नाम में सब कुछ है ... : दैनिक हिंदी मिलाप 9 जनवरी 13 के स्‍तंभ 'बैठे-ठाले' में प्रकाशित



हजारीलाल हज्‍जाम जरूर है किंतु वह सिर्फ बात ही नहीं करता, अपनी बातों और अकाट्य तर्कों से बड़ों-बड़ों के कान भी बहुत बेहतरी से कतरता है। उसकी इस कला का अहसास मुझे कई बार हो चुका है। आज भी जब मैं उसकी दुकान पर हजामत बनवाने के लिए पहुंचा तो पाया कि ठंड का प्रकोप इसलिए कम हो गया था क्‍योंकि वहां गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई थी। दिल्‍ली में पिछले दिनों घटित दुष्‍कर्म का मामला इतनी अधिक सुर्खियों में है कि अगर और भी कड़ाके की ठंड पड़ने लगे तब भी वह जल्‍दी ठंडा होने वाला नहीं है। कड़ाके की जुल्‍मी ठंड में दुष्‍कर्मियों को तुरंत सजा दिलवाने की मांग को लेकर कितने ही जाबांज युवक आज भी जंतर मंतर पर नंगे बदन डटे हुए हैं जबकि चैनल भी उन्‍हें इतना भाव नहीं दे रहे हैं, जिसके वे सचमुच हकदार हैं। रही सरकार की तो उसने घुटने टेक दिए हैं कि दुष्‍कर्मियों को फांसी देने पर उनकी सहमति नहीं बन रही है। इसका छिपा कारण सहमति बनाने वालों का ऐसे मामलों में स्‍वयं के संलिप्‍त होने का भी हो सकता है, ऐसा मुझे लग रहा है।
सब जानते हैं कि वे अभिनय नहीं कर रहे हैं और न ही वे सलमान खान हैं जो उनकी तरह अपने शारीरिक सौष्‍ठव का प्रदर्शन करने पर उतारू हैं। पहले से चल रही चर्चा में मैंने अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए जब अपनी राय रखी कि दुष्‍कर्म पीडि़ता के नाम को जगजाहिर करने की मांग गलत है तो हजारीलाल ने तुरंत आपत्ति प्रकट करते हुए कहा कि पहले तो पीडि़ता  दंरिदों की इस नापाक दुनिया में जीवित ही नहीं रही है। दूसरा उसे आप इस तरह छिपा रहे हैं मानो दोष पीडि़ता का ही है। जब ऐसा नहीं है तो फिर वह सजा क्‍यों भोगे कि कोई उसका असली नाम न जान पाए। उसका नाम जाहिर कर दिया जाए या छिपा लिया जाए इससे हमारी मानसिकता के दिवालिएपन का पता चलता है कि हम अब तक स्‍त्री को ही दोषी मानते रहे हैं और मानते ही रहेंगे। इससे बचने के लिए उसका नाम बतलाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।  
हजारी लाल ने मेरे से यह भी जानना चाहा कि आपको ऐसा लगता है कि जिसे आप दामिनी, अनामिका या सुनीता के छद्म नाम से जान रहे हैं, उसे दुनिया में और कोई जानता ही नहीं है।  ऐसा है मुन्‍नाभाई सबकी अपनी पुख्‍ता पहचान घर, पास-पड़ोस, नाते-रिश्‍तेदारी, सहपाठियों और मित्र-मंडलियों में होती है। फिर आपको ऐसा क्‍यों लगता है कि वे पीडि़ता को नाम से या चेहरे से नहीं पहचानते होंगे। बल्कि यूं कहिए कि बहुत अच्‍छी तरह से जानते होंगे। जब वे जानते हैं फिर आप उसकी पहचान किससे छिपा रहे हैं, जो उसे जानते ही नहीं हैं। अब वह कोई लोकप्रिय शख्सियत तो है नहीं, जिसे सब नाम लेते ही जान जाएंगे। इसलिए उसका नाम कुछ भी हो, इसे   इसे जानने भर से कोई कयामत नहीं आने वाली है। हमारा देश धार्मिक अंध‍-विश्‍वास, कुरीतियों और आडंबरों के जाल में इस बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। समाज में बहुत सारे बदलावों के साथ इस बदलाव की भी बहुत सख्‍त जरूरत है कि किसी महिला को महिला के चश्‍मे से ही देखा-पहचाना जाए, न कि धर्म से जोड़कर स्थिति को विस्‍फोटक बना धर्म के ठेकदारों के नाजायज मंसूबे पूरे होने दिए जाएं। धार्मिक संकीर्णताओं के कारण इस देश के कई शहरों और नागरिकों को सदा से ही नुकसान होता रहा है और अगर बदलाव नहीं लाए गए तो ऐसा होना बदस्‍तूर जारी रहेगा। फिर हिन्‍दू नाम सामने आने से स्थिति में और अधिक नकारात्‍मकता नहीं बढ़ने वाली जबकि मुस्लिम नाम होने से धार्मिक आग को भड़कने से रोकना किसी के भी वश में नहीं है।
हमें सामाजिक सरोकारों से जुड़ना चाहिए और अपनी बहसों और चिेताओं को धर्मिक चश्‍मे से देखने की मानसिकता से बचना चाहिए। इसी में समाज का कल्‍याण और इंसानियत की जीत  निहित है। ऐसे ही सड़े-गले सामाजिक सरोकारों में बदलाव लाने हेतु समाज में जागृति लाने के लिए अनेक नेक महापुरुष सदैव समय-समय पर प्रमुख मंचों से अपनी चिंता प्रकट करते रहे हैं। अब वे स्‍वामी विवेकानंद हों, स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती हों, श्री रामकृष्‍ण परमहंस हों अथवा कोई पीर-फकीर, औलिया, मौलवी या उच्‍च विचारक सूफी संत ही क्‍यों न हों, उनकी स्‍वच्‍छ मानसिकता पर सवाल उठाना बिल्‍कुल गलत है।   
हजारीलाल ने पेशे से हज्‍जाम होते हुए भी इतनी सुलझी बात कही कि वहां मौजूद सब उसकी बात से पूरी तरह सहमत लगे और मेरी तो बोलती बंद हो ही चुकी थी। बल्कि मेरा यह भी मानना है कि इसे पढ़ने वाले सुधि पाठक भी इससे अवश्‍य पूरी तरह सहमत होंगे।

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