गोरा कागज़ बना कोरा कागज़ : दैनिक ट्रिब्‍यून 26 मई 2012 के हास परिहास परिशिष्‍ट में प्रकाशित


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काले धन पर गोरा कागज, कोरा ही रह गया। जो बुना था ख्‍वाब, वह अधूरा ही रह गया। जो जमा था विदेशी बैंकों में, वहीं खाते और लॉकरो में पड़ा रह गया। कोशिशें तो जी तोड़ की गईं जिससे जी चकनाचूर हो गया लेकिन काले धन का कागज कोरा ही रह गया। काला धन कोयला ही रहा, कोयल की धुन न बन सका। न कोयल की कूहुक सुन कर आम की तरह मीठा हुआ, न अवाम को संतोष ही दे सका। सब जानते हैं कि यह सब धन जनता का ही है और इसे काला रंगने वाले वही काले मन वाले हैं, जो सत्‍ता के चला रहे रिसाले हैं। काले धन में स्‍थाई भाव है। इस स्‍थाई भाव को अस्‍थाई करने की खूब कोशिशें की जा रही हैं। काले धन की विदेशी बैंकों से वापसी की मांग वही करेगा, जिसके पास काला धन नहीं होगा और होगा भी तो कम से कम विदेशी बैंक के खातों में तो नहीं ही होगा। इस सत्‍य को झुठलाया नहीं जा सकता। जिस प्रकार शाहरूख खान संबंधी विवाद को, रूपया मुंह के बल गिरा है, उस धड़ाम की आवाज को, आईपीएल की बेईमानी को, फिक्सिंग की गहराई तक पहुंचना संभव नहीं है।
बात काले धन पर कोरे श्‍वेत कागज की हो रही थी, उससे निकल अन्‍य कई काली चीजों पर केन्द्रित हो गई लेकिन पत्र श्‍वेत ही रहा। यह श्‍वेत पत्र की खासियत है कि इस पर कोई रंग असर नहीं करता, बशर्ते वह असरकारी हो। सरकारी असर तो दूर से ही चमकता है। कालेपन का यही असर है, वह सब जगह सरदार बनने में सफल रहता है। काले जादू की तरह असर जमाता है लेकिन अंधेरे में नजर नहीं आता है। नजरें धोखा दे जाती हैं या चूक जाती हैं। यहां पर भूल चूक लेनी देनी भी नहीं होती है। सब तुरंत ही सिमटाया जाता है। काले पानी की तरह धन दूर देश से विदेशी बैंकों में रहकर खुश रहता है। यह रंगों का निराला जीवन है। फिर भी जिन्‍हें काले धन का स्‍वाद रुचिकर लग जाता है, फिर उन्‍हें काला ही भाता है। गोरा तो जीवन धकेलने के लिए घर खर्च बन जाता है। गोरा धन, न मात्रा में, न चाहत में काले धन के सामने ठहर पाता है, सामने आता भी है तो लड़खड़ाकर गिर जाता है। काला धन महंगाई है, जिसकी कभी न होती रुसवाई है। उसकी वजह से जनता की छूटती रुलाई है। खाने वाले चाटते रहते मलाई हैं।
आंख भी काली होती है लेकिन उससे जीवन के सबरंग दिखते हैं। कौआ काला होता है परंतु उसकी कुटिलताओं से सभी पक्षी परिचित रहते हैं। यही कुटिलता कोयल की मृदुता में भी समाई रहती है। उसी के जाल में फंस कर कौआ कोयल के अंडों को सेता रहता है। अंडों के प्रति उसको खूब मोह रहता है। अगर वो जानता होता कि अंडे कोयल के हैं, लेकिन यहां पर सब जानते हैं कि काला धन घोटालेबाजों का है, घपलेबाज कौन हैं, सब जानते हुए भी न जाने क्‍यों मौन हैं, वैसे जो बोल रहे हैं, बतला रहे हैं, उनकी कोई नहीं सुन रहा है बल्कि उनको अपनी जान बचाने के लाले पड़ रहे हैं। कालेपन में सिर्फ यही एक लालपन है। सब जानते हैं कि काली चींटी भी होती है परंतु वह खूब मेहनती होती है। परिश्रम की धनी होती है। वह कभी श्‍वेत पत्र जारी नहीं करती। श्‍वेत पन्‍ने पर चलने का उसका स्‍वभाव नहीं है, अनायास श्‍वेत पन्‍ने पर दिखाई दे जाए तो पन्‍ना श्‍वेत नहीं रहता, कोरा नहीं रहता, उसका गोरापन संदिग्‍ध हो जाता है। चाहे कितना भी जोर लगा लें लेकिन काले मन और काले धन की थाह पाना और उसे अपने देश में लौटा लाना संभव नहीं रह गया है। यह बातें कागजी नहीं हैं बल्कि वास्‍तविक हैं।
श्‍वेत पत्र यानी गोरा कागज यही बतला रहा है। सारी ईमानदारी और अच्‍छाईयों को मुंह चिढ़ा रहा है। कोरे कागज की कहानी या कविता ही कहें, काले धन की धुन बनकर धमक मचा चुकी है। धमक अभी तक गूंज रही है। इसकी गूंज चैनलों पर, मीडिया में खूब सुनाई दे रही है। काले धन को बनाने और बचाने वाले बेतरह सफल हैं। इससे मालूम चलता है कि जिन घोटालों से काले धन का निर्माण किया गया है, वे अव्‍वल हैं। घोटाले सबल हैं। काले धन को देश में लाने की गुहार करने वाले बिल्‍कुल निर्बल हैं। जाहिर है कि काला धन ताकत है जबकि गोरा धन दुर्बलता का परिचायक है, यह श्‍वेत पत्र की मर्यादा बचाने के लिए पत्र पर नहीं उकेरा गया है। यह श्‍वेत पत्र की गहरी काली बातें हैं। इन्हें उजाले में नहीं लाया जा सकता। कालेपन की कड़वाहट भी श्‍वेत पत्र का रंग धूमिल नहीं कर सकी है क्‍योंकि सच ही कहा गया है कि डेमोक्रेसी में होती रही है जनता की ऐसी तैसी और सदा होती ही रहेगी, चाहे ब्‍यूरोक्रेसी कितनी ही बलवान हो जाए ?

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