संसद और रुपये की गिरावट : जनवाणी 31 मई 2012 में प्रकाशित




संसद भी एक बाजार है बल्कि यूं कहना अधिक समीचीन होगा कि बाजार के दबाव से दब चुका है। आजकल उसे दबाया-सजाया जा रहा है। एक बाजार लोक के लिए है लेकिन इंटीरियर का काम राज्‍यसभा के लिए किया गया है। संसद में चीयर्स गर्ल्‍स, अरे, चीयर्स ग्‍लर्स नहीं आइटम गर्ल्‍स का जिक्र सुनकर आप चौंक जाएंगे। वैसे भी चौंकना अवाम के लिए जरूरी है। कभी उसे चैनल चौंकाते हैं, कभी बाबा और कभी सेलीब्रिटीज और बाजार ने तो चौंकाने का मानो ठेका ही उठा रखा है। अभिनेत्री रेखा का राज्‍य सभा में प्रवेश, उस रेखा को कभी न गरीब जन की चिंता रही है और न कभी जन-जन से जुड़े सरोकारों की। सेलीब्रिटीज का काम यूं ही चल जाता है। एक खिलाड़ी को राज्‍यसभा की ओर दौड़ाया गया है क्‍योंकि जुए और खेल में दौड़ना जरूरी है। फिक्सिंग के लिए दौड़ना, काली कमाई के लिए क्रिकेट में घोड़ों को खोलना है। दौड़ना सिर्फ दौड़ना है। दौड़ शुरू होती है और यकदम से भागमभाग में बदलती हुई दिखाई देती है। बाल फेंकने से लेकर रन के लिए दौड़ने का नंबर टीम में शामिल दौड़ में विजयी होने पर ही आ पाता है। जो विजयी होता है, वह फिर सभी प्रकार की दौड़ में पारंगत हो जाता है। पैसों के लिए दौड़ प्रमुख हो जाती है। पैसा जो चाहे काला है या गोरा है, बॉल नहीं है लेकिन सबसे अधिक उसी का बोलबाला है।
पहले सजना फिर दौड़ना। फिर संसद में बैठकर आपस में बोलते हुए सिरों को तोड़ना-फोड़ना – इतना सरल नहीं है, यह सब संसद में शक्ति-प्रदर्शन का परिचायक है। आसान तो फिक्सिंग भी नहीं है लेकिन क्‍या संसद में रेखा नहीं खींची जानी चाहिए, सो खींच दी गई। गरीबी की खींचना मुफीद नहीं रहता, सो अमीरी की खींची गई। खींचना जरूरी है, नहीं तो कोई भी आपको कब खींच देगा, आपको खिंचने के बाद ही मालूम चलेगा। अब इसमें भी आपत्तियां सामने आ रही हैं। आपत्ति-कार्य सबसे सरल है, इसे विरले नहीं करते। फिर भी शुक्र है कि सब नहीं करते हैं। कुछ करके माफी मांग लेते हैं क्‍योंकि वे माफी मांगकर मन में विभम्र पैदा करने में विशेषज्ञता रखते हैं। यह बाजार का मन पर छाया आधिपत्‍य है। फिर भी रेखा को राज्‍य सभा और सचिन को इस सभा में दौड़ने के लिए कहना, कठपुतली का खेल तो नहीं कहा जा सकता है। सचिन को ‘भारत रत्‍न’ न देने की विवशता को, नियमों को दरकिनार कर राज्‍य सभा की सदस्‍यता देकर बतौर मुआवजा दी गई। जैसे बच्‍चे को टाफी देकर बहला दिया जाता है और महंगा खिलौना बाद में देने का वायदा करके उसे फांस लिया गया, ताकि उसे फांस की चुभन न महसूस हो।
दौड़ सिर्फ शिखर के लिए ही नहीं होती है, डर के कारण भी दौड़ा जाता है। लोग डराने के लिए भी खूब तेजी से दौड़ते हैं लेकिन डर से दौड़ने वाले से कभी कोई बाजी नहीं मार पाया है। वह सदा आगे ही रहता है। किसी भी प्रकार की पकड़ की जकड़ से बचने के लिए यह सब करना आवश्‍यक है। अनेक बार न दौड़ने वाला भी शिखर पर दिखाई देता है। इसे‍ फिक्सिंग के जरिए शिफ्टिंग कह सकते हैं। शिफ्ट करने के लिए आजकल मजबूरों और मजदूरों की नहीं, लिफ्ट की जरूरत रहती है। राज्‍यसभा में सीट पक्‍की करना न लिफ्ट है, न शिफ्ट है, न फिक्‍स है – यह गिफ्ट है। गिफ्ट किसने किसे दिया है। गिफ्ट यानी उपहार – यह बिग हार है, शिखर पर पहुंचने के समान है। हार होकर भी हार में सबसे बड़ी जीत है। यही आज के बाजार की रीत है। सब इसी से प्रीत कर रहे हैं। घर, जेबें, महत्‍वाकांक्षाएं मन की पूरी कर रहे हैं।
संसद जिसमें अब बत्‍ती सिर्फ आती ही नहीं है, जाती भी है। सुगंध जाए, मत जाए लेकिन दुर्गंध घुसी चली आ रही है। यश और सत्‍ता के शीर्ष पर पहुंचाती है। शीर्ष पर पहुंचना शीर्षक बनना है। हर्ष ही इस खेल का उत्‍कर्ष है। यहां पर रन नहीं बनाए जाते हैं। यहां पर बेइंतहा ऊधम मचाकर भी शीर्षक बना जाता है। जोरों से चिल्‍लाते हैं। अपनी कहने को बौराते हैं, खूब तूती बजाते हैं। उस समय लगता है कि मानो संसद नक्‍कारखाना हो, सब अपनी-अपनी तूतियां बजा रहे हैं। पुंगियों की आवाज कोई सुनना नहीं चाहता है। सुन तो कोई तूतियों की आवाज भी नहीं रहा है। जब सब एक साथ बजाएंगे तो कैसे सुन पाएंगे।  कान पक रहे हैं, कच्‍चे न रह जाएं यानी बौराना सत्‍ता का पागलपन है। इसी पागलपन में छिपा अपनापन है। यही सपना था जो अब वास्‍तविकता है। तय है, सपने सपने ही रह जाते हैं जो दूर नहीं दिखाई देते हैं। वह भी वास्‍तविकता के जगत में जमे नजर आते हैं।
संसद पर बाजार का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह कैसा विकास है कि रुपया तो गिर रहा है लेकिन उसे गिराने में कौन सी ताकतें सक्रिय हैं, इसका आभास जनता को नहीं हो रहा है, अगर आप जानते हैं तो जनता के ज्ञान में इजाफा जरूर करिएगा।

आज 'भारत बंद' है, चलो चलकर खोलें : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट में 31 मई 2012 को प्रकाशित



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‘आज मोहब्‍बत बंद है’ गीत फिजा में गूंज रहा है जबकि ‘आज भारत बंद है’ जब भारत बंद होगा तो मोहब्‍बत पर तो अपने आप ही लॉक लग जाएगा। पहले चार अक्षर उस लोकप्रिय फिल्‍मी गीत के नाम, जिसने मोहब्‍बत को बंद बतला कर एक जमाने में मोहब्‍बत करने वालों के कलेजे में तूफान मचा दिया था, वैसे ही जैसे अंधड़ आता है। उसी गीत का सकारात्‍मक संदेश यह है कि मोहब्‍बत तो बंद हो सकती है लेकिन हिंसा, रक्‍तपात, खून खराबा, मारपीटी नहीं शुरू होनी चाहिए। इसके विपरीत आज भारत बंद और उधर हिंसा का नंगा नाच ओपन हो चुका है, जिसमें नाचने वाले नेताओं के शागिर्द होते हैं, वे ऊधम, हो हल्‍ले, हंगामे को नाच बतलाते नहीं शर्माते हैं। इन्‍हें आप भाईजी, गुंडे, बाउंसर, सक्रिय कार्यकर्ता इत्‍यादि नामों से पहचानते हैं। वैसे सच्‍चाई यह है कि धरती का आधार प्रेम है। प्रेम से ताकतवर कुछ नहीं है। प्रेम के बिना झगड़े भी नहीं है। किसी से प्रेम होगा तो किसी से उसी प्रेम के लिए झगड़ा भी होगा। यही इस सृष्टि का सनातन सत्‍य है। इसमें कोई बुराई नहीं है। यह बुराई न हो तो आप अच्‍छाई को न तो पहचान ही पाएं और न उसका उचित मोल ही लगा पाएं। बाजारवाद के इस युग में कीमत लगाना बहुत जरूरी है क्‍योंकि जब तक कीमत नहीं लगती, तब तक जनता मत नहीं देती है। लोकतंत्र में मत शक्तिस्‍वरूपा है।
भारत बंद बुराईयों को हटाने के लिए प्रेम का शक्ति प्रदर्शन है। बुराईयां जिन्‍हें सत्‍ता वाले अच्‍छाईयां मानते हैं और बे-सत्‍ता वाले ? विरोध करने का एक तरीका भारत बंद करने का चला आ रहा है। महात्‍मा गांधी जी ने अनशन का रास्‍ता अपनाया। बे-सत्‍ता वालों ने भारत बंद का। लेकिन मेरी समझ में अब तक यह समझ नहीं आया कि ‘भारत बंद’ कहां पर किया जाता है। इसके लिए किसी भारत घर की व्‍यवस्‍था नहीं है। काले धन की तरह इसे किसी विदेशी भूमि पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है। चिडि़याघर काफी लंबे चौड़े होते हैं लेकिन उसमें से चिडि़यों को बाहर निकालें, तब भारत को बंद करने की सोचें। परंतु चिडि़याएं कौओं के लिए अपना घर खाली करने से रहीं और अपने साथ तो वे उन्‍हें रखेंगी नहीं। और उस छोटे से चिडि़याघर में भारत को कैसे बंद कर पाएंगे। लेकिन फिर भी जब बे-सत्‍ता वाले कह रहे हैं तो कुछ जानते होंगे तभी तो कह रहे हैं। फिर भी मेरा कवि मन कह रहा है कि हो सकता है कि वे प्रतीक तौर पर भारत बंद का शोर मचाते हों। करते तो हों दुकानें बंद, मार्केट बंद, आफिस बंद, यातायात बंद, सिनेमा हाल बंद और चिल्‍लाते हैं कि कर दिया भारत बंद। माना कि भारत दुकानों में बसता है, बसों में टहलता है, ऑटो और टैक्सियों में सफर करता है, रिक्‍शे पर सवारी करता है, किसी को पैदल भी नहीं निकलने देंगे और खुद भाईगिरी करते छुट्टे घूमेंगे। गाय की तरह तो घूमने से रहे, सांड की तरह ही घूमेंगे। सोचते हैं कि उनकी इस बहादुरी से सत्‍ता उनके सामने घुटने टेक देगी जबकि सत्‍ता यानी सरकार के घुटने कभी अपने नहीं हुए, वह तो सदा इसके उसके तेरे या मेरे घुटनों का इस्‍तेमाल करती है। रही बात टी वी और अखबार वालों की उनको इसलिए बंद नहीं करते कयोंकि उनके सहयोग के बिना इनके कारनामे जग जाहिर कैसे होंगे और इन्‍हें यह भारत बंद से अलग रखना चाहते हैं। नेता बंद कैसे होंगे, वे तो चौबीस घंटे में 96 घंटे खुले रहते हैं। न्‍यू मीडिया पर अभी सरकार का ही बस नहीं चल रहा है तो इन बे-सत्‍तावासियों का कैसे चलेगा। वे भी इनके प्रचार में सगे भाई का रोल कर रहे हैं।

