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श्रम दिवस के बदले : दैनिक राष्ट्रीय सहारा में 1 मई 2012 अंक में प्रसंगवश स्तंभ में प्रकाशित
चाहे हंसी-मजाक में ही कहा जाता है कि मजदूर यानी मजे से दूर,मजदूर के पास मजे के पास। पर इसमें एक खौफनाक तल्खी छिपी हुई है। मई माह का पहला पूरा दिन सिर्फ मजदूरों की चर्चा के लिए नियत है। ऐसा नहीं है कि इस एक दिन मजदूरों को बिना काम किए पगार मिलेगी या अधिक मिलेगी। जब उतनी मिलने की भी गारंटी नहीं है जितने पर अंगूठा लगवाया जाता है तो अधिक की सोचना ही बेमानी है। कारण इसमें सब तरफ बेईमानी ही पसरी हुई है। चर्चा पूरे दिन मजदूर की ही की जाएगी। मई महीने में भीषण गर्मी का प्रकोप रहता है इससे निजात पाने के लिए, इन चर्चा-आयोजनों में भाग लेने वालों के लिए इस एक दिन ठंडे का बेहिसाब इंतजाम किया जाता है। यह इंतजाम जेब को गर्म करने के लिए भी आवश्यक है। चाहे मौसम कितना ही गर्म हो पर जेब उससे भी गर्म रहनी चाहिए। ठंडी जेब रहे, ऐसे कार्य कभी नहीं सुहाते हैं। मीडिया और अखबारों तथा पत्रिकाओं में भी मजदूरों की हिस्सेदारी को लेकर,जबकि वो पहले से ही काम करते हुए सभी जगह मौजूद है, विमर्श यही होगा कि कैसे नित नए तरीकों से उसका शोषण किया जा सकता है। एक से एक नायाब तरीकों से उसका शोषण करके उसको विशिष्टता का अहसास कराये जाने के ऐसे आयोजन नितांत जरूरी हैं।
इस दिन मजदूर को खाने का समय एक घंटे के बजाय दो घंटे भी नहीं दिया जाएगा और न शाम को ही एक घंटे पहले छुट्टी दी जाएगी। वो बात दीगर है कि वो बीड़ी फूंकने या चाय सुड़कने के बहाने कुछ पल यूं ही गुजार ले। ऐसा करने से भी मजदूर दिवस पर कोई आंच नहीं आती है। मजदूर दिवस पर ही क्यों, हर दिन मजदूर बेबस है। आज खास इसलिए है क्योंकि उसके बारे में खुली चर्चा हो रही है।
मजदूरी में मेहनत करते हुए भी ऐसा बोध होता रहे कि आज का दिन खास है तो विशेषता का मजा लिया जा सकता है। जबकि विडंबना देखिए, उसे खुद नहीं मालूम होगा कि आज मजदूर दिवस है। अगर अखबार पढ़ पाता तो शायद जान भी पाता पर पेट बचाने की जुगत से फुरसत मिले तो ऐसे खटराग सुहाते हैं पर फिर मजदूर कहां रह पाता वो ? साहब बन जाता, कंप्यूटर नहीं चलाता। अभी सिर्फ अखबार और कंप्यूटर को ढोता है, सच मानिए, इसलिए ही तो रोता है।
अगर वो पढ़ने समझने लायक ही हो गया होता तो मजदूर क्यों बनता। वो मजदूर नहीं बनता, तो सभी साहब बन जाते फिर बिना मजदूरों के समाज कैसे प्रगति करता। समाज की प्रगति के लिए इनकी दुर्गति जरूरी है। भला अपनी खुशी से कोई मजदूर बनता है। पर जब रसोई में बनाने के लिए और कुछ न हो तो पेट पालने के लिए मजदूर बनने में भी खुशी मिलती है। जबकि रसोई के नाम पर सिर्फ चूल्हा ही होता है जिसके लिए लकड़ी या केरोसीन बहुत मुश्किल से मयस्सर होता है। पर जो मजदूर भी नहीं बन पाते तो पेट पालने के लिए लूटमारी और छीना झपटी करते हैं। मजदूरी की इस वैरायटी में पेट पालना गौण पर असल धर्म मौज उड़ाना होता है।
मजदूर से जुड़े सभी जरियों को उसकी मेहनत का भरपूर लाभ बिना अतिरिक्त मेहनत किए मिलता रहता है, जिसे कहा जाता है कि वे दिमाग की खाते हैं और दिमाग से वे ही कमायेंगे जिनके पास। .... और मजदूर दिमागरहित ही होता है। मजदूर को इस सच्चाई का इल्म नहीं होता इसीलिए तो उस पर जुल्म होता है। आजकल तो प्लेसमेंट वाले भी उसकी मजदूरी में सेंध लगाने के लिए सक्रिय हो चुके हैं। उनकी मजदूरी भी दिमाग वाली ही है, कमीशन मत कहिए उसे, मिशन-ए-नोट है यह।
मजदूर ही क्या हुआ जिसने हाड़-तोड़ मेहनत न करी। अधिक मेहनत करेगा तभी तो सुकून की नींद आएगी। मजदूर को उसकी चैन की नींद मिलना ही उसकी मजदूरी का सच्चा इनाम है। एक मजदूर ही तो है जो कामचोर नहीं है। जबकि चोरी करना भी दिमाग वालों का ही काम है। बेअक्ल क्या खाक चोरी किया करते हैं ?
डेमोक्रेसी अथवा शासन के सभी तरीकों में मजदूर की ऐसी-तैसी होना प्रीफिक्स्ड है। श्रम दिवस के बदले शर्म दिवस मनाया जाना चाहिए –प्रत्येक प्रकार के शासन में खूब मसले होते हैं जिन पर शर्म की जानी चाहिए। पर नहीं की जाती है इसीलिए श्रम दिवस को आज तक शर्म दिवस घोषित नहीं किया जा सका है। अगर श्रमिकों की दुर्दशा पर कुछ किया ही नहीं जाना है तो मजदूर दिवस को शर्म दिवस मान लेना चाहिए।
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