बॉर्डर पर किरपा बरसाओ बाबा : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' 29 जनवरी 2013 में प्रकाशित


भारतीय बॉर्डर पर कलम का भयावह असर दीख रहा है। कलम के हिमायती और प्रशंसक भारत में हैं और हमारे सैनिकों के सिर कलम करना पड़ोसी देश की नापाक आदत बन गई है। जिस तरह दिल्‍ली में दुष्‍कर्म के आरोपियों के लिए फांसी की सजा की सलाह दी गई है, चाहे मानी नहीं गई। उसी तरह पड़ोसी देश के सैनिकों की इस घृणित हरकत के लिए उनके सैनिकों के सिर कलम करने के लिए मांग जोरों पर है। परंतु जिस तरह वे आवाजें सत्‍ता तक  पहुंच कर भी नहीं पहुंच रही थींवही हश्र इन आवाजों का भी हो रहा है। विपक्ष की एक नेत्री ने पड़ोसी देश के दस सिर की कलम करने की मंशा प्रकट की है, मानो वे उससे एक नए रावण को जन्‍म देना चाहती हों।

माना कि इस मसले पर पीएम का चुप्‍पी तोडना एक बम फोड़ने के बराबर है परंतु क्‍या इसे अंतिम उपाय मानकर अब भारत की पब्लिक चुप्‍पी साध ले।  इससे तो ढोलक यूं ही बजती रहेगी। ढोल की पोल भी यही है। इस मसले को लेकर मैं निर्मल बाबा की सभा में दो हजार रुपये उनके खाते में जमा करवा कर पहुंच गया। मान लिया कि यह खर्च देशहित में मैंने किया है और मेरे मन को तसल्‍ली हो गई।

नंबर पहले से तय था परंतु न तो सवाल तय था और न जवाब। मैंने उसूल के मुताबिकबाबा के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम कियामुझे खुशी हुई कि मात्र दो हजार खर्च करने पर प्रणाम करोड़ों की संख्‍या में किए जा सकते थेजाहिर है इस सौदेबाजी में नफा ही हुआ, सिर्फ दो हजार में करोड़ों प्रणाम स्‍वीकारे गए और बोनस में प्रश्‍न के उत्‍तर मिले। मैंने निवेदन किया कि  ‘निर्मल बाबापड़ोसी देश के सैनिक बॉर्डर से हमारे सैनिकों के सिर कलम करके के ले जा रहे हैं। ऐसा तो नहीं है कि पड़ोसी देश हमारे नेताओं पर काला जादू करने की फिराक में हों और क्‍या अपना मुल्‍क इस दुर्दांत घटना पर कुछ अच्‍छा करेगा।‘  बाबा ने आदत के अनुसार प्रश्‍न दाग दिया कि ‘कभी पड़ोसी देश गए हो’,मैंने बताया कि ‘बाबा मैंने पासपोर्ट ही नहीं बनवाया है।‘  ठीक है’ बाबा ने पीएम वाले स्‍टाइल में कहा ओर उपस्थित जन समुदाय हंस पड़ा। ‘एक बात तो यह जान लो कि काले जादू पर सिर्फ बंगालियों का हक हैदूसरा बॉर्डर पर जाकर अगर पीएम सेब के जूस में अनार का जूस मिलाकर सैनिकों को पिलाएं तो हमारे सैनिकों पर किरपा बरस सकती है।‘  ‘लेकिन बाबा ...’ कहने पर बाबा ने कहा कि ‘तुमने दो हजार रुपए ही दिए हैं इसलिए सिर्फ एक उपाय ही बतलाऊंगाऔर उसे ही तुम्‍हें अपनाना होगाइसमें और कोई च्‍वाइस नहीं है।‘ मुझे मानना पड़ा कि बाबा के यूं ही लाखों चाहने वाले नहीं हैंजो दो-दो हजार रुपये और अपनी आय का दसबंध देकर बाबा की किरपा रूपी तमाशे का आनंद लेते हैं। इसके साथ ही बाबा अब अन्‍य किसी भक्‍त का प्रश्‍न सुनकर उन पर किरपा बरसाने में बिजी हो गए थे। क्‍या कर सकते हैं आखिर किरपा बरसाने का धंधा ही ऐसा है ?

अब बाबागीरी से ही आशा है ... ! : मिलाप हिंदी में 24 जनवरी 2013 को स्‍तंभ 'बैठे ठाले' में प्रकाशित



हजारी लाल ने आज अपनी दुकान बंद कर रखी है। बाहर एक टैन्‍ट लगा हुआ है और नीचे बिछे गद्दों पर आठ दस लोग मुंह लटकाए बैठे हैं। मानो किसी का मातम मना रहे हों। मैं किसी अनहोनी की आशंका से स्‍तब्‍ध हूं। क्‍या हुआ हजारीलाल मैं पूरी तरह गंभीरता ओढ़कर पूछता हूं। मुन्‍नाभाई आज मुझे पहली बार अपने हज्‍जाम होने पर दुख हो रहा हैकि क्‍यों मैंने नाई की दुकान खोलीजबकि देश में रोजगार के इतने अधिक अवसर मौजूद हैं। मैंने कहा और वह भी तब जब तुम उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त हो तो .... । पढ़ा  लिखा हूं इसलिए ही तो बाल काट रहा हूंउस घड़ी को कोस रहा हूं जिस दिन मैंने हज्‍जाम बनने का फैसला लिया था मुन्‍नाभाई। सीखने में पैसा खर्च किया अलगउसके बाद दुकान किराए पर लेनाउसमें फर्नीचर पर खर्चा – मेरी तो मति मारी गई थी। अब भी दुकान किराए की ही है। उसी का किराया भर रहा हूं।
मुझे लगा कि हजारी लाल दो-तीन महीने से किराया नहीं देने का रोना रोएगा या बिजली के बढ़े बिल का भुगतान नहीं कर पाने से दुखी होगी और बिजली कट गई होगी।  मुझे उससे सहानुभूति हो आईमेरा मन उसके दुख से द्रवित हो उठासोचा इसकी कुछ आर्थिक मदद कर दूं। आख्रिर इंसान ही इंसान के काम आता है। कुछ बताओगे भी हजारी लाल ? दुख साझा करने से ही कम होते हैं। हो सकता है कि मैं तुम्‍हारी कुछ मदद कर सकूंमैंने इंसान बनते हुए कहा। आप कुछ नहीं कर पाओगे मुन्‍नाभाई। मैं सचमुच की कैंची से पब्लिक के बाल कतरता हूँ और वो अपनी जुबान की कैंची से दिमाग को कुतर रहा है। उसने अपने धंधे में पूंजी भी नहीं लगाई और करोड़पति बन बैठा । अब हाल यह है कि करोड़पति और नेता तक उसके दरबार में हाजि‍री बजाने के लिए लालायित रहते हैं।
मैं तुम्‍हारे दुख का सिर-पैर नहीं समझ पा रहा हूँ हजारीलाल। उसने कहा, एक हो तो गिनवाऊं मुन्‍नाभाई और हजारीलाल फूट फूट कर रोने लगा। आगे उसने कहा कि बाबा बनकर नामदाम कमाने और इसे रोजगार बनाने का धंधा आजकल बहुत उपजाऊ है। सिर्फ अनपढ़ ही नहींपढ़े लिखे भी बाबा की मस्‍ती के दीवाने हैं।  सबकी मुंडियां और मुट्ठियां नोटों की कड़ाही में डूबी रहती हैं। अब मुझे हजारीलाल का दुख समझ में आने लगा। मैंने कहा, तुम बिल्‍कुल ठीक कह रहे हो।  ईश्‍वर को भी महसूस हो जाता कि भगवान बनने से अधिक अच्‍छा धंधा तो बाबा बनने में है। नेता तो इनकी बराबरी करने की सोच भी नहीं सकते इसलिए इनके मंचों पर पहुंचकर पब्लिक को संबोधन करने के लिए लालायित रहते हैं। सबकी कमजोरी भीड़ है और भीड़ की कमजोरी बाबा हैं। वोटर में फिर भी कुछ दिमाग होता है और उसे वे इस्‍तेमाल करते हैं जबकि इनका भक्‍त आफताब होता है।
इसलिए मुझे अपने नाई होने पर आज पहली बार शर्म आ रही है मुन्‍नाभाई ।  अगर मैंने अब तक जुबान की कैंची चलाई होती तो न जाने कितनी दौलत पाई होती। जितना धन,समय और श्रम मैंने नाई कर्म की एक्‍सपर्टीज में खर्च किया उससे कम में कई गुना अधिक कमाई तो सिर्फ बाबा कर्म’ में ही मिल जाती। मैं समझ रहा था कि हजारीलाल का व्‍‍यक्तित्‍व बाबाओं के हिसाब से पूरी तरह योग्‍य है इसलिए उसकी चरमपीड़ा  स्‍वाभाविक है। उसने जितनी पूंजी हज्‍जाम के पेशे में लगाईउतने में उसे शुरू में अपने लिए कुछ चेले-चपाटे हायर करने ‘गुरुघंटाल बनना पड़ता।  मैं वर्तमान माहौल को देखकर समझ गया हूं कि हजारीलाल की सोच कोमुंगेरीलाल का हसीन सपना’ कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है। 

सुरक्षा की गारंटी कैसे ले सरकार : दैनिक पंजाब केसरी 22 जनवरी 2013 में प्रकाशित व्‍यंग्‍य