भारत, भारत न हुआ कोई गुनहगार हो गया। इसे तुरंत बंद कर दो। पेट्रोल के रेट कैसे बढ़ाए, सीएनजी के रेट क्‍यों बढ़ाए, कीमतों को बंद नहीं करके रखा इसलिए भारत को तो बंद होना ही होगा। भारत बंद होगा तो रेट खुल जाएंगे, यह नहीं समझ रहे कि खुलते ही रेट और ऊपर चढ़ जाएंगे। फिर किसे किसे बंद करवाएंगे। भारत क्‍या है, अगर संसद भारत है, नेता भारत है तो क्‍या उन्‍हें बंद करना इतना आसान है। बंद करना है तो पुलिस के अत्‍याचारों को करो, ब्‍यूरोक्रेसी में भ्रष्‍टाचार फैलाने वालों को काबू करो, अच्‍छाईयों के दुश्‍मनों को करो। पर उन पर आपका बस कहां चलता है। वहां पर तो आप सिरे से पैदल चलना शुरू कर देते हैं। भारत बंद का शोर मचाते हैं और एक मकान तक बंद नहीं कर पाते हैं, बुरे विचारों पर लगाम नहीं लगा पाते हैं। नेताओं की बकवास को बंद कर नहीं पा रहे हो और भारत बंद करने के ठेके उठा रहे हो।
सचमुच में बंद करने का इतना ही मन है तो कन्‍या भ्रूण हत्‍या को करो, प्रसव पूर्व लिंग जांच को करो, मिलावटी दवाईयों को रोको, अपनी बंद करने की ताकत को इनके खिलाफ झोंको। क्‍या आप नहीं जानते कि एक चूहे को चूहेदानी में बंद करने के लिए भी कितनी मशक्‍कत करनी होती है, बिना यह जाने चल दिए हैं कि पूरा भारत बंद करेंगे। पहले एक चूहा तो चूहेदानी में बंद करने का जौहर दिखलाओ। भारत बंद करने का आशय देश की सक्रियता को किडनैप करके देश को नुकसान पहुंचाने से है जबकि देश का अपहरण तो पहले से ही नेताओं ने निजी लाभ के लिए कर रखा है और उसके लिए घोटाले, घपलों में पूरी मुस्‍तैदी से बेखौफ होकर जुटे रहते हैं। मैं तो नहीं चाहता कि बंद रूपी ग्रहण का वायरस  मोहब्‍बत या भारत को लगे, आप क्‍या महसूस कर रहे हैं ?

आज 'भारत बंद' है : दैनिक हरिभूमि में 31 मई 2012 को प्रकाशित


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आज मोहब्बत बंद है’ गीत फिजा में गूंज रहा है जबकि आज भारत बंद है। जब भारत बंद होगा तो मोहब्बत पर तो अपने आप ही लॉक लग जाएगा। पहले चार अक्षर उस लोकप्रिय फिल्मी गीत के नाम, जिसने मोहब्बत को बंद बतला कर एक जमाने में मोहब्बत करने वालों के कलेजे में तूफान मचा दिया था, वैसे ही जैसे अंधड़ आता है। उसी गीत का सकारात्मक संदेश यह है कि मोहब्बत तो बंद हो सकती है लेकिन हिंसा, रक्तपात, खून खराबा, मारपीटी नहीं शुरू होनी चाहिए। इसके विपरीत आज भारत बंद और उधर हिंसा का नंगा नाच ओपन हो चुका है, जिसमें नाचने वाले नेताओं के शागिर्द होते हैं, वे ऊधम, हो हल्ले- हंगामे को नाच बतलाते नहीं शर्माते हैं। इन्हें आप भाईजी, गुंडे, बाउंसर, सक्रिय कार्यकर्ता इत्यादि नामों से पहचानते हैं। वैसे सच्चाई यह है कि धरती का आधार प्रेम है। प्रेम से ताकतवर कुछ नहीं है। प्रेम के बिना झगड़े भी नहीं है। किसी से प्रेम होगा तो किसी से उसी प्रेम के लिए झगड़ा भी होगा। यही इस सृष्टि का सनातन सत्य है। इसमें कोई बुराई नहीं है। यह बुराई न हो तो आप अच्छाई को न तो पहचान ही पाएं और न उसका उचित मोल ही लगा पाएं। बाजारवाद के इस युग में कीमत लगाना बहुत जरूरी है क्योंकि जब तक कीमत नहीं लगती, तब तक जनता मत नहीं देती है। लोकतंत्र में मत शक्तिस्वरूपा है। भारत बंद बुराईयों को हटाने के लिए प्रेम का शक्ति प्रदर्शन है। महात्मा गांधी ने अनशन का रास्ता अपनाया। बे-सत्ता वालों ने भारत बंद का। लेकिन मेरी समझ में अब तक यह समझ नहीं आया कि भारत बंद कहां पर किया जाता है। इसके लिए किसी भारत घर की व्यवस्था नहीं है। काले धन की तरह इसे किसी विदेशी भूमि पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है। चिड़ियाघर काफी लंबे-चौड़े होते हैं लेकिन उसमें से चिड़ियों को बाहर निकालें, तब भारत को बंद करने की सोचें। परंतु चिड़ियाएं कौओं के लिए अपना घर खाली करने से रहीं और अपने साथ तो वे उन्हें रखेंगी नहीं। और उस छोटे से चिड़ियाघर में भारत को कैसे बंद कर पाएंगे। लेकिन फिर भी जब बे-सत्ता वाले कह रहे हैं तो करते हों दुकानें बंद, मार्केट बंद, आफिस बंद, यातायात बंद, सिनेमा हाल बंद और चिल्लाते हैं कि कर दिया भारत बंद। भाईगिरी करते छुट्टे घूमेंगे। सरकार के घुटने कभी अपने नहीं हुए, वह तो सदा इसके उसके तेरे या मेरे घुटनों का इस्तेमाल करती है। रही बात टीवी और अखबार वालों की उनको इसलिए बंद नहीं करते क्योंकि उनके सहयोग के बिना इनके कारनामे जग जाहिर कैसे होंगे और इन्हें यह भारत बंद से अलग रखना चाहते हैं। नेता बंद कैसे होंगे, वे तो चौबीस घंटे में 96 घंटे खुले रहते हैं। न्यूज मीडिया पर अभी सरकार का ही बस नहीं चल रहा है तो इन बे-सत्तावासियों का कैसे चलेगा। वे भी इनके प्रचार में सगे भाई का रोल कर रहे हैं। भारत, भारत न हुआ कोई गुनहगार हो गया। पेट्रोल के रेट कैसे बढ़ाए, सीएनजी के रेट क्यों बढ़ाए, कीमतों को बंद नहीं करके रखा इसलिए भारत को तो बंद होना ही होगा। भारत बंद होगा तो रेट खुल जाएंगे, यह नहीं समझ रहे कि खुलते ही रेट और ऊपर चढ़ जाएंगे। बंद करना है तो पुलिस के अत्याचारों को करो, ब्यूरोक्रेसी में भ्रष्टाचार फैलाने वालों को काबू करो, अच्छाईयों के दुश्मनों को करो। पर उन पर आपका बस कहां चलता है। भारत बंद का शोर मचाते हैं और एक मकान तक बंद नहीं कर पाते हैं, बुरे विचारों पर लगाम नहीं लगा पाते हैं। नेताओं की बकवास को बंद कर नहीं पा रहे हो और भारत बंद करने के ठेके उठा रहे हो। सचमुच में बंद करने का इतना ही मन है तो कन्या भ्रूण हत्या को करो, प्रसव पूर्व लिंग जांच को करो, मिलावटी दवाईयों को रोको, अपनी बंद करने की ताकत को इनके खिलाफ झोंको। क्या आप नहीं जानते कि एक चूहे को चूहेदानी में बंद करने के लिए भी कितनी मशक्कत करनी होती है, बिना यह जाने चल दिए हैं कि पूरा भारत बंद करेंगे। पहले एक चूहा तो चूहेदानी में बंद करने का जौहर दिखलाओ। भारत बंद करने का आशय देश की सक्रियता को किडनैप करके देश को नुकसान पहुंचाने से है जबकि देश का अपहरण तो पहले से ही नेताओं ने निजी लाभ के लिए कर रखा है। मैं तो नहीं चाहता कि बंद रूपी ग्रहण का वायरस मोहब्बत या भारत को लगे, आप क्या महसूस कर रहे हैं ? 

