अविनाश वाचस्पति को प्रगतिशील ब्लॉग लेखक संघ चिट्ठाकारिता सम्मान : हिंदी चेतना अक्टूबर-दिसम्बर 2012 अंक में प्रकाशित समाचार
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'सारी' हिंदी दिवस पर अंग्रेजी बोली : उदंती मासिक पत्रिका के सितम्बर 2012 अंक में प्रकाशित
'सारी' हिंदी दिवस पर अंग्रेजी बोली
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फिर निभाई गई परम्परा : दैनिक डीएलए 26 सितम्बर 2012 के अंक में प्रकाशित
हिंदी दिवस है हिंदी का जन्मदिन। जिसे मनाने के लिए हम ग्यारह महीने पहले से इंतजार करते है और फिर 15 दिन पहले से ही नोटों की बिंदिया गिनने के लिए सक्रिय हो उठते हैं। अध्यक्ष और जूरी मेंबर बनकर नोट बटोरते हैं और उस समय अंग्रेजी बोल-बोल कर सब हिंदी को चिढ़ाते हैं। हिंदी की कामयाबी के गीत अंग्रेजी में गाते हैं। कोई टोकता है तो ‘सॉरी’ कहकर खेद जताते हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी के लिए सितम्बर माह में काम करने पर पुरस्कारों का अंबार लग जाता है। जिसे अनुपयोगी टिप्पणियां, शब्दों के अर्थ-अनर्थ लिखकर, निबंध,कविताएं लिख-सुना कर लूटा जाता है। लूट में हिस्सा हड़पने के लिए सब आपस में घुलमिल जाते हैं। हिंदी को कूटने-पीटने और चिढ़ाने का यह सिलसिला जितना तेज होगा, उतना हिंदी की चर्चा और विकास होगा।
हिंदी के नाम पर सरकारी नौकरी में चांदी ही नहीं, विदेश यात्राओं का सोना भी बहुतायत में है किंतु सिर्फ हिंदी में लेखन से रोजी रोटी कमाने वालों का एक जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं होता है, खीर खाना तो टेढ़ी खीर है। प्रकाशक और अखबार छापने वाले हिंदी लेखकों को जी भर कर लूटे जा रहे हैं। प्रकाशक लेखक से ही सहयोग के नाम पर दाम वसूलकर पुस्तकें छाप कर बेचते हैं,जिसके बदले में छपी हुई किताबें एमआरपी मूल्य पर भेड़ देते हैं। गजब का सम्मोहन है कि लेखक इसमें मेहनत की कमाई का निवेश कर गर्वित होता है। किताबें अपने मित्र-लेखकों, नाते-रिश्तेदारों को फ्री में बांट-बांट कर खुश होता है कि अब उसका नाम बेस्ट लेखकों में गिन लिया जाएगा।
छपास रोग इतना विकट होता है कि लेखक मुगालते में जीता है कि जैसा उसने लिखा है, वैसा कोई सोच भी नहीं सकता, लिखना तो दूर की बात है। बहुत सारे अखबार, पत्रिकाएं, लेखक को क्या मालूम चलेगा, की तर्ज पर ब्लॉगों और अखबारों में से उनकी छपी हुई रचनाएं फिर से छाप लेती हैं। इसका लेखक को मालूम चल भी जाता है किंतु वह असहाय सा न तो अखबार –मैगज़ीन वाले से लड़ पाता हे और न ही अपनी बात पर अड़ पाता है। लेखक कुछ कहेगा तो संपादक पान की लाल पीक से रंगे हुए दांत निपोर कर कहेगा कि ‘आपका नाम तो छाप दिया है रचना के साथ, अब क्या आपका नाम करेंसी नोटों पर भी छापूं ।‘ उस पर लेखक यह कहकर कि ‘मेरा आशय यह नहीं है, मैं पैसे के लिए नहीं लिखता हूं।‘ ‘जब नाम के लिए लिखते हैं तब आपका नाम छाप तो दिया है रचना के साथ।‘ फिर क्यों आपे से बाहर हुए जा रहे हैं और सचमुच संपादक की बात सुनकर लेखक फिर आपे के भीतर मुंह छिपाकर लिखना शुरू कर देता है। इससे साफ है कि हिंदी का चौतरफा विकास होता रहेगा और हम सब राष्ट्रभाषा के नाम पर हिंदी का जन्मदिन मना साल भर खुशी बटोरते रहेंगे ?
पैसों के पेड़ होते हैं भैया : जनसंदेश टाइम्स 25 सितम्बर 2012 'उलटबांसी' स्तंभ में प्रकाशित
पीएम ने कहा कि ‘पेड़ पर नहीं उगते पैसे’, उनके बयान में से इस एक हिस्से पर सबने ध्यान केन्द्रित किया गया और बवंडर मचाया गया जबकि वे वाक्य के अंत में ‘क्या’ जोड़ना भूल गए थे। और सब पीएम की फजीहत करने में बुरी तरह सफल हो गए। अब वे ‘क्या‘ जोड़ना भूल गए, फिर उनसे एक और चूक हो गई। जबकि उन्हें भाषण की पूरी तैयारी कराई गई थी, उन्होंने इसे रट भी लिया था, कई बार अपने विशेषज्ञों को सुनाया भी। अनेक बार अभ्यास भी किया था किंतु वे ‘सुजान’ न बन सके और ‘जड़मति’ ही रह गए।
पैसे पेड़ पर नहीं उगते क्या, पैसे पेड़ पर भी उगा करते हैं। जिस फल का पेड़ होता है उसी के अनुसार पेड़ पर फल लगते हैं। कहा भी गया है कि ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए’। कोई भी पेड़ अपने फलों को खुद नहीं खाते हैं, इस सच्चाई को सभी जानते हैं और यहीं से पेड़ पर पैसे उगने शुरू हो जाते हैं मतलब आप उनके फलों को बेचें और पैसे बनाएं। बाढ़ खेत को खा सकती है, पुलिस को बलात्कार में संलिप्त पाया जाता है, जिस पुलिस पर पब्लिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही पुलिस समय पड़ने पर पब्लिक को डंडों और गालियों से धुन-धुन कर अधमरा कर देती है। मंत्रियों ने भी इसी मार्ग पर चलते हुए खूब घोटाले किए हैं।
आपके स्वामित्व में जिस फल का पेड़ होगा, आपकी कमाई भी उसी के हिसाब से ज्यादा या और भी ज्यादा होगी, कम होने का तो सवाल ही नहीं उठता। बादाम, अखरोट, सेब, आम, पपीते, अमरूद इत्यादि मतलब जितने भी किस्म के पेड़ होते हैं और उनके फलों को बेचकर सबसे खूब कमाई की जाती है। नारियल का पेड़ बहुत लंबा होता है फिर एक-एक नारियल को तोड़ कर संभाल कर नीचे लाया जाता है कि कहीं हाथ से छूट न जाए और नारियल टूट न जाए।
पेड़ के बाद पीएम ने पौधों का जिक्र करना था। जिसमें वे बतलाते कि जिन पेड़ों पर फल नहीं उगा करते, उनकी लकडि़यां बेच कर खूब पैसे कमाए जाते हैं, जिन लकडि़यों से फर्नीचर नहीं बनाया जा सकता। उन्हें दाह-संस्कार में काम में ले लिया जाता है और वहां पर भी लकड़ी आजकल महंगी बिकती है। इसके बाद उन पौधों का नंबर आता है जिन पर फल नहीं उगते, उनके फूलों को बेचकर धन कमाया जाता है। आजकल फूल और फलों की खेती धन कमाने के लिए ही की जाती है। उनका फ्री वितरण नहीं किया जाता।
उस पर तुर्रा यह है कि बाबा रामदेव ने उनके ‘अर्थशास्त्री’ होने पर उन्हें ‘अनर्थशास्त्री’ तक कह दिया जबकि पीएम ने उनके काले धन को लेकर किए गए ऊधम और शरारतों को भी सहजता से ही लिया और कभी अपना आपा नहीं खोया। न ही ‘रामदेव’ को ‘कामदेव’ की संज्ञा दी। जबकि वे चाहते तो ‘कालाधन’ के ‘का’ को वे उनके ‘रामदेव’ के ‘रा’ से रिप्लेस कर सकते थे परंतु उन्होंने ऐसा करके अपने बड़प्पन का परिचय दिया और बाबा ने उन्हें ‘अनर्थशास्त्री’ कहकर अपने ‘छिछोरेपन’ को ही दर्शाया है। सोशल मीडिया यानी न्यू मीडिया ने भी इस बात पर बेवजह बहुत ही धमाल मचाया है, उनकी ऐसी गैर-जिम्मेदाराना हरकतों की वजह से सरकार इस पर रोक लगाना चाहती है तो इसमें क्या गलत बात है।
अब आप किस मुंह से कहेंगे कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगा करते हैं ?
