नेताजी के बयानों का मानसून : दैनिक जनवाणी 14 जुलाई 2012 में 'तीखी नज़र' स्‍तंभ में प्रकाशित


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आजकल बयानों का मानसून आया है। मानसून आए और सूखा टिका रहे, इसे दुर्भाग्य कह सकते हैं। एक नेतानी के बयान ने हड़कंप मचा दिया कि नेताओं के रीढ़ नहीं होती है। जबकि मेरा मानना है कि वे सांप भी नहीं होते। सांप उनसे बेहतर माने गए हैं। रीढ़विहीन नेता का मतलब बेपेंदी के लोटा है, उसे थाली का बैंगन कहने पर भी पब्लिक को एतराज नहीं, क्योंकि बैंगन और लोटे में तला नहीं होता। रीढ़विहीन नेता की उपमा पर केंचुए और सांप तो कुछ कहने से रहे। नेता प्रण नहीं करता और बैंगन में प्राण नहीं होते हैं। बैंगन की सब्जी बनाने के लिए काटने, भरता बनाने पर तलने, भूनने से किसी शाकाहारी को भी एतराज नहीं है। किसी व्यंग्यकार ने कोशिश की तो उसके अभिव्यक्ति के अधिकार पर तुरंत रोक लगाने की आशंका बनती है। दूसरे ही पल दूसरे नेताजी ने पुष्टि कर दी कि पार्टी का चाल-चलन ठीक नहीं है। मैं जिस पार्टी में शामिल हूं, वह भली नहीं है। इसका मतलब भले आप भी नहीं हैं। जो इसी पार्टी में बरसों से डेरा जमाए हैं। तीसरे नेता मंत्री क्यों पीछे रहते, कह बैठे कि मध्यवर्ग 20 रुपये की आइसक्रीम और 15 रुपये के पानी की बोतल खरीदने को तैयार है, और जब एक रुपये की बढ़ोतरी गेहूं-चावल में की जाती है, तो पेट में दर्द उठने लगता है। नेता गरीबी की सीमा 28 और 32 मनवाने में जुटे हैं, जबकि जनता हर रोज 20 रुपये की आइसक्रीम और 15 रुपये का बोतल का पानी पीती है। वे सिर्फ शहरियों की ही गिनती करते हैं, गांवों में कोई गिनती नहीं की जाती। मॉल्स ही दिखाई देते हैं इनको।

नेताओं की एक दल से दूसरे दल में आने-जाने की प्रवृति भी रीढ़ विहीनता को ही जाहिर करती है। रीढ़ होगी तो उसकी सुरक्षा करनी होगी। इसलिए रीढ़ का न होना ही नेतागीरी में उपयोगी है। नेताकर्म को अगर धर्म माना जाए, तो रीढ़ उसका र्ममस्थल है। इसे छिपाकर रखना हितकर होगा। नेताओं को संवेदनशील नहीं, चतुर और हाजिरजवाब होना चाहिए। संवेदना के बिना ही नेतागीरी धर्म माना जा सकता है। इसमें अंधविश्वास चाहिए और जितना अंधविश्वास धर्म के मसले में होता है, उतना अन्य किसी मुआमले में आज तक सिद्ध नहीं किया जा सका है। 

इधर एक नेता ने गेहूं-चावल के दाम बढ़ाने के लिए आइसक्रीम का मौसम मुफीद बताया है। उनका आशय मुझे यही समझ में आया है कि मध्यमवर्गीय या गरीब आदमी जब भी 20 रुपये की आइसक्रीम खाता है, तो वह सरकार को दैनिक जरूरत की चीज पर एक रुपया बढ़ोतरी का हक सौंप रहा होता है। अब पब्लिक को आइसक्रीम छिपकर खानी होगी। आइसक्रीम मत खाओ और गेहूं-चावल महंगा होने से बचाओ। ऐसे मनोरंजनपूर्ण वक्तव्यों के लिए कथित नेता कई बार व्यंग्यकारों की सुर्खियों में रह चुके हैं। आइसक्रीम 12 महीने खाई जाती है, ठंडी होने पर भी उसकी तासीर गर्म होती है। मंत्री जी के बयान ने यह साबित किया है।

बारहमासी यह व्यंजन अब जन की निंदा का सेतु बनेगा, ऐसा अहसास होने लगा है। उम्मीद है कि अब एक और मंत्री कुल्फी का जिक्र करेंगे कि 25 रुपये की कुल्फी खाओगे, तो बिजली पानी के रेट बढ़ने से कैसे रोक पाओगे। इन बदलावों का क्या अर्थ लगाया जाए। आइसक्रीम विलासिता की सूची में शामिल कर दी गई है। जबकि मोबाइल आवश्यकताओं की लिस्ट में। अभी तो समाज में कितने ही प्रतिमान रोजाना बदलने हैं। इसका र्शेय काबिल मंत्री और नेता लेने से कैसे चूक सकते हैं।

मैंने मध्यवर्ग का मजाक नहीं उड़ाया, कहकर मंत्री जी ने फिर एक बयान दिया कि उनके बयान को मीडिया ने धो-निचोड़कर पेश किया गया है। हम लोग तो चाहते हैं कि मध्यमवर्ग को समूचा ही उड़ा दिया जाए। महसूस होने लगा कि नेता और मंत्री को कुछ भी बोलने और किसी पर भी तोहमत लगाने का संविधानसम्मत संपूर्ण अधिकार मिल चुका है, क्या आपको भी ऐसा ही दुखद अहसास हो रहा है ?

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