संसद और शून्‍य की गोलाई पर सार्थक चिंतन : दैनिक देशबंधु 30 नवम्‍बर 2012 के अंक में संपादकीय पेज पर प्रकाशित टिप्‍पणी

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गोल वस्‍तुओं के साथ यह विडंबना है कि चलती हुई भी वे रुकी हुई दिखती हैं। इसीलिए ऐसा लगता है कि जानबूझकर संसद को गोलायमान बनाया गया है। संसद चल रही हो या रुकी हो,  कोई खास फर्क नहीं पड़ता। गतिशीलता मापने के लिए उसे छूना पड़ता है, छूने को चीटिंग कहा जाएगा क्‍येंकि एक कवि कह गए हैं कि ‘छाया मत छूना मन’। सही मायनों में संसद आम पब्लिक की छाया है और अपनी छाया को स्‍वयं छूना मुमकिन नहीं है। जबकि जान ऐसा पड़ता है कि आम पब्लिक को इसे छूने की मनाही है। शून्‍यकाल संसद में क्‍यों होता है, इसी से साफ समझ आता है। पता चल जाता कि संसद छल रही है या चल रही है। पब्लिक शून्‍य की गोलाई में निरंतर चली जा रही है, तलाश में जुटी है, किंतु मिलता कुछ नहीं है और वह स्‍वयं को भी भूल एक प्रकार की साधनावस्‍था में लीन हो जाती है।
भला हो चैनल वालों का, जो बुद्धू बक्‍से के कब्‍जे में आ जाते हैं और अपनी टीआरपी बढ़ाने के फेर में सब बताते हैं। न बुद्धू बक्‍सा होता, न संसद का चलना रुकना मालूम पड़ता। इससे बुद्धू बक्‍से के संबंध में निर्मित भ्रांतियां खंड-खंड हो जाती हैं कि बक्‍सा सिर्फ बुद्धू ही नहीं बनाता बल्कि इस संवेदनशील मामले में बुद्धू बनने से हमें रोकता भी है। प्रिंट मीडिया का भी ऐसा ही  रोल समझ में आया है कि वे पब्लिक को सचेत करते रहते हैं। वो बात दीगर है कि कभी-कभार वे खुद भी अचेत हो जाते हैं। अब इतना जोखिम तो सहना ही पड़ता है। वे संसद के भीतर इसीलिए घुसे रहते हैं कि संसद गतिमान है या नहींइससे पर-पल पर पब्लिक को अवगत कराते रहें। न्‍यू मीडिया चाहे कितना ही ताकतवर हो गया है परंतु वह अभी संसद में घुसने और उसे महसूसने की कला में निष्‍णात नहीं हो पाया है। गति मापना और उसे भांपना दो भिन्‍न कलाएं हैं। मति की गति अनेक बार जड़मति हो जाती है, जड़मति से आशय आप ब्रेकिंग से लगाएं। मन की गति संसद नहीं इंटरनेट है और इसीलिए सदा गतिशील और प्रगतिशील बनी रहती है। मन के आकार के बारे में मालूम नहीं चला है कि वह गोल होता है या बेडौल क्‍योंकि वह सदा सीधा नहीं रहता। कभी घूमता है, कभी कूदता है और कभी उछलता तथा फुदकता है, उसके रुकने का भी पता नहीं चलता। मन संसद के मानिंद चक्‍करघिन्‍नी बनने से बचा रहता है।
रात में संसद सदा चलती रहती है इसलिए रात में संसद के आसपास धरना अथवा प्रदर्शन आयोजित नहीं किए जाते क्‍योंकि ऐसा करके वे शर्तिया ही कुचले जाएंगे। रात में उनको बचाने पुलिस वाले भी नहीं आएंगे। पब्लिक के लिए यह जानना सम्‍मान की बात है कि संसद की ताजा स्थिति क्‍या हैकिंतु इसकी स्‍पीड की जानकारी के लिए न ता जनता दीवानी है और न वहां पर स्‍पीडोमीटर होने की जानकारी ही है।  संसद चल रही है सोचकर इसके भागीदार हल्‍ला-गुल्‍ला मचाते रहते हैं, मानो संसद एक बस है और उसे बेबस करना इनकी जिम्‍मेदारी। संसद गोल है और शून्‍य भी गोलइसलिए गोल संसद में गोल दिमाग वाले कतिपय सांसदों का पाया जाना कतई अजीब नहीं लगता। संसद और शून्‍य की गोलमोलता पर यह उपयोगी जानकारी, कहो कैसी रही ?

कसाब को फांसी देख-देख आवत हांसी : जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' 27 नवम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित





कसाब को एकाएक फांसी दिया जाना चाहे कितने ही राजनीतिक अर्थ रखता हो किंतु घाटे की ओर बढ़ती अर्थव्‍यवस्‍था के लिए इसे एक लाभकारी कदम के तौर पर बरसों तक याद किया जाएगाइसकी मिसालें दी जाती रहेंगी। यह समृद्ध भारतीय परंपरा रही है कि जिस चीज से  नुकसान हो रहा है या भविष्‍य में होने की संभावना होउसका टेंटुआ दबा दो और निजात पा  लो। जब गर्भ में लड़का है या लड़की की जानकारी पाने के लिए विज्ञान के साधन इंसान नहीं खोज पाया थातब नवजात कन्‍या का टेंटुआ मसक कर ही इससे पार पाया करता था। जबकि  देवी स्‍वरूपा, शक्ति पुंज और लक्ष्‍मी के तौर पर कन्‍या को हमने ही मान्‍यता प्रदान की थी।   जन्‍म लेते ही टेंटुआ मसकने की इस युक्ति ने खूब प्रगति की और इसमें कारगर भूमिका परिवारजनों ने तो निबाही ही, कन्‍या की मां ने भी इसमें सक्रिय भागीदारी की। इससे पीडि़त जनों को भरपूर मुक्ति मिली। साहित्‍य में इस रिवाज की मौजूदगी और अपनाने की परंपराएं और रीति रिवाज इसके जीवंत गवाह हैं। यह युक्ति अब भी चोरी छिपे प्रयोग में लाई जाती है। इसे अपनाने के कानून अब कड़े कर दिए गए हैं। मां के गर्भ की जांच करवाने के साधनों की वैज्ञानिक खोज के बाद आजकल टेंटुआ मसकने की घटनाओं की संख्‍या में काफी गिरावट आई है जबकि यह खुशी का सबब नहीं, गर्भपात का सरल रास्‍ता खोजने का सबक है। अब गर्भपात करवाकर निजात पाने की संख्‍या में रिकार्ड इजाफा हो चुका है। घटती कन्‍या संख्‍या दर इसका उदाहरण है। डॉक्‍टरों और इससे जुड़े लोगों की कमाई में घनघोर इजाफा इस पर कानूनी रोक लगाने से ही संभव हो सका है।
फर्क नहीं पड़ता चाहे गर्भपात पर रोक लगाने के कितने ही कानून बना लिए जाएं क्‍योंकि कानून डाल डाल तो तोड़ने वाले पात पात मौजूद रहते हैं। किसी भी पेड़ में डाल कितनी भी घनी हों परंतु वे संख्‍या में पत्‍तों से कम ही होती हें बशर्ते पतझड़ का मौसम न हो। पतझड़ में तो डालों की नंगई देखते ही बनती है। कसाब को फांसी देकर सरकार ने आतंकवादियों से पंगा ले लिया है। देश के हित के लिए लिया गया यह जोखिम आर्थिक मोर्चे पर विजय का प्रतीक भी है। यह वह आर्थिक सफलता है जिसकी चर्चा तो हुई है किंतु किसी भी विमर्श का यह मूल तत्‍व नहीं है। जबकि कसाब को फांसी पर लटकाकर मिलने वाले आर्थिक लाभ की कतई अनदेखी नहीं की जा सकती है।

अब रुपये-पैसे के लिए मानव रिस्‍क तो ले ही लेता हैसो सरकार ने भी ले ही लिया। जबकि यह कसाब की आड़ में किए जा रहे घोटालोंघपलों और कमीशनबाजों की जेब पर किया गया प्रहार भी है। न जाने कितने दलालों ने इसके कारण कितने ही मनीमाइंडिड सपने बुन रखे थे और कितना ही माल खा रहे थे, जो कसाब को फांसी मिलते ही कसाब के शरीर के माफिक दफन हो गए हैं। पल भर में वे हसीन ख्‍वाब उस खाक में तब्‍दील हो गए हैं जो जीवन भर पीड़ा ही देते रहेंगे। कसाब की फांसी के बहाने यह आर्थिक चिंतन,कहो कैसी रही ?