आज दोपहर में जब मैं हजारीलाल के पास हजामत करवाने पहुंचा तो ऐसा लग रहा था मानो सर्दी ने भी दुष्‍कर्म की पीडि़ता के मामले पर अपने रौद्र रूप में उपस्थित होकर विरोध दर्ज करा दिया है। दुकान में घुसते ही मुझे ठिठकना पड़ा क्‍योंकि हजारीलाल बुक्‍का फाड़कर हंसने लगा। उसकी इस हरकत से दुकान में मौजूद सभी ग्राहक और कर्मचारी फैसला नहीं ले पा रहे थे कि वे मुझे देखें या हजारीलाल के हंसने को। बेकाबू होकर वे मुस्‍कराएऔर हैरानी से उसे और मुझे बारी-बारी से देखते रहे कि उसे हंसने का भयंकर दौरा क्‍यों पड़ा है। मुझे अपने पर शक हुआ और जैकेट से नीचे देखने पर पैंट को यथास्‍थान पाया तो मुझे राहत मिली,  फिर लगे हाथ पैंट के नीचे पहनी गर्म पजामी को भी चैक कर लिया और तिरछी निगाह से नीचे देखने पर दोनों जूतों जुराबों को भी एक रंग और डिजाइन का ही पाया। मैंने अपनी आखि‍री तसल्‍ली मूंछों पर हाथ फेरकर कर लीतब मेरी जान में जान आई। अब मैं आपको यह तो बतलाने से रहा कि मैंने अपनी पैंट की जिप भी चैक की थी जो कि कई बार खुली रहकर मेरी शर्मिंदगी का सबब बनी है। शुक्र है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ था।
हजारीलाल बोलामुन्‍नाभाई,आपने भी अखबार की हैडलाईनें पढ़ी होंगी कि महिलाओं को सुरक्षा दे सरकारें। फिर उस पर त्‍वरित टिप्‍पणी भी कर डाली कि जो सरकारें खुद ही सुरक्षित नहीं हैं और बीते दिनों उन्‍होंने महिलाओं पर पुलिस से डंडा चलवाकर अपनी सुरक्षा को मजबूत करने की कोशिश की है। वे महिलाओं को पिटवाएं या उन्‍हें सुरक्षा दिलवाने में अहम रोल अदा करें।  मैंने हजारी लाल को चेताया कि तुम्‍हारा दिमाग फिर गया हैजानते नहीं हो कि यह नोटिस सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया है,  जिसमें केन्‍द्र और राज्‍य सरकारों से इस बारे में चार सप्‍ताह में जवाब मांगा है और तुम हंसकर कोर्ट की तौहीन कर रहे होबुरे फंसोगे।
हजारीलाल ने कहा कि मेरी क्‍या मजाल कि मैं सुप्रीम कोर्ट की शान में गुस्‍ताखी करूं। मैं सरकारों के बेहूदा चाल-चलन के बारे में बतला रहा हूं क्‍योंकि उसे चलाने वाले दुष्‍कर्मी हैं। जो आधार कार्ड के बहाने गरीबों के खातों में सब्सिडी के नाम पर नकद ताकत जमा कर रहे हैं। मेरे खाते में भी 600 रुपए जमा मिले हैं ताकि मैं सीधे-सीधे अपने परिवार के पांच वोट उनके पक्ष में समर्पित कर दूं और उनकी सरकार की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाए। सरकारें पब्लिक को मूर्ख समझ चरित्रहीन बनाने पर आमादा हैं।
जो खुद कुकर्मी हैं वे महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी क्‍यों देंगे। हजारीलाल की बात में दम है  क्‍योंकि‍ हज्‍जाम वह शौकिया नहींनौकरी न मिलने की मजबूरी से बना है। और इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि उसे अपनी और अपने परिवार के सभी सदस्‍यों की दाल-रोटी की चिंता है। वह सिर्फ अपने शौक पूरे करके अपने बच्‍चों को भूखा मारने के पक्ष में नहीं है। उसने पॉलिटिकल साईंस में ऑनर्स कर रखा है। उसने यह भी बताया कि यह संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने स्‍वयं नहीं,एक वकील की याचिका पर सुनवाई के अनुरोध पर मंजूरी देते हुए लिया हैइसलिए इसमें सुप्रीम कोर्ट की अवमानना वाला मामला नहीं बनता है। फिर दिल्‍ली की सीएम इस मुद्दे पर जनवरी’ माह में पैदल मार्च’ कर रही हैं। जबकि काफी कड़े फैसले वे स्‍वयं लेने और लागू करवाने में सक्षम हैं। पर वे ऐसा करेंगी तो वोटों की खेती करने की अपनी जिम्‍मेदारी को कैसे पूरा करेंगी। आप तो जानते ही हैं मुन्नाभाईयह मौसम वोटों की खेती के लिए कितना अनुकूल है। इस समय भरपूर फसल काटी जा सकती है। मानवाधिकार आयोग की नींद भी महिलाओं के सुरक्षा मसले पर उचट गई है परन्‍तु क्‍या गारंटी है कि वह दोबारा से गहरी नींद में नहीं सो जाएगा।
आज फिर मैं हजारीलाल के तर्क के आगे मैं बेबस था। बस’ में सफर करने में वैसे भी खतरे बढ़ चुके हैं।

महिलाओं की सुरक्षा करे अ(सुरक्षित) सरकार : दैनिक हिंदी मिलाप 22 जनवरी 2013 स्‍तंभ 'बैठे ठाले' में प्रकाशित



सरकारी सुरक्षा पाना सब चाहते हैं परंतु रिक्‍शे पर बैठकर उसे चलाने वाले के श्रम की उचित कीमत कोई नहीं देना चाहता है। वैसे देखा जाए तो सबसे सुरक्षित सवारी रिक्‍शा है, न तो वह तेज भागता है और न सवार उसकी कैद में ऐसा फंसता है कि उसके गिरने पर उसी में उलझ कर रह जाए। इधर सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए अन्‍य सभी टोटके तो कर रही है परंतु रिक्‍शों को चलने न देकर सभी को, मटकों में भरने में जुटी हुई है। जबकि सभी जानते हैं कि टोटकों से मटकों का भरना संभव नहीं है। किसी तरह भरने में सफलता मिल भी गई तो क्‍या गारंटी है कि मिट्टी का घड़ा सदा साबुत ही रहेगा, टूटेगा नहीं। खुद नहीं टूटा तो किसी के द्वारा फोड़ डाला जाएगा। मटके को फोड़ने के सबके अपने-अपने निहितार्थ हैं। वैसे भी अगर मटके फूटें न तो मटके बनाने और बेचने वालों के पेट भरने की एक ऐसी समस्‍या और सामने आ जाएगी, जिसके कारण सरकार की फजीहत होना अवश्‍यंभावी है। जबकि वह सरकार ही क्‍या जो फजीहतों में न फंसी हो। मेरा मानना है कि रिक्‍शे पर सवारी को हेलमेट पहनना अनिवार्य करने का उचित समय अब आ गया है।
सब जानते हैं कि घर में जितनी अधिक सुरक्षा है उतनी सुरक्षा किसी भी कीमत पर घर से बाहर नहीं मिल सकती। सरकारी जैड, एक्‍स, वाई और जैड एक्‍स सुरक्षाओं का होना तब तक बेमानी है जब तक महिलाओं के लिए चाक-चौबंद व्‍यवस्‍था नहीं कर ली जाती। आदमी भूखा रहकर तो जिंदा बच सकता है किंतु असुरक्षित होगा तो जरूर मरेगा। फिर भी यह मरने का जोखिम जरूर लेगा, इतना लालची हो गया है इंसान कि सुरक्षा भूल जाता है और घर से या तो मनोरंजन के लालच में बाहर निकल आता है या फिर नोट बटोरने का लालच उसे जिंदगी को जोखिम में डालने के लिए मजबूर कर देता है। बेबस होकर भी काली फिल्‍म लगी प्राइवेट बसों में सफर करता है, मेट्रो में चढ़ जाता है, टैक्‍सी में लद जाता है – यह सब फ्री नहीं है, इसके लिए वह पैसे चुकाता है और बलि भी चढ़ जाता है। अब भला ऐसा सफर किसलिए करना। जिसमें जान का जोखिम रहे और पैसे भी चुकाने पड़ें।
कर्म और फैसले इसमें सब हमारे होते हैं परंतु इसकी जिम्‍मेदार हम सरकार को बताते हैं। मानो सरकार से परमीशन लेकर हम घर से बाहर निकले हों या अपने सिर पर सीसीटीवी कैमरे लगवा रखे हों, जिनका सीधा प्रसारण पुलिस के कंट्रोल रूम में जारी हो और अति-सक्रियता के साथ  मोटर साइकिल और पीसीआर जिप्सियां लेकर सिर्फ आपकी सुरक्षा के लिए दौड़ने के इंतजार में हो। आपको मालूम है कि घर से बाहर सब जगह रिस्‍क है फिर क्‍यों महिलाएं घर के भीतर बैठकर सब दरवाजे, खिड़कियां बंद करके क्‍यों नहीं चैन की नींद सोती है आम पब्लिक बनकर।  अब यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि पुलिस की नौकरी तभी तक बची हुई है जब तक आप जोखिम-जोखिम खेल रहे हैं।
फिर कहते हैं कि सरकार कुछ कर नहीं रही है। अब सरकार नेताओं को, वीवीआईपी जनों को सुरक्षा मुहैया कराए कि आपकी बीवियों, मित्रों के चारों ओर बॉडीगार्ड बनकर हाथ खोलकर सदा चौकस रहे। सरकार के पास सिर्फ यही काम रह गया है कि सब अपराधियों के हाथ पकड़ने और जकड़ने में लगी रहे। हर हाथ को पकड़ना क्‍या इतना आसान है। हर हाथ पर निगाह रखना भी आसान नहीं है। जब तक मानसिकता नहीं बदलोगे, न तो सुरक्षा मिलेगी और न ही किसी को सुरक्षा दे पाओगे। कितने ही पिसी मिर्ची के पैकेट अपने पर्स में संभाल लो, अपने गैजेट्स को कितना ही अधुनातन प्रोग्राम्‍स से लबालब कर दो, कितने ही हैल्‍प लाईन नंबर मुहैया करवा दो, लेकिन यह कड़वा सत्‍य है कि किसी भी तरह से एक सौ प्रतिशत सुरक्षा नहीं मिलने वाली है। मिर्ची में भी रखे-रखे कीड़े लग जाया करते हैं। स्थिति अराजक और विस्‍फोटक ही बनी रहेगी। पुलिस की हैल्‍पलाइन का एक सौ नंबर रखना इसी सौ फीसदी की याद दिलाता रहता है।
जान लो कि सुरक्षा का रिक्‍शा सदैव एक सुर में नहीं चलाया जा सकता। जब वीवीआईपी हो तो सुरक्षा का सुर अलग तरह से बजता है। सुरक्षा के रिक्‍शे पर बैठने के लिए हर कोई तैयार रहता है। यही वह रिक्‍शा है जिसे पिछले दिनों बुरी तरह राजधानी दिल्‍ली में आम पब्लिक ने बुरी तरह घसीटा। जबकि इस रिक्‍शे को आम पब्लिक नहीं, पुलिस चलाती है। पुलिस की भूमिका वैसे भी सभी मोर्चों पर तनिक भी असंदिग्‍ध नहीं रही है। रिक्‍शा चलाने के लिए सरकार तो सरकार, उनकी मासूम पुलिस भी सुरक्षा चाहने वालों से वसूली में विश्‍वास रखती है। सुरक्षा का सरकारी रिक्‍शा गति पकड़े और पब्लिक को सुरसुरी भी न महसूस होवे, तो भला काहे की सुरक्षा हुई ?

