कसाब को फांसी देख-देख आवत हांसी : जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' 27 नवम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित





कसाब को एकाएक फांसी दिया जाना चाहे कितने ही राजनीतिक अर्थ रखता हो किंतु घाटे की ओर बढ़ती अर्थव्‍यवस्‍था के लिए इसे एक लाभकारी कदम के तौर पर बरसों तक याद किया जाएगाइसकी मिसालें दी जाती रहेंगी। यह समृद्ध भारतीय परंपरा रही है कि जिस चीज से  नुकसान हो रहा है या भविष्‍य में होने की संभावना होउसका टेंटुआ दबा दो और निजात पा  लो। जब गर्भ में लड़का है या लड़की की जानकारी पाने के लिए विज्ञान के साधन इंसान नहीं खोज पाया थातब नवजात कन्‍या का टेंटुआ मसक कर ही इससे पार पाया करता था। जबकि  देवी स्‍वरूपा, शक्ति पुंज और लक्ष्‍मी के तौर पर कन्‍या को हमने ही मान्‍यता प्रदान की थी।   जन्‍म लेते ही टेंटुआ मसकने की इस युक्ति ने खूब प्रगति की और इसमें कारगर भूमिका परिवारजनों ने तो निबाही ही, कन्‍या की मां ने भी इसमें सक्रिय भागीदारी की। इससे पीडि़त जनों को भरपूर मुक्ति मिली। साहित्‍य में इस रिवाज की मौजूदगी और अपनाने की परंपराएं और रीति रिवाज इसके जीवंत गवाह हैं। यह युक्ति अब भी चोरी छिपे प्रयोग में लाई जाती है। इसे अपनाने के कानून अब कड़े कर दिए गए हैं। मां के गर्भ की जांच करवाने के साधनों की वैज्ञानिक खोज के बाद आजकल टेंटुआ मसकने की घटनाओं की संख्‍या में काफी गिरावट आई है जबकि यह खुशी का सबब नहीं, गर्भपात का सरल रास्‍ता खोजने का सबक है। अब गर्भपात करवाकर निजात पाने की संख्‍या में रिकार्ड इजाफा हो चुका है। घटती कन्‍या संख्‍या दर इसका उदाहरण है। डॉक्‍टरों और इससे जुड़े लोगों की कमाई में घनघोर इजाफा इस पर कानूनी रोक लगाने से ही संभव हो सका है।
फर्क नहीं पड़ता चाहे गर्भपात पर रोक लगाने के कितने ही कानून बना लिए जाएं क्‍योंकि कानून डाल डाल तो तोड़ने वाले पात पात मौजूद रहते हैं। किसी भी पेड़ में डाल कितनी भी घनी हों परंतु वे संख्‍या में पत्‍तों से कम ही होती हें बशर्ते पतझड़ का मौसम न हो। पतझड़ में तो डालों की नंगई देखते ही बनती है। कसाब को फांसी देकर सरकार ने आतंकवादियों से पंगा ले लिया है। देश के हित के लिए लिया गया यह जोखिम आर्थिक मोर्चे पर विजय का प्रतीक भी है। यह वह आर्थिक सफलता है जिसकी चर्चा तो हुई है किंतु किसी भी विमर्श का यह मूल तत्‍व नहीं है। जबकि कसाब को फांसी पर लटकाकर मिलने वाले आर्थिक लाभ की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती है।

अब रुपये-पैसे के लिए मानव रिस्‍क तो ले ही लेता हैसो सरकार ने भी ले ही लिया। जबकि यह कसाब की आड़ में किए जा रहे घोटालोंघपलों और कमीशनबाजों की जेब पर किया गया प्रहार भी है। न जाने कितने दलालों ने इसके कारण कितने ही मनीमाइंडिड सपने बुन रखे थे और कितना ही माल खा रहे थे, जो कसाब को फांसी मिलते ही कसाब के शरीर के माफिक दफन हो गए हैं। पल भर में वे हसीन ख्‍वाब उस खाक में तब्‍दील हो गए हैं जो जीवन भर पीड़ा ही देते रहेंगे। कसाब की फांसी के बहाने यह आर्थिक चिंतन,कहो कैसी रही ?

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