पेड. पर भी उगते है पैसे : दैनिक जनवाणी 25 सितम्बर 2012 स्तंभ 'तीखी नजर' में प्रकाशित
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पी एम ने कहा कि ‘पेड़ पर नहीं उगते पैसे’, उनके बयान में से इस एक हिस्से पर सबने ध्यान केन्द्रित किया गया और बवंडर मचाया गया जबकि वे वाक्य के अंत में ‘क्या’ जोड़ना भूल गए थे। और सब पीएम की फजीहत करने में बुरी तरह सफल हो गए। जब तक पीएम को अपनी चूक समझ में आती, तब तक तीर उनकी जुबान से छूट चुका था। उन्होंने सोचा कि मैं पीएम हूं एक तीर चल गया तो कोई बात नहीं, दूसरा तीर प्रयोग कर लूंगा, यही गफलत हो गई और अर्थ का अनर्थ हो गया।
अब वे ‘क्या‘ जोड़ना भूल गए, फिर उनसे एक और चूक हो गई क्योंकि एक बार गलती हो जाए तो फिर गलतियों का क्रम शुरू हो जाता है। वे इतना किंकर्तव्यूविमूढ़ हो गए कि अगली कई बातें कहना औा तथ्यों का उल्लेख करना भूल गए। जबकि उन्हें भाषण की पूरी तैयारी कराई गई थी, उन्होंने इसे रट भी लिया था, कई बार अपने विशेषज्ञों को सुनाया भी। अनेक बार अभ्यास भी किया था किंतु चैनलों को सामने देखकर वे ‘सुजान’ न बन सके और ‘जड़मति’ ही रह गए।
चैनलों की मजबूरी तो समझ में आती है कि उन्हें 24 घंटे चैनल चलाने होते हैं इसलिए बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है किंतु सरकार पब्लिक के हित के लिए सदा ही पैट्रोल, डीजल, गैस और अन्य जीवन चलाने के लिए आवश्यक वस्तुओं पर सब्सिडी देती रहती है। बतलाने वाले तो इसे वोट पाने का लालच करार देते हैं और संभवत: इसी वजह से महंगाई भी आजकल सरकार से नाराज है।
पैसे पेड़ पर नहीं उगते क्या, पैसे पेड़ पर भी उगा करते हैं। जिस फल का पेड़ होता है उसी के अनुसार पेड़ पर फल लगते हैं। कहा भी गया है कि ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए’। कोई भी पेड़ अपने फलों को खुद नहीं खाते हैं, इस सच्चाई को सभी जानते हैं और यहीं से पेड़ पर पैसे उगने शुरू हो जाते हैं मतलब आप उनके फलों को बेचें और पैसे बनाएं। बाढ़ खेत को खा सकती है, इसके बारे में हम सब जानते हैं। पुलिस को बलात्कार में संलिप्त पाया जाता है, जिस पुलिस पर पब्लिक की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही पुलिस समय पड़ने पर पब्लिक को डंडों और गालियों से धुन-धुन कर अधमरा कर देती है। मंत्रियों ने भी इसी मार्ग पर चलते हुए खूब घोटाले किए हैं।
आपके स्वामित्व में जिस फल का पेड़ होगा, आपकी कमाई भी उसी के हिसाब से ज्यादा या और भी ज्यादा होगी, कम होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। बादाम, अखरोट, सेब, आम, पपीते, अमरूद इत्यादि मतलब जितने भी किस्म के पेड़ होते हैं और उनके फलों को बेचकर सबसे खूब कमाई की जाती है। कुछ पेड़ बहुत लंबे होते हैं जबकि उनके ऊपर लगे फल संख्या में भी कम होते हैं और सस्ते भी बिकते हैं। लंबाई से किसी की उपयोगिता का अंदाजा नहीं लगाया जाना चाहिए। नारियल के पेड़ पर लगा नारियल सस्ता बिक रहा है जबकि उस लंबे पेड़ पर चढ़कर उसे तोड़कर लाने में काफी सफर तय करना पड़ता है। पेड़ पर चढ़ना फिर एक-एक नारियल को तोड़ पर संभाल कर नीचे लाया जाता है कि कहीं हाथ से छूट न जाए और नारियल टूट न जाए।
पेड़ के बाद उन्हें पौधों का जिक्र करना था। जिसमें वे बतलाते कि जिन पेड़ों पर फल नहीं उगा करते, उनकी लकडि़यां बेच कर खूब पैसे कमाए जाते हैं, जिन लकडि़यों से फर्नीचर नहीं बनाया जा सकता। उन्हें दाह-संस्कार में काम में ले लिया जाता है और वहां पर भी लकड़ी आजकल महंगी बिकती है। इसके बाद उन पौधों का नंबर आता है जिन पर फल नहीं उगते, उनके फूलों को बेचकर धन कमाया जाता है। आजकल फूल और फलों की खेती धन कमाने के लिए ही की जाती है। कोई भी पेड़-पौधों पर उगाए गए फलों और फूलों का फ्री वितरण नहीं करता है।
उस पर तुर्रा यह है कि बाबा रामदेव ने उनके ‘अर्थशास्त्री’ होने पर इस तनिक सी चूक के लिए उन्हें ‘अनर्थशास्त्री’ तक कह दिया जबकि पीएम ने उनके काले धन को लेकर किए गए ऊधम और शरारतों को भी सहजता से ही लिया और कभी अपना आपा नहीं खोया। न ही ‘रामदेव’ को ‘कामदेव’ की संज्ञा दी। जबकि वे चाहते तो ‘कालाधन’ के ‘का’ को वे उनके ‘रामदेव’ के ‘रा’ से रिप्लेस कर सकते थे परंतु उन्होंने ऐसा करके अपने बड़प्पन का परिचय दिया और बाबा ने उन्हें ‘अनर्थशास्त्री’ कहकर अपने ‘छिछोरेपन’ को ही दर्शाया है। सोशल मीडिया यानी न्यू मीडिया ने भी इस बात पर बेवजह बहुत ही धमाल मचाया है, उनकी ऐसी गैर-जिम्मेदाराना हरकतों की वजह से सरकार इस पर रोक लगाना चाहती है तो इसमें क्या गलत बात है।
अब आप किस मुंह से कहेंगे कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगा करते हैं ?