कुंभ नहान बनाये महान : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 22 जनवरी 2013 स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित



जब घड़ी खराब हो तो कोई घड़ी घड़े को फूटने से नहीं रोक सकती है। घड़ा कुंभ ही हैघड़ा फूटता हैकुंभ लूटता है। जब कुंभ में पापों की संख्‍या गले तक भर जाती है तब कुंभ को भी फूटने से कोई नहीं बचा सकता है। शरीर में प्राण कुंभ ही हैं। कुंभ को शरीर मान लो चाहे प्राण। कुंभ में नहाकर कब तक जीवन को बचा सकते हो या पुण्‍य लाभ हासिल कर सकते हो। कितना ही नहान कर लोमहान कारज कर लोजब फूटना है तो जरूर फूटेगा। जीवन तभी शरीर से छूटेगा। शरीर से जीव का छूटना भी जीवन है। जीवन की व्‍याख्‍या कुछ यूं की जाएजीव वन में समाया – इसे पार लगाओ।
वन एक मन है। वन एकमना है। वन का होना बिल्‍कुल नहीं मना है। वन का होना पर्यावरण के संतुलन के जरूरी है। मन चारों ओर से घिरा होने पर बनता वन है। वन जो अंग्रेजी का एक हैवह पूरे जंगल की प्रकृति को सामूहिकता की पहचान देता है। जीव एक है,मन एक है। जीव तभी तक जीव है जब तक उसमें मन है और मन भी तभी तक मन है जब तक उसमें जीव है। अंग्रेजी का वन होने से मन की विजय का भाव तो जगता है पर यह जरूरी नहीं है। मन को जीतने के लिए उपक्रम सब करते हैं परंतु कुछ मन को जीतने के मुगालते में जीते रहते हैं। कुछ यह विचार करते रहते हैं कि वे मन को जीत चुके हैं जबकि मन को जीतना इतना सरल नहीं है। जीतने वाले तो यूं ही मन को जीत लिया करते हैं। जिसने मन को जीत लियासमझ लीजिए उसने समस्‍त चराचर पर विजय पा ली। जीव यानी मन का पंछी जब प्राण पखेरू को छोड़ कर उड़ जाता हैतब कुंभ यहीं रह जाता है। न कुंभ साथ जाता हैन कुंभ जाने वाले को रोकता हैन रोक ही सकता है। कितना ही महान नहान कर लोकुछ तो नहान करते करते महान हो जाया करते हैं। महान होने की यह प्रक्रिया किसी के लिए दुखद होती है और बाकी के लिए सुखद। दुख और सुख का भेद मिट जाए तो समझ लीजिए आपका कुंभीकरण हो गया। कुंभीकरण के मौके कम होते हैं और कुंभीकरण के लालची बहुमत में होते हैं। सोचते हैं कि अब तक के सब पाप कटेजितने पुण्‍य वहां बटेसबके सब हम समेट लाए हैं। पाप मेट कर पुण्‍य समेट कर लाना होगा जव वी मेट’ नहीं है और है भी। इस सत्‍य से भला किसे इंकार होगा। 

कुंभ नहान की महिमा बड़े बड़े नामी नामी बाबाओं को साधुओं को कुंभ का स्‍वाद सार्वजनिक तौर पर लेने को मजबूर  कर देती हे। बाबा भी शारीरिक तौर पर एक दूसरे के गले पकड़ने को जुट जाते हैं। कुंभ नहाना एक दंभ बन जाता है। नहाना है तो कुंभ नहाना है। जबकि यह तथाकथित बाबा स्‍वीकारते हैं कि उन्‍होंने कभी कोई पाप नहीं किया है फिर भी कुंभ नहाने का लालच नहीं त्‍याग पाते हैं। अपनी बात को खुद ही झुठलाते हैं। इसी से बाबाओं की असलियत खुलती हैं, कुछ बयान फेंककर विवादास्‍पद हो जाते हैं कुछ बे-बयानी में। पब्लिक और श्रद्धालुओं के हिस्‍से में जो लिखा है, वह इन बाबाओं ने ही लिखा है, सब यही समझते हैं जबकि सच क्‍या हैआप नहीं समझते हैं ? 

कबाड़ से प्‍यार : दैनिक हरिभूमि दिनांक 20 जनवरी 2013 के रविवार भारती में प्रकाशित



अच्छी -भली चीज कबाड़ हो जाती है और कबाड़ से जीवन संपन्न हो जाता है। अच्छी चीज को बेकार साबित कर दिया जाता है और उसी से बेशुमार धन उपजाया जाता है। कई बार ई-कबाड़ से प्राण खतरे में घिर जाते है। कबाड़ से की गई छेड़ा-छाड़ी जीवन को लील जाती है। जीवन कबाड़ होता है या कबाड़ से शुरू होता है। कबाड़ से वारे न्यारे होते देखे गए हैं। सस्तk खरीद कर महंगा बेचना - कबाड़ को लेकर उसकी चीरा-फाड़ी या जोड़ा-तोड़ी से जान के लाले पड़ जाते हैं।  जो बाद में कोबाल्टो हो जाते हैं और ऐसा रेडिएशन फैलाते हैं कि वातावरण से चाहे खत्म  हो भी जाए पर मन पर पड़ा उसका प्रभाव कभी मिट नहीं पाता।  देश और समाज में चहुं ओर अनेक प्रकार के कबाड़ियों का बोलबाला है।

एक स्वामी जी तो ब्रह्म मुहूर्त में देर तक सोने वालों को कबाड़ कह गये हैं। इस तरह के कबाड़ में किसी कबाड़ी की दिलचस्पी अभी तक नहीं देखी गई है क्योंकि कबाड़ियों के धंधे के कुछ उसूल होते हैं। जब से तकनीकी विकास शुरू हुआ है कई तरह के कबाड़ हो गए हैं। इनमें फेमस ई-कबाड़ है जिसको हमारे देशवासी न जाने क्या सोचकर विदेशों से खर्च करके इम्पोर्ट कर लेते हैं। थोक में मंगवा कर यहां पर सेल लगा देते हैं और कबाड़ से भी करोड़ों कमा लेते हैं। इम्पोयर्टिड वस्तुओं के प्रति हमारी दीवानगी इनकी सक्सेस स्टोरी होती है।

कबाड़ से इंसानी मोह जगजाहिर है। घर चाहे कितना ही छोटा हो] किराए का हो पर हम कबाड़ से मुक्ति नहीं पा सकते। अगर आप किराएदार हैं]  तो जरा इस निगाह से अपने घर के सामान पर एक नजर डाल लें और अगर खुद का अपना घर है तो फिर आपके घर में और कबाड़खाने में कोई फर्क हो ही नहीं सकता। इससे स्वीरकारना पड़ता है कि इंसान एक परंपरागत कबाड़ी है जो यह सोचकर ऐरी- गैरी चीजें संजोये रखता है कि इतनी लंबी जिंदगी में पता नहीं] कब यह काम आ जाए।  जबकि इसी जिंदगी को कई मौकों पर सिर्फ दो या चार दिन तक सीमित कर देता है।