पेट्रोल की प्रेम पाती : डीएलए 28 मई 2012 में प्रकाशित


पेट्रोल की प्रगति देखकर सब दुखी हैं। यह नहीं देखते कि कितना उपयोगी हैउपयोगी है इसीलिए तो रेट बढ़ रहे हैं। पानी के क्‍या कम बढ़े हैंपहले प्‍याऊ वगैरह में फ्री में इफरात में मिलता रहा है। अब बोतलों में हाजिर है। कितना जोखिम लेकर जी रहा हूंतनिक सी चिंगारी स्‍वाह कर देती है मुझे। कोई आह भी नहीं कर पाता और स्‍वाहा हो जाता है। गर्मियों में तनिक सी गर्मी में ये दिमाग पर चढ़ गई तो क्‍या हो गया। पेट्रोल से जब इतना प्‍यार करते हो तो उसकी कीमतें बढ़ने को भीसहो। जिसे प्‍यार किया जाता है उसकी जायज मांगों के साथनाजायज मांगों को भी तो खुशी खुशी स्‍वीकारा जाता है। अभी तो साढ़े सात ही बढ़ाया है, एक सौ रुपये तो नहीं पहुंचाया है। पेट्रोल की प्‍यार कथा जारी है। खूब तन्‍मय होकर सुना रहा है।
क्‍या यह सही लगता कि रेट तो वही रहता और लीटर में मिलीलीटर घटाकर 300 कर दिए जाते। उसमें तो तुम्‍हारा ही नुकसान होता। देश की प्रगति का बढ़ता आंकड़ा ही नहीं दिखाई देता। फिर चिल्‍लाते कि नाप तोल कम कर दी है। हल्‍ला मचाते कि मिलीलीटर उतने ही रहने देते। महंगा चाहे बीस रुपये कर लेते। अब साढ़े सात रुपये बढ़ाये हैंतो नानी याद आ रही है। नानी जब कहानियां सुनाती थीं तो कितना खुश होते थे। पेट्रोल के बहाने नानी और नानी के बहाने कहानी की याद। कितना दिल खुश होता है। जब याद आता है कि एक था राजाएक थी रानीदोनों मर गएखत्‍म कहानी।
लो सुनोनई कहानी - एक था पेट्रोलएक था मिट्टी का तेलएक डीजल भी है जिसमें जल नहीं है – तीनों के बढ़ गए हैं रेटजाओ खोल दो खुशी के गेट। इसमें रोने की क्‍या बात है। नानी की याद आने वाली है। नानी जो कहानी सुनाती थी। जगते थे तो सुनते सुनते सो जाते थे। रोते थे तो सुनते सुनते सो जाते थे। हंसते थे तो सुनते सुनते हंसते ही रहते थे। नानी की याद कराना कोई हंसी खेल है। इतनी मुश्किलों से तो याद दिला रहेहैं। अभी एक पेट्रोल पम्‍प का ठेका मिल जाए,या मिट्टी के तेल का डिपो – फिर तो चाहोगे कि सरकार रोज ही रेट बढ़ाए या तुम्‍हें बढ़ाने दे। फिर नहीं चिल्‍लाओगेपूरे मोहल्‍ले भर को मिठाई खिलाओगे। नुक्‍कड़ पर नाचोगे। पल पल पर पेट्रोल,घासलेट के बढ़ते रेटों को बांचोगे। समझ लो पेट्रोल पंप के मालिक हो गए हो। फिर क्‍या गम है,सबमें तुमसे और तुम्‍हारे में सबका दम है। जिस देश में रहते हो उसका ही विकास नहीं देख सकते। डीडीए के फ्लैटों के लिए आवेदन मांगे गए तो कितने सारे भर दिए,तब तो कोई नहीं चिल्‍लाया कि इतने पैसे क्‍यों मांग रहे होइतने रेट क्‍यों बढ़ा रहे हो और यहां पर 7.50 रुपये बढ़ने पर पैंट ढीली और गीली दोनों हो गई हैं। 

गोरा कागज़ बना कोरा कागज़ : दैनिक ट्रिब्‍यून 26 मई 2012 के हास परिहास परिशिष्‍ट में प्रकाशित


दैनिक ट्रिब्‍यून का लिंक

काले धन पर गोरा कागज, कोरा ही रह गया। जो बुना था ख्‍वाब, वह अधूरा ही रह गया। जो जमा था विदेशी बैंकों में, वहीं खाते और लॉकरो में पड़ा रह गया। कोशिशें तो जी तोड़ की गईं जिससे जी चकनाचूर हो गया लेकिन काले धन का कागज कोरा ही रह गया। काला धन कोयला ही रहा, कोयल की धुन न बन सका। न कोयल की कूहुक सुन कर आम की तरह मीठा हुआ, न अवाम को संतोष ही दे सका। सब जानते हैं कि यह सब धन जनता का ही है और इसे काला रंगने वाले वही काले मन वाले हैं, जो सत्‍ता के चला रहे रिसाले हैं। काले धन में स्‍थाई भाव है। इस स्‍थाई भाव को अस्‍थाई करने की खूब कोशिशें की जा रही हैं। काले धन की विदेशी बैंकों से वापसी की मांग वही करेगा, जिसके पास काला धन नहीं होगा और होगा भी तो कम से कम विदेशी बैंक के खातों में तो नहीं ही होगा। इस सत्‍य को झुठलाया नहीं जा सकता। जिस प्रकार शाहरूख खान संबंधी विवाद को, रूपया मुंह के बल गिरा है, उस धड़ाम की आवाज को, आईपीएल की बेईमानी को, फिक्सिंग की गहराई तक पहुंचना संभव नहीं है।
बात काले धन पर कोरे श्‍वेत कागज की हो रही थी, उससे निकल अन्‍य कई काली चीजों पर केन्द्रित हो गई लेकिन पत्र श्‍वेत ही रहा। यह श्‍वेत पत्र की खासियत है कि इस पर कोई रंग असर नहीं करता, बशर्ते वह असरकारी हो। सरकारी असर तो दूर से ही चमकता है। कालेपन का यही असर है, वह सब जगह सरदार बनने में सफल रहता है। काले जादू की तरह असर जमाता है लेकिन अंधेरे में नजर नहीं आता है। नजरें धोखा दे जाती हैं या चूक जाती हैं। यहां पर भूल चूक लेनी देनी भी नहीं होती है। सब तुरंत ही सिमटाया जाता है। काले पानी की तरह धन दूर देश से विदेशी बैंकों में रहकर खुश रहता है। यह रंगों का निराला जीवन है। फिर भी जिन्‍हें काले धन का स्‍वाद रुचिकर लग जाता है, फिर उन्‍हें काला ही भाता है। गोरा तो जीवन धकेलने के लिए घर खर्च बन जाता है। गोरा धन, न मात्रा में, न चाहत में काले धन के सामने ठहर पाता है, सामने आता भी है तो लड़खड़ाकर गिर जाता है। काला धन महंगाई है, जिसकी कभी न होती रुसवाई है। उसकी वजह से जनता की छूटती रुलाई है। खाने वाले चाटते रहते मलाई हैं।
आंख भी काली होती है लेकिन उससे जीवन के सबरंग दिखते हैं। कौआ काला होता है परंतु उसकी कुटिलताओं से सभी पक्षी परिचित रहते हैं। यही कुटिलता कोयल की मृदुता में भी समाई रहती है। उसी के जाल में फंस कर कौआ कोयल के अंडों को सेता रहता है। अंडों के प्रति उसको खूब मोह रहता है। अगर वो जानता होता कि अंडे कोयल के हैं, लेकिन यहां पर सब जानते हैं कि काला धन घोटालेबाजों का है, घपलेबाज कौन हैं, सब जानते हुए भी न जाने क्‍यों मौन हैं, वैसे जो बोल रहे हैं, बतला रहे हैं, उनकी कोई नहीं सुन रहा है बल्कि उनको अपनी जान बचाने के लाले पड़ रहे हैं। कालेपन में सिर्फ यही एक लालपन है। सब जानते हैं कि काली चींटी भी होती है परंतु वह खूब मेहनती होती है। परिश्रम की धनी होती है। वह कभी श्‍वेत पत्र जारी नहीं करती। श्‍वेत पन्‍ने पर चलने का उसका स्‍वभाव नहीं है, अनायास श्‍वेत पन्‍ने पर दिखाई दे जाए तो पन्‍ना श्‍वेत नहीं रहता, कोरा नहीं रहता, उसका गोरापन संदिग्‍ध हो जाता है। चाहे कितना भी जोर लगा लें लेकिन काले मन और काले धन की थाह पाना और उसे अपने देश में लौटा लाना संभव नहीं रह गया है। यह बातें कागजी नहीं हैं बल्कि वास्‍तविक हैं।
श्‍वेत पत्र यानी गोरा कागज यही बतला रहा है। सारी ईमानदारी और अच्‍छाईयों को मुंह चिढ़ा रहा है। कोरे कागज की कहानी या कविता ही कहें, काले धन की धुन बनकर धमक मचा चुकी है। धमक अभी तक गूंज रही है। इसकी गूंज चैनलों पर, मीडिया में खूब सुनाई दे रही है। काले धन को बनाने और बचाने वाले बेतरह सफल हैं। इससे मालूम चलता है कि जिन घोटालों से काले धन का निर्माण किया गया है, वे अव्‍वल हैं। घोटाले सबल हैं। काले धन को देश में लाने की गुहार करने वाले बिल्‍कुल निर्बल हैं। जाहिर है कि काला धन ताकत है जबकि गोरा धन दुर्बलता का परिचायक है, यह श्‍वेत पत्र की मर्यादा बचाने के लिए पत्र पर नहीं उकेरा गया है। यह श्‍वेत पत्र की गहरी काली बातें हैं। इन्हें उजाले में नहीं लाया जा सकता। कालेपन की कड़वाहट भी श्‍वेत पत्र का रंग धूमिल नहीं कर सकी है क्‍योंकि सच ही कहा गया है कि डेमोक्रेसी में होती रही है जनता की ऐसी तैसी और सदा होती ही रहेगी, चाहे ब्‍यूरोक्रेसी कितनी ही बलवान हो जाए ?