आओ भिड़ जाएं 'राग भिड़ासी' गाएं : मिलाप हिंदी दैनिक 22 सितम्बर 2012 स्तंभ 'बैठे ठाले' में प्रकाशित
संगीत के कच्चे-पक्के और पुख्ता रागों की जानकारी यूं तो सभी को होती है जिनको नहीं होती वे भी संगीत सुनकर मौज लेते हैं। मजा लेने वाले इसके असर से बच नहीं पाते हैं। आजकल समाज में एक नए राग की उत्पत्ति हुई है। इस राग का आविर्भाव वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ने पर सामने आया है। इस राग में कारों के निरंतर बजने वाले हॉर्न और जोर-जोर से आती चिल्लाहटों से मधुरता आती है, इसे राग भिड़ासी माना गया है।
राग भिड़ासी से यूं तो सभी परिचित हैं किंतु मेट्रो शहरों में इसके मुक्तभोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसके गाने-बजाने के संबंध में कोई तय समय नहीं है। इसे कभी भी बजाया जा सकता है। इसका आयोजन स्थल आपके घर के सामने उस जगह पर होता है, जो आपकी न होते हुए भी आपकी मानी जाती है। यह सिलसिला रोजाना वहीं शुरू होता है। आपके और सामने तथा साथ रहने वाले पड़ोसियों के घर के सामने होता है, तीसरे, चौथे, पांचवे के घर के सामने भी होता है। शहरों में बढ़ती वाहनों की आबादी इसके होने का सबब बनती है। हम सबके कानों में आवाज आ रही है कि ‘तेरे घर के सामने मैं राग भिड़ासी गाऊंगा’। राग भिड़ासी सड़कों पर होने वाले ‘रोडरेज’ से उन्नत किस्म का राग है। इसे गाने के लिए दो पक्षों की सक्रियता जरूरी है।
जब दो वाहन टकराते हैं तो आवाज होती है किंतु जब दो राग भिड़ासी वाले इस राग में हिस्सेदारी निभाते हैं तो देखने-सुनने वालों का मन इससे मिली प्रसन्नता से गदगद हो उठता है। सुनने वाले, इसका आनंद लेने वाले इसकी गांभीर्यता को समझते हुए भनक मिलते ही अपने-अपने घरों की बालकनियों में आकर मोर्चा संभाल लेते हैं। इसकी शुरुआत कार के लगातार बजते तेज हॉर्न अथवा किसी इंसान की सुमधुर चिल्लाहट से होती है। यह दर्शकों को तुरंत आमंत्रित करती है। दर्शकों को आमंत्रित करने के लिए इसमें कार्ड छपवाकर बंटवाने की औपचारिकता नहीं निभाई जाती और न ही इसमें किसी प्रकार का अपव्यय किया जाता है। इसे देखने-सुनने वालों के लिए नाश्ता अथवा भोज का कोई प्रावधान न होना, मितव्ययिता की सबसे सुंदर मिसाल है।
घर के सामने वाहनों को खड़े करने का ‘मौन मौलिक अधिकार’ घर में रहने वालों का होता है। इस संबंध में अभी तक सरकार की ओर कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी किए गए हैं किंतु इसमें व्यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत की राजधानी में ‘कर वसूलने’ की शुरुआत अपने दूसरे अथवा तीसरे चरण में है। इस तरह के कार्यों के कई चरण पाए गए हैं। इसे एकदम अनौपचारिक रूप से बजाया जाता है इसलिए इसका आनंद हिंदी भाषा में अथवा पंजाबी भाषा अथवा किसी देसी बोली में खुलकर निखरकर आता है। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग होते भी अधिकतर देखा गया है। इससे राग भिड़ासी का जलवा देदीप्यमान होकर चमक उठता है।
ऐसे आयोजनों को अखबारों की सुर्खियां मिलने लगी हैं। ऐसे में एक बचाव पक्ष भी सक्रिय होता है। जिसे दाल भात में मूसलचंद की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह इस तरह के आयोजनों का सर्वथा विरोध करता है और इन्हें रोकने के लिए सदैव तैयार मिलता है। कई बार ऐसे आयोजनों की गाज इन पर इस बुरी तरह गिर जाती है कि इनका नाम शहीदों में शुमार हो जाता है। क्लाइमेक्स तक पहुंचने पर बोध होता है कि इंसानों की भिड़ंत हो गई है। स्त्री, पुरुष और बच्चों के लुटे-पिटे चेहरे-मोहरे इसकी गवाही देते हैं। किंतु पुलिस के पहुंचने पर वे सब गवाही देने से मुकरते हुए तितर-बितर हो जाते हैं। जिन बालकनियों में कुछ देर पहले चहल-पहल और गहमा-गहमी का मौसम था, वहां पतझड़ कब्जा जमा लेती है। लगता है कि इन बालकनियों में बसंत आता ही नहीं है। आपने भी अवश्य ही ऐसे आयोजनों में हिस्सा लिया होगा,मुक्तभोगी रहे होंगे, फिर अपने अनुभव हमारे साथ साझा करने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
बंद के बेढ़गे ढंग को बंद करो जी : नेशनल दुनिया 21 सितम्बर 2012 स्तंभ 'चिकोटी' में प्रकाशित
‘आज मोहब्बत बंद है’ गीत फिजा में गूंज रहा है जबकि ‘कल भारत बंद था’। भारत बंद होने पर मोहब्बत पर तो अपने आप ही लॉक लग जाएगा। गीत का सकारात्मक संदेश है कि मोहब्बत बंद हो सकती है लेकिन हिंसा, रक्तपात, खून खराबा, मारपीटी शुरू होने के बजाय महंगाई बंद होनी चाहिए। इसके विपरीत भारत बंद हुआ क्योंकि महंगाई ने नंगपना मचा रखा है, जिसमें नाच देखने वालों और नाचने वालों में नेताओं के शागिर्द होते हैं। इन्हें आप भाईजी, गुंडे, बाउंसर, सक्रिय कार्यकर्ता इत्यादि नामों से पहचानते हैं। बहरहाल, सच्चाई यह है कि धरती का आधार प्रेम है। प्रेम से ताकतवर कुछ नहीं है। प्रेम के बिना झगड़े भी नहीं है। किसी से प्रेम होगा तो किसी से उसी प्रेम के लिए झगड़ा भी होगा। यही इस सृष्टि का सनातन सत्य है।
भारत बंद महंगाई रूपी बुराई को हटाने के लिए प्रेम का शक्ति प्रदर्शन है। महात्मा गांधी ने अनशन का रास्ता अपनाया। बे-सत्ता वालों ने भारत बंद का। भारत बंद के लिए किसी भारत घर की व्यवस्था नहीं है। काले धन की तरह इसे किसी विदेशी भूमि पर बंधक नहीं बनाया जा सकता है। चिडि़याघर काफी लंबे चौड़े होते हैं लेकिन उसमें से चिडि़यों को बाहर निकालें, तब भारत को बंद करने की सोचें। परंतु चिडि़याएं कौओं के लिए अपना घर खाली करने से रहीं। व्यंग्यकार का कवि मन कह रहा है कि वे प्रतीक तौर पर भारत बंद का शोर मचाते हैं। करते तो हों दुकानें बंद, मार्केट बंद, आफिस बंद, यातायात बंद, सिनेमा हाल बंद और चिल्लाते हैं कि कर दिया भारत बंद। माना कि भारत दुकानों में बसता है और दुकानों में सर्वसुखदायक करेंसी नोट। न्यू मीडिया पर अभी सरकार का ही बस नहीं चल रहा है। जबकि सरकार ने घोषणा कर दी है कि ‘न्यू मीडिया’ को बंद करने के लिए वे तत्पर हैं। अच्छी चीजें बंद और बुरी रखें खुली।
भारत, भारत न हुआ कोई गुनहगार हो गया या दिल्ली ने जुर्म किया है, इसे तुरंत हिरासत में बंद कर दो। पेट्रोल के रेट कैसे बढ़ाए, सीएनजी के रेट क्यों बढ़ाए, डीजल में कीमतों का तड़का क्यूं लगाया, कीमतों को बंद नहीं करके रखा इसलिए भारत या राजधानी दिल्ली को तो बंद होना ही होगा। बंद करना है तो पुलिस के अत्याचारों, ब्यूरोक्रेसी में भ्रष्टाचार फैलाने वालों,अच्छाईयों के दुश्मनों को करो। उन पर आपका बस कहां चलता है। वहां पर तो आप सिरे से पैदल चलना शुरू कर देते हैं। भारत बंद का शोर मचाते हैं और बुरे विचारों पर लगाम नहीं लगा पाते। दिल्ली बंद करते हैं परंतु दिल में से काले धन और कोयले के साक्षात दीदार हो रहे हैं।
सचमुच में बंद करने का इतना ही मन है तो कन्या भ्रूण हत्या को करो, प्रसव पूर्व लिंग जांच को करो, मिलावटी दवाईयों को करो, क्या आप नहीं जानते कि एक चूहे को चूहेदानी में बंद करने के लिए भी कितनी मशक्कत करनी होती है। भारत बंद करने का आशय देश की सक्रियता को किडनैप करके देश को नुकसान पहुंचाने से है। मैं तो नहीं चाहता कि बंद रूपी ग्रहण का वायरस मोहब्बत या भारत को लगे, महंगाई को यह कैंसर की मानिंद जकड़ लें, आप भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे हैं क्या ?
जि़दगी का राग बनता 'राग भिड़ासी' : दैनिक हिंदी ट्रिब्यून 19 सितम्बर 2012 स्तंभ 'सागर में गागर' में प्रकाशित
संगीत के कच्चे-पक्के और पुख्ता रागों की जानकारी यूं तो सभी को होती है जिनको नहीं होती वे भी संगीत सुनकर मौज लेते हैं। आजकल समाज में एक नए राग की उत्पत्ति हुई है। इस राग का आविर्भाव वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ने पर सामने आया है। इस राग में कारों के निरंतर बजने वाले हॉर्न और जोर-जोर से आती चिल्लाहटों से मधुरता आती है, इसे राग भिड़ासी माना गया है।
राग भिड़ासी से यूं तो सभी परिचित हैं किंतु मेट्रो शहरों में इसके मुक्तभोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसके गाने-बजाने के संबंध में कोई तय समय नहीं है। इसे कभी भी गाया-बजाया जा सकता है। इसका आयोजन स्थल आपके घर के सामने उस जगह पर होता है, जो आपकी न होते हुए भी आपकी मानी जाती है। यह सिलसिला रोजाना वहीं शुरू होकर संपन्न होता है। शहरों में बढ़ती वाहनों की आबादी इसके होने का सबब बनी है। हम सबके कानों में आवाज आ रही है कि ‘तेरे घर के सामने मैं राग भिड़ासी गाऊंगा’। राग भिड़ासी सड़कों पर होने वाले‘रोडरेज’ से उन्नत किस्म का राग है।
जब दो वाहन टकराते हैं तो आवाज होती है किंतु जब दो राग भिड़ासी वाले इस राग में हिस्सेदारी निभाते हैं तो देखने-सुनने वालों का मन इससे मिली प्रसन्नता से गदगद हो उठता है। सुनने वाले, इसका आनंद लेने वाले इसकी गांभीर्यता को समझते हुए भनक मिलते ही अपने-अपने घरों की बालकनियों में आकर मोर्चा संभाल लेते हैं। यह राग दर्शकों को तुरंत आमंत्रित करता है। दर्शकों को आमंत्रित करने के लिए इसमें कार्ड छपवाकर बंटवाने की औपचारिकता नहीं निभाई जाती। इसे देखने-सुनने वालों के लिए नाश्ता अथवा भोज का कोई प्रावधान न होना, मितव्ययिता की सबसे सुंदर मिसाल है।
घर के सामने वाहनों को खड़े करने का ‘मौन मौलिक अधिकार’घर में रहने वालों का होता है। इस अधिकार में दखल राग भिड़ासी की उत्पत्ति दिखलाता है। इस संबंध में अभी तक सरकार की ओर कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी किए गए हैं किंतु इसमें व्यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत की राजधानी में‘कर वसूलने’ की शुरुआत अपने दूसरे अथवा तीसरे चरण में है। इसका आनंद हिंदी भाषा में अथवा पंजाबी भाषा अथवा किसी देसी बोली में खुलकर निखरकर आता है। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग होते भी अधिकतर देखा गया है। इससे राग भिड़ासी का जलवा देदीप्यमान होकर चमक उठता है।
ऐसे आयोजनों को अखबारों की सुर्खियां मिलने लगी हैं। ऐसे में एक बचाव पक्ष भी सक्रिय होता है। जिसे दाल भात में मूसलचंद की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह इस तरह के आयोजनों का सर्वथा विरोध करता है और इन्हें रोकने के लिए सदैव तैयार मिलता है। कई बार ऐसे आयोजनों की गाज इन पर इस बुरी तरह गिर जाती है कि इनका नाम शहीदों में शुमार हो जाता है। क्लाइमेक्स तक पहुंचने पर बोध होता है कि इंसानों की भिड़ंत हो गई है। स्त्री, पुरुष और बच्चों के लुटे-पिटे चेहरे-मोहरे इसकी गवाही देते हैं। किंतु पुलिस के पहुंचने पर तितर-बितर हो जाते हैं। जिन बालकनियों में कुछ देर पहले चहल-पहल और गहमा-गहमी का मौसम था, वहां पतझड़ कब्जा जमा लेती है। आपने भी अवश्य ही ऐसे आयोजनों में हिस्सा लिया होगा, मुक्तभोगी रहे होंगे, फिर अपने अनुभव हमारे साथ साझा करने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
आपने गाया है 'राग भिड़ासी' : जनसंदेश टाइम्स 18 सितम्बर 2012 स्तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित
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संगीत के कच्चे-पक्के और पुख्ता रागों की जानकारी यूं तो सभी को होती है और आजकल समाज में एक नए ‘राग भिड़ासी’ की उत्पत्ति हुई है। इस राग में कारों के निरंतर बजने वाले हॉर्न और जोर-जोर से आती चिल्लाहटों से मधुरता आती है। यूं तो इससे सभी परिचित हैं किंतु मेट्रो शहरों में इसके मुक्तभोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। इसके गाने-बजाने के संबंध में कोई तय समय नहीं है। इसका आयोजन स्थल आपके घर के सामने उस जगह पर होता है, जो आपकी न होते हुए भी आपकी मानी जाती है। यह सिलसिला रोजाना वहीं शुरू होकर संपन्न होता है। शहरों में बढ़ती वाहनों की आबादी इसके होने का सबब बनी है। हम सबके कानों में आवाज आ रही है कि ‘तेरे घर के सामने मैं राग भिड़ासी गाऊंगा’। राग भिड़ासी सड़कों पर होने वाले ‘रोडरेज’ से उन्नत किस्म का राग है।
जब दो वाहन टकराते हैं तो आवाज होती है किंतु जब दो राग भिड़ासी वाले इस राग में हिस्सेदारी निभाते हैं तो देखने-सुनने वालों का मन इससे मिली प्रसन्नता से गदगद हो उठता है। सुनने वाले, इसका आनंद लेने वाले इसकी गांभीर्यता को समझते हुए भनक मिलते ही अपने-अपने घरों की बालकनियों में आकर मोर्चा संभाल लेते हैं। यह राग दर्शकों को तुरंत आमंत्रित करता है। दर्शकों को आमंत्रित करने के लिए इसमें कार्ड छपवाकर बंटवाने की औपचारिकता नहीं निभाई जाती। इसे देखने-सुनने वालों के लिए नाश्ता अथवा भोज का कोई प्रावधान न होना, मितव्ययिता की सबसे सुंदर मिसाल है।
घर के सामने वाहनों को खड़े करने का ‘मौन मौलिक अधिकार’घर में रहने वालों का होता है। इस अधिकार में दखल राग भिड़ासी की उत्पत्ति दिखलाता है। इस संबंध में अभी तक सरकार की ओर कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी किए गए हैं किंतु इसमें व्यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत की राजधानी में‘कर वसूलने’ की शुरुआत अपने दूसरे अथवा तीसरे चरण में है। इसका आनंद हिंदी भाषा में अथवा पंजाबी भाषा अथवा किसी देसी बोली में खुलकर निखरकर आता है। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग होते भी अधिकतर देखा गया है। इससे राग भिड़ासी का जलवा देदीप्यमान होकर चमक उठता है।