आप एक अच्छी चीज तो किसी को दे पाते हैं। वो कबाड़ ही क्या जिससे बेपनाह लाड़ न हो। काम की चीज में आग लग जाए तो कबाड़ हो जाती है और कबाड़ में लग जाए तो राख हो जाती है और राख ही सृष्टि का परम सत्य है।

कबाड़क्रोध सिर्फ गृहिणियों में ही उपजता देखा गया है।  उसकी बिक्री से आने वाला धन अच्छा लगता है। कबाड़ से जुड़ी बाड़ भी काम की चीज को कबाड़ बनने से नहीं रोक पाती है। कबाड़ कब उसी की आड़ बन जाती है पता भी नहीं चलता। इसलिए बंधुओं कबाड़ को सिर्फ कबाड़ ही मत समझो और रोजमर्रा के जीवन में उसके महत्‍व को जानो, मानो और सबको मनवाओ।

पैदल चलने के लाइसेंस बनेंगे : दैनिक हरिभूमि में 16 जनवरी 2013 को प्रकाशित


आप पैदल चलना जानते हैं और आपके पास लाइसेंस नहीं है तो सावधान हो जाइए। दिल्‍ली में पैदल चलने वालों के लिए लाइसेंस अनिवार्य होने वाला है। बहरहाल, शुरूआत में एक वर्ष की अवधि के लिए इस लाइसेंस की कीमत सिर्फ एक सौ रुपये सालाना रखी जाएगी। यह लाइसेंस सबको एक ही कीमत पर मिलेगा, मतलब बूढ़ेबच्‍चेजवान हों या बीमार सबको एक ही तराजू पर तोला जाएगा। तोलने का यह कार्य नगर निगम करेगी। इसके आरंभिक दौर में अभी घोड़ेघोडि़योंबग्घियों पर एकमुश्‍त चार हजार रुपये वसूले जाने की योजना तैयार है और बस लागू होने ही वाली है। इस योजना का अगला चरण पैदल चलने वालों की जेब पर रखा जाएगा। इसके बाद साईकिल चालकों के लिए भी लाइसेंस लेना अनिवार्य किया जा रहा है। इसके लिए मात्र पांच सौ रुपये का खर्च आएगा और लर्निंग लाइसेंस के लिए सिर्फ एक महीने के लिए एकमुश्‍त दस रुपये ही चुकाने होंगे और सिर पर लालरंग से चिन्हित एल’ लगाने के लिए एक विशेष टोपी पहननी होगी। नगर निगम की एक चहेती कंपनी ऐसी पांच टोपियां 250 रुपये में मुहैया करवाने के लिए तैयार हो गई है।
अभी तक सिर्फ रिक्‍शे पर लाइसेंस जरूरी थालेकिन नए निर्णय में रिक्‍शा चालकों को भी लाइसेंस लेना होगा और यह व्‍यवसायिक श्रेणी में जारी किए जाएंगे जिनका सालाना शुल्‍क एक हजार रुपये होगा। निगम सोच रही है कि इससे रिक्‍शों की संख्‍या में कमी आएगी और भीड़ भरी सड़कों पर यातायात का संचालन सुचारू रूप से हो सकेगा। पांच बरस तक के बच्‍चों को पैदल चलने के लाइसेंस से छूट रहेगी बशर्ते कि वे दस वर्ष या उससे अधिक की आयु के किसी अभिभावक के साथ पैदल चल रहे हों। जो बच्‍चे अकेले घूमते पाए जाएंगे उन्‍हें निगम जब्‍त कर लेगी और छोड़ने के लिए एक सौ रुपये का जुर्माना वसूलेगी। दो घंटे से अधिक देरी से अपने बच्‍चों को लेने आने वाले अभिभावकों से 500 रुपये उनकी खुराक के नाम पर वसूल किए जाएंगे। चाहे बच्‍चे को निगम की ओर से एक अदद टॉफी भी न दी गई हो।
निगम के इस अभूतपूर्व कदम की वित्‍त मंत्री ने प्रशंसा की है और गृह मंत्री ने विश्‍वास जताया है कि इससे बच्‍चों के खोने की घटनाओं में कमी आएगी क्‍योंकि जब बच्‍चे को अकेला छोड़ा ही नहीं जाएगा तो उनके खोने का तो सवाल ही बेमानी है। इससे पुलिस पर भी बोझ कम होगा किंतु उन्‍होंने जुर्माना वसूलने के लिए लगाए जाने वाले पुलिसकर्मियों के कार्य के बारे में कोई टिप्‍पणी नहीं की है। इससे ऐसा लगता है कि उन्‍हें अपने पुलिसकर्मियों पर भरोसा है कि वे अपने चाय-पानी का खर्च इससे खुद ही निकालने में कामयाब हो जाएंगे।
इसके अनूठी योजना के सफल होने के बाद आवारा जानवरों के पैदल चलने पर इस प्रक्रिया को व्‍यवहार में लाया जाएगा। जिससे सड़कों पर आवारा पशुओं के घूमने पर लगाम लग सके और कुत्‍तों के इंसानों को काटने की घटनाएं में कमी आए। अभी यह स्‍पष्‍ट नहीं किया गया है कि आवारा पशुओं को पकड़ने पर जुर्माना कौन देगा, हो सकता है कि इसे पुलिस और निगम के विवेक पर छोड़ दिया जाए और वे आजाद हों कि इसके लिए वे राह चलते किसी को भी पकड़ उस पर आरोप मढ़कर वसूली कर सकते हैं। अभी पक्षियों के उड़ने और चलने के संबंध में और कौवों इत्‍यादि के शोर मचाने पर भी राजस्‍व वसूलने की कई योजनाएं विचाराधीन हैं। देश को खुशहाली की राह पर ले जाने वाले इन कदमों में भरपूर दम है, इसलिए इसके विरोध किए जाने का कोई समाचार अभी तक नहीं मिला है। 
चार साल पहले दिल्‍ली की सीएम ने पैदल चलने वालों पर चलते समय सतर्क रहने के लिए उपदेश झाड़ा था। कयास लगाया जा रहा है कि यह उसी आदेश की अगली कड़ी है। आपके पास भी इसे अमली जामा पहनाने और देश को विकास की ओर ले जाने के कई सूत्र होंगे तो देर किस बात कीआप भी ऐसे मशविरों को सरकारहित में साझा कीजिए और देशभक्त सिद्ध होने का मौका मत गंवाइए 

सुरक्षा की गारंटी : दैनिक राष्‍ट्रीय सहारा 15 जनवरी 2013 स्‍तंभ 'चलते चलते' में प्रकाशित



पिछले हफ्ते दोपहर जब मैं हजारीलाल के पास हजामत बनवाने पहुंचा तो लग रहा था मानो सर्दी ने भी दुष्कर्म पीड़िता के मामले पर रौद्र रूप में उपस्थित होकर विरोध दर्ज करा दिया है। दुकान में घुसते ही ठिठकना पड़ा क्योंकि हजारीलाल बुक्का फाड़कर हंसने लगा। उसकी इस हरकत से दुकान में मौजूद लोग फैसला नहीं ले पा रहे थे कि वे मुझे देखें या हजारीलाल के हंसने को। मुझे अपने पर शक हुआ पर मैंने अपना वेश विन्यास चुस्त-दुरुस्त पाया और आखिरी तसल्ली मूंछों पर हाथ फेरकर कर ली तो जान में जान आई। हजारीलाल बोला, मुन्नाभाई, आपने भी अखबार की हैडलाइनें पढ़ी होंगी कि 'महिलाओं को सुरक्षा दे सरकारें'। फिर उस पर त्वरित टिप्पणी भी कर डाली कि सरकारें खुद सुरक्षित नहीं हैं और बीते दिनों उन्होंने महिलाओं पर पुलिस से डंडा चलवाकर अपनी सुरक्षा मजबूत करने की कोशिश की है। मैंने हजारी लाल को चेताया कि जानते नहीं कि यह नोटिस सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया है और केन्द्र और राज्य सरकारों से इस बारे में चार सप्ताह में जवाब मांगा है और तुम हंसकर कोर्ट की तौहीन कर रहे हो। हजारीलाल ने कहा कि मेरी क्या मजाल कि मैं सुप्रीम कोर्ट की शान में गुस्ताखी करूं। मैं तो सरकारों के बेहूदा चाल-चलन के बारे में बता रहा हूं क्योंकि उसे चलाने वाले दुष्कर्मी हैं। जो आधार कार्ड के बहाने गरीबों के खातों में सब्सिडी के नाम पर नकद ताकत जमा कर रहे हैं। मेरे खाते में भी 600 रुपए जमा मिले हैं ताकि सीधे अपने परिवार के पांच वोट उनके पक्ष में समर्पित कर दूं और उनकी सरकार की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाए। जो खुद कुकर्मी हैं, वे महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी क्या देंगे! हजारीलाल की बात में दम है क्योंकि हज्जाम वह शौकिया नहीं, नौकरी न मिलने की मजबूरी से बना है। और इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि उसे अपनी और अपने परिवार के सभी सदस्यों की दाल- रोटी की चिंता है। वह सिर्फ अपने शौक पूरे करके अपने बच्चों को भूखा मारने के पक्ष में नहीं है। वह पॉलिटिकल साइंस में ऑनर्स है। उसने यह भी बताया कि यह संज्ञान सुप्रीम कोर्ट ने एक वकील की याचिका पर सुनवाई के अनुरोध पर मंजूरी देते हुए लिया है, इसलिए इसमें सुप्रीम कोर्ट की अवमानना वाला मामला नहीं बनता है। फिर दिल्ली की सीएम इस मुद्दे पर' ˜पैदल मार्च'  कर रही हैं जबकि काफी कड़े फैसले वे स्वयं लेने और लागू करवाने में सक्षम हैं। आप तो जानते ही हैं मुन्नाभाई, यह मौसम वोटों की खेती के लिए कितना अनुकूल है। इस समय भरपूर फसल काटी जा सकती है। मानवाधिकार आयोग की नींद भी महिलाओं के सुरक्षा मसले पर उचट गई है परन्तु क्या गारंटी है कि वह दोबारा गहरी नींद में नहीं सो जाएगा। मैं हजारीलाल के तर्क के आगे बेबस था। ' ˜बस'' में सफर करने में वैसे भी खतरे बढ़ चुके हैं।

