1653) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक