पानी बजा रहा पब्लिक की टूंग टूंग : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 29 जून 2012 में उलटबांसी में प्रकाशित



दिल्‍ली की पब्लिक को पानी परेशानी के मसले पर सी एम ने, न जाने किस लेटेस्‍ट तकनीक का उपयोग करने के विचार का पानी बहा दिया है कि सब उसके कल्‍पना लोक में भीग-भीग भीषण गर्मी से राहत पाने में बिजी हो गए हैं। सबको सी एम के इस बयान पर पूरा यकीन हो गया है कि अब प्रत्‍येक दिल्‍लीवासी को डेढ़ घंटे पानी की आपर्ति सुनिश्चित की जा रही है। मासूम दिल्‍लीवासी यह सोच नहीं पा रहे हैं कि जैसे नेता वायदों की फसल उगाते हैं, उसी प्रकार आजकल सी एम पानी बहा रही हैं। इस बहते पानी की मंजिल इससे पैदा होने वाले वोट हैं जिन पर इनकी नजर टिकी हुई है।
मालूम नहीं चल रहा है कि उन्‍होंने कहां से लाकर यह तुर्रा छोड़ दिया है जिसकी टूंग टूंग लाउड बज रही है। टूंग टूंग बजे टूंग टूंग – वोट खींच मृदंग की तरह दंग कर रही है। सब जानते हैं कि वे हाल-फिलहाल विदेश तो छोडि़ए, हरियाणा भी होकर नहीं आई हैं क्‍योंकि वे हरियाणा के सी एम को फोन मिलाने में बिजी हैं और सी एम फोन न उठाने में बिजी हैं। न मालूम सी एम इतनी कोशिश और क्‍यों नहीं कर लेतीं कि अन्‍य किसी के नंबर से फोन करके उनसे बात कर लेतीं। पर वे ऐसा करतीं तब तक दो-चार दिन के गैप के बाद हरियाणवी सी एम ने उनसे फोन पर बात करके उन्‍हें टरका दिया है। बिल्‍कुल उसी तरह जिस तरह वोट पाने के लिए नेता पब्लिक को फुसलाते और वोट पाने के बाद टरकाते रहे हैं। सी एम ने खिसियाकर फोन बंद किया और एक बयान जारी कर दिया कि अब से दिल्‍लीवासियों को लगातार डेढ़ घंटे पानी की नियमित आपूर्ति की जाएगी। हरियाणा के सी एम इस घोषणा से तनिक भी चकित नहीं हुए क्‍योंकि वे अपने सत्‍ता में रहने वाले बंधु- बांधवों और बांधवियों के इस प्रकार के कारनामों से इत्‍तेफाक रखते हैं, अच्‍छी तरह जानते हैं कि यह उन्‍हें चिड़ाने के लिए पब्लिक को वायदों का एक पपलू और थमाना है।
आज पानी प्रत्‍येक प्रदेश में इतना कम हो गया है कि इसमें डूबकर मरने वाले नेता वेटिंग में हैं। पानी आए तो उसमें डूब मरें। लोटा भर न सही परंतु चुल्‍लू भर तो मिले। दिल्‍ली में डेढ़ घंटे का मतलब 90 मिनिट पूरा, न 89 मिनिट और न 91 मिनिट। एकदम चुस्‍त दुरुस्‍त सटीक व्‍यवस्‍था, किसी को शक करने की गुंजायश नहीं। अब सबको भरोसा करना होगा। दिल्‍ली के प्रत्‍येक परिवार के मुखिया के शरीर पर एक-एक डिटिजल मीटर विद जीपीआरएस सुविधा के साथ फिक्‍स कर दिया जाएगा, जैसे आजकल वाहनों में नंबर प्‍लेट लगाई जा रही हैं, जिन्‍हें न तो निकाला जा सकता है और न नंबर में कोई बेईमानी ही की जा सकती है। ऐसा भी नहीं होगा कि सप्‍ताह भर का पानी एक दिन में इकट्ठा यानी साढ़े दस घंटे लगातार दिया जाए। ऐसी एडजस्‍टमेंट व्‍यवस्‍थाएं सरकारी योजनाओं को पानी पिला देती हैं या उसमें डूबकर मरने को मजबूर कर देती हैं, इसलिए इसमें किसी किस्‍म की कोताही नहीं बरती जाएगी। पानी के लिए होने वाले धरने-प्रदर्शन बीते जमाने की यादें हो जाएंगी क्‍योंकि जो मुंह खोलेगा, उसको उसके मीटर की ज्‍योग्राफी सरकारी कंप्‍यूटर में दिखला दी जाएगी और एक प्रिंट सिर्फ पचास रुपये के भुगतान पर मुहैया करवा दिया जाएगा।
वैसे विचारणीय मुद्दा यह है कि जिन्‍हें पानी बहाने की लत लग चुकी है, वे पानी ही बहाते हैं, उनके दिमाग में इससे इतर या उतर कोई बहाने नहीं बह पाते हैं। आप यह जानकर हैरान-परेशान मत होइएगा कि सरकार अब शराब में पानी मिलाने पर भी अतिरिक्‍त टैक्‍स लगाने की जुगाड़ में है। इस टैक्‍स से बचने के लिए कोल्‍ड ड्रिंक्‍स, सोडा वगैरह मिलाने पर छूट की घोषणा की जा सकती है। अब सरकारी टाइमिंग मीटर सब सच सच खोलकर पब्लिक के झूठ की पोल खोल देगा। इससे यह सीख मिलती है कि पानी परेशानी के मसले को बहुत प्‍यार से हैंडल करना चाहिए अन्‍यथा ऐसे जोखिम वाले वाले मामले आपका भविष्‍य ‘डल’ कर सकते हैं। 

राष्‍ट्रपति कदापि नहीं बनूंगा अब मैं : हरिभूमि 28 जून 2012 में प्रकाशित



भारत का प्रथम नागरिक यानी राष्‍ट्रपति बनने से अब मेरा मोह भंग हो गया है। अच्‍छा हुआ कि किसी ने मुझे बना नहीं दिया। पानी क्‍यों नहीं है, बिजली क्‍यों नहीं है, सड़क पर गड्ढे क्‍यों हैं, सड़कों पर पानी क्‍यों भरा है, बारिश तो हुई नहीं, जरूर पानी की पाईप लाईन फट गई होगी। राष्‍ट्रपति अगर बनते हैं तो इसकी सबकी कानूनी न सही, हैं या हैं नहीं कि नैतिक जिम्‍मेदारी तो राष्‍ट्रपति की ही बनती है। रास्‍ता रोककर वीआईपी रूट बनाया गया है तो बदनामी राष्‍ट्रपति की ही होती है कि वही आ रहे होंगे, तभी तो जाम है। यह रोजमर्रा के  ट्रैफिक के जाम से बिल्‍कुल अलग है। रुटीन जाम में इसमें वाहन रेंगते तो हैं पर सचमुच में लगाए गए जाम की तरह सामने बिल्‍कुल खाली सड़कें नजर आती हैं। अच्‍छा हुआ मैं इस बदनामी से भी बच गया। वैसे बदनाम होने से भी नाम होता है जबकि मेरी इच्‍छा नेकनामी में नाम कमाने की है, चाहे मुझे इसमें सफलता मिले अथवा असफलता।
भला यह भी कोई बात हुई कि कहीं जहाज क्‍यों गिरा, कहीं रेल क्‍यों भिड़ी, जहाज किडनैप क्‍यों हुआ, संसद में हंगामा क्‍यों हुआ, मानसून समय पर नहीं आया, मुंबई में जादा बारिस क्‍यों हुई, किसी का मोबाइल कोई लूट कर ले गया, एटीएम में लूट हो गई, एटीएम सुरक्षा गार्ड ने एटीएम ही लूट लिया, साइबर क्राइम बढ़ रहा है, बेवसाइटों की हैकिंग से राष्‍ट्र की सुरक्षा को खतरा है, बाढ़ क्‍यों आ रही है, धूप क्‍यों तेज है, बारिश हुई तो ओले क्‍यों गिरे – अब भला यह भी कोई बात हुई कि राष्‍ट्र का पति हूं तो सब जिम्‍मेदारी मेरी। मुखिया हूं तो सब मेरी तरफ ही मुंह करके हमला करने को चौकस हूं। किस किसने बचाव करूं, क्‍या हेलमेट पहनूं, बख्‍तरबंद गाड़ी में टहलूं, मुझसे यह सब नहीं होगा।
मेरे बच्‍चों, नाते रिश्‍तेदारों, मित्रों और उनके मित्रों ने न जाने कितनी उम्‍मीदें मेरे राष्‍ट्रपति बनने से बांध ली थीं जो कि अब टूट गई हैं। वे सब मिलकर अब चाहे मेरे फैसले पर मुझे गोली मार दें, परंतु मैं राष्‍ट्रपति नहीं बनूंगा। लेकिन मेरी खुली आंखें अब और अधिक खुल गई हैं। देश में कहीं भी कुछ भी होता है, मतलब पत्‍ता भी हिलता है या परिंदा पर मारता है तो इन सब हरकतों की जिम्‍मेदारी राष्‍ट्रपति की ही बनती है। कहीं भी कोई खून, आतंककारी गतिविधि में सजा पाता है तो माफी की गुहार यहीं लगाकर माफी पाता है, मानो महामहिम से पूछकर हरकत की हो। पीएम तो मौन रहकर इन सबसे बच जाते हैं लेकिन राष्‍ट्रपति रबर की मोहर होता है। उस रबर की मोहर का ठप्‍पा कोई भी उठाकर कहीं भी लगा देता है। महामहिम मौन नहीं होते हैं। उनके पूरे बत्‍तीस दांत और एक जीभ होती है। चाहे वह तोल मोल के ही बोलती है परंतु बोलती जरूर है और जीभ का दांतों से बचाव करते हुए ही बोलती है।  
यह बोलना ही ताकत है। बोलने वाले का ही नेतागिरी में स्‍वागत है। वैसे नियम कायदे टूट रहे हैं, मौन रहने वाले भी पीएम बनने का आनंद लूट रहे हैं। नेतागिरी करनी है तो बयानबाजी करो, पीएम बनना है तो मौन रहो, राष्‍ट्रपति बनना है तो पूर्वसंध्‍या पर जरूर कहो। वैसे मौन रहने वाले पीएम भी पूर्वसंध्‍याओं पर बोलने का मोह नहीं त्‍याग पाते हैं और आजादी दिवस पर तो सुबह-सुबह लालकिले की प्राचीर से देश का लाल बनकर ढींगे हांकने से बाज नहीं आते हैं। मुझे एमएलए, सांसद बनना तो मंजूर हैं, मैं सांसद बनकर बंगला भी ले लूंगा पर राष्‍ट्रपति कदापि नहीं बनूंगा। 

हर तरफ बज रही पानी की धुन : दैनिक जनवाणी 26 जून 2012 अंक में 'तीखी नजर' स्‍तंभ में प्रकाशित