कलम की ताकत : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 15 जनवरी 2013 स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित



आज सुबह कड़ाके की ठंड में, मैं हजामत कराने के लिए हजारीलाल की दुकान पर पहुंचा तो उसे गुस्‍से से तमतमाते पाया। जबकि दुकानदारी प्‍यार की मीठी बोली से चलती है। देश के दो सैनिकों का सिर कलम करने के खिलाफ वह तममा तममा हो रहा था। शेव करने के लिए गाल के बालों को मुलायम करता ब्रश उसकी मानसिकता को प्रतिबिंबित कर रहा था।  
हजारीलाल ने कहा कि दुश्‍मनों की हजामत करने का मौका मिल जाए तो वह अपने उस्‍तरे से दुश्‍मन के गले रेत देगा। किंतु यह तो कोई हल नहीं हुआ मैंने कहा,  उल्‍टे इससे दुश्‍मनी बढ़ेगी, इंसान को  इंसानियत अपनाकर खून का बदला खून से लेने वाली नीति पर चलने से बचना चाहिए। इतिहास गवाह है कि इससे सदा समाज का नुकसान हुआ है।
हजारी ने सहमति प्रकट की परंतु उसकी उत्‍तेजना में कमी नहीं आई।  ऐसा लग रहा था मानो, वह देश के बॉर्डर पर दुश्‍मन की सेना के सामने अपना उस्‍तरा लेकर डटा है। उसका शरीर ठंड से नहीं, गुस्‍से से कांप रहा था। निश्चित ही उसका ब्‍लड प्रेशर महंगाई से मुकाबले पर डटा था। मैंने सोचा कि आज अपनी हजामत का त्‍यौहार मुल्‍तवी करना ठीक रहेगा।
हजारी ने कहा, मेरा उस्‍तरा कलमकारों के गले को कलम नहीं करेगा, आखिर कलम के जरिए ही तो कलमकार अपना वैचारिक युद्ध लड़ रहे हैं और देश के नागरिकों में क्रांति की ज्‍वाला दहका रहे हैं। मेरा उस्‍तरा सिर्फ एक दुश्‍मन का गला कलम कर सकता है जबकि मुन्‍नाभाई आपकी कलम के एक बार से कितने ही दिमाग कलम हो सही विचारों को आगे बढ़ाने का जिम्‍मा संभालते हैं। कलम उन्‍हीं वीरों की जय बोलती है, जो अपने विवेक का समुचित इस्‍तेमाल करते हैं और समाज और सामाजिक सरोकारों को बल मिलता है। हजारीलाल सिर्फ हज्‍जाम नहीं है अपितु मन के भावों को फेस पर पढ़ने का अभ्‍यस्‍त हो चुका है और कलम की ताकत को स्‍वीकारता है। मैं मन ही मन उसकी इस कला पर मुग्‍ध था।
मैंने उसे समझाया कि अहिंसा और प्रेमपगी नीति सब बुराईयों को दूर करने में सक्षम है। इसलिए क्रोध और बे-वजह के जोश से नहीं, विवेक और होशो-हवास से काम लेना समय की मांग है। हजारी लाल ने कहा कि मैं जानता हूं कि क्‍या कह रहा हूं और इससे समाज का कितना अहित हो सकता है। फिर देशहित मेरे लिए सर्वोच्‍च प्राथमिकता वाला क्षेत्र है। हम सबको अपने-अपने निजी हितों से उपर उठकर सार्वजनिक हितों को सम्‍मान देना चाहिए। मैं यह चाहता हूं कि देश के दुश्‍मनों को उन्‍हीं की शैली में ही जवाब दिया जाना चाहिए। लेकिन जानते-बूझते किसी गलत नीति की वकालत नहीं कर सकता। मैं भावेश में बहुत कुछ गलत कह गया हूं। जिसका मुझे बेहद पछतावा है। जबकि मैं जानता हूं कि प्रत्‍येक नेक भारतवासी के मन में बदले की ज्‍वाला दहक रही है कि पाक की नापाक हरकत का उन्‍हीं की शैली में उत्‍तर दिया जाए।  
हजारीलाल के विचारों में मुझे देश के आम नागरिकों के गुस्‍से की बानगी देखने को मिली। सच्‍चाई है  कि देश से प्रेम करने वाला आम नागरिक इस समय गुस्‍से से उबल रहा है। जबकि नेता और उच्‍चाधिकारी सिर्फ जुबानी जंग लड़कर अपने कर्तव्‍यों की इतिश्री मान रहे हैं।

सुरक्षा का सरकारी रिक्‍शा : दैनिक जनवाणी 15 जनवरी 2013 स्‍तंभ 'तीखी नज़र' में प्रकाशित




सरकारी सुरक्षा पाना सब चाहते हैं परंतु रिक्‍शे पर बैठकर उसे चलाने वाले के श्रम की उचित कीमत कोई नहीं देना चाहता है। वैसे देखा जाए तो सबसे सुरक्षित सवारी रिक्‍शा है, न तो वह तेज भागता है और न सवार उसकी कैद में ऐसा फंसता है कि उसके गिरने पर उसी में उलझ कर रह जाए। इधर सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए अन्‍य सभी टोटके तो कर रही है परंतु रिक्‍शों को चलने न देकर सभी को, मटकों में भरने में जुटी हुई है। जबकि सभी जानते हैं कि टोटकों से मटकों का भरना संभव नहीं है। किसी तरह भरने में सफलता मिल भी गई तो क्‍या गारंटी है कि मिट्टी का घड़ा सदा साबुत ही रहेगा, टूटेगा नहीं। खुद नहीं टूटा तो किसी के द्वारा फोड़ डाला जाएगा। मटके को फोड़ने के सबके अपने-अपने निहितार्थ हैं। वैसे भी अगर मटके फूटें न तो मटके बनाने और बेचने वालों के पेट भरने की एक ऐसी समस्‍या और सामने आ जाएगी, जिसके कारण सरकार की फजीहत होना अवश्‍यंभावी है। जबकि वह सरकार ही क्‍या जो फजीहतों में न फंसी हो। मेरा मानना है कि रिक्‍शे पर सवारी को हेलमेट पहनना अनिवार्य करने का उचित समय अब आ गया है।
सब जानते हैं कि घर में जितनी अधिक सुरक्षा है उतनी सुरक्षा किसी भी कीमत पर घर से बाहर नहीं मिल सकती। सरकारी जैड, एक्‍स, वाई और जैड एक्‍स सुरक्षाओं का होना तब तक बेमानी है जब तक महिलाओं के लिए चाक-चौबंद व्‍यवस्‍था नहीं कर ली जाती। आदमी भूखा रहकर तो जिंदा बच सकता है किंतु असुरक्षित होगा तो जरूर मरेगा। फिर भी यह मरने का जोखिम जरूर लेगा, इतना लालची हो गया है इंसान कि सुरक्षा भूल जाता है और घर से या तो मनोरंजन के लालच में बाहर निकल आता है या फिर नोट बटोरने का लालच उसे जिंदगी को जोखिम में डालने के लिए मजबूर कर देता है। बेबस होकर भी काली फिल्‍म लगी प्राइवेट बसों में सफर करता है, मेट्रो में चढ़ जाता है, टैक्‍सी में लद जाता है – यह सब फ्री नहीं है, इसके लिए वह पैसे चुकाता है और बलि भी चढ़ जाता है। अब भला ऐसा सफर किसलिए करना। जिसमें जान का जोखिम रहे और पैसे भी चुकाने पड़ें।
कर्म और फैसले इसमें सब हमारे होते हैं परंतु इसकी जिम्‍मेदार हम सरकार को बताते हैं। मानो सरकार से परमीशन लेकर हम घर से बाहर निकले हों या अपने सिर पर सीसीटीवी कैमरे लगवा रखे हों, जिनका सीधा प्रसारण पुलिस के कंट्रोल रूम में जारी हो और अति-सक्रियता के साथ  मोटर साइकिल और पीसीआर जिप्सियां लेकर सिर्फ आपकी सुरक्षा के लिए दौड़ने के इंतजार में हो। आपको मालूम है कि घर से बाहर सब जगह रिस्‍क है फिर क्‍यों महिलाएं घर के भीतर बैठकर सब दरवाजे, खिड़कियां बंद करके क्‍यों नहीं चैन की नींद सोती है आम पब्लिक बनकर।  अब यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि पुलिस की नौकरी तभी तक बची हुई है जब तक आप जोखिम-जोखिम खेल रहे हैं।
फिर कहते हैं कि सरकार कुछ कर नहीं रही है। अब सरकार नेताओं को, वीवीआईपी जनों को सुरक्षा मुहैया कराए कि आपकी बीवियों, मित्रों के चारों ओर बॉडीगार्ड बनकर हाथ खोलकर सदा चौकस रहे। सरकार के पास सिर्फ यही काम रह गया है कि सब अपराधियों के हाथ पकड़ने और जकड़ने में लगी रहे। हर हाथ को पकड़ना क्‍या इतना आसान है। हर हाथ पर निगाह रखना भी आसान नहीं है। जब तक मानसिकता नहीं बदलोगे, न तो सुरक्षा मिलेगी और न ही किसी को सुरक्षा दे पाओगे। कितने ही पिसी मिर्ची के पैकेट अपने पर्स में संभाल लो, अपने गैजेट्स को कितना ही अधुनातन प्रोग्राम्‍स से लबालब कर दो, कितने ही हैल्‍प लाईन नंबर मुहैया करवा दो, लेकिन यह कड़वा सत्‍य है कि किसी भी तरह से एक सौ प्रतिशत सुरक्षा नहीं मिलने वाली है। मिर्ची में भी रखे-रखे कीड़े लग जाया करते हैं। स्थिति अराजक और विस्‍फोटक ही बनी रहेगी। पुलिस की हैल्‍पलाइन का एक सौ नंबर रखना इसी सौ फीसदी की याद दिलाता रहता है।
जान लो कि सुरक्षा का रिक्‍शा सदैव एक सुर में नहीं चलाया जा सकता। जब वीवीआईपी हो तो सुरक्षा का सुर अलग तरह से बजता है। सुरक्षा के रिक्‍शे पर बैठने के लिए हर कोई तैयार रहता है। यही वह रिक्‍शा है जिसे पिछले दिनों बुरी तरह राजधानी दिल्‍ली में आम पब्लिक ने बुरी तरह घसीटा। जबकि इस रिक्‍शे को आम पब्लिक नहीं, पुलिस चलाती है। पुलिस की भूमिका वैसे भी सभी मोर्चों पर तनिक भी असंदिग्‍ध नहीं रही है। रिक्‍शा चलाने के लिए सरकार तो सरकार, उनकी मासूम पुलिस भी सुरक्षा चाहने वालों से वसूली में विश्‍वास रखती है। सुरक्षा का सरकारी रिक्‍शा गति पकड़े और पब्लिक को सुरसुरी भी न महसूस होवे, तो भला काहे की सुरक्षा हुई ?