ऐसे आयोजनों को अखबारों की सुर्खियां मिलने लगी हैं। ऐसे में एक बचाव पक्ष भी सक्रिय होता है। जिसे दाल भात में मूसलचंद की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह इस तरह के आयोजनों का सर्वथा विरोध करता है और इन्हें रोकने के लिए सदैव तैयार मिलता है। कई बार ऐसे आयोजनों की गाज इन पर इस बुरी तरह गिर जाती है कि इनका नाम शहीदों में शुमार हो जाता है। क्लाइमेक्स तक पहुंचने पर बोध होता है कि इंसानों की भिड़ंत हो गई है। स्त्री, पुरुष और बच्चों के लुटे-पिटे चेहरे-मोहरे इसकी गवाही देते हैं। किंतु पुलिस के पहुंचने पर तितर-बितर हो जाते हैं। जिन बालकनियों में कुछ देर पहले चहल-पहल और गहमा-गहमी का मौसम था, वहां पतझड़ कब्जा जमा लेती है। आपने भी अवश्य ही ऐसे आयोजनों में हिस्सा लिया होगा, मुक्तभोगी रहे होंगे, फिर अपने अनुभव हमारे साथ साझा करने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
पार्किंग में उपजा 'राग भिड़ासी' : दैनिक नेशनल दुनिया 18 सितम्बर 2012 स्तंभ 'चिकोटी' में प्रकाशित
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संगीत के कच्चे-पक्के और पुख्ता रागों की जानकारी यूं तो सभी को होती है जिनको नहीं होती वे भी संगीत सुनकर मौज लेते हैं। आजकल समाज में एक नए राग की उत्पत्ति हुई है। इस राग का आविर्भाव वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ने पर सामने आया है। इस राग में कारों के निरंतर बजने वाले हॉर्न और जोर-जोर से आती चिल्लाहटों से मधुरता आती है, इसे राग भिड़ासी माना गया है।
राग भिड़ासी से यूं तो सभी परिचित हैं किंतु मेट्रो शहरों में इसके मुक्तभोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसके गाने-बजाने के संबंध में कोई तय समय नहीं है। इसे कभी भी गाया-बजाया जा सकता है। इसका आयोजन स्थल आपके घर के सामने उस जगह पर होता है, जो आपकी न होते हुए भी आपकी मानी जाती है। यह सिलसिला रोजाना वहीं शुरू होकर संपन्न होता है। शहरों में बढ़ती वाहनों की आबादी इसके होने का सबब बनी है। हम सबके कानों में आवाज आ रही है कि ‘तेरे घर के सामने मैं राग भिड़ासी गाऊंगा’। राग भिड़ासी सड़कों पर होने वाले‘रोडरेज’ से उन्नत किस्म का राग है।
जब दो वाहन टकराते हैं तो आवाज होती है किंतु जब दो राग भिड़ासी वाले इस राग में हिस्सेदारी निभाते हैं तो देखने-सुनने वालों का मन इससे मिली प्रसन्नता से गदगद हो उठता है। सुनने वाले, इसका आनंद लेने वाले इसकी गांभीर्यता को समझते हुए भनक मिलते ही अपने-अपने घरों की बालकनियों में आकर मोर्चा संभाल लेते हैं। यह राग दर्शकों को तुरंत आमंत्रित करता है। दर्शकों को आमंत्रित करने के लिए इसमें कार्ड छपवाकर बंटवाने की औपचारिकता नहीं निभाई जाती। इसे देखने-सुनने वालों के लिए नाश्ता अथवा भोज का कोई प्रावधान न होना, मितव्ययिता की सबसे सुंदर मिसाल है।
घर के सामने वाहनों को खड़े करने का ‘मौन मौलिक अधिकार’घर में रहने वालों का होता है। इस अधिकार में दखल राग भिड़ासी की उत्पत्ति दिखलाता है। इस संबंध में अभी तक सरकार की ओर कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी किए गए हैं किंतु इसमें व्यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत की राजधानी में‘कर वसूलने’ की शुरुआत अपने दूसरे अथवा तीसरे चरण में है। इसका आनंद हिंदी भाषा में अथवा पंजाबी भाषा अथवा किसी देसी बोली में खुलकर निखरकर आता है। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग होते भी अधिकतर देखा गया है। इससे राग भिड़ासी का जलवा देदीप्यमान होकर चमक उठता है।
ऐसे आयोजनों को अखबारों की सुर्खियां मिलने लगी हैं। ऐसे में एक बचाव पक्ष भी सक्रिय होता है। जिसे दाल भात में मूसलचंद की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह इस तरह के आयोजनों का सर्वथा विरोध करता है और इन्हें रोकने के लिए सदैव तैयार मिलता है। कई बार ऐसे आयोजनों की गाज इन पर इस बुरी तरह गिर जाती है कि इनका नाम शहीदों में शुमार हो जाता है। क्लाइमेक्स तक पहुंचने पर बोध होता है कि इंसानों की भिड़ंत हो गई है। स्त्री, पुरुष और बच्चों के लुटे-पिटे चेहरे-मोहरे इसकी गवाही देते हैं। किंतु पुलिस के पहुंचने पर वे सब गवाही देने से मुकरते हुए तितर-बितर हो जाते हैं। जिन बालकनियों में कुछ देर पहले चहल-पहल और गहमा-गहमी का मौसम था, वहां पतझड़ कब्जा जमा लेती है। लगता है कि इन बालकनियों में बसंत आता ही नहीं है। आपने भी अवश्य ही ऐसे आयोजनों में हिस्सा लिया होगा, मुक्तभोगी रहे होंगे, फिर अपने अनुभव हमारे साथ साझा करने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
सड़कों का राग भिड़ासी : दैनिक जनवाणी 18 सितम्बर 2012 स्तंभ 'तीखी नजर' में प्रकाशित
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संगीत के कच्चे-पक्के और पुख्ता रागों की जानकारी यूं तो सभी को होती है जिनको नहीं होती वे भी संगीत सुनकर मौज लेते हैं। मजा लेने वाले इसके असर से बच नहीं पाते हैं। आजकल समाज में एक नए राग की उत्पत्ति हुई है। इस राग का आविर्भाव वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ने पर सामने आया है। इस राग में कारों के निरंतर बजने वाले हॉर्न और जोर-जोर से आती चिल्लाहटों से मधुरता आती है, इसे राग भिड़ासी माना गया है।
राग भिड़ासी से यूं तो सभी परिचित हैं किंतु मेट्रो शहरों में इसके मुक्तभोगियों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। इसके गाने-बजाने के संबंध में कोई तय समय नहीं है। इसे कभी भी गाया-बजाया जा सकता है। इसका आयोजन स्थल आपके घर के सामने उस जगह पर होता है, जो आपकी न होते हुए भी आपकी मानी जाती है। यह सिलसिला रोजाना वहीं शुरू होता है। आपके और सामने तथा साथ रहने वाले पड़ोसियों के घर के सामने होता है, तीसरे, चौथे, पांचवे के घर के सामने भी होता है। शहरों में बढ़ती वाहनों की आबादी इसके होने का सबब बनती है। हम सबके कानों में आवाज आ रही है कि ‘तेरे घर के सामने मैं राग भिड़ासी गाऊंगा’। राग भिड़ासी सड़कों पर होने वाले ‘रोडरेज’ से उन्नत किस्म का राग है। इसे गाने के लिए दो पक्षों की सक्रियता जरूरी है।
