किरपा ही तो कर रहे हैं : दैनिक अमर उजाला में 17 अप्रैल 2012 के अंक में नुक्‍कड़ स्‍तंभ में प्रकाशित



किरपा करना किरपाण चलाने से जनहितकारी, सुंदर और नेक कार्य है। सब चाहते हैं कि उस पर किरपा हो, किरपा करना कोई नहीं चाहता। अब ऐसे में एक बाबा आए और खूब किरपा बरसाई, किरपाण भी नहीं चलाई, फिर लोग दुखी क्‍यों हैं, टी वी चैनल वालों पर भी खूब किरपा बरसी।  फिर जब इतना सा डिस्‍क्‍लेमर लगाकर छुटकारा मिल जाता है कि ‘इन चमत्‍कारों के लिए चैनल वाले उत्‍तरदायी नहीं हैं’, फिर भला चैनल वाले क्‍यों नहीं चलाएंगे। बाबा चैनल के जरिए किरपा ही कर रहे हैं। अब अगर बाबा लालची होते तो सब धन समेट लेते। न चैनल वालों को देते, न सरकार को टैक्‍स चुकाते। फिर देश की बैंकों में ही क्‍यों जमा करवाते, विदेशी बैंकों में नहीं जमा करवाते।  नकद का इतना शानदार और चोखा धंधा बल्कि इसे व्‍यवसाय कहना चाहिए, भला इस कलयुग में और कौन सा हो सकता है। कोई चोरी चकारी नहीं, लूट खसोट नहीं, किरपा के लिए थोड़ा सा धन, लेकिन बदले में ‘बाबे दी फुल किरपा’।
किरपा मतलब 'कर पा', जितना बाबा कर पा रहे हैं, खूब कर रहे हैं। कोई भेद भाव नहीं, दो साल का बच्‍चा हो या 30 साल का युवा अथवा 50 साल का अधेड़ या फिर 80 साल का बुजुर्ग, कन्‍या हो, महिला हो, किन्‍नर हो – किरपा करने में कोई भेद भाव नहीं। सबकी फीस सिर्फ 2000 नकद। अब यह शोर मचाना कितना जायज है कि बाबा पहले दुकान चलाते थे या ठेकेदारी करते थे और सफलता नहीं मिली। अब यह किसने कहा है कि एक धंधा सफल न हो तो दूसरा काम नहीं किया जा सकता। सबको आजादी है कि वह किसी भी धंधे में किस्‍मत आजमा सकता है। अब अगर बाबा की किस्‍मत चमक गई है और वह देशवासियों की किस्‍मत चमकाने में जुट गए हैं तो इसमें दुखी होने की क्‍या बात है।
किस्‍मत की चमक निराली होती है। जब जिसकी चमक जाती है तो वो दूसरे की चमकाना नहीं चाहता बल्कि सारी चमक खुद ही बटोरना चाहता है। बाबा इस मामले में सिर्फ नाम के ही नहीं, मन के भी निर्मल हैं और वे चमक को बांट रहे हैं, क्‍या हुआ जो इसके बदले में ‘सब धन धूरि समान’ के अंश को भरपूर सम्‍मान दे रहे हैं, आप इसमें इतना अपमान क्‍यों महसूस कर रहे हैं, जलते हैं न बाबा पर हुई किरपा से और बाबा जो कर रहे हैं उस किरपा को पाना चाहते हैं। चिंता कीजिए और बुद्धिमान बनिए, एक हालिया शोध तो यही कह रहा है।

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