'न दैन्‍यं न पलायनम' चिट्ठे के सच्‍चे साधक : लीगेसी इण्डिया जनवरी 201 3 के ब्‍लॉगरी स्‍तंभ में प्रकाशित



भू से भू पर भूलकर भी कोई भूल हो ना : व्‍यंग्‍योदय 2013 में प्रकाशित व्‍यंग्‍य




शब्‍दों की जादूगरी से तीखे व्‍यंग्‍य : अशोक खन्‍ना - दैनिक ट्रिब्‍यून पुस्‍तक दीर्घा स्‍तंभ में 13 जनवरी 2013 को प्रकाशित


हकीकत हजारीलाल हज्‍जाम की : दैनिक डीएनए में 'ब्‍लॉग राग' स्‍तंभ 11 जनवरी 2013 में प्रकाशित



हजारी लाल ने आज अपनी दुकान बंद कर रखी है। बाहर एक टैन्‍ट लगा हुआ है और नीचे बिछे गद्दों पर आठ दस लोग मुंह लटकाए बैठे हैं। मानो किसी का मातम मना रहे हों। मैं किसी अनहोनी की आशंका से स्‍तब्‍ध हूं। क्‍या हुआ हजारीलाल मैं पूरी तरह गंभीरता ओढ़कर पूछता हूं। मुन्‍नाभाई आज मुझे पहली बार अपने हज्‍जाम होने पर दुख हो रहा हैकि क्‍यों मैंने नाई की दुकान खोलीजबकि देश में रोजगार के इतने अधिक अवसर मौजूद हैं। मैंने कहा और वह भी तब जब तुम उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त हो तो .... । पढ़ा  लिखा हूं इसलिए ही तो बाल काट रहा हूंउस घड़ी को कोस रहा हूं जिस दिन मैंने हज्‍जाम बनने का फैसला लिया था मुन्‍नाभाई। सीखने में पैसा खर्च किया अलगउसके बाद दुकान किराए पर लेनाउसमें फर्नीचर पर खर्चा – मेरी तो मति मारी गई थी। अब भी दुकान किराए की ही है। उसी का किराया भर रहा हूं।
मुझे लगा कि हजारी लाल दो-तीन महीने से किराया नहीं देने का रोना रोएगा या बिजली के बढ़े बिल का भुगतान नहीं कर पाने से दुखी होगी और बिजली कट गई होगी।  मुझे उससे सहानुभूति हो आईमेरा मन उसके दुख से द्रवित हो उठासोचा इसकी कुछ आर्थिक मदद कर दूं। आख्रिर इंसान ही इंसान के काम आता है। कुछ बताओगे भी हजारी लाल ? दुख साझा करने से ही कम होते हैं। हो सकता है कि मैं तुम्‍हारी कुछ मदद कर सकूंमैंने इंसान बनते हुए कहा। आप कुछ नहीं कर पाओगे मुन्‍नाभाई। मैं सचमुच की कैंची से पब्लिक के बाल कतरता हूँ और वो अपनी जुबान की कैंची से दिमाग को कुतर रहा है। उसने अपने धंधे में पूंजी भी नहीं लगाई और करोड़पति बन बैठा । अब हाल यह है कि करोड़पति और नेता तक उसके दरबार में हाजि‍री बजाने के लिए लालायित रहते हैं और मौका मिल जाए तो धन्‍य हो जाते हैं। आज वह बाबाओं का किंग बना हुआ है।
मैं तुम्‍हारे दुख का सिर-पैर नहीं समझ पा रहा हूँ हजारीलाल। उसने कहा, एक हो तो गिनवाऊं मुन्‍नाभाई और हजारीलाल फूट फूट कर रोने लगा। मुझे लगा जरूर इसके किसी नजदीकी सगे-संबंधी की मौत हो गई है तभी यह बहकी-बहकी बातें करके विलाप कर रहा है। कीमती आंसुओं को मर्द यूं ही जाया नहीं करते हैं। अब कुछ बताओगे भी हजारीलाल या मुझे भी रोने के लिए मजबूर करोगे। मुझे अपनी आंखों के आंसुओं का बांध टूटता हुआ महसूस होने लगा।
ऐसा कुछ नहीं है पर जो है वह बहुत पीड़ादायक है। दरअसल, बात यह है कि बाबा बनकर नामदाम कमाने और इसे रोजगार बनाने का धंधा आजकल बहुत उपजाऊ है। यहां पब्लिसिटी भी खूब मिलती हैभीड़ बिना बटोरे सामने निकम्‍मे घुग्‍गू की तरह बैठी रहती है और जिस चीज को हाथ लगा दोवह हाथों हाथ खूब बिक जाती है। आलम यह है कि वह मिट्टी को हाथ लगा दे तो अंधभक्‍तगण मुट्टी भर-भर मिट्टी खरीद कर ले जाते हैं। किसी पॉर्न पत्रिका की प्रचार-प्रसार संख्‍या भी इसकी पत्रिका के आगे पानी नहीं भर पाती है। चाहे अच्‍छी-से-अच्‍छी सामग्री प्रकाशित कर लें, कलरफुल फोटो छाप लें परंतु थोक के भाव नहीं बिक पाती हैं और इधर इनकी पत्रिका बिना किसी विज्ञापन और सरकारी सहायता के लाखों की संख्‍या में प्रकाशित होती है तथा बिक्री के सभी रिकार्ड तोड़ती है।
यह अपनी पर आ जाएं तो ‘राम नाम’ की मदिरा बनवाकर मदिरा बेचने के सारे रिकार्ड ध्‍वस्‍त कर दें और एक पैसे का टैक्‍स भी न चुकाएं। मछलियों के किंग’ को किसी ने बुद्धि नहीं दी होगीअगर उन्‍होंने सरकार की जगह इनकी शरण ली होती तो अब तक वारे-न्‍यारे हो गए होते। जहाज उड़ाकर कमाने की तो बात छोड़िएवह अगर इनसे केवल दीक्षा ले लेता तो आज रंगीन कलेंडर छाप रहा होता !  
इस कारण सिर्फ अनपढ़ ही नहींपढ़े लिखे भी बाबा की मस्‍ती के दीवाने हैं।  हजारीलाल बतलाए जा रहा था कि जितने भी बाबा हैं,सभी एक ही थैली के चटावन लाल हैं। वे चाहे आसाराम होंनिर्मल बाबा हों या किसी मंदिर के पुजारी बाबा। सबकी मुंडियां और मुट्ठियां नोटों की कड़ाही में डूबी रहती हैं। इनके लुभावने नाम इनकी ओर सहज ही आकर्षण पैदा करते हैं। धर्म को धंधा बनाने के लिए इनका किया गया योगदान अतुलनीय है मुन्‍नाभाई। अब मुझे हजारीलाल का दुख समझ में आने लगा। मैंने कहा, तुम बिल्‍कुल ठीक कह रहे हो। अगर ईश्‍वर पृथ्‍वी पर होता तो इनकी कारगुजारियां देखकर जरूर विस्मित हो रहा होता और उसे अपने ईश्‍वर होने पर पछतावा होता। ईश्‍वर को भी महसूस हो जाता कि भगवान बनने से अधिक अच्‍छा धंधा तो बाबा बनने में है। महात्‍मा गांधी यानी बापू ने जितना नाम और ख्‍याति अपने जीवन भर में नहीं कमाई, उससे अधिक तो तथाकथित बाबा आज पल भर में बटोर लेते हैंचाहे इसके लिए इन्‍हें बकवास ही क्‍यों न करनी पड़े। जिन महिलाओं को यह इज्‍जत देने का दावा करते हैंऔर जिनके जुड़ने से इनका धंधा जमा हैउन्‍हीं को मौका पड़ने पर बाजारूकहने से नहीं चूकते हैं। मतलब तो सुर्खियां बटोरने से हैइन्‍हेंसुर्खीखोर’ कहा जा सकता है।