व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल : पुस्‍तक परिचय - दैनिक पंजाब केसरी 27 नवम्‍बर 2012 के अंक में प्रकाशित


खादी वाला सफेदपोश गुंडा : दैनिक जनवाणी स्‍तंभ 'तीखी नजर' 27 नवम्‍बर 2012 के अंक में प्रकाशित

दैनिक जनवाणी पेज 10


चश्‍मारहित पाठन के लिए लिंक की प्रतीक्षा करें, उपलब्‍ध होते ही जोड़ लिया जाएगा। 

जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ और उसका मुख्‍य किरदार ‘नन्‍हकू’ खूब फेमस हुआ। गुंडागिरी, लंपटता, चोरी, डकैती में कमाई की भरपूर संभावनाएं रही हैं जबकि इनके विकल्‍प के तौर पर आजकल राजनीति जरायमपेशाओं के लिए काफी मुफीद हो गई है। चोरी करना वह काम है जो छिपकर और बचते बचाते और मुंह छिपाते किया जाता है किंतु जब इसे निर्लज्‍ज, बेशर्म या दबंग होकर ढीठता से अंजाम तक पहुंचाया जाए तो वही डकैती हो जाती है। चोरी और डकैती के भिन्‍न अर्थों का यह सामान्‍यीकरण है।  
समाज में गुंडई और दबंगई के नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं, इससे गुंडों की रुचि-संपन्‍नता का पता चलता है। नेता वही जो गुंडई करें और इन्‍हीं के कारनामों से गुंडई के निहितार्थों को पब्लिक बेहतर तरीके से जानने और समझने लग गई है। इसमें रोजाना हो रहे बदलावों से आम पब्लिक रूबरू हो रही है।
फिल्‍मों में सभी प्रकार के गुंडों का वर्चस्‍व रहा है और वे पब्लिक को भाते हैं। फिल्‍मों का सबसे मनपसंद गुंडा शोले के गब्‍बर सिंह को माना जा सकता है जिसने गुंडा-सह-डाकू के कॉम्‍बो किरदार में जीवन के अनूठे रंग भरकर विलेनत्‍व को भरपूर ऊंचाइयां दीं। कितने डाकू और विलेन आए परंतु कोई गब्‍बर की महानता को छू भी नहीं पाए। गब्‍बर‍ सिंह की ऐसी शख्सियत से प्रभावित होकर नेता भी गुंडई पर उतर आएं है तो इसमें हैरान होने की बात नहीं है, यह समय की पुकार है। नेता यूं तो सभी कारनामों पर अपना अवैध कब्‍जा कर चुके हैं परन्‍तु जिम्‍मेदारी लेने से सदा पीछे रहे हैं। कुछ कहें और शोर मच जाए तो डर कर तुरंत मुकर जाते हैं। गुंडईकर्म की पहचान आजकल नेताधर्म से होने लगी है। नेताओं के इस क्षेत्र में धाक जमाने से गुंडई में निर्भीकता का बोलबाला बढ़ गया है।
गुंडाकर्म जिसे मवालीगिरी कहा जाता है, को भरपूर प्रतिष्‍ठा मिली है। यह गर्व का सूचकांक बन गया है। इसके विरोध में चाहे मीडिया कितना ही चीखे चिल्‍लाए, पब्लिक सोशल साइटों पर कमेंट करेलाइक करे या जमकर हल्‍ला–गुल्‍ला करे। फिल्‍मों में चोर खुद शोर मचाते रहे हैं। शशिकपूर अभिनीत फिल्‍म ‘चोर मचाए शोर’ का नाम बेसाख्‍ता आपके जहन में कौंध गया होगा। वही शोर मचाने का जिम्‍मा आजकल आम आदमी’ ने संभाल लिया है।  इसी के परिणामस्‍वरूप शोर मचाने को वैधानिक मान्‍यता दिलाने के लिए आम आदमी’ नामक एक दल रूपी दलदल की स्‍थापना हो चुकी है। जल्‍दी ही आप शोरगुलनामक पार्टी को चुपचाप राजनीति में घुसता देखेंगे।  
‘आम आदमी’ जब चर्चा में है तो ‘आम औरत’ क्‍यों न चर्चित होना चाहेगी। उनके मन में भी  ‘आम आदमी’ के कंधा से कंधा मिलाकर कंधा मिलाने का सुख लूटने की हसरत पलती होगी।  बस मेरी आपसे इतनी गुजारिश है कि आप लूटने को लेटना मत समझ लीजिएगा। चर्चा  गुंडई के विभिन्‍न रूपों की हो रही थीं कि लूटना से लेटना तक भटक गई जबकि विमर्श गुंडई पर केन्द्रित हो गया। दरअसल, इसके लिए दोषी व्‍यंग्‍य लेखक नहीं है। यह सब चीजें आपस में इतनी रली मिली हैं कि इनमें मिलावट होने का भ्रम होने लगता है। एक की चर्चा हो रही हो तो दूसरी भी उसमें कूद पड़ती है और मानव मन इनकी कूदन--कला से मुग्‍ध हुए बिना नहीं रहता। जो सहज अपनी गति से चल रहा है,वह परदे के पीछे छिप जाता है।
‘वर्दीवाला गुंडा’ फिल्‍म हिट हुई और इसका उपन्‍यास खूब बिका। यह गुंडों की शराफत है वरना वे बे-वर्दी वाला गुंडई कर्म निबाहने में पीछे नहीं रहते हैंबलात्‍कार इसी को तो कहते हैं। गुंडे का क्‍या है विवस्‍त्र होकर भी कूद सकता है। वर्दी खाकी भी हो सकती है और खाली भी, सेना की भी और खादी की भी। सुर्खियों में आने के लिए एक चिकित्‍सा मंत्री ने अपना ही इलाज कर डालाइसे कहते हैं ‘अपना इलाज बवाले जान’। मंत्री ने खुद को ‘खादीवाला सफेदपोश गुंडा’ कहकर हल्‍की सर्दी के माहौल में गजब की गरमाहट ला दी है। इससे उनकी मल्‍टीटास्किंग प्रतिभा का परिचय बखूबी मिल जाता है। खादी को प्रतिष्‍ठा और सम्‍मान दिलाने के लिए महात्मा गांधी जी चरखा काता। उसी को कुख्‍याति और अपमान का सूचक सिद्ध करने में मंत्री ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। खादी की साख को राख करने के लिए नेताओं ने सफेद खाकी में खूब कारनामे किए हैं परंतु अ‍ब खुले आम स्‍वीकार करके अपनी नेकनीयत को जाहिर  कर दिया है। देश का खूब तेजी से विकास हो रहा है इसलिए उन्‍होंने खुद को खादीवाला गुंडा कहकर परोक्ष तौर पर गांधीगिरी को दोबारा से जीवंत कर दिया है और खादी की इज्‍जत को सरेआम मिट्टी में सान करके लूट लिया है। गुंडों का खादी पहनना मुझे तो अचंभित नहीं कर रहाकहिए कैसी रही ?

ओह माई गॉड : राम से पंगा - डीएलए 21 नवम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित



शायद बिना चश्‍मे के पढ़ पाएं ंकिंतु इसके लिए राम में भरोसा होना जरूरी है।


राम बना राम का दुश्‍मन। उसने राम के पतीत्‍व में ही खोट निकाल दिया। वह भी राम, मैं भी राम सब में राम समाया, फिर भी राम का पतीत्‍व उसके हमनाम भाई राम की समझ में नहीं समाया और उसने पंगा ले लिया। राम सहनशील हैंपंगे को भी सहज भाव से सह जाते हैंदंगा करना सिर्फ उनके भक्‍तों की फितरत है। वे ऐसे जेठ हैं जो मनाली के गीत गाते-गाते सीता की फेवर में उतर आए हैं। अब अगर दंगा न भड़के तो जरूर हैरानी होगी। जाहिर है कि आजकल भाई अपने सगे भाई का दुश्‍मन है। प्‍यार भी उसी मित्र से होता है जिससे लाभ की उम्‍मीद होती है। मतलब घूम-टहल कर यही निकलता है कि सब नाते-रिश्‍ते स्‍वार्थ के हैंस्‍वार्थ जरूर सधना चाहिए। आराम शब्‍द में राम बसा है और कवि गोपाल प्रसाद व्‍यास जी कह गए हैं कि छिपा है। सचमुच का राम आज लुकाछिपी खेल रहा है और रावण ढीठ के माफिक सरेआम दंड पेल रहा है, जिम में अपनी बाजुओं की मछलियों को मछली का तेल पिला रहा है, बाहुबलियों और बाउंसर्स के रूप में सर्वत्र नजर आ रहा है।   
राम में भी रावण देखना चाहने के इच्‍छुक इस मौके को कैश करने में जुट गए हैं। चैनल और मीडिया का सक्रिय होना आज खबर नहीं है।  मौका दीपावली का है, घी, सरसों का तेल और मोमबत्‍ती सब महंगाई की लपेट में हैं और राम को चपेट मार दी गई है। आजकल धर्म का अहम् रोल भी गरमागरम बहस का विषय बना लिया गया है और फिल्‍मों में भुना लिया गया है।  राम का पुतला बनाकर फूंकने की नौबत आने वाली है। चाहत है कि राम का पुतला आग से ऑक्‍सीजन सोख ले और आग बुझ जाए। आग के बुझने से पुतला जिंदा रह जाएगा। इसे चमत्‍कार बतला कर ढिंढोरा पीट धन कमाने का मौका नहीं गंवाया जाएगा। दंगा हुआ तो आम आदमी पिट जाएगा। रावण से राम नहीं डरतेलेकिन राम से डरने लगे हैं। भाई भाई से डरता नहीं, उलझता है। बाजारी और धार्मिक शक्तियां न राम को और न रावण को चैन लेने देती हैं, वे अपने हितसाधन में बिजी हैं।
राम अच्‍छे पति नहीं थे, धोबी के कहने को आधार बनाकर राम की गर्दन पर नश्‍तर से वार किया है। अच्‍छे पति की परिभाषाएं तलाशी जाने लगी हैं। सच भी यही है कि बहुत कम पत्नियां अपने पति को अच्‍छा मानती हैं जबकि पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को अच्‍छा मानने का औसत इतना भी नहीं है। किसी पत्‍नी को बहादुर पति अच्‍छा लगता है तो किसी पत्‍नी को पत्‍नी से डरने वाला। पिता की मानने वाले और प्रजा से डरने वाले पति आजकल की पत्नियों के भी पसंदीदा नहीं हैं, ऐसे में राम ने किसी धोबी के कहने को ही दिल से लगा लिया है तो इसकी तो निंदा ही की जाएगी।
आप अपना पक्ष जाहिर कीजिए कि राम अच्‍छा लगता है या रावण अथवा आप भय के कारण धोबी के पक्ष में हैं कि उसे कपड़े धुलने को दिए और उसने आपके चरित्र को ही धो पोंछकर जनता में बिखेर दिया तो ... ओह माई गॉड।