पानी को सब चाहते हैं। चाहते हैं कि उसी के घर पर छत की टंकी में या जमीन के टैंक में पवित्र पानी का स्‍थाई बसेरा रहे। यह जानकर अगर पानी, पानी पानी हो रहा है तो इसमें उसका कतई दोष नहीं है और न यह सूरज के ताप का असर है। सूरज के ताप से वह गरम हो सकता हैउबल सकता हैभाप बन सकता है लेकिन किसी की आंखों का पानी बनकर नीचे नहीं उतर सकता है। आंख का पानी कभी भाप बनकर नहीं उड़ा करता, चाहे कोई गर्मागर्म दिल का धारक ही क्‍यों न हो।
कतिपय नेताओं की आंख से पानी, पानी बनकर उतरने में भी शर्म महसूस करता है जबकि उसे शतरंज के प्‍यादे की तरह बहुधा इस्‍तेमाल किया जाता है। पानी का खेल हर जगह खुलेआम दिखाई दे रहा है। पानी पहले कुंओंबावडि़योंपोखरोंतालाबों में बेहिसाब रहता था और सबके मटकोंसुराहियों और शरीर में अपने मीठेपन के साथ उतर जाता था। अब स्थिति बदल गई हैं और उसका दुरुपयोग कर उसका सौदा कर मालामाल हुआ जा रहा है। पानी की वैसे तो कोई माला नहीं होती और न ही बरफ के टुकड़ों को किसी धागे में पिरोकर बनाना ही पॉसीबल है। आप एक बरफ के टुकड़े में पिरोओगे और पांचवे टुकड़े तक पहुंचोगे तो पहले वाला टुकड़ा पानी पानी हो चुका होगा। इस माला से माल नहीं बन सकेगा। मालामाल होने से आशय पानी की माला पहनना नहीं है पर पानी की सौदेबाजी करके तिजोरी भरना साबित हो चुका है।
कुछ बरस पहले जिनके पास कोई काम नहीं था, उन्‍होंने अपनी आंखों का पानी मारकर पानी से माल बनाना शुरू कर दिया है जिसमें सरकारी नीतियां भी सहयोगी बनीं। पानी जान भी बचाता है और उसमें कोई डूब जाए तो अपनी जान दे जाता है। बीमार पानी को पीने वाला अपने लीवर समेत अनेक उपयोगी अंगों को बीमार कर लेता है लेकिन बेचने वाला इससे खूब माल कमाता है। पानी से सब प्‍यार करते हैं और इसी घनघोर प्‍यार के चलते बीते दिनों पानी से प्‍यार का बिजनेसीकरण हो गया है। पानी भी सबसे प्‍यार करना चाहता हैसबके गलों को तर रखना चाहता है किंतु वह बेबस है और अपने सच्‍चे चाहने वालों तक पहुंचने से पहले तोड़ी गई पाईप लाईनों से बीच में जबर्दस्‍ती किडनैप कर लिया जाता है। पानी पब्लिक का पहला प्‍यार है जबकि उसी पब्लिक में से कुछ दलाल बन कर छिपकर सक्रिय हैं और पानी के प्‍यारजज्‍बात का नाजायज धंधा कर रहे हैं। पानी के प्‍यार के जलवे को धंधेबाजों ने अपनी जेब का हलवा बना लिया है और उस हलवे को बादाम का बना बतलाकर खूब दाम कमा रहे हैं। क्‍या हुआ जो इंसानियत को रुला, तड़पा रहे हैं।
पानी से सच्‍चा प्‍यार तो वे करते हैं जो रात-रात भर जागकर उसके बाल्‍टी भर दीदार को तड़पते हैं और मीलों दूर से उसे ढोकर लाते हैं। वे क्‍या जानें पानी के प्‍यार को जो अपने घर की छत की टंकियों में मोटरों चलाकर भर लेते हैं फिर उसे अंधाधुंध बहाते हैं। यह बहाना पानी के न आने का बहाना नहीं है, एक भीषण सच्‍चाई है। इसी से पब्लिक रात दिन पानी को, पानी की चाहत में सड़कों पर प्रदर्शन करजलबोर्ड के कार्यालय और अफसरों के सामने  मटके तोड़ती नजर आती है। महिलाओं को भी मटकों से कोई सहानुभूति नहीं होती है। जैसे पानी के न आने की दोषी पब्लिक नहीं है परंतु भुगतना पब्लिक को पड़ता है उसी प्रकार मटकों और सुराहियों की शामत आ जाती है, बेकसूर मटकों के पेट फोड़ दिए जाते हैं और सुराहियों की गर्दन मरोड़ दी जाती है। पानी के दुश्‍मन, जिन्‍हें अपनी कारों, स्‍कूटरों से बेइंतहा प्‍यार होता है, वे अपने घर के बरामदों को धोने के लिए लगातार पानी बहाते हैं, कारों और स्‍कूटरों को खूब नहलाते हैं। मानो अपने घर में ही नदिया बना लेंगे और कहेंगे कि ‘धीरे चलो नदिया, धीरे रे चलो , नदिया धीरे रे चलो... ।‘
यह धीमापन पानी के मिस्‍यूज में दिखाई देना चाहिए बल्कि इस बरबादी पर पूरी तरह रोक लग जानी चाहिए। कड़े कानून के तहत इसका उल्‍लंघन करने पर सख्‍त सजा दी जानी चाहिए, न कि जो इसको रोकने आए, वह अपनी जेब ऊपर तक लबालब भरकर लौट जाए। सजा देने वाले कानून बनाकर सजा तो देते हैं परंतु उसे रोकने वाले सरकारी कारिंदे उससे जेब भरने का मजा लूट लेते हैं। अब पानी को निजी हाथों में सौंपकर पब्लिक को पूरी तरह प्रताडि़त करने की साजिश रच ली गई है, जैसे अनेक बरस पहले बिजली के साथ किया गया था। जब उससे नहीं बचा जा सका तो इससे कैसे बचा जा सकेगा।  पानी भी कम मिलेगा और दाम बादाम के महंगे वाले वाले चुकाने होंगे। क्‍या आप बादाम की कीमत पर पानी खरीदने के लिए तैयार हैंन भी तैयार हों तो क्‍या फरक पड़ता हैआखिर यही तो शीला की जवानी है।  चारों तरफ टूंग टूंग का स्‍वर लाउड आवाज में गूंज रहा है। टूंग टूंग बजे टूंग टूंग। सबको लुभा रहा है, इस गीत के संगीत में मस्‍त होकर पब्लिक का ध्‍यान पानी से हटाकर मिनरल वॉटर की खरीद पर लग रहा है। नेता चाहते यही हैं  कि पानी का पब्लिक में वितरण हो, न हो लेकिन पानी की सौदेबाजी नहीं रुकनी चाहिए और न वोटों की फसल में कोई रुकावट आनी चाहिए। पानी की खेती नहीं होती है लेकिन वोटों की खेती में पानी की भूमिका काफी अहम् है।

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पानी बजा रहा पब्लिक की टूंग-टूंग : दैनिक हरिभूमि 23 जून 2012 में प्रकाशित


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दिल्‍ली की पब्लिक को पानी परेशानी के मसले पर सी एम ने, न जाने किस लेटेस्‍ट तकनीक का उपयोग करने के विचार का पानी बहा दिया है कि सब उसके कल्‍पना लोक में भीग-भीग भीषण गर्मी से राहत पाने में बिजी हो गए हैं। सबको सी एम के इस बयान पर पूरा यकीन हो गया है कि अब प्रत्‍येक दिल्‍लीवासी को डेढ़ घंटे पानी की आपर्ति सुनिश्चित की जा रही है। मासूम दिल्‍लीवासी यह सोच नहीं पा रहे हैं कि जैसे नेता वायदों की फसल उगाते हैं, उसी प्रकार आजकल सी एम पानी बहा रही हैं। इस बहते पानी की मंजिल इससे पैदा होने वाले वोट हैं जिन पर इनकी नजर टिकी हुई है।
मालूम नहीं चल रहा है कि उन्‍होंने कहां से लाकर यह तुर्रा छोड़ दिया है जिसकी टूंग टूंग लाउड बज रही है। टूंग टूंग बजे टूंग टूंग – वोट खींच मृदंग की तरह दंग कर रही है। सब जानते हैं कि वे हाल-फिलहाल विदेश तो छोडि़ए, हरियाणा भी होकर नहीं आई हैं क्‍योंकि वे हरियाणा के सी एम को फोन मिलाने में बिजी हैं और सी एम फोन न उठाने में बिजी हैं। न मालूम सी एम इतनी कोशिश और क्‍यों नहीं कर लेतीं कि अन्‍य किसी के नंबर से फोन करके उनसे बात कर लेतीं। पर वे ऐसा करतीं तब तक दो-चार दिन के गैप के बाद हरियाणवी सी एम ने उनसे फोन पर बात करके उन्‍हें टरका दिया है। बिल्‍कुल उसी तरह जिस तरह वोट पाने के लिए नेता पब्लिक को फुसलाते और वोट पाने के बाद टरकाते रहे हैं। सी एम ने खिसियाकर फोन बंद किया और एक बयान जारी कर दिया कि अब से दिल्‍लीवासियों को लगातार डेढ़ घंटे पानी की नियमित आपूर्ति की जाएगी। हरियाणा के सी एम इस घोषणा से तनिक भी चकित नहीं हुए क्‍योंकि वे अपने सत्‍ता में रहने वाले बंधु- बांधवों और बांधवियों के इस प्रकार के कारनामों से इत्‍तेफाक रखते हैं, अच्‍छी तरह जानते हैं कि यह उन्‍हें चिड़ाने के लिए पब्लिक को वायदों का एक पपलू और थमाना है।
आज पानी प्रत्‍येक प्रदेश में इतना कम हो गया है कि इसमें डूबकर मरने वाले नेता वेटिंग में हैं। पानी आए तो उसमें डूब मरें। लोटा भर न सही परंतु चुल्‍लू भर तो मिले। दिल्‍ली में डेढ़ घंटे का मतलब 90 मिनिट पूरा, न 89 मिनिट और न 91 मिनिट। एकदम चुस्‍त दुरुस्‍त सटीक व्‍यवस्‍था, किसी को शक करने की गुंजायश नहीं। अब सबको भरोसा करना होगा। दिल्‍ली के प्रत्‍येक परिवार के मुखिया के शरीर पर एक-एक डिटिजल मीटर विद जीपीआरएस सुविधा के साथ फिक्‍स कर दिया जाएगा, जैसे आजकल वाहनों में नंबर प्‍लेट लगाई जा रही हैं, जिन्‍हें न तो निकाला जा सकता है और न नंबर में कोई बेईमानी ही की जा सकती है। ऐसा भी नहीं होगा कि सप्‍ताह भर का पानी एक दिन में इकट्ठा यानी साढ़े दस घंटे लगातार दिया जाए। ऐसी एडजस्‍टमेंट व्‍यवस्‍थाएं सरकारी योजनाओं को पानी पिला देती हैं या उसमें डूबकर मरने को मजबूर कर देती हैं, इसलिए इसमें किसी किस्‍म की कोताही नहीं बरती जाएगी। पानी के लिए होने वाले धरने-प्रदर्शन बीते जमाने की यादें हो जाएंगी क्‍योंकि जो मुंह खोलेगा, उसको उसके मीटर की ज्‍योग्राफी सरकारी कंप्‍यूटर में दिखला दी जाएगी और एक प्रिंट सिर्फ पचास रुपये के भुगतान पर मुहैया करवा दिया जाएगा।
वैसे विचारणीय मुद्दा यह है कि जिन्‍हें पानी बहाने की लत लग चुकी है, वे पानी ही बहाते हैं, उनके दिमाग में इससे इतर या उतर कोई बहाने नहीं बह पाते हैं। आप यह जानकर हैरान-परेशान मत होइएगा कि सरकार अब शराब में पानी मिलाने पर भी अतिरिक्‍त टैक्‍स लगाने की जुगाड़ में है। इस टैक्‍स से बचने के लिए कोल्‍ड ड्रिंक्‍स, सोडा वगैरह मिलाने पर छूट की घोषणा की जा सकती है। अब सरकारी टाइमिंग मीटर सब सच सच खोलकर पब्लिक के झूठ की पोल खोल देगा। इससे यह सीख मिलती है कि पानी परेशानी के मसले को बहुत प्‍यार से हैंडल करना चाहिए अन्‍यथा ऐसे जोखिम वाले वाले मामले आपका भविष्‍य ‘डल’ कर सकते हैं।  