काले काले रसीले कार्टून : हिंदी मिलाप 26 मई 2012 में प्रकाशित



कार्टूनकारों अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो बल्कि ढंग से टेंशनविहीन जिंदगी जीना चाहते हो तो जिस जीने पर चढ़कर सफलता की चोटी पर ऊधम मचाने का ख्‍वाब संजोए हो, वह अब पूरा नहीं होगा। अपनी हसरतों को परवान चढ़ाने के लिए अब आम, केला, अंगूर, अन्‍नानास, गन्‍ना, तरबूज, खरबूजा, पपीता, लीची, आडू, फालसे, जामुन जैसे बेजुबान लेकिन उपयोगी फलों पर कार्टून बनाकर अपनी कला और समझदारी को ऊंचाई पर ले जाओ। फिर चाहे तीर छोड़ो या तुक्‍का भिड़ाओ अथवा खाने के लिए इन फलों से ही भिड़ जाओ क्‍योंकि यह बेजुबान इंसान को जीवन देते हैं, ताकत देते हैं, स्‍वाद देते हैं, इन पर बनाए गए कार्टून भी स्‍वादिष्‍ट और पौष्टिक बनेंगे। आपके बनाए कार्टून तो मन और मानस दोनों को तीखेपन के व्‍यंग्‍यबाण चला चलाकर छलनी कर देते हैं।
इन पर भी कार्टून बनाकर तुम्‍हारे रचनात्‍मक दिमागों का फितूर बाहर न निकले तो कुत्‍ते, बिल्‍ली, चूहे, खटमल, मच्‍छर, हाथी, लोमड़ी, शेर, सियार, भालू, कंगारू, बंदर, लंगूर पर अपना ब्रुश घुमाओ। फिर भी पेट में अफारा बना रहे तो साईकिल, स्‍कूटर, कार, बस, ट्रक, मेटाडोर, रेल, हवाई जहाज, रॉकेट, मिसाइलों पर अपनी रेखाओं का जौहर दिखलाओ।
इस मुगालते में ही मत जीते रहो कि नेताओं के दिमाग की बत्‍ती कभी जलेगी ही नहीं, जिस दिन भी, चाहे 60 या 100 साल बाद भी उनकी ट्यूब लाइट के स्‍टार्टर ने काम करना शुरू कर दिया और उनकी समझदारी जागृत हो गई तो समझ लेना, न तो आपकी और न आपके बनाए हुए कार्टून की खैर है बल्कि उनके कारण पुस्‍तकों को भी हलाल कर दिया जाएगा। एकदम ताजा मिसाल आपके सामने है। कितना ही हल्‍ला-हंगामा मचा लो, किसी को भी मामा बना लो। लेकिन बच नहीं पाओगे।
बचना चाहते हो तो पक्षियों पर अपनी कारगुजारी दिखलाओ। उल्‍लू, गौरेया, तोते, मैना, कोयल, कौए, हंस, बत्‍तख, चमगादड़ के एक से एक धारदार कार्टून बनाओ। उल्‍लू को खुलकर लल्‍लू कह दो। तोते को पप्‍पू कहो। कौए को मुन्‍नाभाई बतलाओ। समझेंगे तो वही जो समझदार हैं, अब पक्षी भला कार्टूनकारों की कला और भाषा को क्‍या पहचानेंगे। उनका न पहचानना ही आपको फेसबुक के इस जमाने में सेफ रख सकता है। समझदार चाहे नेता हों, चाहे हो देश की आवाम, वे काले काले जामुन के कार्टून पहचानकर तो खुश हो सकते हैं और उनकी खुशी में ही आपकी खुशी है।
नाम शंकर है तो क्‍या भगवान हो गए, लेकिन भगवान के किरदारों पर भी कार्टून बनाने की भूल मत करना, किसी आध्‍यात्मिक बाबा, गुरु पर भी कार्टूनमेकिंग का ख्‍याल अपने मन में मत लाना, किसी मंदिर के भगवान पर भी अपने कार्टून के जरिए व्‍यंग्‍य के तीर मत चलाना। वरना तो उनके भक्‍त और अंधभक्‍त आपको अच्‍छे से देख लेंगे जबकि आज तक आप खुद को ही अच्‍छे से नहीं देख पाए होगे। और ऐसे ही बदतमीजी तथा वेबकूफियां दिखलाते हुए कार्टून बनाने में जुटे रहे तो कभी देख भी नहीं पाओगे। इतना अच्‍छी तरह से जान लो। बाकी तो आप खुद समझदार हो। पर इतने समझदार के नाना भी मत बनो कि अपनी समझदारी खुद पर ही भारी पड़ जाए।
अब भला आप एक बात तो मानोगे ही कि कार्टूनों का कार्टून बनाना कौन सा सीमा पर जंग लड़ने जैसा बहादुरी का काम है, इंसान हो या कलाकार, काम तो उसे जीवन में बहादुरी के ही करने चाहिए। यह क्‍या कि एक पैंसिल, ब्रश उठा लिया और दिमाग का फितूर आड़ी तिरछी रेखाओं और ब्रश से कागज पर उतार दिया। पैंसिल और ब्रश तो मासूम बच्‍चों के खेलने के खिलौने हैं यह क्‍या कि आप उनके जरिए ही तीरंदाजी में निपुण होना चाह रहे हैं। ऐसा ही करते रहे तो आपका नाम शहीदों में शुमार होने में अब देर नहीं है। गिनती आपकी शेखचिल्लियों में ही की जाएगी और दिल्‍ली शेखचिल्लियों के काम का संज्ञान न ले, ऐसे भ्रम में रहना भी मत। फिर चाहे फेसबुक, ब्‍लॉग, ट्विटर और न्‍यू मीडिया पर कितनी ही दस्‍तक देते रहना पर बात उन तक नहीं पहुंचेगी, पहुंचेगी भी तो वे सुनेंगे नहीं और एक्‍शन नहीं लेंगे, फिर आप क्‍या कर लोगे, मजबूरी का नाम महात्‍मा गांधी यूं ही तो नहीं कहा जाता है।
कार्टून बनाने का इतना ही शौक है, मजदूरी करने का मन है तो भिंडी, बैंगन, तोरई, टिंडे, परमल, आलू, लौकी, परमल, प्‍याज, सीताफल, कद्दू, पेठे के ठेले भर भर कर कार्टून बनाओ और सब्जियों की तरह महंगे दामों पर बेचो, किसने रोका है। लाल लाल टमाटर का रस कार्टूनों पर निचोड़ कर अपने ज्ञान की लालिमा को चमकाओ। घास, पेड़, नदी, सागर, तालाब प्रकृति पर बनाओ कार्टून, देखें तो कितनी कलाकारी छिपी है तुम्‍हारे भीतर। उसे बाहर निकालकर लाओ। नलों पर, सड़को पर, पुलों पर, फ्लाई ओवरों पर बनाओ कार्टून, कौन रोक रहा है। अब सब मैं ही बतला दूंगा तो आप क्‍या करोगे, टॉपिक मिलेगा और कार्टून बना लोगे, कुछ कठिनाई वाले काम भी किया करो। किसी का चेहरा कार्टून में बिगाड़ने जैसा आसान काम ही कर सकते हो, किसी का सचमुच में बिगाड़ने चले तो पता चला कि अपना चेहरा ही तुड़वा-बिगड़वा बैठे।
कार्टून भी बनाना चाहते हो और जीना भी चाहते हो तो जीवन के इस आधारभूत नियम का पालन करो कि ‘खुद तो जिओ ही दूसरों को भी जीने दो’ यह क्‍या कि जीने के बहाने कार्टून बना बना कर नेताओं का खून पीने पर ही उतर आए हो।
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पेट्रोल की प्रेम पाती : दैनिक हरिभूमि 26 मई 2012 में प्रकाशित


