इंटरनेट है मन की गति : जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' 20 नवम्‍बर 2012 में प्रकाशित




बाजार ने बेजार कर रखा है। बाजा बजा रखा है आम आदमी का।  जब से आम आदमी ने नेताओं का बाजा बजाना शुरू किया है तब से बाजे की आवाज मुग्‍ध करने लगी है। पहले क्रेडिट कार्ड से, मोबाइल से, आर्कुट से, फेसबुक से – सबसे एलर्जी होती थी। अब क्रेडिट कार्ड भी बनवा लिया है। बैंक खाता ऑपरेट करने के लिए एटीएम और डेबिट कार्ड भी मिल गया है। किसी जमाने में महज एक राशनकार्ड और आई कार्ड ही रहा करता था। अधिक हुआ तो डीटीसी का विद्यार्थी यात्रा बस कार्ड मूल्‍य सिर्फ साढ़े बारह रुपये। अब जिसके पास अन्‍य कार्ड नहीं, उसका तो बाजा बज गया समझ लो। राशन कार्ड से आधार कार्ड तक का सफर। सफर में पैन कार्ड ने जो धमकाया तो सबको जरूरी लगा कि इसे नहीं बनवाया तो सरकार की इंकम बढ़ जाएगी। क्रेडिट कार्ड जब नया नया बनवाया था तब उसे प्रयोग करने से बचा जाता था। अब दस बीस या पच्‍चीस हजार रुपये भी खर्च करने हों या 10 रुपये का मोबाइल चार्ज करना हो – उसी का प्रयोग किया जाता है। पहले लैंडलाईन नहीं था, पीपी यानी पड़ोसी फोन जिंदाबाद। अब हाथ में कई मोबाइल हैं। कोई भी मोबाइल साल भर से अधिक साथ रह जाए तो बोरियत होने लगती है।

तकनीक सदा नई आती है, इतना लुभाती है कि लगता है हमारे लिए ही आई है। हमने ही नहीं उपयोग किया तो उसके आने का क्‍या लाभ, दयालु हो उठते हैं और जेब के प्रति निर्दयी। यह उठना बैठे-बैठे होता है और एकाएक उड़ते हैं और जाकर तुरंत खरीद लाते हैं। पहले लैंडलाईन के बजने पर दौड़ पड़ते थे, अब लैंडलाईन पर पहले तो कॉल आती नहीं है, आती है तो कहलवा दिया जाता है कि मोबाइल पर करें। यह गति है या दुर्गति, विकास है या विनाश, पराजय है या विजय, जीत है या हार। हार फूलों का या कि हारने वाला। बहरहाल, सब पर विजय पाने का हथियार बन गई है तकनीक। जब से इंटरनेट आया है तब से मन से मुकाबले की होड़ जारी है। सारा समय सोशल मीडिया ने यूं चुरा लिया है कि सब इसके मुरीद हो गए हैं और यह चोरी या डकैती जीवन के लिए जरूरी हो गई है । इंटरनेट माने तो मन, न माने तो भी मन। अपनामन अपना नहीं रहा।

बाजार ने अपने जादू से आम आदमी को सम्‍मोहित कर रखा है। गरीब अमीर होता जा रहा है और अमीर और अमीर लेकिन भ्रष्‍टता की ओर आतुर फिर भी निर्भय। यह सम्‍मोहन स्‍वीकार्य नहीं होना चाहिए। किंतु है, अमीर भ्रष्‍ट होता जा रहा है यह जानने के लिए प्रत्‍येक अमीर को अपने गिरहबान में झांकना होगा। आम आदमी जब उसे झांकने और आंकने के लिए कहता है तो बुरा लगता है कि मेरे गिरहबान पर नज़र। सच को पहचानना होगा। चीन्‍हता के अभाव में सब बे भाव खो रहा है।

अपनामन भी अपना नहीं रह गया। वह इंटरनेट और पैसे की चकाचौंध तथा ताकत की बलि चढ़ा जा रहा है। बाजार का रूप-स्‍वरूप बिगड़ या है किंतु इंसान शर्म से गड़ने के लिए तैयार नहीं है। उसे शर्मिन्‍दा होना चाहिए हालांकि वह निर्लज्‍ज हो चुका है। कैसे पाएं इससे मुक्ति, बतलाइए आप ही कारगर युक्ति ?  

1 टिप्पणी:

  1. स्व-नियंत्रण से...जो कि बहुत मुश्किल है...पर असंभव नहीं....
    सुनीता

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