राष्‍ट्रपति बना दो, फिर मेरी चाल ... : दैनिक जनवाणी 21 जून 2012 अंक में 'तीखी नजर' में प्रकाशित



भारत का आम नागरिक अपने देश का राष्‍ट्रपति क्‍यों नहीं बन सकता और बनने की कौन कहेजब उम्‍मीदवार बनने की धूमिल सी संभावना भी नजर आती नहीं दिखती है। राष्‍ट्रपति बनने के लिए मेरी दीवानगी का आलम यह है कि इस गरिमामयी पद को पाने के लिए मैं अपनी धर्मपत्‍नी को भी बेहिचक छोड़ सकता हूं जिससे मैं किसी का भी पति न साबित किया जा सकूं। अपन नाम के अंत में से ‘वाचस्‍पति’ मिटाकर ‘अन्‍नाबाबा’ लिखने का निर्णलय लेकर उसे अमल में ला सकता हूं। फिर भी देश के लालची और मतलबी गठबंधनों के चलते मुझे अपने अरमान फलीभूत होते नहीं दीख रहे हैं। आप सोचिएजिस देश का एक आम नागरिक अपने देश का राष्‍ट्रपति तक बनने की योग्‍यता न रखता होउसकी कितनी लानत-मलामत होनी चाहिए। यह वही भारत है जहां के नेता इतने डरपोक हैं कि घोटाले, घपले करते हुए बिल्‍कुल नहीं डरते हैं लेकिन उससे मिले काले धन को रखने के लिए विदेश में स्विटजरलैंड और अन्‍य विदेशी बैंकों में खातों और लॉकरों में धन के अंबार लगा लगाकर भूल जाते हैं। क्‍या किसी समय सोने की चिडि़या’ कहलाने वाले इस देश के लिए यह बेहद शर्म की बात नहीं है कि इस देश का आम नागरिक ‘आम’ खाने का अपना सपना भी पूरा नहीं कर पाता है और आम की तनिक सी मिठास के लिए तरसता रहता है। प्रतियोगिताओं से भी प्रतिभाएं निखर और निकल कर सबके सामने आती हैं और चमत्‍कृत करती हैं।
मेरे शरीर में वे सभी योग्‍यताएं हैं जो एक राष्‍ट्रपति में होनी चाहिए और तो और मुझे साधारण नहींअसाधारणहेपिटाइटिस सी’ की बीमारी भी है। उनकी तरह मेरे भी दो कान हैंएक नाकदो नशीली आंखेंफेसबुक के योग्‍य एक अदद चेहरासिर पर काले व सफेद बालों का संगम32 तो नहींलेकिन 25 दांत तो मौजूद हैं,जिनमें से सामने के ऊपर की पंक्ति के दो और नीचे की पंक्ति का एक आधा टूटा पीला दांत भी है। एक कान से कम सुनाई देता हैयह भी एक योग्‍यता ही हैइन बहानों से कई देशों की यात्राएं संपन्‍न की जा सकती हैं। ढूंढने पर ऐसी और कितनी ही शारीरिक विकृतियां मेरे शरीर में जहां-तहां मिल जाएंगी। इस प्रकार की अतिरिक्‍त योग्‍यताओं से लबालब होना राष्‍ट्रपति पद के लिए मेरी दावेदारी को पुष्‍ट करता है। मैं अपनी नाक के छिद्रों में नियमित रूप से सरसों के तेल की बूंदें टपकाता रहता हूंजिससे जुकाम की शिकायत नहीं होती है।
इसके अतिरिक्‍त कितनी ही छोटी बीमारियोंजैसे आंखों से कम दिखना और कानों से कम सुनने का मैंने जिक्र नहीं किया है और वह राष्‍ट्रपति पद पर मेरी नियुक्ति के पूर्व मेडिकल टैस्‍ट में खोज ही ली जाएंगी और अतिरिक्‍त योग्‍यता के तौर पर देश को गौरवान्वित करेंगी। शरीर के अंगों के सुचारू सक्रिय संचालन के लिए सदैव सतर्क रहता हूं और यही तर्कशीलता मुझे तर्कों के साथ जीवंत रखने में समर्थ है। तर्क के साथ जीना एक पब्लिक फिगर के लिए कितना जरूरी हैइसे समूचा देश अच्‍छी तरह से जानता है।
मैं घोड़ों की सवारी तो नहीं कर सकता हूं लेकिन राष्‍ट्रपति बनते ही मेरे चारों तरफ घोड़ों और घुड़सवारों की महफिल जमाई जाती है, जिससे मुझे अपने विशि‍ष्‍ट होने का खूबसूरत अपने कार्यकाल में बना रहे। राष्‍ट्रपति के आस-पास किसी को फटकने नहीं दिया जाता है और भटकने की कोई हिम्‍मत कर नहीं सकता है। राष्‍ट्रपति बनने के बाद मैं जहां चाहूं सो सकता हूं और जब चाहे जग सकता हूं। चाहूं तो दौड़ भी सकता हूं लेकिन दौड़ूंगा नहीं क्‍योंकि पहले ही मैं अपने मासूम घुटनों के हालात ब्‍यान कर चुका हूं। किसी भी स्‍थल पर मेरे पहुंचने से पहले कितने ही जवानों और कुत्‍तों की सुरक्षा गारद मेरे पहुंचने की जगह पर सतर्कता अभियान चला चुकी होती है। उन्‍हें अपनी नहीं, सिर्फ मेरी जान की चिंता होती है क्‍योंकि मैं देश का पहला नागरिक होता हूं और मेरे अभाव में देश के नागरिकों की गिनती नहीं की जा सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए ऐसी कवायदें जब तब चलती ही रहती हैं। इससे देश की गतिशीलता का अहसास बना रहता है।  
अनेक राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों के सरकारी आयोजनों में मुझे कई घंटे लगातार खड़े होकर पुरस्‍कारों का वितरण करना होगा। जो मेरे मजबूत पैरों के रुग्‍ण घुटनों के लिए संभव न होने के कारण कईयों की इच्‍छापूर्ति का सबब बनेगा। क्‍या अब भी आप इतने अधिक प्रतिभासंपन्‍न और हुनरमंद पब्लिक के एक आम नागरिक को राष्‍ट्रपति बनाने के बारे में संशय की स्थिति में फंसे हुए हैं तो फिर देश का भला कैसे हो सकेगा ?

कोई मुझे राष्‍ट्रपति बना दे, फिर मेरी चाल ... : मिलाप दैनिक 20 जून 2012 अंक में प्रकाशित


भारत का आम नागरिक अपने देश का राष्‍ट्रपति क्‍यों नहीं बन सकता और बनने की कौन कहेजब उम्‍मीदवार बनने की धूमिल सी संभावना भी नजर आती नहीं दिखती है। राष्‍ट्रपति बनने के लिए मेरी दीवानगी का आलम यह है कि इस गरिमामयी पद को पाने के लिए मैं अपनी धर्मपत्‍नी को भी बेहिचक छोड़ सकता हूं जिससे मैं किसी का भी पति न साबित किया जा सकूं। अपन नाम के अंत में से ‘वाचस्‍पति’ मिटाकर ‘अन्‍नाबाबा’ लिखने का निर्णलय लेकर उसे अमल में ला सकता हूं। फिर भी देश के लालची और मतलबी गठबंधनों के चलते मुझे अपने अरमान फलीभूत होते नहीं दीख रहे हैं। आप सोचिएजिस देश का एक आम नागरिक अपने देश का राष्‍ट्रपति तक बनने की योग्‍यता न रखता होउसकी कितनी लानत-मलामत होनी चाहिए। यह वही भारत है जहां के नेता इतने डरपोक हैं कि घोटाले, घपले करते हुए बिल्‍कुल नहीं डरते हैं लेकिन उससे मिले काले धन को रखने के लिए विदेश में स्विटजरलैंड और अन्‍य विदेशी बैंकों में खातों और लॉकरों में धन के अंबार लगा लगाकर भूल जाते हैं। क्‍या किसी समय सोने की चिडि़या’ कहलाने वाले इस देश के लिए यह बेहद शर्म की बात नहीं है कि इस देश का आम नागरिक ‘आम’ खाने का अपना सपना भी पूरा नहीं कर पाता है और आम की तनिक सी मिठास के लिए तरसता रहता है। प्रतियोगिताओं से भी प्रतिभाएं निखर और निकल कर सबके सामने आती हैं और चमत्‍कृत करती हैं।
मेरे शरीर में वे सभी योग्‍यताएं हैं जो एक राष्‍ट्रपति में होनी चाहिए और तो और मुझे साधारण नहींअसाधारण हेपिटाइटिस सी’ की बीमारी भी है। उनकी तरह मेरे भी दो कान हैंएक नाकदो नशीली आंखेंफेसबुक के योग्‍य एक अदद चेहरासिर पर काले व सफेद बालों का संगम32 तो नहींलेकिन 25 दांत तो मौजूद हैंजिनमें से सामने के ऊपर की पंक्ति के दो और नीचे की पंक्ति का एक आधा टूटा पीला दांत भी है। एक कान से कम सुनाई देता हैयह भी एक योग्‍यता ही हैइन बहानों से कई देशों की यात्राएं संपन्‍न की जा सकती हैं। ढूंढने पर ऐसी और कितनी ही शारीरिक विकृतियां मेरे शरीर में जहां-तहां मिल जाएंगी। इस प्रकार की अतिरिक्‍त योग्‍यताओं से लबालब होना राष्‍ट्रपति पद के लिए मेरी दावेदारी को पुष्‍ट करता है। मैं अपनी नाक के छिद्रों में नियमित रूप से सरसों के तेल की बूंदें टपकाता रहता हूंजिससे जुकाम की शिकायत नहीं होती है।
इसके अतिरिक्‍त कितनी ही छोटी बीमारियोंजैसे आंखों से कम दिखना और कानों से कम सुनने का मैंने जिक्र नहीं किया है और वह राष्‍ट्रपति पद पर मेरी नियुक्ति के पूर्व मेडिकल टैस्‍ट में खोज ही ली जाएंगी और अतिरिक्‍त योग्‍यता के तौर पर देश को गौरवान्वित करेंगी। शरीर के अंगों के सुचारू सक्रिय संचालन के लिए सदैव सतर्क रहता हूं और यही तर्कशीलता मुझे तर्कों के साथ जीवंत रखने में समर्थ है। तर्क के साथ जीना एक पब्लिक फिगर के लिए कितना जरूरी हैइसे समूचा देश अच्‍छी तरह से जानता है।
मैं घोड़ों की सवारी तो नहीं कर सकता हूं लेकिन राष्‍ट्रपति बनते ही मेरे चारों तरफ घोड़ों और घुड़सवारों की महफिल जमाई जाती है, जिससे मुझे अपने विशि‍ष्‍ट होने का खूबसूरत अपने कार्यकाल में बना रहे। राष्‍ट्रपति के आस-पास किसी को फटकने नहीं दिया जाता है और भटकने की कोई हिम्‍मत कर नहीं सकता है। राष्‍ट्रपति बनने के बाद मैं जहां चाहूं सो सकता हूं और जब चाहे जग सकता हूं। चाहूं तो दौड़ भी सकता हूं लेकिन दौड़ूंगा नहीं क्‍योंकि पहले ही मैं अपने मासूम घुटनों के हालात ब्‍यान कर चुका हूं। किसी भी स्‍थल पर मेरे पहुंचने से पहले कितने ही जवानों और कुत्‍तों की सुरक्षा गारद मेरे पहुंचने की जगह पर सतर्कता अभियान चला चुकी होती है। उन्‍हें अपनी नहीं, सिर्फ मेरी जान की चिंता होती है क्‍योंकि मैं देश का पहला नागरिक होता हूं और मेरे अभाव में देश के नागरिकों की गिनती नहीं की जा सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए ऐसी कवायदें जब तब चलती ही रहती हैं। इससे देश की गतिशीलता का अहसास बना रहता है।  
अनेक राष्‍ट्रीय पुरस्‍कारों के सरकारी आयोजनों में मुझे कई घंटे लगातार खड़े होकर पुरस्‍कारों का वितरण करना होगा। जो मेरे मजबूत पैरों के रुग्‍ण घुटनों के लिए संभव न होने के कारण कईयों की इच्‍छापूर्ति का सबब बनेगा। क्‍या अब भी आप इतने अधिक प्रतिभासंपन्‍न और हुनरमंद पब्लिक के एक आम नागरिक को राष्‍ट्रपति बनाने के बारे में संशय की स्थिति में फंसे हुए हैं तो फिर देश का भला कैसे हो सकेगा ?