बिना चश्‍मे के पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक कीजिएगा।


पेट्रोल की प्रगति देखकर सब दुखी हैं। यह नहीं देखते कि कितना उपयोगी हैउपयोगी है इसीलिए तो रेट बढ़ रहे हैं। पानी के क्‍या कम बढ़े हैंपहले प्‍याऊ वगैरह में फ्री में इफरात में मिलता रहा है। अब बोतलों में हाजिर है। कितना जोखिम लेकर जी रहा हूंतनिक सी चिंगारी स्‍वाह कर देती है मुझे। कोई आह भी नहीं कर पाता और स्‍वाहा हो जाता है। गर्मियों में तनिक सी गर्मी में ये दिमाग पर चढ़ गई तो क्‍या हो गया। पेट्रोल से जब इतना प्‍यार करते हो तो उसकी कीमतें बढ़ने को भी सहो। जिसे प्‍यार किया जाता है उसकी जायज मांगों के साथनाजायज मांगों को भी तो खुशी खुशी स्‍वीकारा जाता है। अभी तो साढ़े सात ही बढ़ाया है, एक सौ रुपये तो नहीं पहुंचाया है। पेट्रोल की प्‍यार कथा जारी है। खूब तन्‍मय होकर सुना रहा है।
क्‍या यह सही लगता कि रेट तो वही रहता और लीटर में मिलीलीटर घटाकर 300 कर दिए जाते। उसमें तो तुम्‍हारा ही नुकसान होता। देश की प्रगति का बढ़ता आंकड़ा ही नहीं दिखाई देता। फिर चिल्‍लाते कि नाप तोल कम कर दी है। हल्‍ला मचाते कि मिलीलीटर उतने ही रहने देते। महंगा चाहे बीस रुपये कर लेते। अब साढ़े सात रुपये बढ़ाये हैंतो नानी याद आ रही है। नानी जब कहानियां सुनाती थीं तो कितना खुश होते थे। पेट्रोल के बहाने नानी और नानी के बहाने कहानी की याद। कितना दिल खुश होता है। जब याद आता है कि एक था राजाएक थी रानीदोनों मर गएखत्‍म कहानी।
लो सुनोनई कहानी - एक था पेट्रोलएक था मिट्टी का तेलएक डीजल भी है जिसमें जल नहीं है – तीनों के बढ़ गए हैं रेटजाओ खोल दो खुशी के गेट। इसमें रोने की क्‍या बात है। नानी की याद आने वाली है। नानी जो कहानी सुनाती थी। जगते थे तो सुनते सुनते सो जाते थे। रोते थे तो सुनते सुनते सो जाते थे। हंसते थे तो सुनते सुनते हंसते ही रहते थे। नानी की याद कराना कोई हंसी खेल है। इतनी मुश्किलों से तो याद दिला रहे हैं। अभी एक पेट्रोल पम्‍प का ठेका मिल जाए,या मिट्टी के तेल का डिपो – फिर तो चाहोगे कि सरकार रोज ही रेट बढ़ाए या तुम्‍हें बढ़ाने दे। फिर नहीं चिल्‍लाओगेपूरे मोहल्‍ले भर को मिठाई खिलाओगे। नुक्‍कड़ पर नाचोगे। पल पल पर पेट्रोल,घासलेट के बढ़ते रेटों को बांचोगे। समझ लो पेट्रोल पंप के मालिक हो गए हो। फिर क्‍या गम है,सबमें तुमसे और तुम्‍हारे में सबका दम है। जिस देश में रहते हो उसका ही विकास नहीं देख सकते। डीडीए के फ्लैटों के लिए आवेदन मांगे गए तो कितने सारे भर दिए,तब तो कोई नहीं चिल्‍लाया कि इतने पैसे क्‍यों मांग रहे होइतने रेट क्‍यों बढ़ा रहे हो और यहां पर 5 रुपये बढ़ने पर पैंट ढीली और गीली दोनों हो गई हैं। 

पेट्रोल की प्रेम पाती : नेशनल दुनिया 25 मई 2012 अंक में प्रकाशित


पेट्रोल की प्रगति देखकर सब दुखी हैं। यह नहीं देखते कि कितना उपयोगी हैउपयोगी है इसीलिए तो रेट बढ़ रहे हैं। पानी के क्‍या कम बढ़े हैंपहले प्‍याऊ वगैरह में फ्री में इफरात में मिलता रहा है। अब बोतलों में हाजिर है। कितना जोखिम लेकर जी रहा हूंतनिक सी चिंगारी स्‍वाह कर देती है मुझे। कोई आह भी नहीं कर पाता और स्‍वाहा हो जाता है। गर्मियों में तनिक सी गर्मी में ये दिमाग पर चढ़ गई तो क्‍या हो गया। पेट्रोल से जब इतना प्‍यार करते हो तो उसकी कीमतें बढ़ने को भीसहो। जिसे प्‍यार किया जाता है उसकी जायज मांगों के साथनाजायज मांगों को भी तो खुशी खुशी स्‍वीकारा जाता है। अभी तो साढ़े सात ही बढ़ाया है, एक सौ रुपये तो नहीं पहुंचाया है। पेट्रोल की प्‍यार कथा जारी है। खूब तन्‍मय होकर सुना रहा है।
क्‍या यह सही लगता कि रेट तो वही रहता और लीटर में मिलीलीटर घटाकर 300 कर दिए जाते। उसमें तो तुम्‍हारा ही नुकसान होता। देश की प्रगति का बढ़ता आंकड़ा ही नहीं दिखाई देता। फिर चिल्‍लाते कि नाप तोल कम कर दी है। हल्‍ला मचाते कि मिलीलीटर उतने ही रहने देते। महंगा चाहे बीस रुपये कर लेते। अब साढ़े सात रुपये बढ़ाये हैंतो नानी याद आ रही है। नानी जब कहानियां सुनाती थीं तो कितना खुश होते थे। पेट्रोल के बहाने नानी और नानी के बहाने कहानी की याद। कितना दिल खुश होता है। जब याद आता है कि एक था राजाएक थी रानीदोनों मर गएखत्‍म कहानी।
लो सुनोनई कहानी - एक था पेट्रोलएक था मिट्टी का तेलएक डीजल भी है जिसमें जल नहीं है – तीनों के बढ़ गए हैं रेटजाओ खोल दो खुशी के गेट। इसमें रोने की क्‍या बात है। नानी की याद आने वाली है। नानी जो कहानी सुनाती थी। जगते थे तो सुनते सुनते सो जाते थे। रोते थे तो सुनते सुनते सो जाते थे। हंसते थे तो सुनते सुनते हंसते ही रहते थे। नानी की याद कराना कोई हंसी खेल है। इतनी मुश्किलों से तो याद दिला रहेहैं। अभी एक पेट्रोल पम्‍प का ठेका मिल जाए,या मिट्टी के तेल का डिपो – फिर तो चाहोगे कि सरकार रोज ही रेट बढ़ाए या तुम्‍हें बढ़ाने दे। फिर नहीं चिल्‍लाओगेपूरे मोहल्‍ले भर को मिठाई खिलाओगे। नुक्‍कड़ पर नाचोगे। पल पल पर पेट्रोल,घासलेट के बढ़ते रेटों को बांचोगे। समझ लो पेट्रोल पंप के मालिक हो गए हो। फिर क्‍या गम है,सबमें तुमसे और तुम्‍हारे में सबका दम है। जिस देश में रहते हो उसका ही विकास नहीं देख सकते। डीडीए के फ्लैटों के लिए आवेदन मांगे गए तो कितने सारे भर दिए,तब तो कोई नहीं चिल्‍लाया कि इतने पैसे क्‍यों मांग रहे होइतने रेट क्‍यों बढ़ा रहे हो और यहां पर 5 रुपये बढ़ने पर पैंट ढीली और गीली दोनों हो गई हैं। 

