चूहे दोबारा से से चर्चा में हैं जबकि इनसे अधिक चर्चा में रेलवे में सक्रिय वे दलाल हैं जो कि रोजाना टिकट बुकिंग में धांधली का धंधा करते हैं और अपने गालों की लालिमा बरकरार रखते हैं। तत्काल टिकट बुकिंग को लेकर आजमाए जा रहे नुस्खों को रोजाना दलाल धता बता रहे हैं। इसके अलावा भी वे टिकट बुकिंग के धंधे में धांधलियां करके हजारों कमा रहे हैं। माना कि वे चूहे नहीं हैं पर यात्रियों का चैन और मेहनत की कमाई को पैसों को कुतरने में कोई कोताही नहीं बरत रहे हैं। दलालों के कारनामों पर रोक लगाना रेलवे के लिए रेलें समय पर चलाने से अधिक कठिन काम हो गया है। वैसे पहले यह तय हो जाना चाहिए कि रेलवे में दलाल चूहे हैं या चूहे दलाल हैं। यूं तो चूहों का बोलबाला किचन से लेकर प्रत्येक नामचीन के घर तक निर्बाध रूप से है। पिछले दिनों तो चूहे हवाई जहाज में भी यात्रा करते पाए गए हैं। वह चूहा ही क्या जो सब जगह से हा हा हा करता न गुजर जाए और जहां से गुजरे वहां सबके लिए गुजारा करने के संसाधन मुहैया करवा दे। अपनी गुजर-बसर तो उसकी प्राथमिकता सूची में पहले से ही होती है। चूहों की खासियत है कि वे चहचहाते नहीं हैं लेकिन किटकिटाते जरूर हैं। जिसे आप सुनते हुए भी नहीं सुन पाते हैं। चूहे चने नहीं चबाते, अगर चूहों ने चार चने चबा लिए होते तो चने के खेत में आपको चूहे ही चूहे मिलते। चने वहां से फुर्र हो गए होते। चना चबैना कुर्र ... । चूहे चाचा नहीं होते हैं फिर भी किसी को मामा नहीं बनाते हैं।
अब एकदम ताज़गी भरी खबर आई है कि चूहों से मुक्ति के लिए रेलवे ने 14 लाख का ठेका दिया है, यह युक्ति यूं तो कारगर लगती है क्योंकि 7 से 8 हजार चूहों को मारने में सफलता भी मिल गई है पर इस रेट से एक चूहे की कीमत की गणना की जाए तो चौंकाती है। फिर भी देश जब महंगाई और नेताओं की अंगड़ाई से नहीं चौंकता तो एक अदद चूहे के रेट से भला क्यों चौंकने लगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस संबंध में मेनका गांधी से स्वीकृति ले ली गई थी। जैसे दलालों से निजात पाने के लिए जो ठेका पुलिस को दिया जाना चाहिए था, उसकी जगह खुद ही अफसरों ने अपना दिमाग मारना शुरू कर दिया। दलालों के चेहरे लाल इसी वजह से दिखाई दे रहे हैं और इसी कारण स्थिति पहले से बदतर हुई है। जिसे बेहतरीन बनाने के प्रयास जारी हैं। आश्चर्य मत कीजिएगा अगर रेलवे दलालों से निजात पाने के लिए चर्चित दलालों से ही सौदेबाजी शुरू कर दे, इससे दलाल भूखे भी नहीं मरेंगे और टिकटों में हेराफेरी भी नहीं होगी। इसे कहते हैं ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ जबकि इस देश में पुलिस की लाठी का प्रयोग दलालों पर न करके ‘योगगुरुओं’ पर किया जाता है।
जब चूहों से निजात पाने की 14 लाख वाली कोशिशें विफल हो जाएंगी तब यह पता लगवाया जाएगा कि कहीं गलती से चूहों को मारने की सुपारी चूहों को ही तो नहीं दे दी गई थी। इस बाबत जिन चूहों को जानकारी मिल गई है, वे अपनी-अपनी जानबचाऊ याचिकाएं लेकर महामहिम के पास पहुंच गए हैं। इतनी सारी याचिकाएं देखकर महामहिम हतप्रभ होते हुए भी प्रसन्न हैं कि इतनी अधिक जान बचाने का श्रेय उन्हें मिलने वाला है और बचने और बचाने वालों का नाम विश्व कीर्तिमानों में शामिल हो सकता है। आखिर लाखों-करोड़ों चूहों को जीवनदान देना कोई कम साहस का काम नहीं है। जान बचने से चूहे जब खुश हो जाएंगे तो क्या मालूम वे कुतरने के लिए राष्ट्रपति भवन में ही डेरा जमा लें। आखिर वे चूहे हैं। फिर भी उन्हें मालूम है कि इतने बड़े भवन में बिल्ली नहीं होंगी और अगर होंगी भी तो उनके छिपने के लिए खूब सारी जगह है, वे उन्हें कहां तलाश पाएंगी। गले पर बन आई तो बाहर मुगल गार्डेन में अपने बिल बनाकर उनमें घुस-छिप जाएंगे।
चूहे कह रहे हैं कि कभी सरकार का कोई विभाग उन पर करोड़ों का अनाज खाने का आरोप लगा देता है और फिर रेल प्रशासन उन्हें मारने का साढ़े चौदह लाख का ठेका उठा देता है। चाहते तो सभी हमें हैं परंतु कोई मारना और कोई हमारे बहाने तरना। लगता है कि चूहे काला धन बनाने की मशीन बनकर रह गए हैं। चूहे के बहाने काला धन बनाना इतना आसान हो जाएगा, इस रहस्य से तो चूहे भी परिचित नहीं थे। चूहे यूं तो अन्य बहुत सारी विधियों से भी परिचित नहीं हैं पर वे चूहे हैं इसलिए संतुष्ट हैं। कुछ खाने-कुतरने को न मिले तब भी वे दांत किटकिटाकर अपना काम चला लेते हैं। अब दांत किटकिटाते वक्त क्या वे जुगाली कर रहे होते हैं या दांतों को पैना कर रहे होते हैं, इस बारे में जानकारी जुटाई जा रही है। गाय-भैंसें भी चूहों के द्वारा जुगाली करने की खबरों की सत्यता जांचना चाह रही हैं। पर भैंस के लिए तो काला अक्षर उसके अपने बराबर ही है इसलिए वह अखबार की खबरों पर नजर नहीं रख पा रही है और गाय तो गाय है, वह अखबार पढ़ने या चैनल देखने लग जाए, तो फिर काहे की गाय। गाय एफ एम चैनलों पर डीजे बनने और चैनलों पर एंकर बनने की फिराक में है।
चूहे सदा चर्चा में बने रहते हैं। चूहे अपने बिलों में भी बने रहते हैं। चूहे नालियों में कीचड़ में भी सने रहते हैं। चूहे अछूत होते भी हैं और नहीं भी। चूहे प्लेग फैलाते भी हैं और नहीं भी। चूहे आज भ्रष्टाचार के फैलने में सहायक बन रहे हैं। इसलिए चूहे शर्मसार हैं क्योंकि वे इंसान नहीं है, वे नेता नहीं हैं। आज उनका शर्मसार होना या शर्म से अपने बिलों में गड़ना दिखाई दे रहा है। जबकि उन्हें मारने का ठेका उठाने वाले कह रहे हैं कि वे अपने-अपने संकरे बिलों में जाकर छिप गए हैं। छोटे-छोटे छिपे रुस्तम हैं चूहे। फिर भी आप उन्हें ‘देव’ अथवा ‘दारा’ मत समझ बैठना।
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