व्‍यंग्‍य यात्रा त्रैमासिक के जनवरी-मार्च 2012 अंक में 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' का सचित्र लोकार्पण समाचार




अनाज मामले में चूहे नाराज : दैनिक जागरण 18 जून 2012 में प्रकाशन सूचना

चूहे फुल फ्लेज्‍ड खुंदक में हैं : दैनिक जनवाणी 12 जून 2012 के तीखी नजर में प्रकाशित में




चूहे फुल फ्लेज्‍ड खुंदक में हैं। खुदंक चुहियों को भी आ रही है। वैसे खुश भी हैं चुहियाएं कि उनके चूहेदेवों को करोड़ों का अनाज खाने के तमगे से सम्‍मानित किया गया है। चूहे करोड़पति हुए न, सुन लो बिग बी। चूहे भी बन गए हैं करोड़पति, चाहे करोड़ों का अन्‍न खाकर ही, जरूरी थोड़े ही है कि सवालों के जवाब देकर ही, वह भी दर्शकों की राय, दोस्‍तों को फोन करके या जोखिम लेकर सवालों के जवाब देकर ही असली करोड़पति बना जा सकता है। मोबाइल फोन हो तो एसएमएस भेजकर लखपति बना जा सकता है। चूहे अनाज खाकर, चाहे बित्‍ता भर ही पेट है उनका, डकार लेने के हकदार साबित हुए हैं। डकार लेना और डकारना कोई इत्‍ता आसान नहीं है। पर चूहे सीख गए हैं नौकरशाहों से और नेताओं से, यह साबित किया जा रहा है।
जब से साक्षरता अभियान का लाभ चूहों को मिलना शुरू हुआ है। यह तो इंसानों का उन पर किया गया एक्‍सपेरीमेंट ही था जो एक्‍सपायर नहीं हुआ, हंड्रेड परसेंट विक्‍ट्री मिली। नहीं ऑस्‍कर या दादा साहेब फाल्‍के मिला तो क्‍या हुआ, सफलता पुरस्कारों से नहीं, कारनामों से मिलती है, कारगुजारियों के कर गुजरने से मिलती है। चूहे जान गए हैं कि उनको बकरा बनाकर, शातिर इंसान जब चाहे उनकी बलि दे देता है। जबकि कहां चूहा और कहां बकरा, किसमें अधिक गोश्‍त है सब जानते हैं। इंसान ने शैतान को भी मात अपनी इन करारी मातों से ही दी है और रोजाना इसमें बढ़ोतरी हो रही है। इंसान करतूतों को कारनामा बनाने की कूबत रखता है।
अनाज बेच गया इंसान, फंस गया चूहा नन्‍ही सी जान। मढ़ दिया आरोप कि चूहे डकार गए जबकि डकारने के लिए तोंद की अनिवार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है। एक, दो, हजार, पांच, दस हजार, पचास लाख का नहीं, करोड़ों का अन्‍न, कितना बड़ा बतलाया है इंसान ने चूहे का मन। इंसान की उदारता है कि इत्‍ती बिग चोरी होने के बाद भी सब कुछ कर गुजरने में सक्षम इंसान, निरुपाय, निस्‍सहाय भाव से महसूसता रहा। चूहे जो इस आरोप को हज़म नहीं कर पा रहे हैं, वे करोड़ों का अनाज कैसे डकार गए, तो इतने महाशक्तिशाली हैं, सुपरचूहे हैं हम। जबकि चूहे का बित्‍ता भर पेट थोड़ा कुतरने भर से ही, अनाज की खुशबू से ही अफारा मारने लगता है और तुरंत किसी मेडिकल स्‍टोर में जाकर पुदीन हरा सूंघकर अपना इलाज खुद करने को मजबूर हो जाता है। तोंदियल तक गले भरने के बाद भी डकार नहीं लेते हैं। फिर चूहे और डकार – कित्‍ता बड़ा विरोधाभास है।
चूहों ने जब से चैनलों पर खबर को देखा-सुना और अखबारों को कुतरते हुए जानकारी ली है कि वे इंसान का करोड़ों का अनाज खा गए हैं। उन्‍हें पेड न्‍यूज में सच्‍चाई नजर आने लगी है। अब उन्‍हें कुछ भी कुतरना रुचिकर नहीं लग रहा है। कुतरने से उनका मोह भंग हो रहा है। चूहे खुद को इंसान की कुतरने की शक्ति के आगे शर्मिन्‍दा महसूस कर रहे हैं। पर चूहे हैं न, नेता तो हैं नहीं, जो प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। कोशिश भी करेंगे तो बेहद चालाक इंसान बिल्लियों और कुत्‍तों के रूप में रिपोर्टर बनकर उनकी प्रेस कांफ्रेंस को शुरू होने से पहले ही तितर-बितर कर देगा। इंसानों के और उनके स्‍वामी श्रीगणेशजी का नाम प्रत्‍येक अच्‍छे काम के शुरू करने को श्रीगणेश करना कहा जाता है तो उनका बित्‍ते भर के पेट में मौजूद जीरा के आकार का कलेजा यान जिगर जल भुन जाता है।
चूहे चीत्‍कार भी करेंगे, चिल्‍लाएंगे भी तो अपने गले में ही खराश करेंगे और उनकी इतनी कोशिश उनकी जान जाने का सबब भी बन सकती है। जबकि इंसान के कानों में मक्‍खी जैसी भिनभिनाहट या मच्‍छर जैसी गुनगुनाहट महसूस नहीं होगी। चूहे उदास जरूर हैं पर मायूस नहीं हैं। चूहे शेर नहीं हैं पर चूहे तो हैं। वे लड़-भिड़ नहीं सकते परंतु दौड़-फुदक तो सकते हैं। उन्‍हें कुछ न सुनाई दे पर वे ‘नीरो की बांसुरी का स्‍वर सुनकर’ मग्‍न हो सकते हैं। वे डिफरेंट कलर में पृथ्‍वी पर मौजूद हैं। इंसान बतलाए कि कौन से रंगों के चूहों ने उनके करोड़ों के अनाज पर अपने दांतों की खुजली मिटाई है। मालूम चलेगा तो वे अपने वीर चूहों के लिए ‘ऑस्‍कर’ की सिफारिश जरूर करेंगे। नहीं तो गिन्‍नीज बुक ऑफ रिकार्ड्स में नाम तो दर्ज करवा ही लेंगे।
चूहे आज पहली बार खुदक में नहीं हैं। वे तब से ही खुंदक में हैं जब से पुलिस वालों ने उन पर दारू की बोतलों के ढक्‍कन कुतर कर सैकड़ों बरामद शराब की पेटियों को पीने का संगीन आरोप लगाया है। चूहे बहुत सह जाते हैं लेकिन अब वे गंभीर रूप से चिंतित हैं। उनका चिंतन उनके लिए जायज, एक ‘जून क्रांति’ का आगाज़ है, फिर भी इंसान के लिए नाजायज है। र्इश्‍वर ने जब सबको भरने के लिए पेट दिया है और भकोसने के लिए अन्‍न। फिर भी त‍थाकथित सभ्‍य लोग पेट में अन्‍न नहीं, विदेशी बैंकों में काले धन को सहेजने में बिजी रहते हैं। इंसान सारे अनाज पर अपना जबरदस्‍ती का अधिकार जतलाकर, उन्‍हें कुतरने से महरूम करने की साजिश रच चुका है। चूहे छोटे जरूर हैं परंतु उनकी यह दलील जोरदार है कि देश की, मानवीयता की समृद्धि के सबसे बड़े दुश्‍मन नेता और नौकरशाह देश को लगातार कुतर रहे हैं।
बाबाओं को भी इस धंधे में स्‍वाद आने लगा है पर किसकी नीयत सच्‍ची है और किसकी बिल्‍कुल कच्‍ची, नाम के निर्मल मन के मैले के तौर पर ख्‍याति अर्जित कर चुके हैं। जानकर भी कोई पुख्‍ता सबूत नहीं पेश कर पा रहा है। उनके द्वारा अनाज को कुतरना भी साबित नहीं होगा लेकिन बहुत बड़ी समस्‍याओं को छोटा करने के लिए, ऐसे बवाल मचाना इंसान की आधुनिक संस्‍कृति का अंश है। डकारना तो उनका भी साबित नहीं होगा बशर्ते सीसीटीवी के कैमरे न लगा दिए जाएं। वैसे चूहे इंसान जितने चालाक नहीं हैं। चूहे चाचा और मामा भी नहीं हैं फिर क्‍यों बिल्लियां उनकी मौसियां बनकर इतरा रही हैं। बादाम वे खा रही हैं और हमें सूखे अनाज पर टरका रही हैं। अब यह मामला ‘भूखों की अदालत’ में है, निर्णय की प्रतीक्षा चूहों को भी है और आम आदमी को भी, तब तक हम भी फैसले का इंतजार करते हैं ?