फेसबुक, ट्विटर, पिनरेस्‍ट इत्‍यादि सोशल मीडिया पर सक्रिय मित्रगण ध्‍यान दीजिएगा


मेरी रचनाओं के सम्‍मानीय पाठकों, फेसबुक मित्रों, टिवटर साथियों, पिनरेस्‍ट और अन्‍य सोशल मीडिया पर सक्रिय बंधुओं  की गुजारिश थी कि वे मेरी प्रकाशित रचनाओं के हिंदी चिट्ठे मैं आपसे मिलना चाहती हूं  ब्‍लॉग का अनुसरण करना चाहते हैं। कुछ चाह रहे थे कि वे इस ब्‍लॉग की ई मेल सदस्‍यता ग्रहण कर लें। इस प्रकार की सभी समस्‍याओं का निराकरण अब बैसवारी ब्‍लॉग के मॉडरेटर संतोष त्रिवेदी की मदद से करके सारी सुविधाएं मुहैया करवा दी गई हैं। अब आप इस ब्‍लॉग का अनुसरण भी कर सकते हैं और ई मेल सदस्‍यता भी ले सकते हैं। 

अब तक आप सभी को जो असुविधा हुई है, उसके लिए मुझे खेद है।

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अविनाश वाचस्‍पति 

फोटू खींचने वाले सावधान : दैनिक जनवाणी स्‍तंभ 'तीखी नजर' 20 नवम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित


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मंत्री के कहे का मंतर नहीं है। काटे का जंतर नहीं है। अनशन कैसे करे उसके लिए रामलीला मैदान नहीं है। नहीं से मतलब अवेलेबल है किंतु डरकर देते नहीं हैं, कोई अनशनकारी कब्‍जा न जमा ले। बीते दिनों एक मंत्री ने कैमरों को धमकाया था और इस बार मंत्री का फोटू खींचना जुर्म हो गया। फोटू खींचने वाले को खींचा और जेल में डाल दिया। जरूरी नहीं है कि फोटो किसी अभिनेत्री की हो। वे कुछ भी कहते हैं, फर्क नहीं पड़ता। जब वे कहे से मुकरते हैंतब मानना पड़ता है। ट्विटर पर लिखते हैं और सरकाय लेते हैं। सरकना सिर्फ मंत्री ही नहीं जानते हैंसरकना विषधर का स्‍थायी गुण हैवे आस्‍तीनों में निवास करते हैं। आजकल हालत इतनी पतली हो गई है कि कोई चलता हैकोई मचलता है और कोई मचल-मचल कर चलता है। इनमें कई क्रियाएं तो खूब गजब ढाती हैं। मचल-मचल कर चलना, उछलना-कूदना नहीं है जबकि कई अर्थों में इस्‍तेमाल किया जाता है।
पुरुष मचल-मटक कर चले तो शक होता है कि वह पुरुष हैगे तो नहीं। जबकि गे होना उसकी अदाएं जाहिर कर देती हैं। कन्‍या मचले तो देखने वालों के दिल बिखर जाते हैं। दिल के मचलने में चलने की जरूरत नहीं होती है। दिल का तेजी से धड़कना भी मचलना ही है। दिल धड़कना और मचलना बहुत जरूरी है इससे ही मालूम होता है कि दिल गतिशील है। किसी कन्‍या के मचलने को देखकर मचले तो प्रगतिशील है। शरीर में दिल के सिवाय कुछ और गतिमान हो जाए, तो बवंडर हो जाता है। आंखों की क्रियाएं खतरनाक कही गई हैंकर्म पलक का और लक खराब आंखों का। दोनों पलक एक ही स्‍पीड में झपकें तो ठीक वरना तो पल भर का अंतर कितने ही चमत्‍कार दिखला देता है। तेजी से झपके तो भी गंडागोल। यह पलक झपकाना यानी एक आंख बंददूसरी खुली और दिमाग चाहे क्‍लोज होकोई फरक नहीं अलबत्‍ता। कैमरे को क्लिक करने के लिए एक पलक को बंद कर लिया जाता है। कैमरा बीच में न हो तो यही अपराध हो जाता है। दंगे हो जाते हैं ऐसा कारनामा नीयत के नए प्रतिमान स्‍थापित कर देता है। बीच में कैमरा भी हो और पलक झपकाई की रस्‍म चल रही हो, यकायक फ्लैश दमक उठे तो भी खतरा बरकरार रहता है।
न जाने कब किस भेस में मंतरी मिल जाएंआपने क्लिक किया और उनके हिमायतियों ने क्विक एक्‍शन लिया और क्षण भर में आप जेल में। हिमायती बारातियों से भी खूंखार होते हैं। आपके जेल में जाने से जेल भरती नहीं है किंतु आपका जीना खाली कर देती हैं। आपकी कल्‍पनाओं का महल भरभराकर ढह जाता है। आपने सोचा था कि मित्रों कोनाते रिश्‍तेदारों को दिखलाएंगे कि वे मंत्री जो खूब बयान झाड़ते हैंगरीबों की चादर अपने बयानों में खींच-खींच कर उघाड़ते हैं और उन्‍हें गरीब नहीं मानते, आपने उनकी खींच ली है। मंत्री चाहते हैं कि उनकी खूब फोटुएं खिंचे। अभिनेता चाहते हैं कि उनकी ही खिंचें और उनकी अभिनीत फिल्‍मों के टिकट खिड़की पर खूब बिकें। चाहत सबकी पूरी होती है किंतु एक फोटू खींचने वाले पर आफत आ गई। हिमायतियों को लगा कि उनके मंतरी की धोती पर खतरा है,  धोती खींचना यूं तो अपराध नहीं है क्‍योंकि दुकानदार जब धोतियों को बेचता है तो खींच-खींच कर बेरहमी से शो केस से बाहर निकालकर संभावित खरीददार के सामने पटक कर उसकी नुमायश लगा देता है। फोटू खींचने वाले की हसरतों पर जेल चल गई। कहां तो सोचा था कि बीवी पर रौब गालिब करूंगा कि मैंने मंत्री को देखाउसकी फोटू खींची किंतु वे अरमां ही क्‍या हुए जो आंसुओं में न बह जाएं। कैमरे का मालूम नहींकहां पर किस अवस्‍था में बिसूर रहा होगाहो सकता है कि मिल्कियत ही बदल गई होन जाने किसने कैमरे की याददाश्‍त को खंगाल कर उसका पोस्‍टमार्टम कर दिया हो।
फोटू खींचने पर जेल जाने से एक नई परंपरा की शुरूआत हुई है। इससे पहले कार्टून बनाने कार्टूनकार को जेल भेजा गया था। हे हिंदी ब्‍लॉगरोंफेसबुक के गिरधारियोंट्विटर उड़ाने वालों और सोशल मीडिया पर अभिव्‍यक्ति की आजादी का नारा बुलंद करने वालों,अब सावधान हो जाओ। कभी भी किसी का भी नाड़ा खोला जा सकता है और पायजामा सरकने पर कितनी थू-थू होती हैइतना तो तय है कि आप पायजामा सरकने से सेलीब्रिटी बनने से रहे। अपने नाड़े को किसी मॉडल के ब्रॉ का हुक मत समझ लेना जो रैम्‍प पर बेवफा हो गया तो उसका जीवंत प्रसारण हो रहा होगा। नाड़ा कब फांसी का फंदा बन जाएगाइसे जान नहीं पाओगे। पूरी उम्‍मीद है कि अगली बार आप फोटू खींचते या कार्टून बनाते नहीं पाए जाओगे।

इंटरनेट है मन की गति : जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' 20 नवम्‍बर 2012 में प्रकाशित