जब दो वाहन टकराते हैं तो आवाज होती है किंतु जब दो राग भिड़ासी वाले इस राग में हिस्सेदारी निभाते हैं तो देखने-सुनने वालों का मन इससे मिली प्रसन्नता से गदगद हो उठता है। सुनने वाले, इसका आनंद लेने वाले इसकी गांभीर्यता को समझते हुए भनक मिलते ही अपने-अपने घरों की बालकनियों में आकर मोर्चा संभाल लेते हैं। इसकी शुरुआत कार के लगातार बजते तेज हॉर्न अथवा किसी इंसान की सुमधुर चिल्लाहट से होती है। यह दर्शकों को तुरंत आमंत्रित करती है। दर्शकों को आमंत्रित करने के लिए इसमें कार्ड छपवाकर बंटवाने की औपचारिकता नहीं निभाई जाती और न ही इसमें किसी प्रकार का अपव्यय किया जाता है। इसे देखने-सुनने वालों के लिए नाश्ता अथवा भोज का कोई प्रावधान न होना, मितव्ययिता की सबसे सुंदर मिसाल है।
घर के सामने वाहनों को खड़े करने का ‘मौन मौलिक अधिकार’घर में रहने वालों का होता है। इस अधिकार में दखल राग भिड़ासी की उत्पत्ति दिखलाता है। इस संबंध में अभी तक सरकार की ओर कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी किए गए हैं किंतु इसमें व्यापक संभावनाओं को देखते हुए भारत की राजधानी में‘कर वसूलने’ की शुरुआत अपने दूसरे अथवा तीसरे चरण में है। इस तरह के कार्यों के कई चरण पाए गए हैं। इसे एकदम अनौपचारिक रूप से बजाया जाता है इसलिए इसका आनंद हिंदी भाषा में अथवा पंजाबी भाषा अथवा किसी देसी बोली में खुलकर निखरकर आता है। इसमें अंग्रेजी का प्रयोग होते भी अधिकतर देखा गया है। इससे राग भिड़ासी का जलवा देदीप्यमान होकर चमक उठता है।
ऐसे आयोजनों को अखबारों की सुर्खियां मिलने लगी हैं। ऐसे में एक बचाव पक्ष भी सक्रिय होता है। जिसे दाल भात में मूसलचंद की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह इस तरह के आयोजनों का सर्वथा विरोध करता है और इन्हें रोकने के लिए सदैव तैयार मिलता है। कई बार ऐसे आयोजनों की गाज इन पर इस बुरी तरह गिर जाती है कि इनका नाम शहीदों में शुमार हो जाता है। क्लाइमेक्स तक पहुंचने पर बोध होता है कि इंसानों की भिड़ंत हो गई है। स्त्री, पुरुष और बच्चों के लुटे-पिटे चेहरे-मोहरे इसकी गवाही देते हैं। किंतु पुलिस के पहुंचने पर वे सब गवाही देने से मुकरते हुए तितर-बितर हो जाते हैं। जिन बालकनियों में कुछ देर पहले चहल-पहल और गहमा-गहमी का मौसम था, वहां पतझड़ कब्जा जमा लेती है। लगता है कि इन बालकनियों में बसंत आता ही नहीं है। आपने भी अवश्य ही ऐसे आयोजनों में हिस्सा लिया होगा, मुक्तभोगी रहे होंगे, फिर अपने अनुभव हमारे साथ साझा करने में आप देरी क्यों कर रहे हैं ?
मुंगेरीलाल का पीएम बनना : हिंदी दैनिक दक्षिण भारत राष्ट्रमत 15 सितम्बर 2012 के स्तंभ 'कहो कैसी रही' में प्रकाशित
विद्वान बतला रहे हैं कि देश पीएम की तलाश में भटक रहा है। मुझसे इन सबकी पीड़ा नहीं देखी जाती। मैं कविहृदय और व्यंग्य विधा का कॉम्बो लेखक हूं। मुझे यह भी बतलाया गया है कि ‘वे’ हर बार ‘कंट्रोल प्लस एफ’ दबाते हैं किंतु कंप्यूटरदेव फाइंड (Find) के बदले फेल (Fail) दिखला रहे हैं। देश का महाबुद्धिजीवी वर्ग को परेशान जानकर मुझे महसूस होने लगा है कि मेरे शानदार दिन आने ही वाले हैं, इस समस्या से निजात दिलाने वाला मैं एकमात्र शख्स हूं। इस हकीकत को ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ समझने की भूल मत कीजिएगा। मुझे संपूर्ण आदर के साथ ‘पीएम सर’ जैसे शब्दों से संबोधित किया जाया करेगा और मैं शान से अपना सिर उठाकर और सीना पूरी चौड़ाकर पीएम की कुर्सी पर बैठ तथा सो सकूंगा।
मेरे अपने प्रतिमान होंगे। इस संबंध में मैं किसी से समझौता या ढीली-ढाली डील नहीं करूंगा। पीएम की कुर्सी की साख में किसी को बट्टा तो बट्टा, एक कंकरी तक नहीं मारने दूंगा और जब-जब चुप रहने का मन करेगा, पहले से ही सोशल मीडिया की सभी साइटों पर खरी-खरी लिख दूंगा। जिसके जरिए इंटरनेट की लती पब्लिक को मालूम चल जाएगा कि मैं‘ध्यान-साधना मोड’ में एक्टिव हूं। जबकि असलियत में, मैं उस समय यह विचार कर रहा होऊंगा कि कौन से हथकंडे अपनाने पर किसी को मेरे इस नजरिए की भनक भी न लग सके। मैं अपने इर्द-गिर्द कई किलोमीटर तक की रेंज में अपने तईं सलाहकारों की फौज नहीं पालूंगा और अपनी ही मानूंगा। चाहे इसे कोई ‘हिटलरी टाईप मनमानी’ का ही नाम देकर मुझे ‘पोक’ (फेसबुक की एक क्रिया) करता रहे। दूसरों की मानने से सब पालतू-फालतू का शोर मचाने लगते हैं। जिसमें देशवासी और विदेशवासी सिर्फ इंसान ही नहीं, पत्रिकाएं भी शुमार हो जाती हैं।
राजनीति के इस मुश्किल दौर में गारंटी-वारंटी के मामले की घंटी न जाने कब की बजाई जा चुकी है। मिलावटी दूध के स्नानित सलाहकारों पर विश्वास करना अपने ही ताबूत में लोहे की कील ठोकना है और मैं मरने से पहले अपने ताबूत में न कील ठोकूंगा और न किसी को ठोकने दूंगा।
कील से मुझे याद आया कि कील ठुंकने की फीलिंग कितनी तीखी होती है। एक बार मैं बेध्यानी में एक कील निकली कुर्सी पर बैठ गया था। मुक्तभोगी हूं इसलिए जानता हूं कि कील की चुभन कार्टून से भी तीखी होती है। व्यंग्यकारों के कंटीले बाणों को भी बर्दाश्त किया जा सकता है किंतु कील की चुभन होने पर तिलमिलाना लाजमी हो जाता है। मैं जब कील चुभने पर भिनभिनाया था, तब मुझे अहसास हुआ कि कील के चुभने से राहत दिलाने के लिए कोई शातिर वकील भी किसी काम नहीं आता है।