काले-काले रसीले कार्टून : शुक्रवार पत्रिका के 25 से 31 मई 2012 में प्रकाशित



फेसबुक को फेकबुक बनने से बचाना होगा : दैनिक प्रभात 23 मई 2012 में प्रकाशित आलेख


पढ़ने में कठिनाई हो तो आसानी पेश है।


फेसबुकजिसका न सच्‍चा फेस है और न जो किसी तरह से अच्‍छी बुक है। फेस चालाकी से घिरा हुआ है,जानकारी अधिकतर झूठी है। ऐसा लगता है कि शिकारियों के लिए एक जाल बना दिया हैजिसमें आपने एक झूठा और आकर्षक चेहरा चस्‍पां करना है,लुभाने वाली जानकारी भरनी है। कहीं कोई ऐसी अनिवार्यता नहीं है कि आपने ठीक जानकारी नहीं दी तो आप फेसबुक पर सक्रिय नहीं हो पायेंगे या खाता नहीं बना पायेंगे। शुरू से अंत तक झूठ का आडंबर। कोई भी हैं आपकितनी भी उम्र हैस्‍त्री या पुरुष होना भी मायने नहीं रखता – आप फेसबुक के जरिए पूरे अंतर्जाल जगत पर अपना जाल फेंक कर उसमें फांसने के लिए स्‍वतंत्र हैं। फेसबुक को आधुनिक तिलिस्‍म कहा जाए तो कोई अतिश्‍योक्ति नहीं है। जिस प्रकार अच्‍छाईयों के प्रचार और प्रसार के खूब सारी मेहनत करनी होती हैतब कहीं थोड़ी बहुत अच्‍छाई किसी को पसंद आती है जबकि इसके उलट बुराईयों को फैलाने के लिए किसी प्रकार की मेहनत की जरूरत नहीं होती। इसका मोहपाश बहुत शक्तिशाली होता है। यह बिना फैलाए पूरी तरह फैल जाती है और इतना फैलती है कि किसी के समेटने में नहीं आती और अच्‍छाई को डुबाकर मारने के लिए इसे लुढ़काने में योगदान करता रहता है।
मैंने बतलाया है कि इसमें कोई बाध्‍यता नहीं है कि आप इसमें अपना असली फेस ही लगाएं। आप किसी भी चित्रकिसी भी नामकिसी भी उम्र और किसी भी ई मेल पते से इसे शुरू कर सकते हैं और इसे अपने झूठ से लबालब कर सकते हैं। फिर बुक तो यह है ही नहीं,बुक मतलब आप उसमें मौजूद किसी भी जानकारी को क्रम में पेज नंबर देखकर तुरंत निकाल सकें। जबकि यहां पर एक गहरा अंधा कुंआ हैजिसमें आपने स्‍वयं जानकारी डाली हैउसे आप भी दोबारा से देख पाएंगे,संभव नहीं है। फिर यह पुस्‍तक (बुक) कहां से हुई जो उसतक भी नहीं पहुंच सकतीजिसने उसकी रचना की है।
न फेसन बुक फिर भी कहलाती है फेसबुक। इसे फेकबुक बनने से बचाना होगा और यह जिम्‍मेदारी इसका उपयोग करने वाले मित्रो की है। वैसे यह फेमबुक भी है। आप इसके जरिए न जाने किस किससे जुड़ते चले जाते हैं। अभी तो इसमें कुछ सीमाएं हैंपर वह भी इतनी कारगर नहीं हैं। 5000 मित्रों से अधिक आप अपने मित्र नहीं बना सकते। पर कितने हैं जो 5000 मित्र बना पाते हैं। फिर उन सबसे संपर्क रखनासाधना बहुत कठिन है। किससे कब क्‍या झूठ बोला हैइसका ब्‍यौरा रखना और यह सब कार्य आप अपने जीवन के महत्‍वपूर्ण समय में से जबरन निकालकरअनिवार्य कार्यों को इग्‍नोर करके करते हैं और करते ही रहते हैं। सच्‍ची जिंदगी से भी अधिक मजा देती है यह झूठी जिंदगी।
फेसबुक पर संवाद आपको खूब आनंद देता है और प्रत्‍येक झूठ आनंदित करता है। यह झूठ की कामयाबी की पहली शर्त है। दूसरी शर्त इसके मोहपाश में ऐसा सम्‍मोहन है कि जो इसमें एक बार उलझ गया सो बाहर नहीं निकल पाता और इसी का नशा दिमाग पर काबिज हो जाता है और देह बंधक हो जाती है। ऊंगलियां कीबोर्ड पर नर्तन करती रहती हैं। पर थकावट की कौन कहे,ऐसे ऐसे फेसबुक के नशेड़ी हैं कि चौबीसों घंटे सक्रिय रहते हैं। खाना-पीना तो साथ में चलता रहता है और जरूरी कार्य भी यदि संभव होता तो यहीं पर निपटा लिए जाते।  मोबाइल पर यह सुविधा मिलने से फेसबुक ने लगभग प्रत्‍येक मो‍बाइलधारक को अपना गुलाम बना लिया है। जरा ध्‍यान हटा तो कोई काम कर लिया वरना तो वापिस चले फेसबुक पर सवारी करने। कल्‍पनाओं के घोड़े की उड़ान भरने।
आपको अभी तक मैं फेसबुक की खामियां ही गिनाता रहा हूं और खामियां हैं भी इतनी सारी कि एक पूरा ग्रंथ ही इस पर तैयार हो सकता है। इसके कड़वे अनुभवों को लेकर एक और पुस्‍तक संपादित की जा सकती है। सिर्फ एक ही क्‍यों अनेक। फिर भी ऐसे इंसानों की कमी नहीं है जो इस पर मर्यादित रूप में विवेक के साथ सक्रिय हैं। जिन्‍होंने अपने मानस में फेसबुक की गुलामी स्‍वीकार नहीं की है। इस द्रुतगतिअश्‍व को अपने मानस की विवेकगति के द्वारा संचालित करते हैं।
जो फेसबुक से परिचित हैंवे ब्‍लॉगों और ट्विटर और अन्‍य सोशल मीडिया की भी जानकारी रखते होंगे। ऐसा मैं मानकर चल रहा हूं बल्कि सच्‍चाई यह है कि ब्‍लॉगों से बहुत सारे ब्‍लॉगरों ने कूद कूद कर फेसबुक पर अपने ठिकाने बना लिए हैं या यहां पर खूब कमाई की जा रही होती तो दुकानें सज गई होतीं। इन ठिकानों पर चाक चौबंद रहने में ब्‍लॉगरों को मजा आने लगा है। इस बार लॉगिन कर लिया तो फिर तो बस अपने विचार उंडेलते रहोविचार न हों तो दूसरे के विचारों को पसंद करते रहो। अपना विचार दिया है तो उस पर अन्‍यों की प्रतिक्रियाएं पढ़कर मुग्‍ध होते रहो। गिनते रहो कि कितनों ने उसे लाइक किया है क्‍योंकि नापसंदगी का कोई विकल्‍प ही नहीं हैनापसंदगी का कोई जोखिम नहीं है लेकिन पसंद करने वालों की संख्‍या में कैसे इजाफा करने में सब डटे रहते हैं। अपने मूल विचार न हों तो दूसरों के विचार अपने नाम से पेश करते रहो और वाह वाही लूटते रहो। कोई पुलिस नहीं हैकोई सजा नहीं है – हर ओर बस आनंद ही आनंद है। चोरों में गिनती न चाहो तो शेयर करने का विकल्‍प है।
फेसबुक के आने के बाद ब्‍लॉगिंग और ब्‍लॉगरों को खतरा हुआ था लेकिन जिन्‍हें खतरा लगा थावे सब खुद ही इस कुंए में कूद पड़े हैं लेकिन मेंढक बनने के लिए नहीं और मेंढक बनने के लिए ही। जो एक बार इसमें कूद जाता हैबहुत कठिनाई से बाहर आ पाता है। इसका आभासी जादू ही है ऐसा। जितना ब्‍लॉगिंग ने नहीं लुभायाउससे अधिक फेसबुक ने अपने जंजाल में फंसाया है। इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण यह है कि ब्‍लॉगिंग के बल पर आज तक शेयर बाजार में एन्‍ट्री करने की सोची तक नहीं गई है और उधर फेसबुक ने अपने शेयर बाजार में उतार दिए हैं और सब इसे लेने को लालायित हैंलेकिन कैसे हासिल करें। कम से कम आवेदन 1000 शेयर और जिनका आवेदित मूल्‍य है 18 से 20 लाख रुपये। उस पर भी मिलें न मिलें परंतु इतने लाख ही कहां से मिलेंअगर यह आंकड़ा ठीक है और मेरी स्‍मृति साथ दे रही है। यह राशि कुछ अधिक भी हो सकती है लेकिन कम नहीं।
फिर भी यह कहना चाहूंगा कि फेसबुक का सार्थक उपयोग करने वाले बहुत सारे अनुभवी मैदान में मौजूद हैं। वह इसके आने से बौरा नहीं गए हैं क्‍योंकि वे जानते हैं इस बौर का आना मीठे रसीले आमों के आगमन की सूचना नहीं है। फिर भी वे इसे सुख में बदलने में जुटे हुए हैं और रोज सफल हो रहे हैं। बिना स्‍वयं को नुकसान पहुंचाए और न ही किसी अन्‍य को हानि पहुंचा रहे हैं। यह फेसबुक ही है जिसने समान रुचि के व्‍यक्तित्‍वों को इकट्ठा किया है लेकिन जज्‍बा होना चाहिए कुछ अच्‍छा करने कातभी सफलता मिलेगी। यह वही विज्ञान है जो आग की खोज से शुरू हुआ थावही पेट्रोल हैजिसका सदुपयोग नई नई राहें खोलता है और दुरुपयोग सब कुछ स्‍वाहा कर देता है।
मैं मानता हूं कि फेसबुक समाज को विकास की ओर गति देने में खूब ताकतवर सिद्ध हो रही है। सरकारें इससे खौफज़दा हैं लेकिन इस ताकत के सिर को कुचलने को लेकर पूरी तरह सावधान रहना होगा। मेरा मानना है कि अच्‍छे अच्‍छे लोगों कामित्रों का चयन करके आगे बढ़ते जाइए फिर चाहे फेसबुक हो या हिंदी ब्‍लॉग हों या अभिव्‍यक्ति का कोई भी नया मीडिया हो,उससे जीवन सुंदर ही बनेगासार्थक रचने की अनूठी चाह विकसित होगी और इसी सोच में बुराईयों से स्‍वत: ही बचाव भी निहित है।

संसद में एक रेखा जरूरी थी ... : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट में 23 मई 2012 को प्रकाशित