बाजार ने बेजार कर रखा है। बाजा बजा रखा है आम आदमी का।  जब से आम आदमी ने नेताओं का बाजा बजाना शुरू किया है तब से बाजे की आवाज मुग्‍ध करने लगी है। पहले क्रेडिट कार्ड से, मोबाइल से, आर्कुट से, फेसबुक से – सबसे एलर्जी होती थी। अब क्रेडिट कार्ड भी बनवा लिया है। बैंक खाता ऑपरेट करने के लिए एटीएम और डेबिट कार्ड भी मिल गया है। किसी जमाने में महज एक राशनकार्ड और आई कार्ड ही रहा करता था। अधिक हुआ तो डीटीसी का विद्यार्थी यात्रा बस कार्ड मूल्‍य सिर्फ साढ़े बारह रुपये। अब जिसके पास अन्‍य कार्ड नहीं, उसका तो बाजा बज गया समझ लो। राशन कार्ड से आधार कार्ड तक का सफर। सफर में पैन कार्ड ने जो धमकाया तो सबको जरूरी लगा कि इसे नहीं बनवाया तो सरकार की इंकम बढ़ जाएगी। क्रेडिट कार्ड जब नया नया बनवाया था तब उसे प्रयोग करने से बचा जाता था। अब दस बीस या पच्‍चीस हजार रुपये भी खर्च करने हों या 10 रुपये का मोबाइल चार्ज करना हो – उसी का प्रयोग किया जाता है। पहले लैंडलाईन नहीं था, पीपी यानी पड़ोसी फोन जिंदाबाद। अब हाथ में कई मोबाइल हैं। कोई भी मोबाइल साल भर से अधिक साथ रह जाए तो बोरियत होने लगती है।

तकनीक सदा नई आती है, इतना लुभाती है कि लगता है हमारे लिए ही आई है। हमने ही नहीं उपयोग किया तो उसके आने का क्‍या लाभ, दयालु हो उठते हैं और जेब के प्रति निर्दयी। यह उठना बैठे-बैठे होता है और एकाएक उड़ते हैं और जाकर तुरंत खरीद लाते हैं। पहले लैंडलाईन के बजने पर दौड़ पड़ते थे, अब लैंडलाईन पर पहले तो कॉल आती नहीं है, आती है तो कहलवा दिया जाता है कि मोबाइल पर करें। यह गति है या दुर्गति, विकास है या विनाश, पराजय है या विजय, जीत है या हार। हार फूलों का या कि हारने वाला। बहरहाल, सब पर विजय पाने का हथियार बन गई है तकनीक। जब से इंटरनेट आया है तब से मन से मुकाबले की होड़ जारी है। सारा समय सोशल मीडिया ने यूं चुरा लिया है कि सब इसके मुरीद हो गए हैं और यह चोरी या डकैती जीवन के लिए जरूरी हो गई है । इंटरनेट माने तो मन, न माने तो भी मन। अपनामन अपना नहीं रहा।

बाजार ने अपने जादू से आम आदमी को सम्‍मोहित कर रखा है। गरीब अमीर होता जा रहा है और अमीर और अमीर लेकिन भ्रष्‍टता की ओर आतुर फिर भी निर्भय। यह सम्‍मोहन स्‍वीकार्य नहीं होना चाहिए। किंतु है, अमीर भ्रष्‍ट होता जा रहा है यह जानने के लिए प्रत्‍येक अमीर को अपने गिरहबान में झांकना होगा। आम आदमी जब उसे झांकने और आंकने के लिए कहता है तो बुरा लगता है कि मेरे गिरहबान पर नज़र। सच को पहचानना होगा। चीन्‍हता के अभाव में सब बे भाव खो रहा है।

अपनामन भी अपना नहीं रह गया। वह इंटरनेट और पैसे की चकाचौंध तथा ताकत की बलि चढ़ा जा रहा है। बाजार का रूप-स्‍वरूप बिगड़ या है किंतु इंसान शर्म से गड़ने के लिए तैयार नहीं है। उसे शर्मिन्‍दा होना चाहिए हालांकि वह निर्लज्‍ज हो चुका है। कैसे पाएं इससे मुक्ति, बतलाइए आप ही कारगर युक्ति ?  

ओह माय गॉड 'राम' से पंगा : आई नेक्‍स्‍ट स्‍तंभ 'खूब कही' 20 नवम्‍बर 2012 में प्रकाशित




राम बना राम का दुश्‍मन। उसने राम के पतीत्‍व में ही खोट निकाल दिया। वह भी राम, मैं भी राम सब में राम समाया, फिर भी राम का पतीत्‍व उसके हमनाम भाई राम की समझ में नहीं समाया और उसने पंगा ले लिया। राम सहनशील हैंपंगे को भी सहज भाव से सह जाते हैंदंगा करना सिर्फ उनके भक्‍तों की फितरत है। वे ऐसे जेठ हैं जो मनाली के गीत गाते-गाते सीता की फेवर में उतर आए हैं। अब अगर दंगा न भड़के तो जरूर हैरानी होगी। जाहिर है कि आजकल भाई अपने सगे भाई का दुश्‍मन है। प्‍यार भी उसी मित्र से होता है जिससे लाभ की उम्‍मीद होती है। मतलब घूम-टहल कर यही निकलता है कि सब नाते-रिश्‍ते स्‍वार्थ के हैंस्‍वार्थ जरूर सधना चाहिए। आराम शब्‍द में राम बसा है और कवि गोपाल प्रसाद व्‍यास जी कह गए हैं कि छिपा है। सचमुच का राम आज लुकाछिपी खेल रहा है और रावण ढीठ के माफिक सरेआम दंड पेल रहा है, जिम में अपनी बाजुओं की मछलियों को मछली का तेल पिला रहा है, बाहुबलियों और बाउंसर्स के रूप में सर्वत्र नजर आ रहा है।   
राम में भी रावण देखना चाहने के इच्‍छुक इस मौके को कैश करने में जुट गए हैं। चैनल और मीडिया का सक्रिय होना आज खबर नहीं है।  मौका दीपावली का है, घी, सरसों का तेल और मोमबत्‍ती सब महंगाई की लपेट में हैं और राम को चपेट मार दी गई है। आजकल धर्म का अहम् रोल भी गरमागरम बहस का विषय बना लिया गया है और फिल्‍मों में भुना लिया गया है।  राम का पुतला बनाकर फूंकने की नौबत आने वाली है। चाहत है कि राम का पुतला आग से ऑक्‍सीजन सोख ले और आग बुझ जाए। आग के बुझने से पुतला जिंदा रह जाएगा। इसे चमत्‍कार बतला कर ढिंढोरा पीट धन कमाने का मौका नहीं गंवाया जाएगा। दंगा हुआ तो आम आदमी पिट जाएगा। रावण से राम नहीं डरतेलेकिन राम से डरने लगे हैं। भाई भाई से डरता नहीं, उलझता है। बाजारी और धार्मिक शक्तियां न राम को और न रावण को चैन लेने देती हैं, वे अपने हितसाधन में बिजी हैं।
राम अच्‍छे पति नहीं थे, धोबी के कहने को आधार बनाकर राम की गर्दन पर नश्‍तर से वार किया है। अच्‍छे पति की परिभाषाएं तलाशी जाने लगी हैं। सच भी यही है कि बहुत कम पत्नियां अपने पति को अच्‍छा मानती हैं जबकि पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को अच्‍छा मानने का औसत इतना भी नहीं है। किसी पत्‍नी को बहादुर पति अच्‍छा लगता है तो किसी पत्‍नी को पत्‍नी से डरने वाला। पिता की मानने वाले और प्रजा से डरने वाले पति आजकल की पत्नियों के भी पसंदीदा नहीं हैं, ऐसे में राम ने किसी धोबी के कहने को ही दिल से लगा लिया है तो इसकी तो निंदा ही की जाएगी।
आप अपना पक्ष जाहिर कीजिए कि राम अच्‍छा लगता है या रावण अथवा आप भय के कारण धोबी के पक्ष में हैं कि उसे कपड़े धुलने को दिए और उसने आपके चरित्र को ही धो पोंछकर जनता में बिखेर दिया तो ... ओह माई गॉड।

कसाब काटू मच्‍छर से मुन्‍नाभाई की फेसबुक पर चैटिंग : दैनिक पंजाब केसरी 20 नवम्‍बर 2012 को प्रकाशित

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कसाब को काटने वाला मच्‍छर ऑनलाईन था। वह फेसबुक पर मेरे साथ चैटिंग में आया। लीजिए आप भी होइए मच्‍छर से चैटिंग के बहाने कई हकीकतों से रूबरू :