वैसे बाबा कहना तो इनकी तौहीन करना है। इन्‍हें तो बिगबाबा’ के नाम से संबोधित किया जाना चाहिए। नेता तो इनकी बराबरी करने की सोच भी नहीं सकते इसलिए इनके मंचों पर पहुंचकर पब्लिक को संबोधन करने के लिए लालायित रहते हैं। सबकी कमजोरी भीड़ है और भीड़ की कमजोरी बाबा हैं। वोटर में फिर भी कुछ दिमाग होता है और उसे वे इस्‍तेमाल करते हैं जबकि इनका भक्‍त आफताब होता है और चांद पर पत्‍थर मिलने की जानकारी है परन्‍तु वहां दिमाग होता होगा इसकी हमें बहुत सीमित जानकारी भी अभी तक नहीं मिली है।
इसलिए मुझे अपने नाई होने पर आज पहली बार शर्म आ रही है मुन्‍नाभाई । श्रम करो और शर्म न करोकिसी बाबा पर यह बात बिल्‍कुल लागू नहीं की जा सकती। अगर मैंने अब तक जुबान की कैंची चलाई होती तो न जाने कितनी दौलत पाई होती। जितना धनसमय और श्रम मैंने नाई कर्म की एक्‍सपर्टीज में खर्च किया उससे कम में कई गुना अधिक कमाई तो सिर्फ बाबा कर्म’ में ही मिल जाती। मैं समझ रहा था कि हजारीलाल का व्‍‍यक्तित्‍वऊंचाई,चौड़ाईशारीरिक गठनसौंदर्य – सब बाबाओं के हिसाब से पूरी तरह योग्‍य है इसलिए उसकी चरमपीड़ा  स्‍वाभाविक है। बाबा के आते ही महिलाओं और पुरुषों में उनके चरण छूने के लिए भगदड़ मच जाती है। बस उसने जितनी पूंजी हज्‍जाम के पेशे में लगाईउतने में उसे शुरू में अपने लिए कुछ चेले-चपाटे हायर करने ‘गुरुघंटाल बनना पड़ता। बाबा के बारे में पंचर लगाने के  बारे में उसका यह भी कहना है कि अगर तब वह पंचर लगाता था तो अब पब्लिक के दिमाग को पंचर करने का काम कर रहा है और इसमें पूरी तरह सफल भी है। मैं भी वर्तमान माहौल को देखकर समझ गया हूं कि उसकी सोच को मुंगेरीलाल का हसीन सपना’ कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है।

हे राम आसाराम : दैनिक नेशनल दुनिया स्‍तंभ 'चिकोटी' में 11 जनवरी 2013 को प्रकाशित





हजारी लाल ने आज अपनी दुकान बंद कर रखी है। बाहर एक टैन्‍ट लगा हुआ है और नीचे बिछे गद्दों पर आठ दस लोग मुंह लटकाए बैठे हैं।मैं किसी अनहोनी की आशंका से स्‍तब्‍ध हूं। क्‍या हुआ हजारीलाल मैं पूरी तरह गंभीरता ओढ़कर पूछता हूं। मुन्‍नाभाई आज मुझे पहली बार अपने हज्‍जाम होने पर दुख हो रहा हैकि क्‍यों मैंने नाई की दुकान खोलीजबकि देश में रोजगार के इतने अधिक अवसर मौजूद हैं। पढ़ा  लिखा हूं इसलिए ही तो बाल काट रहा हूंउस घड़ी को कोस रहा हूं जिस दिन मैंने हज्‍जाम बनने का फैसला लिया था मुन्‍नाभाई।
बतलाओ तो हो सकता है कि मैं तुम्‍हारी कुछ मदद कर सकूं,मैंने इंसान बनते हुए कहा। आप कुछ नहीं कर पाओगे मुन्‍नाभाई। मैं सचमुच की कैंची से पब्लिक के बाल कतरता हूँ और वो अपनी जुबान की कैंची से दिमाग को कुतर रहा है। उसने अपने धंधे में पूंजी भी नहीं लगाई और करोड़पति बन बैठा । अब हाल यह है कि करोड़पति और नेता तक उसके दरबार में हाजि‍री बजाने के लिए लालायित रहते हैं और मौका मिल जाए तो धन्‍य हो जाते हैं। 
मैं तुम्‍हारे दुख का सिर-पैर नहीं समझ पा रहा हूँ हजारीलाल। उसने कहा, एक हो तो गिनवाऊं मुन्‍नाभाई और हजारीलाल फूट फूट कर रोने लगा। मुझे लगा जरूर इसके किसी नजदीकी सगे-संबंधी की मौत हो गई है तभी यह बहकी-बहकी बातें करके विलाप कर रहा है।
दरअसल, बात यह है कि बाबा बनकर नामदाम कमाने और इसे रोजगार बनाने का धंधा आजकल बहुत उपजाऊ है। यहां पब्लिसिटी भी खूब मिलती है,भीड़ बिना बटोरे सामने निकम्‍मे घुग्‍गू की तरह बैठी रहती है और जिस चीज को हाथ लगा दोवह हाथों हाथ खूब बिक जाती है। आलम यह है कि वह मिट्टी को हाथ लगा दे तो अंधभक्‍तगण मुट्टी भर-भर मिट्टी खरीद कर ले जाते हैं। किसी पॉर्न पत्रिका की प्रचार-प्रसार संख्‍या भी इसकी पत्रिका के आगे पानी नहीं भर पाती है। 
यह अपनी पर आ जाएं तो ‘राम नाम’ की मदिरा बनवाकर मदिरा बेचने के सारे रिकार्ड ध्‍वस्‍त कर दें और एक पैसे का टैक्‍स भी न चुकाएं। मछलियों के किंग’ को किसी ने बुद्धि नहीं दी होगीअगर उन्‍होंने सरकार की जगह इनकी शरण ली होती तो अब तक वारे-न्‍यारे हो गए होते। जहाज उड़ाकर कमाने की तो बात छोड़िएवह अगर इनसे केवल दीक्षा ले लेता तो आज रंगीन कलेंडर छाप रहा होता !  

हजारीलाल बतलाए जा रहा था कि जितने भी बाबा हैंसभी एक ही थैली के चटावन लाल हैं। वे चाहे आसाराम होंनिर्मल बाबा हों या किसी मंदिर के पुजारी बाबा। सबकी मुंडियां और मुट्ठियां नोटों की कड़ाही में डूबी रहती हैं। इनके लुभावने नाम इनकी ओर सहज ही आकर्षण पैदा करते हैं। धर्म को धंधा बनाने के लिए इनका किया गया योगदान अतुलनीय है मुन्‍नाभाई। अब मुझे हजारीलाल का दुख समझ में आने लगा। मैंने कहा, तुम बिल्‍कुल ठीक कह रहे हो। अगर ईश्‍वर पृथ्‍वी पर होता तो इनकी कारगुजारियां देखकर जरूर विस्मित हो रहा होता और उसे अपने ईश्‍वर होने पर पछतावा होता। ईश्‍वर को भी महसूस हो जाता कि भगवान बनने से अधिक अच्‍छा धंधा तो बाबा बनने में है। महात्‍मा गांधी यानी बापू ने जितना नाम और ख्‍याति अपने जीवन भर में नहीं कमाई, उससे अधिक तो तथाकथित बाबा आज पल भर में बटोर लेते हैं,चाहे इसके लिए इन्‍हें बकवास ही क्‍यों न करनी पड़े। जिन महिलाओं को यह इज्‍जत देने का दावा करते हैंऔर जिनके जुड़ने से इनका धंधा जमा है,उन्‍हीं को मौका पड़ने परबाजारू’ कहने से नहीं चूकते हैं। मतलब तो सुर्खियां बटोरने से हैइन्‍हें सुर्खीखोर’ कहा जा सकता है।

Price Hike : दैनिक आई नेक्‍स्‍ट के 8 जनवरी 2013 अंक में खूब कही स्‍तंभ में प्रकाशित

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हजारीलाल हज्‍जाम ने नए बरस की शुभकामनाओं को ध्‍यान में रखकर हज्‍जामी की दरों में इजाफा किया है। इस पर उसका कहना है कि यह सीख उसे पीएम से मिली है। मैंने जब कहा कि तुम बहुत चटर-पटर करते हो, इस पर उसने अपना ज्ञान बघारा कि संविधान में ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है कि आप मानोगे तो सभी बातें माननी पड़ेंगी और नहीं मानो तो एक भी बात मत मानो। वह बतला रहा है कि उसे पीएम का पैट्रोल, डीजल, गैस के रेट का बढ़ाने का फैसला नेक लगता है और इसी से प्रेरित होकर देश के विकास में हज्‍जामी के नेक कार्यों की दरों में बढ़ोतरी करके भागीदार बनेगा।  इस बाबत नियमानुसार वह प्रोफेशनल टैक्‍स भी भरेगा। यह देखो, कहकर उसने अपनी छपी हुई रसीद बुक भी दिखलाई, जिस पर सर्विस टैक्‍स नंबर छपा है। मतलब हजारीलाल अब तुम अपनी सेवाओं के लिए सर्विस टैक्‍स भी लिया करोगे। हां मुन्‍नाभाई और उसे सरकार के राजस्‍व में जमा भी करवाया करूंगा।