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संसद भी एक बाजार है बल्कि यूं कहना अधिक समीचीन होगा कि बाजार के दबाव से दब चुका है। आजकल उसे दबाया-सजाया जा रहा है। एक बाजार लोक के लिए है, लेकिन इंटीरियर का काम राज्यसभा के लिए किया गया है। संसद में चीयर्स गर्ल्स या कहें आएटम गर्ल्स का जिक्र सुनकर आप चौंक जाएंगे। वैसे भी चौंकना अवाम के लिए जरूरी है। कभी उसे चैनल चौंकाते हैं, कभी बाबा और कभी सेलेब्रिटीज और बाजार ने तो चौंकाने का मानो ठेका ही उठा रखा है। अभिनेत्री रेखा का राज्य सभा में प्रवेश, इस रेखा को कभी न गरीब जन की चिंता रही है और न कभी जन-जन से जुड़े सरोकारों की। सेलेब्रिटीज का काम यूं ही चल जाता है। एक खिलाड़ी को राज्यसभा की ओर दौड़ाया गया है, क्योंकि जुए और खेल में दौड़ना जरूरी है। फिक्सिंग के लिए दौड़ना, काली कमाई के लिए क्रिकेट में घोड़ों को खोलना है। दौड़ना सिर्फ दौड़ना है। दौड़ शुरू होती है और एकदम से भागमभाग में बदलती हुई दिखाई देती है। बाल फेंकने से लेकर रन के लिए दौड़ने का नंबर टीम में शामिल दौड़ में विजयी होने पर ही आ पाता है। जो विजयी होता है, वह फिर सभी प्रकार की दौड़ में पारंगत हो जाता है। पैसों के लिए दौड़ प्रमुख हो जाती है। पैसा जो चाहे काला है या गोरा है, बॉल नहीं है, लेकिन सबसे अधिक उसी का बोलबाला है। पहले सजना फिर दौड़ना। फिर संसद में बैठकर आपस में बोलते हुए सिरों को तोड़ना-फोड़ना इतना सरल नहीं है, यह सब संसद में शक्ति-प्रदर्शन का परिचायक है। आसान तो फिक्सिंग भी नहीं है लेकिन क्या संसद में रेखा नहीं खींची जानी चाहिए, सो खींच दी गई। गरीबी की खींचना मुफीद नहीं रहता, सो अमीरी की खींची गई। खींचना जरूरी है, नहीं तो कोई भी आपको कब खींच देगा, आपको खिंचने के बाद ही मालूम चलेगा। अब इसमें भी आपत्तियां सामने आ रही हैं। आपत्ति सबसे सरल है, इसे विरले नहीं करते। फिर भी शुक्र है कि सब नहीं करते हैं। कुछ करके माफी मांग लेते हैं, क्योंकि वे माफी मांगकर मन में विभम्र पैदा करने में विशेषज्ञता रखते हैं। यह बाजार का मन पर छाया आधिपत्य है। फिर भी रेखा को राज्यसभा और सचिन को इस सभा में दौड़ने के लिए कहना, कठपुतली का खेल तो नहीं कहा जा सकता है। सचिन को ‘भारत रत्न’ न दे पाने की विवशता के कारण उन्हें राज्यसभा की सदस्यता बतौर मुआवजा दी गई है। जैसे बच्चे को टॉफी देकर बहला दिया जाता है और महंगा खिलौना बाद में देने का वायदा करके फांस लिया जाता है। टॉफी की वजह से उसे फांस की चुभन महसूस नहीं होती। दौड़ सिर्फ शिखर के लिए ही नहीं होती है, डर के कारण भी दौड़ा जाता है। लोग डराने के लिए भी खूब तेजी से दौड़ते हैं, लेकिन डर से दौड़ने वाले से कभी कोई बाजी नहीं मार पाया है। वह सदा आगे ही रहता है। किसी भी प्रकार की पकड़ की जकड़ से बचने के लिए यह सब करना आवश्यक है। अनेक बार न दौड़ने वाला भी शिखर पर दिखाई देता है। इसे फिक्सिंग के जरिए शिफ्टिंग कह सकते हैं। शिफ्ट करने के लिए आजकल मजबूरों और मजदूरों की नहीं लिफ्ट की जरूरत रहती है। राज्यसभा में सीट पक्की करना न लिफ्ट है, न शिफ्ट है, न फिक्स है- यह गिफ्ट है। गिफ्ट किसने किसे दिया है। गिफ्ट यानी उपहार, यह बिग हार है, शिखर पर पहुंचने के समान है। हार होकर भी हार में सबसे बड़ी जीत है। यही आज के बाजार की रीत है। अब इसी से सबकी प्रीत हैं। सब ऐसे ही मन की महत्वाकांक्षाएं पूरी कर रहे हैं। संसद जिसमें अब बत्ती सिर्फ आती ही नहीं है, जाती भी है। सुगंध आए या मत आए लेकिन दरुगध घुसी चली आ रही है। यह दरुगध यश और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाती है। शीर्ष पर पहुंचना शीर्षक बनना है। हर्ष ही इस खेल का उत्कर्ष है। यहां पर रन नहीं बनाए जाते हैं। यहां पर बेइंतहा ऊधम मचाकर भी शीर्षक बना जाता है। जोरों से चिल्लाते हैं। अपनी कहने को बौराते हैं, खूब तूती बजाते हैं। उस समय लगता है कि मानो संसद नक्कारखाना हो, सब अपनी-अपनी तूतियां बजा रहे हैं। पुंगियों की आवाज कोई सुनना नहीं चाहता है। सुन तो कोई तूतियों की आवाज भी नहीं रहा है। जब सब एक साथ बजाएंगे तो कैसे सुन पाएंगे? कान पक रहे हैं, कच्चे न रह जाएं यानी बौराना सत्ता का पागलपन है। इसी पागलपन में छिपा अपनापन है। यही सपना था जो अब वास्तविकता है। तय है, सपने-सपने ही रह जाते हैं। जो दूर नहीं दिखाई देते हैं, वह भी वास्तविकता के जगत में जमे नजर आते हैं। संसद पर बाजार का दबाव बढ़ता जा रहा है। यह कैसा विकास है कि रुपया तो गिर रहा है, लेकिन उसे गिराने में कौन सी ताकतें सक्रिय हैं, इसका आभास जनता को नहीं हो रहा है, अगर आप जानते हैं तो जनता के ज्ञान में इजाफा जरूर करिएगा।

संसद की बत्‍ती गुल : दैनिक जागरण 18 मई 2012 के संपादकीय पेज पर प्रकाशित

संसद की बत्ती गुल संसद में दिनदहाड़े शोर मचाने वालों की बत्ती एक बाबा ने गुल कर दी है। एक बाबा की बत्ती मीडिया वाले गुल करने पर जुटे हैं जबकि लाखों-करोड़ों उन्होंने भी लूटे हैं। नेता घपलों की बत्ती जलाने में जुटे हैं। वह बत्ती जलते ही महक आती है, काले धन के जलने की बात बताती है और रास्ता तिहाड़ तक बनाती है। जबकि जनता की बत्ती होते हुए भी सदा से गुल है। यही हालात रहेंगे तो जनता की बत्ती सदा गुल रहेगी। बत्ती गुल करना एक राष्ट्रीय शगल बन गया है। पहले इतना आसान नहीं हुआ करता था किसी की बत्ती गुल करना। आजकल सबसे आसान बत्ती गुल करना हो गया है। इसमें सोशल मीडिया के असर की अनदेखी नहीं की जा सकती है। अब तो सीएफएल की खोज कर ली गई है, जिससे बिजली की कम खपत हो और बत्ती गुल होने की संभावना ही न रहे। -अविनाश वाचस्पति पूरा ब्लॉग पढ़ने के लिए यथावत टाइप करें: ँ33श्च://X्र3.8/डAॅ16

मुझे मत बनाओ, मुझे नहीं बनना : हिंदी मिलाप 17 मई 2012 में प्रकाशित



वह कह रहे हैं कि हम बनना नहीं चाह रहे और सत्‍यमेव जयते यही है परंतु सत्‍यमेव जयते यह भी है कि उन्‍हें कोई पूछ ही नहीं रहा है और अपनी पूछ लहराने के लिए ऐसे उपाय तो किए ही जाते हैं। वरना किसका ध्‍यान किसकी पूंछ की तरफ जाता है, सबको अपनी पूंछ संवारने से ही फुर्सत नहीं है। जिसकी टेढ़ी है वह चाहता है कि सीधी हो जाए और जिसकी सीधी है वह चाहता है कि टेढ़ी हो जाए तो उसे समेटकर कम जगह में पार्क किया जा सके। असत्‍यमेव जयते यह नहीं है कि प्रत्‍येक के मन में सब कुछ बनने के बाद भी और कुछ बनने की चाहत बनी रहती है। जो पीएम बन जाता है, उसका मन करता है कि राष्‍ट्रपति बन जाए। पीएम बनकर तो सारे सुख लूट लिए, मौन भी रहे हैं। ताने छींटाकशी की घनघोर बरसात बिना छाते के झेली है और अब भी झेल रहे हैं। अब राष्‍ट्रपति बनकर भी देख लें कि सुखों में कितनी और बढ़ोतरी हो सकती है। फिर वहां पर भी यहां की तरह चुप रहकर ही काम चलाना पड़ेगा या वहां पर बोलने की पूरी आजादी रहेगी। स्‍टैम्‍प लगाने के लिए जो मिलेगी वह रबर की होगी या राष्‍ट्रपति बनने पर और किसी लचीली धातु की होगी। पूंछ के मानिंद लचीली, लीची की तरह रसदार।
सब जानते हैं कि जो इच्‍छा की जाती है, वह पूरी होती नहीं है फिर भी कितने सारे तो पीएम बनने की कतार में टोकरियां और ट्रक भर-भर इच्‍छा लेकर खड़े हैं और आज उम्‍मीद से डबल राष्‍ट्रपति बनने के लिए तैयार हैं। वैसे इससे कम में समझौता करने वाले भी खूब सारे हैं। जिनका जीवन ध्‍येय सदा यह रहता है कि भागते भूत की लंगोटी भी न छोड़ी जाए जबकि इस रहस्‍य से कोई परिचित नहीं है कि भूत लंगोटी नहीं पहनता। लंगोटी जो पहनेगा उसकी पूंछ नहीं होगी। लंगोटी बांधने में पूंछ के होने से बहुत मुश्किल होती है। उस पर लंगोटी सुखाने के लिए लटकाओ तो वह भी उड़-गिर जाती है। भूत जो दिखाई ही नहीं दे रहा है वह लंगोटी पहनकर भी क्‍या छिपाएगा, छिपाने की कोशिश तो तब की जाए जब या तो कुछ हो अथवा दिख जाने का डर हो। जबकि कुछ लोग छिपाना बहुत कुछ चाहते हैं पर उन्‍हें लंगोटी भी मयस्‍सर नहीं होती और वह भूत भी नहीं होते हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि सारी लंगोटियों पर भूतों का कब्‍जा हो गया है। कुछ दिखाने में ही यकीन रखते हैं। बिना दर्शन-प्रदर्शन के उनका नाश्‍ता, खाना और डिनर तक हजम नहीं होता है।
भूत से अधिक इंसान को वर्तमान में जीना चाहिए। भविष्‍य के सपनों में भी काम भर ही खोना चाहिए। यह नहीं कि पूरे सपनों में ही गोता लगा गए। अतीत और भविष्‍य में डूबना अकर्मण्‍यता का कारक है। कर्मशील बने रहने के लिए वर्तमान ही सबसे बेहतर है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि राष्‍ट्रपति बनने के लिए कोशिश करेंगे तो पार्षद बनने का नंबर तो हासिल कर ही लेंगे। इतनी अधिक बार्गेनिंग सफलता का सूचक नहीं, लालच का परिचायक है। लालच बुरी बला है फिर भी उसी से गला मिला रहे हैं। कुछ धुनी जीवन भर राष्‍ट्रपति बनने की कोशिशों में ही जीवन धुन बदल लेते हैं। बिना धुन के भी पीएम बना जा सकता है लेकिन उसके लिए जिस धुन की जरूरत होती है उसे बतलाने की जरूरत मैं महसूस नहीं कर रहा हूं। आप सबको इसका अहसास पहले से ही है।
कुछ बनना नहीं चाहते लेकिन उन्‍हें बनाने वाले बिना बनाये नहीं छोड़ते और बार बार गरियाते रहते हैं कि कैसे नहीं बनोगे, हम तो बनाकर ही रहेंगे। हमने न जाने किन किनको बना दिया। जो बनना नहीं चाहते हैं, हम उन्‍हें बनाने में ही माहिर हैं। जो बनना चाहते हैं, उन्‍हें धकियाने में माहिर भी और कोई नहीं हम ही हैं। हम सर्वगुणसंपन्‍न हैं और सर्वबुराईसंपन्‍न भी हम ही हैं। अब भला अच्‍छाई और बुराई साथ साथ नहीं रहेंगी तो क्‍या देश विदेश जितनी दूरी पर रहेंगी जो एक से दूसरे को मिलने के लिए पासपोर्ट और वीजा की जरूरत ही बनी रहे। जब तक एक का दूसरे पर प्रभाव नहीं पड़ता है, इसमें से किसी का भी भाव नहीं बढ़ता है। फिर भी हैरानी देखिए कि महंगाई नहीं रूकती है, उसका तो भाव खूब तेजी से चढ़ता है। आज महंगाई नंगाई की रफ्तार से बढ़ती जा रही है। नंगाई के बढ़ने पर कोई शोर नहीं मचा रहा है। नंगाई महंगी नहीं है, महंगाई इस बात से बहुत खुश है कि इस दुष्‍चरित्रन से कम से कम मैं तो बेअसर हूं जबकि सब पर असर मैं ही डालती हूं, सबके जीवन पर, सबके यौवन पर, सबकी जेबों पर। सबकी इच्‍छाओं पर, सबके होने पर, सबके रोने और सबके हंसने पर। जो मेरा फायदा उठा रहे हैं वह सब हंस रहे हैं और जिनसे फायदा उठाया जा रहा है वह सभी बदस्‍तूर जार-जार रो रहे हैं। कितना ही रो लो लेकिन ऐसे रुदन से जार नहीं भरा करते जबकि खुशी सबको बिना गिने ही पहाड़ पर भी चढ़ा देती है और पहाड़े भी याद करा देती है।  चाहे पहाड़ की ऊंचाई महंगाई से भी दसियों गुणा अधिक हो।