मच्‍छर : मुन्‍नाभाई सलाम
मुन्‍नाभाई : मैं सबका हो सकता हूं किंतु मच्‍छर का भाई होना मुझे गवारा नहीं है।
मच्‍छर : किंतु मैंने तो उसको काटा है जिसने मुंबई में आतंकी वारदात करके समूचे देश को हिला दिया था।
मुन्‍नाभाई : देश को कोई नहीं हिला सकता, इतना मजबूत देश है मेरा। इसे आजतक घपले और घोटालों में संलिप्‍त नेता तक नहीं हिला पाए तो उस आतंकी कसाब की क्‍या मजाल ?
मच्‍छर : हिलाने से मेरा मतलब नुकसान पहुंचाने से था।
मुन्‍नाभाई : नुकसान तो इंसान को और पूरी मानवजाति को तुम पहुंचा रहे हो । तुम्‍हारा क्‍या बिगाड़ा है जो सदियों से तुम उसके खून के प्‍यासे बने हुए हो और नई नई तरह की बीमारियों के वायस बन रहे हो।
मच्‍छर : खून तो मेरी खुराक है।
मुन्‍नाभाई : खून आजकल के सत्‍ताधारी नेताओं की भी खुराक है। जबकि वे मच्‍छर नहीं हैं। जबकि वे जनता के वोट चूसने के लिए फेमस हैं।
मच्‍छर : मैंने देखा कि सरकार कसाब को फांसी पर लटकाने में बे-वजह की टालमटोल कर रही है इसलिए मैंने उसे काटने का फौरी एक्‍शन लिया।
मुन्‍नाभाई : फौरी तो तुम ऐसे कह रहे हो, मानो बीते कल उसने वारदात की और अगले दिन तुमने उसे काट लिया। कसाब तो जेल में रहकर खूब मौज ले रहा है।
मच्‍छर : मेरा काटा मौज ले ही नहीं सकता। उसे तो अपनी जान तक के लाले पड़ जाते हैं। बुरी तरह से उसकी खून के प्‍लेटलेट्स गिर जाते हैं।
मुन्‍नाभाई : लेकिन कसाब की गर्दन तो तुम्‍हारे काटने से भी नहीं कटी।
मच्‍छर : क्‍योंकि खबर बनाकर तुम्‍हारे भाईयों ने फिर से उसकी जान बचाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है
मुन्‍नाभाई : इस सृष्टि पर भाई ही तो भाई का सगा दुश्‍मन है।
मच्‍छर : लेकिन मच्‍छर मच्‍छर का दुश्‍मन नहीं, हितैषी होता है। काश, इंसान मच्‍छरों से यह गुण सीख पाता। सामूहिक स्‍वर में मच्‍छर गान गाता।
मुन्‍नाभाई : सीखने के लिए जब बुराईयां प्रचुर मात्रा में उपलब्‍ध हैं तो कोई क्‍यों अच्‍छाइयों और सच्‍चाइयों का बोरिंग पाठ पढ़े और सीखे।
मच्‍छर : मच्‍छर प्रजाति की लोकप्रियता में अभिनेता नाना पाटेकर के संवादात्‍मक योगदान को कोई मच्‍छर कभी नहीं भूल सकता।
मुन्‍नाभाई : सो तो है उस पर तुर्रा यह भी है कि न तो किसी इंसान ने और न किसी हिजड़े ने ही नाना पाटेकर के संवाद का विरोध किया।
मच्‍छर : वह दिन और आज का दिन है, हमारी रातें फिर गर्इ हैं और हमारे जलवे निराले हैं, आजकल हम दिन में रक्‍त चूसने का शगल कर रहे हैं।
मुन्‍नाभाई : किस मुगालते में जी रहे हो तुम मच्‍छर महाशय। इंसान तुम्‍हारी प्रजाति के खात्‍मे के लिए सदैव युद्धस्‍तर पर लगा रहेगा।
मच्‍छर : लेकिन हमें नष्‍ट करना, दुष्‍ट मानव के बस का नहीं है। अगर ऐसा होता तो आज मैं जिंदा न होता।
मुन्‍नाभाई : इसका मतलब मच्‍छर और कसाब को किसी परिचय की जरूरत नहीं है। दोनों ही अपने कारनामों के कारण बुरी तरह लोकप्रिय हैं।
मच्‍छर : अपनी अपनी किस्‍मत है।
मुन्‍नाभाई : क्‍या खाक किस्‍मत है, मेरा भी तो खूब नाम है। मेरे कारनामे सबको मोहित करते हैं। तुम्‍हें भी किया है इसलिए तो तुम मुझसे चैटिंग करने फेसबुक पर नमूदार हुए हो।
मच्‍छर : यह मैं स्‍वीकारता हूं।
मुन्‍नाभाई : किंतु मूर्ख मच्‍छर, कसाब को तो किसी सामान्‍य मच्‍छर ने ही काटा था। फिर उसे डेंगू कैसे हो सकता है ?
मच्‍छर : जानता हूं, इस खबर को उड़ाने में भी किसी धूर्त नेता का ही हाथ है जो इस खेल में भी घपला करके नोट कमाने में जुटा हुआ है।
मुन्‍नाभाई : तुम मच्‍छर हो या किसी खुफिया एजेंसी के एजेंट अथवा खुलासामैन की तर्ज पर खुलासामच्‍छर।
मच्‍छर : जो चाहे मान लो। पर यह भी जान लो कि अभी तक मच्‍छरों के किसी गैंग ने इस कारनामे की जिम्‍मेदारी नहीं ली है। फिर भी उसके सुरक्षा बंदोवस्‍तों से इस मामले में घोटालों का संदेह जरूर जाहिर हुआ है।
मुननाभाई : तुम्‍हें क्‍या लगा था कि कसाब के रक्‍त की जानलेवा चुसाई करने पर तुम्‍हें देशभक्‍त मान लिया जाएगा अथवा किसी राष्‍ट्रीय उपाधि यथा पद्ममच्‍छरश्री, पद्ममच्‍छरविभूषण, पद्ममच्‍छरशिरोमणि इत्‍यादि से नवाजा जाएगा। जब आज तक शहीद भगतसिंह तक को कई ऐरे गैरे स्‍वयंभू संगठन शहीद और देशभक्‍त नहीं मानते हैं तो तुम्‍हें कौन तवज्‍जो देगा ?
मच्‍छर : यह तो मैं भी जानता हूं कि कसाब को जिंदा रखने के पीछे देशी-विदेशी राजनीतिक सौदेबाजियां हैं। उसे जानबूझकर जिंदा रखा गया है। उसके जिंदा रखने से कई मलाई कूट रहे हैं।
फिर भी एक आखरी कोशिश मैंने की है। क्‍या मच्‍छर जन जन और देशहित के अच्‍छे कार्य करने की कोशिश नहीं कर सकते, आखिर वे भी इस देश की हवा में सांस लेते हैं। यहां की जनता का रक्‍त चूसते हैं। उन्‍हीं से हमारी रोजी रोटी मतलब खून की प्‍यास बुझती है।
मुन्‍नाभाई : इस तथ्‍य से परिचित होने पर भी तुमने कसाब को मारने की जुर्रत की ?
मच्‍छर : मैं यह भी जानता हूं कि किसी को भी मारना किसी भी राज्‍य की पुलिस के लिए सबसे आसान कार्य है। वह किसी को भी निरपराध और मासूमों को मौत के घाट उतार सकती है। फिर वह उस खूनी घाट के आसपास न तो दिखाई देगी और अगर दिखाई देगी तो कह देगी कि उसे तो खून होता दिखाई नहीं दिया है। कई बार तो मरने वाले का अता पता ही नहीं मिलता और पुलिस तो वहां से लापता हो जाती है। आप इसे अता पता लापता फिल्‍म की कहानी मत समझ लीजिएगा।
मुन्‍नाभाई : अता पता लापता मतलब तुम फिल्‍मों के भी ग़ज़ब के शौकीन हो ?
मच्‍छर : फिल्‍म हाल के अंधेरे में भी हमें कई शिकार मिलते हैं। इस बहाने हम फिल्‍में भी देख लेते हैं।
मुननाभाई : फिर तुमने सबसे सुरक्षित जेल में सेंध लगाकर शिकार ढूंढने की गुस्‍ताखी क्‍यों की, जबकि इस शांतिप्रय देश में किसी अपराधी का जिंदा रहना कोई मुश्किल काम नहीं है। तुमने कसाब को काटकर यूं ही जान का जोखिम लिया है मच्‍छर। उसने वह तुम्‍हारे चपत मारने में सफल हो गया होता तो शहीद हो गए होते और तुम्‍हारा कोई नामलेवा भी नहीं मिलता। तुम्‍हारे इस कारनामे से न तो देशी और न ही विदेशी मच्‍छर समुदाय का कोई भला होने वाला है।
मच्‍छर : लेकिन जो मैं जानता हूं उसे तुम नहीं जानते मुननाभाई। शुद्ध पानी से जीवन पाने वाले लोकप्रिय डेंगू मच्‍छर का जनता को डर दिखला दिखला कर नगर निगम के कर्मचारी अवैध वसूली करने में इस हद तक लिप्‍त हैं कि तुम्‍हें आश्‍चर्य होगा ?  निगम इस बात के लिए कटिबद्ध है कि कहीं पर भी साफ पानी खुला नहीं दिखाई देना चाहिएनहीं तो हमें पनपने के लिए माहौल मिल जाता है। इस तथ्‍य की आड़ में निगम के जांच दस्‍ते किसी की भी रसोई भी घुस जाते हैं और जहां उन्‍हें पीने का साफ पानी अनढका मिल जाता हैया किसी गिलास में पिए पानी की बची हुई एक बूंद भी दिखलाई दे जाती है तो वे उसका चालान काटने के लिए कमर कस लेते हैं और कुछ दक्षिणा हासिल करके छोड़ देते हैं निगम के कर्मचारी इस बहाने लोगों से अपनी पुरानी दुश्‍मनी का बदला भी ले रहे हैं। उनकी इस ज्‍यादती की कहीं अपील भी नहीं सुनी जा रही है।
मुन्‍नाभाई : यह इस मुल्‍क की विडंबना है कि जिस कसाब को तुमने मारना चाहा सरकार ने उसके चारों और डॉक्‍टरों की फौज तैनात कर दी। अब इसमें भी डॉक्‍टरों और दवाईयों के लाखों के बिल एडजस्‍ट किए जाएंगे और घोटाला प्रधान भारत देश में घपले संपन्‍न होते रहेंगे। अगर तुम आम आदमी को काटते रहो तो सरकार को इस बहाने घोटाले करने की आजादी मिली रहेगी।
मच्‍छर : लेकिन मुझे कोई सम्‍मान ...
मुन्‍नाभाई : अगर तुम्‍हारे मन में सचमुच किसी राष्‍ट्रीय सम्‍मान को पाने की आकांक्षा जोर मार रही है तो आम आदमी के हिमायती खुलासामैन को काट लोतुम्‍हें निश्चित तौर पर सम्‍मानित कर दिया जाएगा। इस सम्‍मान समारोह के लिए सरकार गणतंत्र दिवस का इंतजार भी नहीं करेगी और दीपावली पर्व पर ही तुम्‍हें सम्‍मानित कर आतिशबाजी चलाने को अपराध घोषित कर देगी। जिससे तुम्‍हारी मच्‍छर प्रजाति उस दिन पटाखेबाजी से पैदा होने वाले धुंए के असर से सुरक्षित रहे।
मच्‍छर : बात तो तुम्‍हारी दमदार है।
मुन्‍नाभाई : पिछले दिनों एक कानूनप्रिय मंत्री पर तुम्‍हारी खून चूसने की आदत का असर देखा गया और उसने खुलासामैन को उसका लहू पी जाने का डर दिखलाकर डराने की पुरजोर कोशिश की। मुझे नहीं लगता कि उस वारदात में तुम्‍हारा कोई संगी साथी अथवा नाते रिश्‍तेदार मंत्री के साथ मिला हुआ होगा। परंतु विश्‍वास न सही तुम्‍हारे ऊपर मंत्री के साथ मिलीभगत का संदेह तो किया ही जा सकता है। तुमने कसाब को काटकर सबूत मिटाने की धृष्‍टता की है जिसके लिए पड़ोसी देश चाहे तुम्‍हें शहीद का दर्जा दे दे किंतु अपना देश तुम्‍हारे इस कुकृत्‍य की निंदा ही करेगा।
मच्‍छर : ऐसा क्‍या ?
मुन्‍नाभाई : तुम जानते तो हो कि आम आदमी तुम्‍हें देखकर ताली भी बजाता है तो तुम्‍हारा स्‍वागत करने के लिए नहीं, अपितु तुम्‍हें जान से मारने के लिएचाहे तुम यह सोचकर आनंदित होते रहो कि वह तुम्‍हारी इस कथित वीरता पर ताली बजाकर खुशी जाहिर कर रहा है।
मच्‍छर : मैं सोच रहा था कि आतंकवादी के खून का स्‍वाद का जायके अलग होता होगा। मैंने इसलिए भी यह रिस्‍क मोल लिया है।
मुननाभाई : मच्‍छर, यह तुम्‍हारी सोच नहीं, गलतफहमी है जिससे ग्रसित तुम अकेले ही नहीं हो। आजकल गलतफहमियों का दौर है, तुम भी उसके शिकार हो गए हो तो इसके दोषी तुम नहीं, आजकल मौसम ही ऐसा है। मुन्‍नाभाईयों को इस देश में हाशिए पर रख दिया गया है, जिसके कारण देश की यह दुर्गति हुई है लेकिन हमारी बहुमूल्‍य सलाहों को मानता कौन है ?

