मूर्तियां साजिश नहीं रचतीं : दैनिक जनवाणी 1 अगस्‍त 2012 के तीखी नजर स्‍तंभ में प्रकाशित



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जिंदा व्‍यक्ति मूर्ति में बदल जाता है। मूर्ति का जिंदा होना समझ में नहीं आता है। मूर्तियां कहीं संगमरमर पत्‍थर की, धातुओं की और मोम की भी बनाई जाती हैं। फिर भी सबसे स्‍थाई मूर्तियां बिना बनाए ही इंसानों के मन में स्‍थापित हो जाती हैं।  मूर्तियों का भी अजब सिलसिला है बल्कि इसे खेल कहना चाहिए। पहले बनाई जाती हैं फिर तुड़वाई जाती हैं। ऐसा गजब है यह खेल, कोई पास कोई फेल। दुनिया भर में सदियों से मूर्ति का बिजनेस खूब जोरों पर चल रहा है। पहले भगवान की मूर्तियां बनाया जाया करती थीं। बाद में राजाओं की मूर्तियां बनाई जाने लगीं। इसी दौरान कभी पशु-पक्षियों की मूर्तियां भी बनाई गईं। मूर्तिकार कलाकार से धंधेबाज बन गए जिसमें भरपूर इजाफा तब से हुआ, जब से नेताओं की मूर्तियां बनने लगीं। पहले नेता लोग अनावरण पत्‍थर पर अपने नाम को उकेर दिए जाने से संतुष्‍ट हो जाते थे। किंतु जैसे जैसे समय बदला, उनकी दिलचस्‍पी मूर्तियों में होने लगी। परंतु पुतलों के बनाए जाने से बचने लगे। पर बच नहीं पाए और चौराहों और नुक्‍कड़ों पर बेइंतहा फूंके गए। पब्लिक ने कम किंतु राजनैतिक पार्टियों के कारिंदों ने पुतलों को फूंक फूंक कर रोष प्रकट करना शुरू कर दिया।
फिलहाल मूर्तियां असमंजस में हैं। एक मूर्ति का सरेआम कुछ इंसान रूपी शैतानों ने कत्‍ल कर दिया। अब तक जिन नेताओ से पब्लिक खफा हो जाती थी तो चौराहों पर उनके पुतले जला कर आक्रोश प्रकट कर देती थी। इस आपदा से बचने के लिए जीते जी मूर्तियां बनाने और स्‍थापित करने का सुरक्षित विकल्‍प खोज लिया गया। मामला तुरंत जम गया, कितने ही कलाकारों को रोजगार मिल गया। थोड़ा बहुत हो-हल्‍ला जरूर मचा था, कहीं-कहीं चिल्‍ल-पों भी सुनाई दी थी लेकिन किसी ने इसको अधिक गंभीरता से नहीं लिया।
अब अहसास हो रहा है कि जो शांति दिखाई दे रही थी, वह कयामत से पहले की शांति थी। ऐसी शांतियां भंग कर दी जाती हैं। सो यह शांति भी बच न सकी। चुनावों के दौरान जब मूर्तियों से खतरा हुआ तो उन पर कपड़ा डाल दिया गया। चुनाव हो गए और कपड़ा हटा लिया गया। पैसा चाहे कितना ही खर्च हो जाए किंतु आन, बान और शान कायम रहनी चाहिए। कायम वही रहता है जिससे यम दूर रहता है। जबकि मूर्तियों को जहां पर खड़ा कर दो, चुपचाप खड़ी रहती हैं, किसी को न तो नुकसान पहुंचाती हैं और न ही उनकी चुप्‍पी के पीछे कोई साजिश जन्‍म ले रही होती है। उनके होने से पक्षियों को टॉयलेट की सुविधा मिल जाती है, वहां पर वे फारिग हो लेती हैं और नीचे घूम रहे इंसान सुरक्षित बने रहते हैं।
मेरा मानना है कि जिंदा लोग बहुत हिम्‍मत से अपनी मूर्तियां बनवाया करते हैं इसलिए उनकी मूर्तियों को जीते जी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। आप जिंदा से तो निपट नहीं पाते हैं इसलिए स्‍टेचू से टकराने के लिए तैयार हो जाते हैं। मूर्तियां साजिश नहीं रचतीं और न किसी साजिश में सक्रिय होती हैं। इंसान की इस प्रकार की हरकतें ही उसे शैतान बनाती हैं। माना कि जीते जी मूर्तियां बनाना इंसानियत नहीं है किंतु मूर्तियां तोड़ना हर तरह से शैतानियत की श्रेणी में आता है। आपने विरोध करना था तो आप भी अपनी मूर्तियां बनाकर मुकाबला करते। यह क्‍या बात हुई कि बनी बनाई मूर्ति को ही खंडित कर दिया गया। अब इस मूर्ति खंडन के पीछे यह तो रहा नहीं होगा कि अगर मूर्ति में कोई दाग नहीं लगाया गया तो कोई उसकी बलि चढ़ा देगा। बलि चढ़ाने के लिए प्राण की मौजूदगी भी अनिवार्य है। जिस मूर्ति में प्राण ही नहीं हैं, उसे मारकर किसी को क्‍या मिला होगा, मालूम नहीं। लेकिन कोशिशें जारी हैं कि मूर्ति तोड़ने वालों पर दफा 302 लगाकर उन्‍हें फांसी चढ़ा दिया जाए। मूर्तियों की इस बारे में मंशा क्‍या है, मालूम नहीं चला है। जिस मूर्ति को मारा गया, वह तो अब अता, पता, लापता हो गई है। उसको अन्‍य मूर्ति से इतनी जल्‍दी रिप्‍लेस कर दिया है, मानो कंप्‍यूटर पर कंट्रोल प्‍लस आर बटन दबाया गया हो। इतनी फुर्ती अगर समाज से समस्‍याओं को दूर करने में की जाए, फिर गरीब पब्लिक का भविष्‍य चमक जाए।

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