माहौल इतना कीलनुमा हो चुका है कि चुभोने वाले तो कोयले में कीलें चुभोने की चतुरता दिखला रहे हैं कभी आपने किसी चील को कील चुभोने का प्रयास किया हो तो जानो कि वह आंखों के डैने नोच लेती है। क्या आप चाहेंगे कि आपकी ऐसी दुखद स्थिति हो, नहीं न, तो फिर समझ लो कि आपकी पीएम की तलाश पूरी हो चुकी है और अब आपको कहीं पर भी अटकना-भटकना नहीं है।
'सारी' अंग्रेजी दिवस पर हिंदी बोली : दैनिक दक्षिण भारत राष्ट्रमत 14 सितम्बर 2012 में 'कहो कैसी रही' स्तंभ में प्रकाशित
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हिंदी का सौभाग्य माने या दुर्भाग्य कि सितम्बर माह में प्रत्येक बरस हिंदी बतौर सेलीब्रेटी पहचानी जाती है। इस महीने में सिर्फ हिंदी की जय जयकार ही होती है। जो अंग्रेजी में ‘लोंग लिव हिंदी’ के नारे लगाते हैं, वे फिर ‘सॉरी’ कहकर अपनी गलती भी मान लेते हैं। हिंदी का जन्मदिन हिंदी दिवस है, ऐसा सोचने वाले अपने मुगालते को दुरुस्त कर लें क्योंकि यह वह दिन है जिस दिन हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर तुरंत दराज में बंद कर दिया गया और दराज क्योंकि मेज में होती है इसलिए वह आफिस में कैद होकर रह गई। हिंदी आज तक उस कैद से छूट नहीं सकी है। सिर्फ इसलिए कि जिससे उसका दिल ऑफिस में लगा रहे, उसके नाम पूरा माह आंबटित कर दिया गया है। हिंदी प्रेमी इस हरकत से भड़क न उठें इसलिए उनसे इस माह में खूब भाषण, वक्तव्य, चर्चाएं करवा ली जाती हैं और उसके बदले में उन्हें पांच सौ या एक हजार रुपये देकर बहला दिया जाता है। इसके अतिरिक्त कार्यालय में अंग्रेजी में काम करने वालों से हिंदी में निबंध, टिप्पणी, शब्द अर्थ और टाइपिंग जैसे कार्य करवा कर प्रतियोगिता करवा दी जाती है और उनकी जेबों में पारितोषिक के नाम पर कुछ करेंसी नोट का चढ़ावा चढ़ा दिया जाता है।
हिंदी वाले इतने भोले हैं कि वे ऐसे भालों की चुभन को हंस हंसकर सह लेते हैं। हिंदी वालों के लिए ही, अंग्रेजी वालों के साथ घुल मिलकर सितम्बर माह को बतौर उत्सव सेलीब्रेट किया जाता है। जिसे मनाने के लिए हम ग्यारह महीने पहले से इंतजार करते है और फिर 15 दिन पहले से ही नोटों की बिंदिया गिनने के लिए सक्रिय हो उठते हैं। अध्यक्ष और जूरी मेंबर बनकर नोट बटोरते हैं और उस समय अंग्रेजी बोल-बोल कर सब हिंदी को चिढ़ाते हैं। हिंदी की कामयाबी के गीत अंग्रेजी में गाते हैं। कोई टोकता है तो ‘सॉरी’ कहकर खेद जताते हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी को बहलाने के लिए सितम्बर माह में काम करने पर पुरस्कारों का अंबार लग जाता है। जिसे अनुपयोगी टिप्पणियां, शब्दों के अर्थ-अनर्थ लिखकर, निबंध, कविताएं लिख-सुना कर लूटा जाता है। लूट में हिस्सा हड़पने के लिए सबकी आपस में मिलीभगत क्रिया सक्रिय हो उठती है। हिंदी को कूटने-पीटने और चिढ़ाने का यह सिलसिला जितना तेज होगा, उतना हिंदी की चर्चा और विकास होगा।
हिंदी के नाम पर सरकारी नौकरी में चांदी ही नहीं, विदेश यात्राओं का सोना भी बहुतायत में उपलब्ध रहता है। इसके लिए ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ किए जाते हैं और खाते-पीते खुशी मनाते जेबें भरी जाती हैं। परिवार के साथ विदेश यात्राओं का सपरिवार लुत्फ लूटा-खसूटा जाता है। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि सिर्फ हिंदी में लेखन से रोजी रोटी कमाने वालों का एक जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं जुटता। खीर खाने को मिलती है तो वह उस तक आते-पहुंचते ‘टेढ़ी खीर’ हो जाती है। पुस्तक प्रकाशक और अखबार, पत्रिकाएं छापने वाले हिंदी लेखकों को जी भर कर लूटे जा रहे हैं। प्रकाशक लेखक से ही सहयोग के नाम पर दाम वसूलकर पुस्तकें छाप कर बेचते हैं, जिसके बदले में छपी हुई किताबें एमआरपी मूल्य पर भेड़ देते हैं। गजब का सम्मोहन है कि लेखक इसमें मेहनत की कमाई का निवेश कर गर्वित होता है। किताबें अपने मित्र-लेखकों, नाते-रिश्तेदारों को फ्री में बांट-बांट कर उल्लसित होता है कि अब उसका नाम बेस्ट लेखकों में गिन लिया जाएगा। यही वह परम आनंद की स्थिति होती है जब उसे अपने उपर गर्व हो आता है।
छपास रोग इतना विकट होता है कि लेखक मुगालते में जीता है कि जैसा उसने लिखा है, वैसा कोई सोच भी नहीं सकता, लिखना तो दूर की बात है। बहुत सारे अखबार, पत्रिकाएं, लेखक को क्या मालूम चलेगा, की तर्ज पर ब्लॉगों और अखबारों में से उनकी छपी हुई रचनाएं फिर से छाप लेती हैं। इसका लेखक को मालूम चल भी जाता है किंतु वह असहाय-सा न तो अखबार –मैगज़ीन वाले से लड़ पाता हे और न ही अपनी बात पर अड़ पाता है। लेखक कुछ कहेगा तो संपादक पान की लाल पीक से रंगे हुए दांत निपोर कर कहेगा कि ‘आपका नाम तो छाप दिया है रचना के साथ, अब क्या आपका नाम करेंसी नोटों पर भी छापूं ।‘ उस पर लेखक यह कहकर कि ‘मेरा आशय यह नहीं है, मैं पैसे के लिए नहीं लिखता हूं।‘ ‘जब नाम के लिए लिखते हैं तब आपका नाम छाप तो दिया है रचना के साथ।‘ फिर क्यों आपे से बाहर हुए जा रहे हैं और सचमुच संपादक की बात सुनकर लेखक फिर आपे के भीतर मुंह छिपाकर लिखना शुरू कर देता है।
सरकारी योजनाओं और बजट में धन का प्रावधान हिंदी को जीवन देता रहेगा। सितंबर माह में खीर-पूरी का कॉम्बीनेशन बना रहेगा। बकाया 11 महीने मेज की दराज उसके लिए ‘तिहाड़’ बनी रहेगी। जिससे वह सुरक्षित रहेगी और कोई अंग्रेजी-तत्व हिंदी की बिंदी की चिंदी करने में भी कामयाब नहीं हो सकेगा। इस पूरे प्रकरण से साफ है कि हिंदी के चौतरफा विकास को कभी किसी की बुरी नजर नहीं लगेगी, फायदा यह होगा कि जो काली शातिर आंखों वाले इसे निहार रहे होंगे उनका मुंह काला होने से बचा रहेगा। कोयला घोटाले में चाहे मंत्रियों का मुंह, क्या समूचा शरीर काला होता रहे किंतु हिंदी पर नजर गड़ाने पर मुंह काला नहीं होना चाहिए, इतनी सतर्कता तो बरती ही जा रही है। जाहिर है कि युगों-युगों तक हिंदी सेलीब्रेटी बनी खुश होती रहेगी, हिंदी वालों को लगेगा कि उनकी पॉकेट भर रही है, सो भरती रहेगी और वे खुश रहेंगे?