दारु को बनाओ राष्‍ट्रीय पेय : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट 12 मई 2012 अंक में चकल्‍लस स्‍तंभ में प्रकाशित


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चाय को राष्‍ट्रीय पेय बनवाने की मांग करने वालों, अब तो शर्म करो। अमूल मैदान में आ गया है और दूध को राष्‍ट्रीय पेय बनवाने के लिए सीना तान के चाय की मुखालफत कर रहा है। क्‍या अमूल नहीं जानता है कि 90 प्रतिशत चाय दूध की मिलावट करने की बनाई जाती है। आप रेहडि़यों, पटरियों, दुकानों पर बिकने वाली चाय के बारे में जान सकते हैं। कितने ही चाय पीने के शौकीन सिर्फ दूध में पत्‍ती चीनी डलवा कर खौलवाते हैं और उसे पीकर तसल्‍ली पाते हैं।  इससे उनके मन में यह धारणा भी बनी रहती है कि खालिस दूध की चाय पीने से, चाय से होने वाले नुकसान से भी बचे रहेंगे।  इधर यह मामला अभी चाय की तरह गर्मागर्म ही है जबकि मौसम में गर्मियां अभी अपने पूरे उफान पर नहीं हैं। गर्मियों के पूरी तरह गर्म होने के बाद पक्‍की संभावना है कि लस्‍सी, छाछ, ठंडाई, कोल्‍ड ड्रिंक, नींबू पानी भी खुद को राष्‍ट्रीय पेय में शुमार करने के अपने दावे पेश कर दें। मौके की नजाकत भांप कर दिल्‍ली की सी एम ने देशी शराब की बिक्री पर रोक लगाने की घोषणा कर दी है। ‘टैक्‍स भी ज्‍यादा मिले, माल भी महंगा बिके’ की तर्ज पर देसी ब्रांडों से बेहतर लेकिन विदेसी ब्रांडों से कमतर दिल्‍ली मीडियम नामक शराब अपने देसी ठेकों के जरिए ग्राहकों के लिए बाजार में लाई जा रही है।
देसी शराब जहरीली भी होती है जबकि मुझे तो सरकार शराब से भी अधिक जहरीली महसूस हो रही है। जितनी जनता देसी जहरीली शराब पीने से मरती है, उससे अधिक तो राजनीतिज्ञों की दोषपूर्ण नीतियों के कारण मारी जाती है। ऐसा संभवत: इसलिए होता है क्‍योंकि जितनी जनता मरेगी, उतनी समस्‍याएं भी कम होंगी। लेकिन हम नहीं सुधरेंगे और इससे बचाव के नाम पर सरकार ने दिल्‍ली मीडियम शराब बाजार में परोसने का मन बना लिया गया है, जिससे जनता मरे भी न और जिंदा भी न रहे। जो देसी शराब को देस के बाजार से धक्‍का देकर बाहर कर देगी। दिल्‍ली सरकार का तर्क है कि इससे खूब सारे राजस्‍व की प्राप्ति होगी और जनता की भलाई के और अधिक कार्य किए जा सकेंगे।  कभी तो सरकार तंबाखू, गुटका, पान मसाला, सिगरेट, बीड़ी  पर प्रतिबंध लगाने की बात करती है तो दूसरी तरफ जनता को शराब की बेहतर क्‍वालिटी पिलाने का दंभ भरती है। वैसे एक बात तो तय है कि चाय या दूध पीने से शरीर को वह ताकत नहीं मिलती है जो शराब पीने से तुरंत मिल जाती है। शराब से होने वाले फायदों की तुलना में चाय और दूध के तनिक भी फायदे नहीं हैं, न तो जनता को और न सरकार को। जबकि दूध एक लीटर चालीस रुपये का मिल रहा है और चाय भी इससे कम में तो नहीं मिल रही है। दूध में मिलावटियों की पौ छत्‍तीस हमेशा रही है जबकि शराब में मिलावट करना इतना आसान नहीं होता। पीने वाले खुद ही उसमें सोडा, कोल्‍ड ड्रिंक, बिस्‍लेरी इत्‍यादि मिला मिलाकर पीते हैं। जनता को तो प्‍योर ही मिलना चाहिए, फिर वह चाहे उसमें कुछ भी मिलाकर पिए, यह उसकी मर्जी, अब चाहे वह दूध हो या शराब हो।
जो अथाह जोश शराब के नाम से ही मन और तन में उछालें मारने लगता है और पीने के बाद पूरे शरीर को भरपूर ऊर्जा से खदबदा देता है। शरीर अकूत बल का मालिक बन जाता है, मन में हौसले का संचार हो जाता है। पियक्‍कड़ किसी से भी मानसिक और शारीरिक तौर पर मुकाबला करने के लिए सदा तैयार मिलता है। भला ऐसे गुण चाय और दूध अथवा दही की लस्‍सी में मिल सकते हैं। लस्‍सी पीने के बाद तो पूरे शरीर में आलस भर जाता है। चाय मात्र कुछ पलों के लिए शरीर में उत्‍तेजना लगाती है और दूध ... बिना मिलावट वाला प्‍योर हो तब भी शराब और चाय के बराबर किसी का प्‍यारा बनने का गुण नहीं रखता है। दूध तो सिर्फ बच्‍चों और महिलाओं के लिए ही उपयुक्‍त रहता है। शराब का असर काफी देर तक शरीर पर रहता है। वह कितने ही कष्‍टों और गमों को भुलाने में सहायक बनता है। आदमी अपनी सभी परेशानियों से निजात पा जाता है। उसके प्रति सबके मन में सहज आकर्षण पाया जाता है। कड़वा होने पर भी पीने वाले कतार में तैयार मिलते हैं। प्‍यार में धोखा खाए लोगों के लिए तो यह रामबाण के माफिक काम करती है।
शराब की युवाओं और नशेडि़यों में जो सहज स्‍वीकार्यता है, वह किसी और चीज में नहीं है। गुटखा, तंबाखू, जर्दा का सेवन करने वालों को आप इलायची और सौंफ के चबाने के लिए सहज ही राजी कर सकते हैं क्‍या, शराब और उसके साथ बीड़ी, सिगरेट के सेवन के लिए आपको अधिकतर लोग यकायक तत्‍पर मिलेंगे। मेरा तो मानना है कि सरकार को चाय अथवा दूध को राष्‍ट्रीय पेय घोषित करने के चक्‍कर में उलझने के बजाय तुरंत‘दिल्‍ली मीडियम’ न देसी और न विदेशी, को कठोर फैसला करके राष्‍ट्रीय पेय घोषित कर, सिरमौर बन जाना चाहिए और इस दिन को एक ‘राष्‍ट्रीय पर्व’ की मान्‍यता भी लगे हाथ दे देनी चाहिए, आप क्‍या कहते हैं?

फिल्‍में और समाज की बेहतरी के चंद सूत्र : The Journalist के अप्रैल-जून 2012 के सिनेमा विशेष अंक में प्रकाशित

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