जि़दगी का राग बनता 'राग भिड़ासी' : दैनिक हिंदी ट्रिब्‍यून 19 सितम्‍बर 2012 स्‍तंभ 'सागर में गागर' में प्रकाशित



संगीत के कच्‍चे-पक्‍के और पुख्‍ता रागों की जानकारी यूं तो स‍भी को होती है जिनको नहीं होती वे भी संगीत सुनकर मौज लेते हैं। आजकल समाज में एक नए राग की उत्‍पत्ति हुई है। इस राग का आविर्भाव वाहनों की संख्‍या तेजी से बढ़ने पर सामने आया है। इस राग में कारों के निरंतर बजने वाले हॉर्न और जोर-जोर से आती चिल्‍लाहटों से मधुरता आती है, इसे राग भिड़ासी माना गया है।
राग भिड़ासी से यूं तो सभी परिचित हैं किंतु मेट्रो शहरों में इसके मुक्‍तभोगियों की संख्‍या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसके गाने-बजाने के संबंध में कोई तय समय नहीं है। इसे कभी भी गाया-बजाया जा सकता है। इसका आयोजन स्‍थल आपके घर के सामने उस जगह पर होता है, जो आपकी न होते हुए भी आपकी मानी जाती है। यह सिलसिला रोजाना वहीं शुरू होकर संपन्‍न होता है। शहरों में बढ़ती वाहनों की आबादी इसके होने का सबब बनी है। हम सबके कानों में आवाज आ रही है कि तेरे घर के सामने मैं राग भिड़ासी गाऊंगा। राग भिड़ासी सड़कों पर होने वालेरोडरेज’ से उन्‍न‍त किस्‍म का राग है।
जब दो वाहन टकराते हैं तो आवाज होती है किंतु जब दो राग भिड़ासी वाले इस राग में हिस्‍सेदारी निभाते हैं तो देखने-सुनने वालों का मन इससे मिली प्रसन्‍नता से गदगद हो उठता है। सुनने वालेइसका आनंद लेने वाले इसकी गांभीर्यता को समझते हुए भनक मिलते ही अपने-अपने घरों की बाल‍कनियों में आकर मोर्चा संभाल लेते हैं। यह राग दर्शकों को तुरंत आमंत्रित करता है। दर्शकों को आमंत्रित करने के लिए इसमें कार्ड छपवाकर बंटवाने की औपचारिकता नहीं निभाई जाती। इसे देखने-सुनने वालों के लिए नाश्‍ता अथवा भोज का कोई प्रावधान न होना, मितव्‍‍ययिता की सबसे सुंदर मिसाल है।
घर के सामने वाहनों को खड़े करने का मौन मौलिक अधिकारघर में रहने वालों का होता है। इस अधिकार में दखल राग भिड़ासी की उत्‍पत्ति दिखलाता है। इस संबंध में अभी तक सरकार की ओर कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी किए गए हैं किंतु इसमें व्‍यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत की राजधानी मेंकर वसूलने’ की शुरुआत अपने दूसरे अथवा तीसरे चरण में है। इसका आनंद हिंदी भाषा में अथवा पंजाबी भाषा अथवा किसी देसी बोली में खुलकर निखरकर आता है। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग होते भी अधिकतर देखा गया है। इससे राग भिड़ासी का जलवा देदीप्‍यमान होकर चमक उठता है।
ऐसे आयोजनों को अखबारों की सुर्खियां मिलने लगी हैं। ऐसे में एक बचाव पक्ष भी सक्रिय होता है। जिसे दाल भात में मूसलचंद की संज्ञा इसलिए दी गई है क्‍योंकि वह इस तरह के आयोजनों का सर्वथा विरोध करता है और इन्‍हें रोकने के लिए सदैव तैयार मिलता है। कई बार ऐसे आयोजनों की गाज इन पर इस बुरी तरह गिर जाती है कि इनका नाम शहीदों में शुमार हो जाता है। क्‍लाइमेक्‍स तक पहुंचने पर बोध होता है कि इंसानों की भिड़ंत हो गई है। स्‍त्री, पुरुष और बच्‍चों के लुटे-पिटे चेहरे-मोहरे इसकी गवाही देते हैं। किंतु पुलिस के पहुंचने पर तितर-बितर हो जाते हैं। जिन बालकनियों में कुछ देर पहले चहल-पहल और गहमा-गहमी का मौसम था, वहां पतझड़ कब्‍जा जमा लेती है।  आपने भी अवश्‍य ही ऐसे आयोजनों में हिस्‍सा लिया होगा, मुक्‍तभोगी रहे होंगे, फिर अपने अनुभव हमारे साथ साझा करने में आप देरी क्‍यों कर रहे हैं ?

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