तोप का ताप : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट में 28 अप्रैल 2012 अंक में प्रकाशित


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तोप का ताप कभी नहीं बुझता,  उसकी गर्मी कभी कम नहीं होती, चाहे उसके कारण कि कितने ही गम बढ़ जाएं। सुख सदा सुलगते रहते हैं। सुख के मूल में ही सारे जगत के दुख हैं। वह ताप किसके लिए चिंगारी बनता है और किसके लिए ठंडक। कब ठंडक, भाप बनकर झुलसा देती है। कौन जान पाया है, वह भी नहीं जो इन सबके पीछे अपने कारनामों को अंजाम दे रहा है। भर भर कर जाम पी रहा है। मालूम चल गया है कि बिग बी को डुबोने के लिए फोर्स को बोया गया। लगता है इसी फोर्स के चलते तोपों के इस घोटाले के मामले का नाम बोफोर्स हुआ, यह रहस्‍य अब खुला है। पर इससे बाहर आने के लिए बिग बी बीते 25 बरस भीतर ही भीतर सुलगते रहे। उनके दिल को कितनी पीड़ा मिली। पीड़ा की सच्‍चाई अब सामने आई है। पोल थी जो खुल गई है। बोफोर्स को ‘लो’ फोर्स होने में 25 साल लग गए। तोप का ताप भी सुलग सुलग कर लगा कि ‘गो’ फोर्स हो गई होगी। लेकिन चिंगारियां फिर से सुलग उठी हैं।  उन्‍हें हवा मिली, वे शोले बने लेकिन इस बार शोले शाल बने और बिग बी का के मन के संताप रूपी ज्‍वाला को हरने का सबब बन सके। पूरा दुख तो नहीं हरा नहीं हुआ, पर जितना भी हरा हुआ, उससे मन को हरियाली का सुखद अहसास हुआ। संताप की कालिमा कुछ तो कम हुई।
जाहिर है कि फोर्स सिर्फ बीज में ही नहीं होता है। यह सत्य है कि बीज का अंकुरण होता है। फोर्स तोप में भी होता है। झूठ में सबसे अधिक फोर्सफुल होता है लेकिन सच्‍चाई के फोर्स की तुलना किसी हॉर्स से नहीं की जा सकती है, वह तो सर्वोपरि होता है। फोर्स जब बोया जाता है उस समय हॉर्स की गति से कुलांचे भरता है। किसी को उसकी तेज चाल में सच नजर नहीं आता है। जो प्‍लांट किया जाता है, वह सामने आता है। आंखें देख रही होती हैं लेकिन उनमें में भी चमक चढ़ जाती है। चमक जो झूठ है, चमक जो धोखा है, चमक जो चकमक नहीं है, चमक नमक हो सकती है। नमक अधिक हो तो दुख दारूण देता है। बिना नमक के भी चमक फीकी हो जाती है। चमक चीनी हो जाए तब भी उसकी अधिकता सुगर बन शरीर को गलाती है।
साफ है किसी चीज की अधिकता बुरी होती है। सच्‍चाई पूरी होते हुए भी उसकी फोर्स लो रही और वह सामने नहीं आ सकी। इस बोने में सिर्फ तोपें ही नहीं बोई गईं। तोपों के नाम पर नोटों के अंकुर फूटे।  नोट का फोर्स इन सबसे ताकतवर है। सब इन्‍हीं के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। भागते हैं तो घोड़े हो जाते हैं। नोट दिखलाई दें या उनका आभास भी होने लगे तो मच्‍छर बन मंडराते हैं। वहां से कहीं जाते नहीं हैं। जबकि कभी किसी ने नोटों को मच्‍छरदानी से नहीं ढका होगा क्‍योंकि बाहर से ही दिखलाई दे जाएंगे। फिर भी इंसान मच्‍छर की तरह नोटों परे मंडराने से बाज नहीं आता। आजकल तो बाबा भी इसकी फुल किरपा अपने ऊपर बरसा रहे हैं। मौसम बारिस का हो, न हो।  गर्मी हो नोटों की, न हो। लेकिन नोटों की चाहत मरने तक भी खत्‍म नहीं होती। यह वह प्‍यास है जो जितनी बुझाने की कोशिश की जाए, उतनी और बढ़ जाती है। दूसरे का गला भी घोंटने से परहेज नहीं किया जाता। दूसरे ही क्‍या सबसे पहले अपनों का गला ही तराशा जाता है क्‍योंकि इसमें सबसे अधिक नोट मिलने की आशा है। आशा जो विश्‍वास बन चुकी है। उसे पाने के लिए सारे भरोसे तोड़ दिए जाते हैं। कोई शर्म नहीं, कोई जिल्‍लत नहीं महसूस होती। यह मानवीय वृतियों का क्षरण काल है। इंसानी वृतियों पर आक्रमण हो रहा है और आक्रमण करने वाले भी हम ही हैं।  
करेंसी नोटों को किसने बोया, यह अलग से बौनेपन की कुत्सित वृति को जाहिर करता है। बोना सिर्फ लाभदायक नहीं होता। बोफोर्स मामले से मालूम चलता है कि फोर्स लो हो तो भी नुकसान पहुंचाती है, अधिक हो तो इससे शान नहीं चढ़ती। यह सच्‍चाई को झूठ के आवरण में ढकती है। आवरण का वरण हटाकर झूठ के विरुद्ध रण में डट जाना चाहिए। उसके नतीजे बेहतर होते हैं। बोफोर्स में लोफोर्स होने पर ताजा मामले में यह खुलासा हो गया है। अब भी क्‍या आपको फोर्स के कम या अधिक होने पर संदेह हो रहा है ? 

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