फेरबदल या हेराफेरी नहीं है .. चोरी : दैनिक हिंदी मिलाप स्‍तंभ 'बैठे ठाले' में 19 नवम्‍बर 2012 को प्रकाशित

मिलाप कीजिए



मौन रहके कोई कितना मुखर हो सकता है,मौनी बाबा से बेहतर मिसाल नहीं मिलेगी। उनके कुनबे में फेरबदल होती है तो शतरंज की तरह मोहरे बदले जाते हैं और मुखिया खुद मोहरा बन जाता है। ऐसी हेराफेरी निःशब्द होती है और मीडिया प्रायोजित रूप से स्तब्ध रह जाता है। यह सब पूरी ईमानदारी के साथ होता है और जनता को काटने के लिए हथियार बदल दिए जाते हैं। जनता को नए सपने देखने का संकेत किया जाता है और इस बहाने कई फूटे-अधूरे सपने पूरे कर लिए जाते हैं। मलाई खाने वाले अघाकर एक ओर हो जाते हैं तो नई पारी के लिए दूसरे अपनी जीभ तैयार करने लगते हैं। मलाई खाकर देशसेवा का बोनस मिलता है, सो अलग मन को मोह लेता है।
ईमानदार को यह अधिकार है कि वह ईमानदारी पर डटा रहेसो जमा हुआ है अंगद के पांव के माफिक। फिर उसे हिलाने वाले कैसे कामयाब हो रहे हैंइसे जानने के लिए हालातों पर गहराई से गौर करना निहायत अनिवार्य है। बजाय इसके देश और इसके नागरिक फीलपांव का सुंदर अहसास कर रहे हैं क्‍योंकि उनके सामने परिस्थितियां ही ऐसी पेश की जा रही हैं। पब्लिक वही देखने के लिए मजबूर है जो उसे सत्‍ता पक्ष दिखलाना चाहता है। इससे अलग अहसास पब्लिक कैसे करेइसके लिए नया मीडिया आज अपने पूरे रुतबे के साथ मौजूद है। इसी से आत्‍मबल डगमग है। जिसकी डगमगाहट मुखिया के निर्णय में देखी जा रही है। पूरा मोहल्‍ला तो नहीं बदलाहल्‍का सा फेरबदल ही किया है। कौन कह रहा है कि हेराफेरी का बाजार जमा लिया है। अंत भला सो सब भला। सब भले रहेंचंगे रहेंचाहे पब्लिक के सामने नंगे रहें। किंतु वस्‍त्रों का अहसास होना ही काफी समझा जा रहा हैउन्‍हें पहनें अथवा नहीं पहनें। इसकी वजह में जाना सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं है।
पंगे सिर्फ पब्लिक से ही लिए जाते हैं। टीम के मुखिया ने भूल कर दी तो कौन सा पहाड़ टूट कर आ गिराचुनाव आने पर उसकी पीठ पर हाथ फिरा देंगे। वह तसल्‍ली पाएगा,उनके चुनने का जुगाड़ सध जाएगा। एकाध नुक्‍कड़ वाले से ही तो बदला लिया है। कैप्‍टेन वही है जो चुप रहता हैचुप सहता है। जब विचारों की बाढ़ आती हैटीम सारी जुट जाती है। जिसका नाम टीम में नहीं हैजो सिर्फ दर्शक की हैसियत से शुमार हुआ था। फेरबदल को हेराफेरी की तर्ज पर बिठाकर इंतहा तक पहुंचायाअहसास यह किया कि इसको पीठ पर लादे चल रहे हैं। इसे ही कहते हैं कि आजकल गधों के ही नहींघोड़ों के भी सींग निखर रहे हैं। एक को सींग मारादूसरे से सींग पर पालिश करवाकर चमकवाया। सींग पर भरपूर चमक आई जिससे पब्लिक समेत विपक्ष चौंधिया गया। इसको टीम से निकालाउसको टीम में घुसेड़ा। दो चार को रुसवा किया। पब्लिक को हंसने के तोहफे दिए। एक दो ने भड़ास निकाली। डेढ़ ढाई की आस पूरी हुई। टीम में परिवर्तन से कामयाबी में तेजी की उम्‍मीद बंधी है किंतु इसके सिवाय कोई और निष्‍कपट रास्‍ता ही नहीं था। आपका सोचना भी सही है कि रास्‍ता नहीं था तो हवाई मार्ग से जाना चाहिए था। रेल की पटरियों को आजमाना चाहिए था किंतु क्‍या करें इतना सब्र होता तो अगले चुनाव होने तक इंतजार नहीं करते।
मंत्रियों को आप सिर्फ लोकल मंतर मारने वाला ही मत मान लीजिएगा। वे अपने खेल और मैदान के माहिर खिलाड़ी हैं। यह अकेले खेलने वाला खेल हैइसमें विजय पक्‍की होती है। उनकी जीत पर सिर्फ टिप्‍पणियां ही कर सकते हैं यहजबकि इनकी टिप्‍पणियों को कोई गंभीरता से लेता नहीं है। न सत्‍ता पक्ष और न आम जनता यानी पब्लिक। क्रिकेट टीम में फेरबदल और मंत्रिमंडल में यह फेरबदल हेराफेरी के पर्याय के तौर पर जाने जाते हैं। यह फेरबदल तो ऐसा है कि जो अभी तक साईकिल चलाता रहा हैउसको कार थमा दी गई है कि इस पर खूब सारी एवरेज निकालिएचाहे हादसे होते रहें। रेल और कार से दुर्घटनाएं करने के बाद भी हवाई जहाज उड़ाने को थमा दिया जाता है। देश के मौजूदा कानूनों से खिलवाड़ करने की योग्‍यता हासिल करने के बाद इन्‍हें विदेश तक जाने का लाईसेंस थमा दिया गया है। देश में मधुर संबंधों की जरूरत नहीं है किंतु विदेशों से नाते रिश्‍तों को मधुर बनाने के ठेके इन्‍हें सौंप दिए गए हैं।