वैसे हजारीलाल की खास बात यह है कि वह अपने रोजगार को छोटा नहीं समझता। इसी कारण जब भी उसकी दुकान पर पहुंचो तो सभी कुर्सियां और बेंचें भरी हुई मिलती हैं। वह कह रहा है कि‍ अब वह कंप्‍यूटरीकृत बुकिंग की सुविधा मुहैया करवाएगा। मुझे लगा कि वह रेल और हवाई जहाज की टिकटों की बुकिंग किया करेगा किंतु उसने यह बतलाकर मुझे हैरत में डाल दिया है कि उसका फेसबुक खाता भी है जिसमें उसके दो हजार से अधिक दोस्‍त हैं। अब वह शेविंग, कटिंग, मसाज वगैरह के ऑनलाईन अप्‍वाइंटमेंट किया करेगा, जिसके लिए उसने स्‍वचालित कार्यक्रम बनवाकर अपने कंप्‍यूटर में इंस्‍टाल करवाया है। तकनीक के प्रति उसकी रुचि को देखकर मैं खुश हूं। वह कटिंग से पहले कंप्‍यूटर पर उसका पूर्वावलोकन करवाता है। पैसे का चाहे लोग कितना भी रोना रोएं परंतु यह बात सच है कि किसी के पास पैसे की कमी नहीं है। वहां पर अपनी हजामत बनवाने में एक सुखद अहसास होता है। तकनीक से जुड़ना कितना फायदेमंद हो सकता है, इसको लेकर उसके कई साक्षात्‍कार देश के राष्‍ट्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। वह कभी भी इस संबंध में लेक्‍चर पिलाने के लिए हरदम तैयार मिलता है।

खास बात यह है कि हजारीलाल ने स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा भी अच्‍छे नंबरों और श्रेणी से उत्‍तीर्ण कर रखा है। एक प्रख्‍यात प्रशिक्षण संस्‍थान से उसने हज्‍जाम की ट्रेनिंग ली है। वह मानता है कि किसी कार्य को करने में शर्म नहीं, श्रम करना चाहिए। यही वजह है कि मैं रोजाना शेव जैसे कार्य को खुद न करके, उसके ठिकाने पर पहुंचने के लिए लालायित रहता हूं। वह ग्राहकों से प्राप्‍त जानकारी को एक दूसरे में बांटने का शुभ कार्य जो करता रहता है। वह अखबार मंगवाता जरूर है किंतु उन्‍हें पढ़ नहीं पाता नहीं है जिसका उसे बेहद दुख है। टीवी सुनकर हासिल ज्ञान को वह सदा पूरे आत्‍मविश्‍वास से बांटता है। उसकी दी गई पुख्‍ता जानकारी से सदा मुझे लाभ ही हुआ है।

नाम में सब कुछ है ... : दैनिक हिंदी मिलाप 9 जनवरी 13 के स्‍तंभ 'बैठे-ठाले' में प्रकाशित



हजारीलाल हज्‍जाम जरूर है किंतु वह सिर्फ बात ही नहीं करता, अपनी बातों और अकाट्य तर्कों से बड़ों-बड़ों के कान भी बहुत बेहतरी से कतरता है। उसकी इस कला का अहसास मुझे कई बार हो चुका है। आज भी जब मैं उसकी दुकान पर हजामत बनवाने के लिए पहुंचा तो पाया कि ठंड का प्रकोप इसलिए कम हो गया था क्‍योंकि वहां गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई थी। दिल्‍ली में पिछले दिनों घटित दुष्‍कर्म का मामला इतनी अधिक सुर्खियों में है कि अगर और भी कड़ाके की ठंड पड़ने लगे तब भी वह जल्‍दी ठंडा होने वाला नहीं है। कड़ाके की जुल्‍मी ठंड में दुष्‍कर्मियों को तुरंत सजा दिलवाने की मांग को लेकर कितने ही जाबांज युवक आज भी जंतर मंतर पर नंगे बदन डटे हुए हैं जबकि चैनल भी उन्‍हें इतना भाव नहीं दे रहे हैं, जिसके वे सचमुच हकदार हैं। रही सरकार की तो उसने घुटने टेक दिए हैं कि दुष्‍कर्मियों को फांसी देने पर उनकी सहमति नहीं बन रही है। इसका छिपा कारण सहमति बनाने वालों का ऐसे मामलों में स्‍वयं के संलिप्‍त होने का भी हो सकता है, ऐसा मुझे लग रहा है।
सब जानते हैं कि वे अभिनय नहीं कर रहे हैं और न ही वे सलमान खान हैं जो उनकी तरह अपने शारीरिक सौष्‍ठव का प्रदर्शन करने पर उतारू हैं। पहले से चल रही चर्चा में मैंने अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए जब अपनी राय रखी कि दुष्‍कर्म पीडि़ता के नाम को जगजाहिर करने की मांग गलत है तो हजारीलाल ने तुरंत आपत्ति प्रकट करते हुए कहा कि पहले तो पीडि़ता  दंरिदों की इस नापाक दुनिया में जीवित ही नहीं रही है। दूसरा उसे आप इस तरह छिपा रहे हैं मानो दोष पीडि़ता का ही है। जब ऐसा नहीं है तो फिर वह सजा क्‍यों भोगे कि कोई उसका असली नाम न जान पाए। उसका नाम जाहिर कर दिया जाए या छिपा लिया जाए इससे हमारी मानसिकता के दिवालिएपन का पता चलता है कि हम अब तक स्‍त्री को ही दोषी मानते रहे हैं और मानते ही रहेंगे। इससे बचने के लिए उसका नाम बतलाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।  
हजारी लाल ने मेरे से यह भी जानना चाहा कि आपको ऐसा लगता है कि जिसे आप दामिनी, अनामिका या सुनीता के छद्म नाम से जान रहे हैं, उसे दुनिया में और कोई जानता ही नहीं है।  ऐसा है मुन्‍नाभाई सबकी अपनी पुख्‍ता पहचान घर, पास-पड़ोस, नाते-रिश्‍तेदारी, सहपाठियों और मित्र-मंडलियों में होती है। फिर आपको ऐसा क्‍यों लगता है कि वे पीडि़ता को नाम से या चेहरे से नहीं पहचानते होंगे। बल्कि यूं कहिए कि बहुत अच्‍छी तरह से जानते होंगे। जब वे जानते हैं फिर आप उसकी पहचान किससे छिपा रहे हैं, जो उसे जानते ही नहीं हैं। अब वह कोई लोकप्रिय शख्सियत तो है नहीं, जिसे सब नाम लेते ही जान जाएंगे। इसलिए उसका नाम कुछ भी हो, इसे   इसे जानने भर से कोई कयामत नहीं आने वाली है। हमारा देश धार्मिक अंध‍-विश्‍वास, कुरीतियों और आडंबरों के जाल में इस बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। समाज में बहुत सारे बदलावों के साथ इस बदलाव की भी बहुत सख्‍त जरूरत है कि किसी महिला को महिला के चश्‍मे से ही देखा-पहचाना जाए, न कि धर्म से जोड़कर स्थिति को विस्‍फोटक बना धर्म के ठेकदारों के नाजायज मंसूबे पूरे होने दिए जाएं। धार्मिक संकीर्णताओं के कारण इस देश के कई शहरों और नागरिकों को सदा से ही नुकसान होता रहा है और अगर बदलाव नहीं लाए गए तो ऐसा होना बदस्‍तूर जारी रहेगा। फिर हिन्‍दू नाम सामने आने से स्थिति में और अधिक नकारात्‍मकता नहीं बढ़ने वाली जबकि मुस्लिम नाम होने से धार्मिक आग को भड़कने से रोकना किसी के भी वश में नहीं है।
हमें सामाजिक सरोकारों से जुड़ना चाहिए और अपनी बहसों और चिेताओं को धर्मिक चश्‍मे से देखने की मानसिकता से बचना चाहिए। इसी में समाज का कल्‍याण और इंसानियत की जीत  निहित है। ऐसे ही सड़े-गले सामाजिक सरोकारों में बदलाव लाने हेतु समाज में जागृति लाने के लिए अनेक नेक महापुरुष सदैव समय-समय पर प्रमुख मंचों से अपनी चिंता प्रकट करते रहे हैं। अब वे स्‍वामी विवेकानंद हों, स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती हों, श्री रामकृष्‍ण परमहंस हों अथवा कोई पीर-फकीर, औलिया, मौलवी या उच्‍च विचारक सूफी संत ही क्‍यों न हों, उनकी स्‍वच्‍छ मानसिकता पर सवाल उठाना बिल्‍कुल गलत है।   
हजारीलाल ने पेशे से हज्‍जाम होते हुए भी इतनी सुलझी बात कही कि वहां मौजूद सब उसकी बात से पूरी तरह सहमत लगे और मेरी तो बोलती बंद हो ही चुकी थी। बल्कि मेरा यह भी मानना है कि इसे पढ़ने वाले सुधि पाठक भी इससे अवश्‍य पूरी तरह सहमत होंगे।