नुक्‍कड़ : कोई मुझे राष्‍ट्रपति बना दे फिर मेरी चाल ... - डीएनए 17 जून 2012 अंक में प्रकाशित


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भारत का आम नागरिक अपने देश का राष्ट्रपति क्यों नहीं बन सकता और बनने की कौन कहे, जब उम्मीदवार बनने की धूमिल सी संभावना भी नजर आती नहीं दिखती है। मेरी हसरत रही है कि किसी और नहीं, परंतु अपने देश का राष्ट्रपति बन सकूं। राष्ट्रपति बनने के लिए मेरी दीवानगी का आलम यह है कि इस गरिमामयी पद को पाने के लिए मैं अपनी धर्मपत्नी को भी बेहिचक छोड़ सकता हूं जिससे मैं किसी का भी पति न साबित किया जा सकूं। लेकिन देश के लालची और मतलबी नेताओं और गठबंधनों के चलते मुझे अपने अरमान फलीभूत होते नहीं दीख रहे हैं। आप सोचिए, जिस देश का एक आम नागरिक अपने देश का राष्ट्रपति तक बनने की योग्यता न रखता हो, उसकी कितनी लानत-मलामत होनी चाहिए। क्या किसी समय सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस देश के लिए यह बेहद शर्म की बात नहीं है। प्रतियोगिताओं से भी प्रतिभाएं निखर और निकल कर सबके सामने आती हैं और चमत्कृत करती हैं। मेरे शरीर में वे सभी योग्यताएं हैं जो एक राष्ट्रपति में होनी चाहिए और तो और मुझे साधारण नहीं, असाधारण हेपिटाइटिस सी की बीमारी भी है ताकि मेरी विदेश यात्राओं के लिए किसी प्रकार के बहानों का इंतजाम न करना पड़े। उनकी तरह मेरे भी दो कान हैं, एक नाक, दो नशीली आंखें, फेसबुक के योग्य एक अदद चेहरा, सिर पर काले व सफेद बालों का संगम, 32 तो नहीं, लेकिन 25 दांत तो मौजूद हैं, जिनमें से सामने के ऊपर की पंक्ति के दो और नीचे की पंक्ति का एक आधा टूटा पीला दांत भी है। एक कान से कम सुनाई देता है, यह भी एक योग्यता ही है, इस बहाने से भी कई देशों की यात्राएं संपन्न की जा सकती हैं। ढूंढने पर ऐसी और कितनी ही शारीरिक विकृतियां मेरे शरीर में जहां-तहां मिल जाएंगी। इस प्रकार की अतिरिक्त योग्यताओं से लबालब होना राष्ट्रपति पद के लिए मेरी दावेदारी को पुष्ट करता है। मैं अपनी नाक के छिद्रों में नियमित रूप से सरसों के तेल की बूंदें टपकाता रहता हूं, जिससे जुकाम इत्यादि की शिकायत नहीं होती है। मेरे पैर के घुटने मुड़ने में अटकते और चरमराने की आवाज करते हैं ताकि इनके इलाज के लिए भी मैं दो चार बार विदेश यात्रा कर सकता हूं। इसके अतिरिक्त कितनी ही छोटी बीमारियों, जैसे आंखों से कम दिखना और कानों से कम सुनने का मैंने जिक्र नहीं किया है और वह राष्ट्रपति पद पर मेरी नियुक्ति के पूर्व मेडिकल टैस्ट में खोज ही ली जाएंगी और अतिरिक्त योग्यता के तौर पर देश को गौरवान्वित करेंगी। मैं अपने शरीर के अंगों के सुचारू सक्रिय संचालन के लिए सदैव सतर्क रहता हूं और यही तर्कशीलता मुझे तकोर्ं के साथ जीवंत रखने में समर्थ है। तर्क के साथ जीना एक पब्लिक फिगर के लिए कितना जरूरी है, इसे समूचा देश अच्छी तरह से जानता है। अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों के सरकारी आयोजनों में मुझे कई घंटे लगातार खड़े होकर पुरस्कारों का वितरण करना होगा। जो मेरे मजबूत पैरों के घुटनों के लिए संभव न होने के कारण कईयों की इच्छापूर्ति का सबब बनेगा और वे मेरे नाम से पुरस्कारों के वितरण का अवसर पाकर खुशी हासिल कर सकेंगे। क्या अब भी आप इतने अधिक प्रतिभा संपन्न और हुनरमंद पब्लिक के एक आम नागरिक को राष्ट्रपति बनाने के बारे में संशय की स्थिति में फंसे हुए हैं तो फिर देश का भला कैसे हो सकेगा।

परमानेंट संन्‍यासी प्‍यारे मोहन : डीएलए दिनांक 13 जून 2012 में प्रकाशित


चूहे फुलफ्लेज्‍ड खुंदक में हैं : दैनिक हरिभूमि 13 जून 2012 अंक में प्रकाशित



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चू हे फुल फ्लेज्ड खुंदक में हैं। खुंदक चुहियों को भी आ रही है। वैसे खुश भी हैं चुहियाएं कि चूहे अनाज खाकर, चाहे बित्ता भर ही पेट है उनका, डकार लेने के हकदार साबित हुए हैं। डकार लेना और डकारना कोई इत्ता आसान नहीं है। पर चूहे सीख गए हैं नौकरशाहों से और नेताओं से। जब से साक्षरता अभियान का लाभ चूहों को मिलना शुरू हुआ है। चूहे जान गए हैं कि उनको बकरा बनाकर, शातिर इंसान जब चाहे उनकी बलि दे देता है। जबकि कहां चूहा और कहां बकरा, किसमें अधिक गोश्त है सब जानते हैं। 

अनाज बेच गया इंसान, फंस गया चूहा नन्ही सी जान। मढ़ दिया आरोप कि चूहे डकार गए जबकि डकारने के लिए तोंद की अनिवार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इतने महाशक्तिशाली हैं, सुपरचूहे हैं हम। जबकि चूहे का बित्ता भर पेट थोड़ा कुतरने भर से ही, अनाज की खुशबू से ही अफारा मारने लगता है और तुरंत किसी मेडिकल स्टोर में जाकर पुदीन हरा सूंघकर अपना इलाज खुद करने को मजबूर हो जाता है। 

चूहों ने जब से चैनलों पर खबर को देखा-सुना और अखबारों को कुतरते हुए जानकारी ली है कि वे इंसान का करोड़ों का अनाज खा गए हैं। उन्हें पेड न्यूज में सच्चाई नजर आने लगी है। अब उन्हें कुछ भी कुतरना रुचिकर नहीं लग रहा है। कुतरने से उनका मोह भंग हो रहा है। चूहे खुद को इंसान की कुतरने की शक्ति के आगे शर्मिन्दा महसूस कर रहे हैं। पर चूहे हैं न, नेता तो हैं नहीं, जो प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। कोशिश भी करेंगे तो बेहद चालाक इंसान बिल्लियों और कुत्ताें के रूप में रिपोर्टर बनकर उनकी प्रेस कांफ्रेंस को शुरू होने से पहले ही तितर-बितर कर देगा। चूहे उदास जरूर हैं पर मायूस नहीं हैं। चूहे शेर नहीं हैं पर चूहे तो हैं। वे लड़-भिड़ नहीं सकते परंतु दौड़-फुदक तो सकते हैं। उन्हें कुछ न सुनाई दे पर वे ‘नीरो की बांसुरी का स्वर’ सुनकर मग्न हो सकते हैं। वे डिफरेंट कलर में पृथ्वी पर मौजूद हैं। इंसान बतलाए कि कौन से रंगों के चूहों ने उनके करोड़ों के अनाज पर अपने दांतों की खुजली मिटाई है। मालूम चलेगा तो वे अपने वीर चूहों के लिए ‘ऑस्कर’ की सिफारिश जरूर करेंगे। नहीं तो गिन्नीज बुक ऑफ रिकार्डस में नाम तो दर्ज करवा ही लेंगे। 

ईश्वर ने जब सबको भरने के लिए पेट दिया है और भकोसने के लिए अन्न। फिर भी तथाकथित सभ्य लोग पेट में अन्न नहीं, विदेशी बैंकों में काले धन को सहेजने में बिजी रहते हैं। इंसान सारे अनाज पर अपना जबरदस्ती का अधिकार जतलाकर, उन्हें कुतरने से महरूम करने की साजिश रच चुका है। चूहे छोटे जरूर हैं परंतु उनकी यह दलील जोरदार है कि देश की, मानवीयता की समृद्धि के सबसे बड़े दुश्मन नेता और नौकरशाह देश को लगातार कुतर रहे हैं। बाबाओं को भी इस धंधे में स्वाद आने लगा है पर किसकी नीयत सच्ची है और किसकी बिल्कुल कच्ची, नाम के निर्मल मन के मैले के तौर पर ख्याति अर्जित कर चुके हैं। चूहे चाचा और मामा भी नहीं हैं फिर क्यों बिल्लियां उनकी मौसियां बनकर इतरा रही हैं। बादाम वे खा रही हैं और हमें सूखे अनाज पर टरका रही हैं। अब यह मामला ‘भूखों की अदालत’ में है, निर्णय की प्रतीक्षा चूहों को भी है और आम आदमी को भी, तब तक फैसले का इंतजार करते हैं? 

चूहे फुल फ्लेज्‍ड खुंदक में : नेशनल दुनिया 12 जून 2012 अंक में प्रकाशित



चूहे फुल फ्लेज्‍ड खुंदक में हैं। खुदंक चुहियों को भी आ रही है। वैसे खुश भी हैं चुहियाएं कि चूहे अनाज खाकर, चाहे बित्‍ता भर ही पेट है उनका, डकार लेने के हकदार साबित हुए हैं। डकार लेना और डकारना कोई इत्‍ता आसान नहीं है। पर चूहे सीख गए हैं नौकरशाहों से और नेताओं से।
जब से साक्षरता अभियान का लाभ चूहों को मिलना शुरू हुआ है। चूहे जान गए हैं कि उनको बकरा बनाकर, शातिर इंसान जब चाहे उनकी बलि दे देता है। जबकि कहां चूहा और कहां बकरा, किसमें अधिक गोश्‍त है सब जानते हैं।
अनाज बेच गया इंसान, फंस गया चूहा नन्‍ही सी जान। मढ़ दिया आरोप कि चूहे डकार गए जबकि डकारने के लिए तोंद की अनिवार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इतने महाशक्तिशाली हैं, सुपरचूहे हैं हम। जबकि चूहे का बित्‍ता भर पेट थोड़ा कुतरने भर से ही, अनाज की खुशबू से ही अफारा मारने लगता है और तुरंत किसी मेडिकल स्‍टोर में जाकर पुदीन हरा सूंघकर अपना इलाज खुद करने को मजबूर हो जाता है।
चूहों ने जब से चैनलों पर खबर को देखा-सुना और अखबारों को कुतरते हुए जानकारी ली है कि वे इंसान का करोड़ों का अनाज खा गए हैं। उन्‍हें पेड न्‍यूज में सच्‍चाई नजर आने लगी है। अब उन्‍हें कुछ भी कुतरना रुचिकर नहीं लग रहा है। कुतरने से उनका मोह भंग हो रहा है। चूहे खुद को इंसान की कुतरने की शक्ति के आगे शर्मिन्‍दा महसूस कर रहे हैं। पर चूहे हैं न, नेता तो हैं नहीं, जो प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। कोशिश भी करेंगे तो बेहद चालाक इंसान बिल्लियों और कुत्‍तों के रूप में रिपोर्टर बनकर उनकी प्रेस कांफ्रेंस को शुरू होने से पहले ही तितर-बितर कर देगा।
चूहे उदास जरूर हैं पर मायूस नहीं हैं। चूहे शेर नहीं हैं पर चूहे हैं। वे लड़-भिड़ नहीं सकते परंतु दौड़-फुदक सकते हैं। उन्‍हें कुछ न सुनाई दे पर वे ‘नीरो की बांसुरी का स्‍वर सुनकर’ मग्‍न हो सकते हैं। वे डिफरेंट कलर में पृथ्‍वी पर मौजूद हैं। इंसान बतलाए कि कौन से रंगों के चूहों ने उनके करोड़ों के अनाज पर अपने दांतों की खुजली मिटाई है। मालूम चलेगा तो वे अपने वीर चूहों के लिए ‘ऑस्‍कर’ की सिफारिश जरूर करेंगे। नहीं तो गिन्‍नीज बुक ऑफ रिकार्ड्स में नाम तो दर्ज करवा ही लेंगे।
र्इश्‍वर ने जब सबको भरने के लिए पेट दिया है और भकोसने के लिए अन्‍न। फिर भी त‍थाकथित सभ्‍य लोग पेट में अन्‍न नहीं, विदेशी बैंकों में काले धन को सहेजने में बिजी हैं। इंसान सारे अनाज पर अपना जबरदस्‍ती का अधिकार जतलाकर, उन्‍हें कुतरने से महरूम करने की साजिश रच चुका है। चूहे छोटे जरूर हैं परंतु उनकी यह दलील जोरदार है कि देश की समृद्धि के सबसे बड़े दुश्‍मन नेता और नौकरशाह देश को लगातार कुतर रहे हैं।
बाबाओं को भी इस धंधे में स्‍वाद आने लगा है पर किसकी नीयत सच्‍ची है और किसकी बिल्‍कुल कच्‍ची, नाम के निर्मल मन के मैले के तौर पर ख्‍याति अर्जित कर चुके हैं। चूहे चाचा और मामा भी नहीं हैं फिर क्‍यों बिल्लियां उनकी मौसियां बनकर इतरा रही हैं। बादाम वे खा रही हैं और हमें सूखे अनाज पर टरका रही हैं। अब यह मामला ‘भूखों की अदालत’ में है, निर्णय की प्रतीक्षा चूहों को भी है और आम आदमी को भी, तब तक हम भी फैसले का इंतजार करते हैं ?