'मच्‍छर का पट्ठा' बड़ा दिलदार :दैनिक नेशनल दुनिया स्‍तंभ 'चिकोटी' 16 नवम्‍बर 2012 में प्रकाशित


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 ‘मैं डेंगू मच्‍छर हू’ जल्‍दी ही आप ओपनमैन की सभाओं में, टीवी चैनलों की फिजाओं में, अखबारों की कालिमा में मतलब चहुं ओर ऐसे टोपीधारक पाएंगे। जो मच्‍छर मच्‍छर चिल्‍लाएंगे, किंतु काट किसी को नहीं पाएंगे। मैं भी मच्‍छर, तू भी मच्‍छर, ये भी मच्‍छर, वे भी मच्‍छर हैं। नेता कहते पाए जा रहे हैं कि मच्‍छरों तंग मत करो। आजकल ऐसे बयान थोक दरों पर उपलब्‍ध हैं। इन बयानों से आपको हैरानी हो सकती है किंतु टोपियों से परेशानी नहीं। टोपी पहनने और पहनाने का चलन फिर से जोरों पर हैं। जिस प्रकार वाहनों के पीछे शेर लिखे जाते हैं, उसी प्रकार आजकल टोपियों पर पंच लाईन मढ़ी जा रही है। आम आदमी चलता फिरता वाहन नजर आ रहा है। टोपी पहनकर अपनी स्‍पीड बढ़ा रहा है। बीते जमाने में रिक्‍शे पर फिल्‍मी पोस्‍टर लगाकर आने वाली और चल रही फिल्‍म की मुनादी रिक्‍शे के आगे ढोल पीट रहे ढोलचियों के जरिए कराई जाती थी और उससे फिल्‍म के व्‍यवसाय में इजाफा होता था। 

आजकल उन ढोलकों को आप गले के फंदे के तौर पर कसा हुआ देख रहे हैं। इससे ढोलकों की पौ बारह और तबलचियों की पौ सत्‍तर हो गई है।  आज वह शुभ कार्य तबलचियों के जिम्‍मे आ पड़ा है और वह उसे पूरी शिद्दत से निबाह रहा है। इनमें वे लोग हैं एक तो वे जो ओपनमैन के मुरीद हैं और दूसरे खुद ओपनमैन डेंगू मच्‍छरों के फैन है। किंग खान वाला किस्‍सा फिजा को संगीन यादों से रंगीन कर रहा है।

लोग सीधी ऊंगली से घी नहीं निकालते हैं क्‍योंकि कम निकलता है।  ऊंगली टेढ़ी करने या घुमाने फिराने से भी मनमाफिक नतीजा नहीं मिलता है। सो आज सीधी ऊंगली से बरतन को टेढ़ा किया जाता है। टेढ़ा बरतन तुरंत उलटता है और घी की मनचाही मात्रा हासिल हो जाती है।  सीधी ऊंगली से घी के बरतन को टेढ़ा करना कामयाबी की नई मिसाल है। मच्‍छर को सबसे पहली सुर्खी नाना पाटेकर के संवाद की देन है और दूसरी अब ओपनमैन की। एक अभिनेता है और दूसरा अभी-अभी नेता बना है। मच्‍छर की किस्‍मत बुलंदी के शिखर पर है, वह आम आदमी के सिर पर टोपी बनकर छाने वाला है। मच्‍छर अगर फेसबुक खाता खोल ले या ट्विटर एकाउंट बना ले तो शर्तिया सोशल मीडिया के शहंशाहों को बुरी तरह पछाड़ देगा। आखिर पिछले हफ्ते ही उसने कसाब को काटा है। कसाब डेंगू मच्‍छर के जहर से भी जहरीला निकला इसलिए बच गया और जिस मच्‍छर ने काटा, वह मर गया।

मच्‍छर निरक्षर लिखे हुए को पढ़ना नहीं जानता किंतु कसाब को पहचानता है। जरूर किसी खुफिया विभाग में रहा होगा या किसी खुफिया अधिकारी को खुफिया तरीके से काटा होगा। कसाब को काटना उसने ओपनीय रखा है गोपनीय नहीं। पंखा चलाओ तो मच्‍छर भाग जाते हैं। मच्‍छर का मंडराना जब मन को दिखाई नहीं देगा। मच्‍छर गूंज गूंज कर, मंडरा मंडरा कर आम आदमी के मन को डराने में मशगूल है ओपनमैन के माफिक। यह मच्‍छर का प्रिय शगल है।

मच्‍छर जब खून का स्‍वाद ले चुका होता है और अपनी सुई आम आदमी की त्‍वचा से बाहर निकालता है, तब टीस जरूर होती है किंतु तब तलक बहुत देर हो जाती है, मच्‍छर खून पी चुका होता है। आप टीस वाली जगह पर ताली बजाते हैं और मच्‍छर चुपके से खिसक जाता है। आप थोड़ी देर से प्रतिक्रिया करते तो आपके खून के नशे में अलमस्‍त वह अवश्‍य शिकार बनता। ‘मच्‍छर का पट्ठा’ बड़ा दिलदार निकला। उड़ कर बचने वालों का सरदार निकला। वे कह रहे हैं कि मच्‍छर का काम भुनभुनाना है और ओपनमैन यही कर रहा है। ओपनमैन मच्‍छर की तरह गजब नहीं ढा पाएगा। कसरत जो मच्‍छर करते हैं, वह उसके बस की नहीं है, फिर कैसे साबित करेगा कि ‘मैं डेंगू मच्‍छर हूं।‘ जिस जिसको उसने काटा है, चूमा है अथवा चाटा है, वे सब सुरक्षित हैं।  
तुम मच्‍छर हो, विषधर होते तो तनिक चिंतित हम होते, सोचते, किंतु सत्‍ता रूपी धरा के विषधर हम हैं। विषधरों की मंडली से नाहक ले रहो हो पंगे, पानी से पलते हो किंतु पानी ही तुम्‍हारी मौत का सबब बन सकता है, नहीं जानते इसलिए बचा नहीं पाओगे खुद को, कर देंगे पानी से ही इतने घाव। तुम्‍हारे चिल्‍लाने से हमें शक्ति मिलती है, हम घोड़े हैं। चने का हश्र देखा है, उसे घोड़ा खाता है लेकिन मच्‍छर नहीं खाता। मच्‍छर जो खाता चना, तो रहता सदा बना। हम देते हैं बयान, इसलिए हो गए हैं सर्वशक्तिमान। 

खुलासा मैन की ओपन दीपावली : डेली न्‍यूज एक्टिविस्‍ट 14 नवम्‍बर 2012 में प्रकाशित


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दाल का अरहरापन : अट्टहास मासिक पत्रिका के नवम्‍बर 12 अंक में 'ताल बेताल' स्‍तंभ में प्रकाशित


ओह माई गॉड 'राम' से पंगा : दैनिक जनसंदेश टाइमस 13 नवम्‍बर 2012 स्‍तंभ -उलटबांसी' में प्रकाशित



