संसद में एक रेखा जरूरी थी ... : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट में 23 मई 2012 को प्रकाशित

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संसद भी एक बाजार है बल्कि यूं कहना अधिक समीचीन होगा कि बाजार के दबाव से दब चुका है। आजकल उसे दबाया-सजाया जा रहा है। एक बाजार लोक के लिए है, लेकिन इंटीरियर का काम राज्यसभा के लिए किया गया है। संसद में चीयर्स गर्ल्स या कहें आएटम गर्ल्स का जिक्र सुनकर आप चौंक जाएंगे। वैसे भी चौंकना अवाम के लिए जरूरी है। कभी उसे चैनल चौंकाते हैं, कभी बाबा और कभी सेलेब्रिटीज और बाजार ने तो चौंकाने का मानो ठेका ही उठा रखा है। अभिनेत्री रेखा का राज्य सभा में प्रवेश, इस रेखा को कभी न गरीब जन की चिंता रही है और न कभी जन-जन से जुड़े सरोकारों की। सेलेब्रिटीज का काम यूं ही चल जाता है। एक खिलाड़ी को राज्यसभा की ओर दौड़ाया गया है, क्योंकि जुए और खेल में दौड़ना जरूरी है। फिक्सिंग के लिए दौड़ना, काली कमाई के लिए क्रिकेट में घोड़ों को खोलना है। दौड़ना सिर्फ दौड़ना है। दौड़ शुरू होती है और एकदम से भागमभाग में बदलती हुई दिखाई देती है। बाल फेंकने से लेकर रन के लिए दौड़ने का नंबर टीम में शामिल दौड़ में विजयी होने पर ही आ पाता है। जो विजयी होता है, वह फिर सभी प्रकार की दौड़ में पारंगत हो जाता है। पैसों के लिए दौड़ प्रमुख हो जाती है। पैसा जो चाहे काला है या गोरा है, बॉल नहीं है, लेकिन सबसे अधिक उसी का बोलबाला है। पहले सजना फिर दौड़ना। फिर संसद में बैठकर आपस में बोलते हुए सिरों को तोड़ना-फोड़ना इतना सरल नहीं है, यह सब संसद में शक्ति-प्रदर्शन का परिचायक है। आसान तो फिक्सिंग भी नहीं है लेकिन क्या संसद में रेखा नहीं खींची जानी चाहिए, सो खींच दी गई। गरीबी की खींचना मुफीद नहीं रहता, सो अमीरी की खींची गई। खींचना जरूरी है, नहीं तो कोई भी आपको कब खींच देगा, आपको खिंचने के बाद ही मालूम चलेगा। अब इसमें भी आपत्तियां सामने आ रही हैं। आपत्ति सबसे सरल है, इसे विरले नहीं करते। फिर भी शुक्र है कि सब नहीं करते हैं। कुछ करके माफी मांग लेते हैं, क्योंकि वे माफी मांगकर मन में विभम्र पैदा करने में विशेषज्ञता रखते हैं। यह बाजार का मन पर छाया आधिपत्य है। फिर भी रेखा को राज्यसभा और सचिन को इस सभा में दौड़ने के लिए कहना, कठपुतली का खेल तो नहीं कहा जा सकता है। सचिन को ‘भारत रत्न’ न दे पाने की विवशता के कारण उन्हें राज्यसभा की सदस्यता बतौर मुआवजा दी गई है। जैसे बच्चे को टॉफी देकर बहला दिया जाता है और महंगा खिलौना बाद में देने का वायदा करके फांस लिया जाता है। टॉफी की वजह से उसे फांस की चुभन महसूस नहीं होती। दौड़ सिर्फ शिखर के लिए ही नहीं होती है, डर के कारण भी दौड़ा जाता है। लोग डराने के लिए भी खूब तेजी से दौड़ते हैं, लेकिन डर से दौड़ने वाले से कभी कोई बाजी नहीं मार पाया है। वह सदा आगे ही रहता है। किसी भी प्रकार की पकड़ की जकड़ से बचने के लिए यह सब करना आवश्यक है। अनेक बार न दौड़ने वाला भी शिखर पर दिखाई देता है। इसे फिक्सिंग के जरिए शिफ्टिंग कह सकते हैं। शिफ्ट करने के लिए आजकल मजबूरों और मजदूरों की नहीं लिफ्ट की जरूरत रहती है। राज्यसभा में सीट पक्की करना न लिफ्ट है, न शिफ्ट है, न फिक्स है- यह गिफ्ट है। गिफ्ट किसने किसे दिया है। गिफ्ट यानी उपहार, यह बिग हार है, शिखर पर पहुंचने के समान है। हार होकर भी हार में सबसे बड़ी जीत है। यही आज के बाजार की रीत है। अब इसी से सबकी प्रीत हैं। सब ऐसे ही मन की महत्वाकांक्षाएं पूरी कर रहे हैं। संसद जिसमें अब बत्ती सिर्फ आती ही नहीं है, जाती भी है। सुगंध आए या मत आए लेकिन दरुगध घुसी चली आ रही है। यह दरुगध यश और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाती है। शीर्ष पर पहुंचना शीर्षक बनना है। हर्ष ही इस खेल का उत्कर्ष है। यहां पर रन नहीं बनाए जाते हैं। यहां पर बेइंतहा ऊधम मचाकर भी शीर्षक बना जाता है। जोरों से चिल्लाते हैं। अपनी कहने को बौराते हैं, खूब तूती बजाते हैं। उस समय लगता है कि मानो संसद नक्कारखाना हो, सब अपनी-अपनी तूतियां बजा रहे हैं। पुंगियों की आवाज कोई सुनना नहीं चाहता है। सुन तो कोई तूतियों की आवाज भी नहीं रहा है। जब सब एक साथ बजाएंगे तो कैसे सुन पाएंगे? कान पक रहे हैं, कच्चे न रह जाएं यानी बौराना सत्ता का पागलपन है। इसी पागलपन में छिपा अपनापन है। यही सपना था जो अब वास्तविकता है। तय है, सपने-सपने ही रह जाते हैं। जो दूर नहीं दिखाई देते हैं, वह भी वास्तविकता के जगत में जमे नजर आते हैं। संसद पर बाजार का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह कैसा विकास है कि रुपया तो गिर रहा है, लेकिन उसे गिराने में कौन सी ताकतें सक्रिय हैं, इसका आभास जनता को नहीं हो रहा है, अगर आप जानते हैं तो जनता के ज्ञान में इजाफा जरूर करिएगा।

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