चूहे फुल फ्लेज्‍ड खुंदक में हैं : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट में 12 जून 2012 अंक में प्रकाशित


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चूहे फुल फ्लेज्‍ड खुंदक में हैं। खुदंक चुहियों को भी आ रही है। वैसे खुश भी हैं चुहियाएं कि उनके चूहेदेवों को करोड़ों का अनाज खाने के तमगे से सम्‍मानित किया गया है। चूहे करोड़पति हुए न, सुन लो बिग बी। चूहे भी बन गए हैं करोड़पति, चाहे करोड़ों का अन्‍न खाकर ही, जरूरी थोड़े ही है कि सवालों के जवाब देकर ही, वह भी दर्शकों की राय, दोस्‍तों को फोन करके या जोखिम लेकर सवालों के जवाब देकर ही असली करोड़पति बना जा सकता है। मोबाइल फोन हो तो एसएमएस भेजकर लखपति बना जा सकता है। चूहे अनाज खाकर, चाहे बित्‍ता भर ही पेट है उनका, डकार लेने के हकदार साबित हुए हैं। डकार लेना और डकारना कोई इत्‍ता आसान नहीं है। पर चूहे सीख गए हैं नौकरशाहों से और नेताओं से, यह साबित किया जा रहा है।
जब से साक्षरता अभियान का लाभ चूहों को मिलना शुरू हुआ है। यह तो इंसानों का उन पर किया गया एक्‍सपेरीमेंट ही था जो एक्‍सपायर नहीं हुआ, हंड्रेड परसेंट विक्‍ट्री मिली। नहीं ऑस्‍कर या दादा साहेब फाल्‍के मिला तो क्‍या हुआ, सफलता पुरस्कारों से नहीं, कारनामों से मिलती है, कारगुजारियों के कर गुजरने से मिलती है। चूहे जान गए हैं कि उनको बकरा बनाकर, शातिर इंसान जब चाहे उनकी बलि दे देता है। जबकि कहां चूहा और कहां बकरा, किसमें अधिक गोश्‍त है सब जानते हैं। इंसान ने शैतान को भी मात अपनी इन करारी मातों से ही दी है और रोजाना इसमें बढ़ोतरी हो रही है। इंसान करतूतों को कारनामा बनाने की कूबत रखता है।
अनाज बेच गया इंसान, फंस गया चूहा नन्‍ही सी जान। मढ़ दिया आरोप कि चूहे डकार गए जबकि डकारने के लिए तोंद की अनिवार्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है। एक, दो, हजार, पांच, दस हजार, पचास लाख का नहीं, करोड़ों का अन्‍न, कितना बड़ा बतलाया है इंसान ने चूहे का मन। इंसान की उदारता है कि इत्‍ती बिग चोरी होने के बाद भी सब कुछ कर गुजरने में सक्षम इंसान, निरुपाय, निस्‍सहाय भाव से महसूसता रहा। चूहे जो इस आरोप को हज़म नहीं कर पा रहे हैं, वे करोड़ों का अनाज कैसे डकार गए, तो इतने महाशक्तिशाली हैं, सुपरचूहे हैं हम। जबकि चूहे का बित्‍ता भर पेट थोड़ा कुतरने भर से ही, अनाज की खुशबू से ही अफारा मारने लगता है और तुरंत किसी मेडिकल स्‍टोर में जाकर पुदीन हरा सूंघकर अपना इलाज खुद करने को मजबूर हो जाता है। तोंदियल तक गले भरने के बाद भी डकार नहीं लेते हैं। फिर चूहे और डकार – कित्‍ता बड़ा विरोधाभास है।
चूहों ने जब से चैनलों पर खबर को देखा-सुना और अखबारों को कुतरते हुए जानकारी ली है कि वे इंसान का करोड़ों का अनाज खा गए हैं। उन्‍हें पेड न्‍यूज में सच्‍चाई नजर आने लगी है। अब उन्‍हें कुछ भी कुतरना रुचिकर नहीं लग रहा है। कुतरने से उनका मोह भंग हो रहा है। चूहे खुद को इंसान की कुतरने की शक्ति के आगे शर्मिन्‍दा महसूस कर रहे हैं। पर चूहे हैं न, नेता तो हैं नहीं, जो प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। कोशिश भी करेंगे तो बेहद चालाक इंसान बिल्लियों और कुत्‍तों के रूप में रिपोर्टर बनकर उनकी प्रेस कांफ्रेंस को शुरू होने से पहले ही तितर-बितर कर देगा। इंसानों के और उनके स्‍वामी श्रीगणेशजी का नाम प्रत्‍येक अच्‍छे काम के शुरू करने को श्रीगणेश करना कहा जाता है तो उनका बित्‍ते भर के पेट में मौजूद जीरा के आकार का कलेजा यान जिगर जल भुन जाता है।
चूहे चीत्‍कार भी करेंगे, चिल्‍लाएंगे भी तो अपने गले में ही खराश करेंगे और उनकी इतनी कोशिश उनकी जान जाने का सबब भी बन सकती है। जबकि इंसान के कानों में मक्‍खी जैसी भिनभिनाहट या मच्‍छर जैसी गुनगुनाहट महसूस नहीं होगी। चूहे उदास जरूर हैं पर मायूस नहीं हैं। चूहे शेर नहीं हैं पर चूहे तो हैं। वे लड़-भिड़ नहीं सकते परंतु दौड़-फुदक तो सकते हैं। उन्‍हें कुछ न सुनाई दे पर वे ‘नीरो की बांसुरी का स्‍वर सुनकर’ मग्‍न हो सकते हैं। वे डिफरेंट कलर में पृथ्‍वी पर मौजूद हैं। इंसान बतलाए कि कौन से रंगों के चूहों ने उनके करोड़ों के अनाज पर अपने दांतों की खुजली मिटाई है। मालूम चलेगा तो वे अपने वीर चूहों के लिए ‘ऑस्‍कर’ की सिफारिश जरूर करेंगे। नहीं तो गिन्‍नीज बुक ऑफ रिकार्ड्स में नाम तो दर्ज करवा ही लेंगे।
चूहे आज पहली बार खुदक में नहीं हैं। वे तब से ही खुंदक में हैं जब से पुलिस वालों ने उन पर दारू की बोतलों के ढक्‍कन कुतर कर सैकड़ों बरामद शराब की पेटियों को पीने का संगीन आरोप लगाया है। चूहे बहुत सह जाते हैं लेकिन अब वे गंभीर रूप से चिंतित हैं। उनका चिंतन उनके लिए जायज, एक ‘जून क्रांति’ का आगाज़ है, फिर भी इंसान के लिए नाजायज है। र्इश्‍वर ने जब सबको भरने के लिए पेट दिया है और भकोसने के लिए अन्‍न। फिर भी त‍थाकथित सभ्‍य लोग पेट में अन्‍न नहीं, विदेशी बैंकों में काले धन को सहेजने में बिजी रहते हैं। इंसान सारे अनाज पर अपना जबरदस्‍ती का अधिकार जतलाकर, उन्‍हें कुतरने से महरूम करने की साजिश रच चुका है। चूहे छोटे जरूर हैं परंतु उनकी यह दलील जोरदार है कि देश की, मानवीयता की समृद्धि के सबसे बड़े दुश्‍मन नेता और नौकरशाह देश को लगातार कुतर रहे हैं।
बाबाओं को भी इस धंधे में स्‍वाद आने लगा है पर किसकी नीयत सच्‍ची है और किसकी बिल्‍कुल कच्‍ची, नाम के निर्मल मन के मैले के तौर पर ख्‍याति अर्जित कर चुके हैं। जानकर भी कोई पुख्‍ता सबूत नहीं पेश कर पा रहा है। उनके द्वारा अनाज को कुतरना भी साबित नहीं होगा लेकिन बहुत बड़ी समस्‍याओं को छोटा करने के लिए, ऐसे बवाल मचाना इंसान की आधुनिक संस्‍कृति का अंश है। डकारना तो उनका भी साबित नहीं होगा बशर्ते सीसीटीवी के कैमरे न लगा दिए जाएं। वैसे चूहे इंसान जितने चालाक नहीं हैं। चूहे चाचा और मामा भी नहीं हैं फिर क्‍यों बिल्लियां उनकी मौसियां बनकर इतरा रही हैं। बादाम वे खा रही हैं और हमें सूखे अनाज पर टरका रही हैं। अब यह मामला ‘भूखों की अदालत’ में है, निर्णय की प्रतीक्षा चूहों को भी है और आम आदमी को भी, तब तक हम भी फैसले का इंतजार करते हैं ?

हिंदी ब्‍लॉगर डॉ. रुपेश श्रीवास्‍तव का अंतहीन सफर : लीगेसी इंडिया मासिक के जून 2012 अंक में प्रकाशित

प्रतिबिम्‍ब में प्रकाशित विवेक श्रीवास्‍तव को विवेक रस्‍तोगी पढ़ें। स्‍मृति के कारण गलत नाम छपने के लिए खेद है। 



बुराई है, अच्‍छाई है। सुख है, दुख है। जीवन है,मृत्‍यु है। सभी एक दूसरे पर अवलंबित हैं। पत्रिकाएं हैं, लिखा जा रहा है। लिखा जा रहा है, छप रहा है। जो छप नहीं रहा, उस छिपे हुए को सामने लाने के लिए बतौर न्‍यू मीडिया एक महाशक्ति का आविर्भाव हुआ है। जो कहा जा रहा है, वह अब अधिक लोगों तक पहुंच रहा है। विचार जो उत्‍तम हैं अथवा निकृष्‍ट हैं, अधिक से अधिक देश, प्रदेश और विदेश की सीमाओं तक सीधे पहुंच रहे हैं। जिन पर सार्थक विमर्श हो रहा है और बेमतलब की बहस और विवाद भी हो रहे हैं। सबके अपने अपने तर्क हैं, अपने अपने फायदे और नुकसान हैं, यही नियति है, जीवन की गति है।

9 मई 2012 के दिन प्रत्‍येक उस नेक संवेदी दिल को धक्‍का लगा जो सिर्फ अपने लिए नहीं जीते। समाज में निराश्रितों और वंचितों के लिए जीवन जीने में यकीन रखते हैं। भड़ासफेम हिंदी ब्‍लॉगर डॉ. रुपेश श्रीवास्‍तव (http://bharhaas.blogspot.in/) के दिल को आघात लगा। वह घात उन्‍हें समेट कर ले गया और हमें एकाएक स्‍तब्‍ध कर गया। जीवन की कडि़यों में बहुत कुछ टूट बिखर जाता है। लेकिन वही टूटना-बिखरना जीवन को जीवंतता प्रदान करता है। डॉ. रुपेश को यूं ही हरफनमौला नहीं कहा गया है। ऐसे व्‍यक्तित्‍व विरले ही होते हैं जो सामने वाले के दुख में एकाकार हो जाते हैं। इंसान में कितनी ही बुराईयां हों लेकिन सामने वाले के दुख में एकाकार होना, बुराईयों को मिटा कर जीवन को गति प्रदान करता है। डॉ. रुपेश श्रीवास्‍तव से पहली मुलाकात गोवा से दिल्‍ली वापसी पर मुंबई में हिंदी ब्‍लॉगर साथियों से मिलने-जानने के दौरान 6 दिसम्‍बर 2009 को एक सप्‍ताह के मुंबई प्रवास में हुई। 