राम बना राम का दुश्‍मन। उसने राम के पतीत्‍व में ही खोट निकाल दिया। वह भी राम, मैं भी राम सब में राम समाया, फिर भी राम का पतीत्‍व उसके हमनाम भाई राम की समझ में नहीं समाया और उसने पंगा ले लिया। राम सहनशील हैंपंगे को भी सहज भाव से सह जाते हैंदंगा करना सिर्फ उनके भक्‍तों की फितरत है। वे ऐसे जेठ हैं जो मनाली के गीत गाते-गाते सीता की फेवर में उतर आए हैं। अब अगर दंगा न भड़के तो जरूर हैरानी होगी। जाहिर है कि आजकल भाई अपने सगे भाई का दुश्‍मन है। प्‍यार भी उसी मित्र से होता है जिससे लाभ की उम्‍मीद होती है। मतलब घूम-टहल कर यही निकलता है कि सब नाते-रिश्‍ते स्‍वार्थ के हैंस्‍वार्थ जरूर सधना चाहिए। आराम शब्‍द में राम बसा है और कवि गोपाल प्रसाद व्‍यास जी कह गए हैं कि छिपा है। सचमुच का राम आज लुकाछिपी खेल रहा है और रावण ढीठ के माफिक सरेआम दंड पेल रहा है, जिम में अपनी बाजुओं की मछलियों को मछली का तेल पिला रहा है, बाहुबलियों और बाउंसर्स के रूप में सर्वत्र नजर आ रहा है।   
राम में भी रावण देखना चाहने के इच्‍छुक इस मौके को कैश करने में जुट गए हैं। चैनल और मीडिया का सक्रिय होना आज खबर नहीं है।  मौका दीपावली का है, घी, सरसों का तेल और मोमबत्‍ती सब महंगाई की लपेट में हैं और राम को चपेट मार दी गई है। आजकल धर्म का अहम् रोल भी गरमागरम बहस का विषय बना लिया गया है और फिल्‍मों में भुना लिया गया है।  राम का पुतला बनाकर फूंकने की नौबत आने वाली है। चाहत है कि राम का पुतला आग से ऑक्‍सीजन सोख ले और आग बुझ जाए। आग के बुझने से पुतला जिंदा रह जाएगा। इसे चमत्‍कार बतला कर ढिंढोरा पीट धन कमाने का मौका नहीं गंवाया जाएगा। दंगा हुआ तो आम आदमी पिट जाएगा। रावण से राम नहीं डरतेलेकिन राम से डरने लगे हैं। भाई भाई से डरता नहीं, उलझता है। बाजारी और धार्मिक शक्तियां न राम को और न रावण को चैन लेने देती हैं, वे अपने हितसाधन में बिजी हैं।
राम अच्‍छे पति नहीं थे, धोबी के कहने को आधार बनाकर राम की गर्दन पर नश्‍तर से वार किया है। अच्‍छे पति की परिभाषाएं तलाशी जाने लगी हैं। सच भी यही है कि बहुत कम पत्नियां अपने पति को अच्‍छा मानती हैं जबकि पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को अच्‍छा मानने का औसत इतना भी नहीं है। किसी पत्‍नी को बहादुर पति अच्‍छा लगता है तो किसी पत्‍नी को पत्‍नी से डरने वाला। पिता की मानने वाले और प्रजा से डरने वाले पति आजकल की पत्नियों के भी पसंदीदा नहीं हैं, ऐसे में राम ने किसी धोबी के कहने को ही दिल से लगा लिया है तो इसकी तो निंदा ही की जाएगी।
आप अपना पक्ष जाहिर कीजिए कि राम अच्‍छा लगता है या रावण अथवा आप भय के कारण धोबी के पक्ष में हैं कि उसे कपड़े धुलने को दिए और उसने आपके चरित्र को ही धो पोंछकर जनता में बिखेर दिया तो ... ओह माई गॉड।

छूट की लूट : दैनिक जनसत्‍ता 13 नवम्‍बर 2012 के स्‍तंभ 'समांतर' में प्रकाशित

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मच्‍छर बड़ा दिलदार निकला : दैनिक जनवाणी 13 नवम्‍बर 2012 स्‍तंभ 'तीखी नजर' में प्रकाशित

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 ‘मैं डेंगू मच्‍छर हू’ जल्‍दी ही आप ओपनमैन की सभाओं में, टीवी चैनलों की फिजाओं में, अखबारों की कालिमा में मतलब चहुं ओर ऐसे टोपीधारक पाएंगे। जो मच्‍छर मच्‍छर चिल्‍लाएंगे, किंतु काट किसी को नहीं पाएंगे। मैं भी मच्‍छर, तू भी मच्‍छर, ये भी मच्‍छर, वे भी मच्‍छर हैं। नेता कहते पाए जा रहे हैं कि मच्‍छरों तंग मत करो। आजकल ऐसे बयान थोक दरों पर उपलब्‍ध हैं। इन बयानों से आपको हैरानी हो सकती है किंतु टोपियों से परेशानी नहीं। टोपी पहनने और पहनाने का चलन फिर से जोरों पर हैं। जिस प्रकार वाहनों के पीछे शेर लिखे जाते हैं, उसी प्रकार आजकल टोपियों पर पंच लाईन मढ़ी जा रही है। आम आदमी चलता फिरता वाहन नजर आ रहा है। टोपी पहनकर अपनी स्‍पीड बढ़ा रहा है। बीते जमाने में रिक्‍शे पर फिल्‍मी पोस्‍टर लगाकर आने वाली और चल रही फिल्‍म की मुनादी रिक्‍शे के आगे ढोल पीट रहे ढोलचियों के जरिए कराई जाती थी और उससे फिल्‍म के व्‍यवसाय में इजाफा होता था। 

आजकल उन ढोलकों को आप गले के फंदे के तौर पर कसा हुआ देख रहे हैं। इससे ढोलकों की पौ बारह और तबलचियों की पौ सत्‍तर हो गई है।  आज वह शुभ कार्य तबलचियों के जिम्‍मे आ पड़ा है और वह उसे पूरी शिद्दत से निबाह रहा है। इनमें वे लोग हैं एक तो वे जो ओपनमैन के मुरीद हैं और दूसरे खुद ओपनमैन डेंगू मच्‍छरों के फैन है। किंग खान वाला किस्‍सा फिजा को संगीन यादों से रंगीन कर रहा है।

लोग सीधी ऊंगली से घी नहीं निकालते हैं क्‍योंकि कम निकलता है।  ऊंगली टेढ़ी करने या घुमाने फिराने से भी मनमाफिक नतीजा नहीं मिलता है। सो आज सीधी ऊंगली से बरतन को टेढ़ा किया जाता है। टेढ़ा बरतन तुरंत उलटता है और घी की मनचाही मात्रा हासिल हो जाती है।  सीधी ऊंगली से घी के बरतन को टेढ़ा करना कामयाबी की नई मिसाल है। मच्‍छर को सबसे पहली सुर्खी नाना पाटेकर के संवाद की देन है और दूसरी अब ओपनमैन की। एक अभिनेता है और दूसरा अभी-अभी नेता बना है। मच्‍छर की किस्‍मत बुलंदी के शिखर पर है, वह आम आदमी के सिर पर टोपी बनकर छाने वाला है। मच्‍छर अगर फेसबुक खाता खोल ले या ट्विटर एकाउंट बना ले तो शर्तिया सोशल मीडिया के शहंशाहों को बुरी तरह पछाड़ देगा। आखिर पिछले हफ्ते ही उसने कसाब को काटा है। कसाब डेंगू मच्‍छर के जहर से भी जहरीला निकला इसलिए बच गया और जिस मच्‍छर ने काटा, वह मर गया।

मच्‍छर निरक्षर लिखे हुए को पढ़ना नहीं जानता किंतु कसाब को पहचानता है। जरूर किसी खुफिया विभाग में रहा होगा या किसी खुफिया अधिकारी को खुफिया तरीके से काटा होगा। कसाब को काटना उसने ओपनीय रखा है गोपनीय नहीं। पंखा चलाओ तो मच्‍छर भाग जाते हैं। मच्‍छर का मंडराना जब मन को दिखाई नहीं देगा। मच्‍छर गूंज गूंज कर, मंडरा मंडरा कर आम आदमी के मन को डराने में मशगूल है ओपनमैन के माफिक। यह मच्‍छर का प्रिय शगल है।

मच्‍छर जब खून का स्‍वाद ले चुका होता है और अपनी सुई आम आदमी की त्‍वचा से बाहर निकालता है, तब टीस जरूर होती है किंतु तब तलक बहुत देर हो जाती है, मच्‍छर खून पी चुका होता है। आप टीस वाली जगह पर ताली बजाते हैं और मच्‍छर चुपके से खिसक जाता है। आप थोड़ी देर से प्रतिक्रिया करते तो आपके खून के नशे में अलमस्‍त वह अवश्‍य शिकार बनता। ‘मच्‍छर का पट्ठा’ बड़ा दिलदार निकला। उड़ कर बचने वालों का सरदार निकला। वे कह रहे हैं कि मच्‍छर का काम भुनभुनाना है और ओपनमैन यही कर रहा है। ओपनमैन मच्‍छर की तरह गजब नहीं ढा पाएगा। कसरत जो मच्‍छर करते हैं, वह उसके बस की नहीं है, फिर कैसे साबित करेगा कि ‘मैं डेंगू मच्‍छर हूं।‘ जिस जिसको उसने काटा है, चूमा है अथवा चाटा है, वे सब सुरक्षित हैं।  
तुम मच्‍छर हो, विषधर होते तो तनिक चिंतित हम होते, सोचते, किंतु सत्‍ता रूपी धरा के विषधर हम हैं। विषधरों की मंडली से नाहक ले रहो हो पंगे, पानी से पलते हो किंतु पानी ही तुम्‍हारी मौत का सबब बन सकता है, नहीं जानते इसलिए बचा नहीं पाओगे खुद को, कर देंगे पानी से ही इतने घाव।