महिलाओं की सुरक्षा करे अ(सुरक्षित) सरकार : दैनिक हिंदी मिलाप 22 जनवरी 2013 स्‍तंभ 'बैठे ठाले' में प्रकाशित



सरकारी सुरक्षा पाना सब चाहते हैं परंतु रिक्‍शे पर बैठकर उसे चलाने वाले के श्रम की उचित कीमत कोई नहीं देना चाहता है। वैसे देखा जाए तो सबसे सुरक्षित सवारी रिक्‍शा है, न तो वह तेज भागता है और न सवार उसकी कैद में ऐसा फंसता है कि उसके गिरने पर उसी में उलझ कर रह जाए। इधर सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए अन्‍य सभी टोटके तो कर रही है परंतु रिक्‍शों को चलने न देकर सभी को, मटकों में भरने में जुटी हुई है। जबकि सभी जानते हैं कि टोटकों से मटकों का भरना संभव नहीं है। किसी तरह भरने में सफलता मिल भी गई तो क्‍या गारंटी है कि मिट्टी का घड़ा सदा साबुत ही रहेगा, टूटेगा नहीं। खुद नहीं टूटा तो किसी के द्वारा फोड़ डाला जाएगा। मटके को फोड़ने के सबके अपने-अपने निहितार्थ हैं। वैसे भी अगर मटके फूटें न तो मटके बनाने और बेचने वालों के पेट भरने की एक ऐसी समस्‍या और सामने आ जाएगी, जिसके कारण सरकार की फजीहत होना अवश्‍यंभावी है। जबकि वह सरकार ही क्‍या जो फजीहतों में न फंसी हो। मेरा मानना है कि रिक्‍शे पर सवारी को हेलमेट पहनना अनिवार्य करने का उचित समय अब आ गया है।
सब जानते हैं कि घर में जितनी अधिक सुरक्षा है उतनी सुरक्षा किसी भी कीमत पर घर से बाहर नहीं मिल सकती। सरकारी जैड, एक्‍स, वाई और जैड एक्‍स सुरक्षाओं का होना तब तक बेमानी है जब तक महिलाओं के लिए चाक-चौबंद व्‍यवस्‍था नहीं कर ली जाती। आदमी भूखा रहकर तो जिंदा बच सकता है किंतु असुरक्षित होगा तो जरूर मरेगा। फिर भी यह मरने का जोखिम जरूर लेगा, इतना लालची हो गया है इंसान कि सुरक्षा भूल जाता है और घर से या तो मनोरंजन के लालच में बाहर निकल आता है या फिर नोट बटोरने का लालच उसे जिंदगी को जोखिम में डालने के लिए मजबूर कर देता है। बेबस होकर भी काली फिल्‍म लगी प्राइवेट बसों में सफर करता है, मेट्रो में चढ़ जाता है, टैक्‍सी में लद जाता है – यह सब फ्री नहीं है, इसके लिए वह पैसे चुकाता है और बलि भी चढ़ जाता है। अब भला ऐसा सफर किसलिए करना। जिसमें जान का जोखिम रहे और पैसे भी चुकाने पड़ें।
कर्म और फैसले इसमें सब हमारे होते हैं परंतु इसकी जिम्‍मेदार हम सरकार को बताते हैं। मानो सरकार से परमीशन लेकर हम घर से बाहर निकले हों या अपने सिर पर सीसीटीवी कैमरे लगवा रखे हों, जिनका सीधा प्रसारण पुलिस के कंट्रोल रूम में जारी हो और अति-सक्रियता के साथ  मोटर साइकिल और पीसीआर जिप्सियां लेकर सिर्फ आपकी सुरक्षा के लिए दौड़ने के इंतजार में हो। आपको मालूम है कि घर से बाहर सब जगह रिस्‍क है फिर क्‍यों महिलाएं घर के भीतर बैठकर सब दरवाजे, खिड़कियां बंद करके क्‍यों नहीं चैन की नींद सोती है आम पब्लिक बनकर।  अब यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि पुलिस की नौकरी तभी तक बची हुई है जब तक आप जोखिम-जोखिम खेल रहे हैं।
फिर कहते हैं कि सरकार कुछ कर नहीं रही है। अब सरकार नेताओं को, वीवीआईपी जनों को सुरक्षा मुहैया कराए कि आपकी बीवियों, मित्रों के चारों ओर बॉडीगार्ड बनकर हाथ खोलकर सदा चौकस रहे। सरकार के पास सिर्फ यही काम रह गया है कि सब अपराधियों के हाथ पकड़ने और जकड़ने में लगी रहे। हर हाथ को पकड़ना क्‍या इतना आसान है। हर हाथ पर निगाह रखना भी आसान नहीं है। जब तक मानसिकता नहीं बदलोगे, न तो सुरक्षा मिलेगी और न ही किसी को सुरक्षा दे पाओगे। कितने ही पिसी मिर्ची के पैकेट अपने पर्स में संभाल लो, अपने गैजेट्स को कितना ही अधुनातन प्रोग्राम्‍स से लबालब कर दो, कितने ही हैल्‍प लाईन नंबर मुहैया करवा दो, लेकिन यह कड़वा सत्‍य है कि किसी भी तरह से एक सौ प्रतिशत सुरक्षा नहीं मिलने वाली है। मिर्ची में भी रखे-रखे कीड़े लग जाया करते हैं। स्थिति अराजक और विस्‍फोटक ही बनी रहेगी। पुलिस की हैल्‍पलाइन का एक सौ नंबर रखना इसी सौ फीसदी की याद दिलाता रहता है।
जान लो कि सुरक्षा का रिक्‍शा सदैव एक सुर में नहीं चलाया जा सकता। जब वीवीआईपी हो तो सुरक्षा का सुर अलग तरह से बजता है। सुरक्षा के रिक्‍शे पर बैठने के लिए हर कोई तैयार रहता है। यही वह रिक्‍शा है जिसे पिछले दिनों बुरी तरह राजधानी दिल्‍ली में आम पब्लिक ने बुरी तरह घसीटा। जबकि इस रिक्‍शे को आम पब्लिक नहीं, पुलिस चलाती है। पुलिस की भूमिका वैसे भी सभी मोर्चों पर तनिक भी असंदिग्‍ध नहीं रही है। रिक्‍शा चलाने के लिए सरकार तो सरकार, उनकी मासूम पुलिस भी सुरक्षा चाहने वालों से वसूली में विश्‍वास रखती है। सुरक्षा का सरकारी रिक्‍शा गति पकड़े और पब्लिक को सुरसुरी भी न महसूस होवे, तो भला काहे की सुरक्षा हुई ?

2 टिप्‍पणियां:

  1. गुदगुदी के साथ चेताती है सबको! आपकी सुरक्षा आपके हाथ और सरकार की सुरक्षा भी आप के हाथ!

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  2. कितना भी कुछ करिये...जोखिम कहीं भी कभी भी उठाना पड़ सकता है.जिंदगी खतरों से खाली नहीं.

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