सभी साथी पहली बार रूबरू हुए। कवि गोष्ठियों में मुलाकात हुई। रचनाओं से रूबरू हुए। विचारों और एक दूसरे को जानने-समझने के लिए ही तो मुंबई ब्लॉगर मीट संजय गांधी नेशनल पार्क में त्रिमूर्ति जैन मंदिर में आयोजित की गई, जिसमें उल्‍लेखनीय भूमिका विवेक रस्‍तोगी और महावीर बी सेमलानी की रही। मुंबई की व्‍यस्‍त जिंदगी में सूरत और पनवेल से आकर फुर्सत के पल निकालना मुझे अभिभूत कर गया। मैं कोई सेलीब्रिटी नहीं था लेकिन सबने मिलने पर मुझे ऐसा अहसास करा दिया और उनमें डॉ. रुपेश की आत्‍मीयता स्‍मृतियों में जिंदा है। अल्‍पायु में डॉ. रुपेश का जाना मर्माहत कर गया है। सामूहिक ब्‍लॉग नुक्‍कड़ के मॉडरेटर की ओर से एक जीवट व्‍यक्तित्‍व के धनी डॉ. रुपेश श्रीवास्‍तव को भावभीने श्रद्धासुमन। उनके दिखाए रास्‍ते पर दौड़कर हम सबको मानवता का भला करना चाहिए। यह जज्‍बा चित्रकार एडम के प्रति उनके पितृतुल्‍य लगाव को महसूस कर जाना जा सकता है। भड़ास के कुशल मॉडरेटर के रूप में उन्‍होंने अभिव्‍यक्ति को काफी उच्‍च स्‍वर दिए हैं और उनके जाने से भी यह सच्‍ची सोच और कहन कभी न रुककर, मानवीयता के धरातल को और पुख्‍ता करेगी।

'भारत बंद', चलो चल कर खुलवाएं : दैनिक मिलाप 8 जून 2012 अंक में प्रकाशित



‘आज मोहब्‍बत बंद है’ गीत फिजा में गूंज रहा है जबकि ‘भारत बंद है’ जब भारत बंद होगा तो मोहब्‍बत पर तो अपने आप ही लॉक लग जाएगा। पहले चार अक्षर उस लोकप्रिय फिल्‍मी गीत के नाम, जिसने मोहब्‍बत को बंद बतला कर एक जमाने में मोहब्‍बत करने वालों के कलेजे में तूफान मचा दिया था, वैसे ही जैसे अंधड़ आता है। उसी गीत का सकारात्‍मक संदेश यह है कि मोहब्‍बत तो बंद हो सकती है लेकिन हिंसा, रक्‍तपात, खून खराबा, मारपीटी नहीं शुरू होनी चाहिए। इसके विपरीत भारत बंद और उधर हिंसा का नंगा नाच ओपन हो चुका है, जिसमें नाचने वाले नेताओं के शागिर्द होते हैं, वे ऊधम, हो हल्‍ले, हंगामे को नाच बतलाते नहीं शर्माते हैं। इन्‍हें आप भाईजी, गुंडे, बाउंसर, सक्रिय कार्यकर्ता इत्‍यादि नामों से पहचानते हैं। वैसे सच्‍चाई यह है कि धरती का आधार प्रेम है। प्रेम से ताकतवर कुछ नहीं है। प्रेम के बिना झगड़े भी नहीं है। किसी से प्रेम होगा तो किसी से उसी प्रेम के लिए झगड़ा भी होगा। यही इस सृष्टि का सनातन सत्‍य है। इसमें कोई बुराई नहीं है। यह बुराई न हो तो आप अच्‍छाई को न तो पहचान ही पाएं और न उसका उचित मोल ही लगा पाएं। बाजारवाद के इस युग में कीमत लगाना बहुत जरूरी है क्‍योंकि जब तक कीमत नहीं लगती, तब तक जनता मत नहीं देती है। लोकतंत्र में मत शक्तिस्‍वरूपा है।
भारत बंद बुराईयों को हटाने के लिए प्रेम का शक्ति प्रदर्शन है। बुराईयां जिन्‍हें सत्‍ता वाले अच्‍छाईयां मानते हैं और बे-सत्‍ता वाले ? विरोध करने का एक तरीका भारत बंद करने का चला आ रहा है। महात्‍मा गांधी जी ने अनशन का रास्‍ता अपनाया। बे-सत्‍ता वालों ने भारत बंद का। लेकिन मेरी समझ में अब तक यह समझ नहीं आया कि ‘भारत बंद’ कहां पर किया जाता है। इसके लिए किसी भारत घर की व्‍यवस्‍था नहीं है। काले धन की तरह इसे किसी विदेशी भूमि पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है। चिडि़याघर काफी लंबे चौड़े होते हैं लेकिन उसमें से चिडि़यों को बाहर निकालें, तब भारत को बंद करने की सोचें। परंतु चिडि़याएं कौओं के लिए अपना घर खाली करने से रहीं और अपने साथ तो वे उन्‍हें रखेंगी नहीं। और उस छोटे से चिडि़याघर में भारत को कैसे बंद कर पाएंगे। लेकिन फिर भी जब बे-सत्‍ता वाले कह रहे हैं तो कुछ जानते होंगे तभी तो कह रहे हैं। फिर भी मेरा कवि मन कह रहा है कि हो सकता है कि वे प्रतीक तौर पर भारत बंद का शोर मचाते हों। करते तो हों दुकानें बंद, मार्केट बंद, आफिस बंद, यातायात बंद, सिनेमा हाल बंद और चिल्‍लाते हैं कि कर दिया भारत बंद। माना कि भारत दुकानों में बसता है, बसों में टहलता है, ऑटो और टैक्सियों में सफर करता है, रिक्‍शे पर सवारी करता है, किसी को पैदल भी नहीं निकलने देंगे और खुद भाईगिरी करते छुट्टे घूमेंगे। गाय की तरह तो घूमने से रहे, सांड की तरह ही घूमेंगे। सोचते हैं कि उनकी इस बहादुरी से सत्‍ता उनके सामने घुटने टेक देगी जबकि सत्‍ता यानी सरकार के घुटने कभी अपने नहीं हुए, वह तो सदा इसके उसके तेरे या मेरे घुटनों का इस्‍तेमाल करती है। रही बात टी वी और अखबार वालों की उनको इसलिए बंद नहीं करते कयोंकि उनके सहयोग के बिना इनके कारनामे जग जाहिर कैसे होंगे और इन्‍हें यह भारत बंद से अलग रखना चाहते हैं। नेता बंद कैसे होंगे, वे तो चौबीस घंटे में 96 घंटे खुले रहते हैं। न्‍यू मीडिया पर अभी सरकार का ही बस नहीं चल रहा है तो इन बे-सत्‍तावासियों का कैसे चलेगा। वे भी इनके प्रचार में सगे भाई का रोल कर रहे हैं।

भारत, भारत न हुआ कोई गुनहगार हो गया। इसे तुरंत बंद कर दो। पेट्रोल के रेट कैसे बढ़ाए, सीएनजी के रेट क्‍यों बढ़ाए, कीमतों को बंद नहीं करके रखा इसलिए भारत को तो बंद होना ही होगा। भारत बंद होगा तो रेट खुल जाएंगे, यह नहीं समझ रहे कि खुलते ही रेट और ऊपर चढ़ जाएंगे। फिर किसे किसे बंद करवाएंगे। भारत क्‍या है, अगर संसद भारत है, नेता भारत है तो क्‍या उन्‍हें बंद करना इतना आसान है। बंद करना है तो पुलिस के अत्‍याचारों को करो, ब्‍यूरोक्रेसी में भ्रष्‍टाचार फैलाने वालों को काबू करो, अच्‍छाईयों के दुश्‍मनों को करो। पर उन पर आपका बस कहां चलता है। वहां पर तो आप सिरे से पैदल चलना शुरू कर देते हैं। भारत बंद का शोर मचाते हैं और एक मकान तक बंद नहीं कर पाते हैं, बुरे विचारों पर लगाम नहीं लगा पाते हैं। नेताओं की बकवास को बंद कर नहीं पा रहे हो और भारत बंद करने के ठेके उठा रहे हो।
सचमुच में बंद करने का इतना ही मन है तो कन्‍या भ्रूण हत्‍या को करो, प्रसव पूर्व लिंग जांच को करो, मिलावटी दवाईयों को रोको, अपनी बंद करने की ताकत को इनके खिलाफ झोंको। क्‍या आप नहीं जानते कि एक चूहे को चूहेदानी में बंद करने के लिए भी कितनी मशक्‍कत करनी होती है, बिना यह जाने चल दिए हैं कि पूरा भारत बंद करेंगे। पहले एक चूहा तो चूहेदानी में बंद करने का जौहर दिखलाओ। भारत बंद करने का आशय देश की सक्रियता को किडनैप करके देश को नुकसान पहुंचाने से है जबकि देश का अपहरण तो पहले से ही नेताओं ने निजी लाभ के लिए कर रखा है और उसके लिए घोटाले, घपलों में पूरी मुस्‍तैदी से बेखौफ होकर जुटे रहते हैं। मैं तो नहीं चाहता कि बंद रूपी ग्रहण का वायरस  मोहब्‍बत या भारत को लगे, आप क्‍या महसूस कर रहे हैं ?

परमानेंट संन्‍यासी प्‍यारे मोहन : दैनिक हिंदी मिलाप में 6 जून 2012 अंक में प्रकाशित



संन्‍यासी बनने के कई नेक लाभ हैं। बिग बास में लियोनी को खुली आंखों से देख सकते हैं। उनसे शेक हैंड कर सकते हैं।  आई पी एल में पूनम पांडेय दिखती हैं। यह दिखने-दिखाने का बाजार बहुत हॉट है। दिखाने वाले रेडी हैं। कल अगले दिवस की पूर्व संध्‍या पर जब पीएम ने मुझे फोन करके बतलाया कि आरोप रोपने दूं या रोक दूं। मैंने उन्‍हें सलाह दी कि आरोप रोपने देने में कोई बुराई नहीं है, बस वे अंकुरित नहीं होने चाहिएं।  फिर आप अपने संन्‍यासी बनने के फैसले पर अडिग रह सकते हैं और इसमें तनिक भी जोखिम नहीं है। अडिग रहने का आपको सख्‍त अनुभव है। जब आप मौनी बाबा बन जाते हैं तब आपसे कोई बुलवा नहीं सकता। मुझे लगता है कि यह आपका सत्‍ता योग का अधिकतम सुफल लेने का अपना बेहद निजी तरीका है। आपको कई जगह पर हां या न करने की जरूरत नहीं पड़ती और मौन सारे कार्य निपटा देता है। यह निपटना ही दरअसल प्रत्‍येक प्रकार की समस्‍याओं से सुलटना है। इसी से देश की समस्‍याएं भी टलती रही हैं और लोक पा(ग)ल बनते रहे हैं पर लोकपाल नहीं बनना इसलिए नहीं बनता है। संन्‍यासी की लटें सदा ओजस्विता में बढ़ोतरी करती हैं।
मैं फोन का जिक्र इसलिए निडर होकर कर रहा हूं क्‍योंकि कार्टून नहीं बना रहा हूं। कार्टून बना रहा होता तो जरूर मेरी डर के मारे बग्‍घी बन गई होती और मैं कार्टून बनाने से पहले ही बेहोश हो गया होता या कर दिया गया होता। अब चूंकि मैं व्‍यंग्‍य लिख रहा हूं और आज तक किसी व्‍यंग्‍यकार को उसके व्‍यंग्‍य के लिए सजा या प्रताडि़त करने की मिसाल इसलिए नहीं मिलती है क्‍योंकि लोग देख कर समझने में विश्‍वास रखते हैं। पढ़कर समय बेकार करने में उनका यकीन नहीं होता। अब आप इस न पढ़ने के रुझान  का प्रभाव देख लीजिए कि लेखक को प्रकाशक निचोड़ता रहता है और लेखक नींबू की तरह पूरा निचुड़ जाने और पाठकों को ठंडक व खटाई पहुंचाने में खप जाता है। इस मेहनत के लिए उसे मजदूर की श्रेणी में भी नहीं लाया गया है और उसे न्‍यूनतम मजदूरी के लायक भी नहीं समझा जाता है। लेखक वही जो बेगार करेलिख लिखकर बेकार पन्‍नों को काला करे और सरकार कागज को कोरा ही रहने दे। किसी भी प्रकार के कारधारक होने के तो फायदे अब रहे नहीं हैं। यह सब पेट्रोल की बदमाशी है। अब साइ्रकिल अथवा रिक्‍शाधारक होना खूब सुकून देता है।
आरोप रोपने के बाद अंकुरित होगा या नहीं होगा। इस बारे में राजनैतिक किसान जानते हैा कि खेती और फसल वाले सारे नियम यहां लागू नहीं होते हैं। सियासत के नियम खूब लचीले होते हैं और सत्‍तासीन उन्‍हें लीची सरीखा बना लेते हैं। लीची की रसधार खूब गुदगुदाती है और अधिक चाहिए तो रसभरी ले आइए। जैसे लियोनी की देह और पूनम पांडेय के वस्‍त्रों को सब निगाह में ही खींच उधेड़ डालते हैं। यह कपड़ों से वीतरागीपन है । संन्‍यासी भी सिर्फ एक ही कार्य कर सकता है। ऐसा नहीं है, आजकल के संन्‍यासी भी मल्‍टीटॉस्किंग में भरोसा रखते हैं। पहले संन्‍यास सिर्फ गृहस्‍थ धर्म से मुक्ति पाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता था, जिसे आज दुरुपयोग समझा जाता है। संन्‍यास चाहे जिससे ले लो। लो मत सिर्फ घोषणा ही कर दो और सारे लाभ झटक लो। संन्‍यास लो और किसी के साथ भी लटक लो। कोई भटक जाए पर आप लटकना मत छोडि़ए।
आप मन मोहन के साथ संन्‍यासी परमानेंट मोहन हैं, इसे मत भूलिएगा। इसी के बल पर आप जमे रहेंगे और कोई फसल का एक पौधा भी नहीं उखाड़ पाएगा। कोशिश करेगा तो बुरी तरह पिछड़ जाएगा। संन्‍यासी के लिए मंदिर बेहद मुफीद जगह है। वैसे पहले पहाड़ और उनकी गुफाएं हुआ करती थीं, आजकल विदेशी बैंक हुआ करते हैं। इतना अंतर तो तकनीक की प्रगति के साथ अपेक्षित है प्‍यारे मोहन जी। मोहन जी को मेरी बातों में हनी का आस्‍वादन हो रहा था और इसके विपरीत वह संन्‍यासी होने के लिए भा‍षणिक रूप से तैयार चुके हैं। इसी आस्‍वाद में रमण करते करते वह हनी में डूबने उतराने लगे और उन्‍हें बेहद रंगीले संगीन सपने आंखों में आने लगे, दिल में समाने लगे। वही सपने रूप बदलकर प्‍यारे मोहन जी अब पब्लिक को दिखला रहे हैं और पब्लिकसिटी का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। इस प्रकार के फायदे उठाने में जोर नहीं लगता है और इससे पैदा हुए उभार भी दिखलाई नहीं देते हैं, इसलिए इन्‍हें भार नहीं माना जाता। वैसे भी उभार मन को ललचाते रहे हैं।
पीएम की बातों के रस रहस्‍य जंगल में मुझे भी आनंद आने लगा था और में व्‍यंग्‍य की कार छोड़कर अब रिक्‍शा चलाने लगा था। यह सलाह भी प्‍यारे मोहन ने ही फोन पर बातचीत में दी थी ताकि बढ़े हुए पेट्रोल रेटों का वेट व्‍यंग्‍यलेखक की रूखी सूखी काया पर असर न डाल सके। आप भी मेरी तरह प्‍यारे मोहन जी की राय से सहमत हैं न ?

परमानेंट संन्‍यासी प्‍यारे मोहन : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट में 4 जून 2012 को प्रकाशित

संन्‍यासी बनने के कई नेक लाभ हैं। बिग बास में लियोनी को खुली आंखों से देख सकते हैं। उनसे शेक हैंड कर सकते हैं।  आई पी एल में पूनम पांडेय दिखती हैं। यह दिखने-दिखाने का बाजार बहुत हॉट है। दिखाने वाले रेडी हैं। कल अगले दिवस की पूर्व संध्‍या पर जब पीएम ने मुझे फोन करके बतलाया कि आरोप रोपने दूं या रोक दूं। मैंने उन्‍हें सलाह दी कि आरोप रोपने देने में कोई बुराई नहीं है, बस वे अंकुरित नहीं होने चाहिएं।  फिर आप अपने संन्‍यासी बनने के फैसले पर अडिग रह सकते हैं और इसमें तनिक भी जोखिम नहीं है। अडिग रहने का आपको सख्‍त अनुभव है। जब आप मौनी बाबा बन जाते हैं तब आपसे कोई बुलवा नहीं सकता। मुझे लगता है कि यह आपका सत्‍ता योग का अधिकतम सुफल लेने का अपना बेहद निजी तरीका है। आपको कई जगह पर हां या न करने की जरूरत नहीं पड़ती और मौन सारे कार्य निपटा देता है। यह निपटना ही दरअसल प्रत्‍येक प्रकार की समस्‍याओं से सुलटना है। इसी से देश की समस्‍याएं भी टलती रही हैं और लोक पा(ग)ल बनते रहे हैं पर लोकपाल नहीं बनना इसलिए नहीं बनता है। संन्‍यासी की लटें सदा ओजस्विता में बढ़ोतरी करती हैं।
मैं फोन का जिक्र इसलिए निडर होकर कर रहा हूं क्‍योंकि कार्टून नहीं बना रहा हूं। कार्टून बना रहा होता तो जरूर मेरी डर के मारे घिग्‍घी बन गई होती और मैं कार्टून बनाने से पहले ही बेहोश हो गया होता या कर दिया गया होता। अब चूंकि मैं व्‍यंग्‍य लिख रहा हूं और आज तक किसी व्‍यंग्‍यकार को उसके व्‍यंग्‍य के लिए सजा या प्रताडि़त करने की मिसाल इसलिए नहीं मिलती है क्‍योंकि लोग देख कर समझने में विश्‍वास रखते हैं। पढ़कर समय बेकार करने में उनका यकीन नहीं होता। अब आप इस न पढ़ने के रुझान  का प्रभाव देख लीजिए कि लेखक को प्रकाशक निचोड़ता रहता है और लेखक नींबू की तरह पूरा निचुड़ जाने और पाठकों को ठंडक व खटाई पहुंचाने में खप जाता है। इस मेहनत के लिए उसे मजदूर की श्रेणी में भी नहीं लाया गया है और उसे न्‍यूनतम मजदूरी के लायक भी नहीं समझा जाता है। लेखक वही जो बेगार करेलिख लिखकर बेकार पन्‍नों को काला करे और सरकार कागज को कोरा ही रहने दे। किसी भी प्रकार के कारधारक होने के तो फायदे अब रहे नहीं हैं। यह सब पेट्रोल की बदमाशी है। अब साइ्रकिल अथवा रिक्‍शाधारक होना खूब सुकून देता है।
आरोप रोपने के बाद अंकुरित होगा या नहीं होगा। इस बारे में राजनैतिक किसान जानते हैा कि खेती और फसल वाले सारे नियम यहां लागू नहीं होते हैं। सियासत के नियम खूब लचीले होते हैं और सत्‍तासीन उन्‍हें लीची सरीखा बना लेते हैं। लीची की रसधार खूब गुदगुदाती है और अधिक चाहिए तो रसभरी ले आइए। जैसे लियोनी की देह और पूनम पांडेय के वस्‍त्रों को सब निगाह में ही खींच उधेड़ डालते हैं। यह कपड़ों से वीतरागीपन है । संन्‍यासी भी सिर्फ एक ही कार्य कर सकता है। ऐसा नहीं है, आजकल के संन्‍यासी भी मल्‍टीटॉस्किंग में भरोसा रखते हैं। पहले संन्‍यास सिर्फ गृहस्‍थ धर्म से मुक्ति पाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता था, जिसे आज दुरुपयोग समझा जाता है। संन्‍यास चाहे जिससे ले लो। लो मत सिर्फ घोषणा ही कर दो और सारे लाभ झटक लो। संन्‍यास लो और किसी के साथ भी लटक लो। कोई भटक जाए पर आप लटकना मत छोडि़ए।
आप मन मोहन के साथ संन्‍यासी परमानेंट मोहन हैं, इसे मत भूलिएगा। इसी के बल पर आप जमे रहेंगे और कोई फसल का एक पौधा भी नहीं उखाड़ पाएगा। कोशिश करेगा तो बुरी तरह पिछड़ जाएगा। संन्‍यासी के लिए मंदिर बेहद मुफीद जगह है। वैसे पहले पहाड़ और उनकी गुफाएं हुआ करती थीं, आजकल विदेशी बैंक हुआ करते हैं। इतना अंतर तो तकनीक की प्रगति के साथ अपेक्षित है प्‍यारे मोहन जी। मोहन जी को मेरी बातों में हनी का आस्‍वादन हो रहा था और इसके विपरीत वह संन्‍यासी होने के लिए भा‍षणिक रूप से तैयार चुके हैं। इसी आस्‍वाद में रमण करते करते वह हनी में डूबने उतराने लगे और उन्‍हें बेहद रंगीले संगीन सपने आंखों में आने लगे, दिल में समाने लगे। वही सपने रूप बदलकर प्‍यारे मोहन जी अब पब्लिक को दिखला रहे हैं और पब्लिकसिटी का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। इस प्रकार के फायदे उठाने में जोर नहीं लगता है और इससे पैदा हुए उभार भी दिखलाई नहीं देते हैं, इसलिए इन्‍हें भार नहीं माना जाता। वैसे भी उभार मन को ललचाते रहे हैं।
पीएम की बातों के रस रहस्‍य जंगल में मुझे भी आनंद आने लगा था और में व्‍यंग्‍य की कार छोड़कर अब रिक्‍शा चलाने लगा था। यह सलाह भी प्‍यारे मोहन ने ही फोन पर बातचीत में दी थी ताकि बढ़े हुए पेट्रोल रेटों का वेट व्‍यंग्‍यलेखक की रूखी सूखी काया पर असर न डाल सके। आप भी मेरी तरह प्‍यारे मोहन जी की राय से सहमत हैं न ?