पीएम मिल गया : दैनिक जनसंदेश टाइम्स 11 सितम्बर 2012 'उलटबांसी' स्तंभ में प्रकाशित
विद्वान बतला रहे हैं कि देश पीएम की तलाश में भटक रहा है। मुझसे इन सबकी पीड़ा नहीं देखी जाती। मैं कविहृदय और व्यंग्य विधा का कॉम्बो लेखक हूं। मुझे यह भी बतलाया गया है कि ‘वे’हर बार ‘कंट्रोल प्लस एफ’ दबाते हैं किंतु कंप्यूटरदेव फाइंड (Find) के बदले फेल (Fail) दिखला रहे हैं। देश का महाबुद्धिजीवी वर्ग को परेशान जानकर मुझे महसूस होने लगा है कि मेरे शानदार दिन आने ही वाले हैं, इस समस्या से निजात दिलाने वाला मैं एकमात्र शख्स हूं। इस हकीकत को ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ समझने की भूल मत कीजिएगा। मुझे संपूर्ण आदर के साथ ‘पीएम सर’ जैसे शब्दों से संबोधित किया जाया करेगा और मैं शान से अपना सिर उठाकर और सीना पूरी चौड़ाकर पीएम की कुर्सी पर बैठ तथा सो सकूंगा।
मेरे अपने प्रतिमान होंगे। इस संबंध में मैं किसी से समझौता या ढीली-ढाली डील नहीं करूंगा। पीएम की कुर्सी की साख में किसी को बट्टा तो बट्टा, एक कंकरी तक नहीं मारने दूंगा और जब-जब चुप रहने का मन करेगा, पहले से ही सोशल मीडिया की सभी साइटों पर खरी-खरी लिख दूंगा। जिसके जरिए इंटरनेट की लती पब्लिक को मालूम चल जाएगा कि मैं ‘ध्यान-साधना मोड’ में एक्टिव हूं। जबकि असलियत में, मैं उस समय यह विचार कर रहा होऊंगा कि कौन से हथकंडे अपनाने पर किसी को मेरे इस नजरिए की भनक भी न लग सके। मैं अपने इर्द-गिर्द कई किलोमीटर तक की रेंज में अपने तईं सलाहकारों की फौज नहीं पालूंगा और अपनी ही मानूंगा। चाहे इसे कोई ‘हिटलरी टाईप मनमानी’ का ही नाम देकर मुझे ‘पोक’ (फेसबुक की एक क्रिया) करता रहे। दूसरों की मानने से सब पालतू-फालतू का शोर मचाने लगते हैं। जिसमें देशवासी और विदेशवासी सिर्फ इंसान ही नहीं, पत्रिकाएं भी शुमार हो जाती हैं।
राजनीति के इस मुश्किल दौर में गारंटी-वारंटी के मामले की घंटी न जाने कब की बजाई जा चुकी है। मिलावटी दूध के स्नानित सलाहकारों पर विश्वास करना अपने ही ताबूत में लोहे की कील ठोकना है और मैं मरने से पहले अपने ताबूत में न कील ठोकूंगा और न किसी को ठोकने दूंगा।
कील से मुझे याद आया कि कील ठुंकने की फीलिंग कितनी तीखी होती है। एक बार मैं बेध्यानी में एक कील निकली कुर्सी पर बैठ गया था। मुक्तभोगी हूं इसलिए जानता हूं कि कील की चुभन कार्टून से भी तीखी होती है। व्यंग्यकारों के कंटीले बाणों को भी बर्दाश्त किया जा सकता है किंतु कील की चुभन होने पर तिलमिलाना लाजमी हो जाता है। मैं जब कील चुभने पर भिनभिनाया था, तब मुझे अहसास हुआ कि कील के चुभने से राहत दिलाने के लिए कोई शातिर वकील भी किसी काम नहीं आता है।
माहौल इतना कीलनुमा हो चुका है कि चुभोने वाले तो कोयले में कीलें चुभोने की चतुरता दिखला रहे हैं कभी आपने किसी चील को कील चुभोने का प्रयास किया हो तो जानो कि वह आंखों के डैने नोच लेती है। क्या आप चाहेंगे कि आपकी ऐसी दुखद स्थिति हो, नहीं न, तो फिर समझ लो कि आपकी पीएम की तलाश पूरी हो चुकी है और अब आपको कहीं पर भी अटकना-भटकना नहीं है।
पीएम बनने का हसीन सपना : जनवाणी 11 सितम्बर 2012 'तीखी नजर' स्तंभ में प्रकाशित
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अखबार और अखबार में छपने वाले विद्वान बतला रहे हैं कि हमारा प्रिय देश पीएम की तलाश में भटक रहा है। मुझसे इन सबकी पीड़ा नहीं देखी जाती क्योंकि मैं कविहृदय और व्यंग्य विधा का कॉम्बो लेखक हूं। मुझे यह भी बतलाया गया है कि चिंता से चिता बनने तक पहुंच चुके ‘वे’ हर बार ‘कंट्रोल प्लस एफ’ दबाते हैं किंतु कंप्यूटरदेव फाइंड (Find) के बदले फेल (Fail) दिखला देते हैं। कई बार अच्छी तरह से खुद भी जांच लिया है कि कंट्रोल और एफ का बटन ठीक से काम कर रहा है कि नहीं और एक कंप्यूटर इंजीनियर को भी ढाई सौ का भुगतान करके जंचवा लिया है, उन्होंने भी इसके दुरुस्त होने की पुष्टि की है। किंतु न जाने क्यों दोनों का तारतम्य एक-दूसरे के साथ नहीं बैठ रहा है, बैठना तो छोडि़ए, खड़ा भी नहीं हो पा रहा है। और देश का महाबुद्धिजीवी वर्ग सिर्फ इसलिए परेशां है,जानकर मुझे महसूस होने लगा है कि अब मेरे शानदार दिन आने ही वाले हैं, इस समस्या से निजात दिलाने वाला मैं ही एकमात्र शख्स हूं। आप इस हकीकत को मुंगेरी लाल के हसीन सपने मत समझ लीजिएगा। जब मुझे संपूर्ण आदर के साथ ‘पीएम सर’ जैसे शब्दों से संबोधित किया जाया करेगा और मैं शान से अपना सिर उठाकर और सीना पूरी चौड़ाई के साथ तानकर पीएम की कुर्सी पर बैठ तथा सो सकूंगा।
मेरे अपने प्रतिमान होंगे। इस संबंध में मैं किसी से समझौता या ढीली-ढाली डील बिल्कुल नहीं करूंगा। मैं पीएम की कुर्सी की साख में भी किसी को बट्टा तो बट्टा, एक कंकरी तक नहीं मारने दूंगा और जब-जब चुप रहने का मन करेगा, पहले से ही सोशल मीडिया की सभी साइटों पर खरी-खरी लिख दूंगा। जिसके जरिए इंटरनेट की लती पब्लिक को मालूम चल जाएगा कि मैं ‘ध्यान-साधना मोड’ में एक्टिव हूं, अतएव, इस स्थिति को और कुछ न समझा जाए। जबकि असलियत में, मैं उस समय यह विचार कर रहा होऊंगा कि अधिक समय तक किन तिकड़मों के बूते कुर्सी पर जमा रहा जा सकता है। कौन से हथकंडे अपनाने पर किसी को मेरे इस नजरिए की भनक भी न लग सके,न वह कयास लगा सके। मैं अपने इर्द-गिर्द क्या, कई किलोमीटर तक की रेंज में भी अपने तईं सलाहकार या उनकी फौज नहीं पालूंगा और सिर्फ अपनी ही मानूंगा। चाहे इसे कोई ‘हिटलरी टाईप मनमानी’का ही नाम देकर मुझे ‘पोक’ (फेसबुक की एक क्रिया) करता रहे। दूसरों की मानने से सब पालतू-फालतू का शोर मचाने लगते हैं। उसमें देशवासी और विदेशवासी सिर्फ इंसान ही नहीं, पत्रिकाएं भी शुमार हो जाती हैं।
सलाहकारों की फौज अगर दूध की धुली होती है तो वह विशुद्ध दूध की ही धुली होगी, इस बात की कोई गारंटी नहीं है क्योंकि राजनीति के इस मुश्किल दौर में गारंटी-वारंटी के मामले की घंटी न जाने कब की बजाई जा चुकी है। मिलावटी दूध में नहाए सलाहकारों की फौज पर क्यों विश्वास करूं। अगर उन्होंने बे-मिलावटी पानी में भी स्नान किया होता, तब तो एक बार मैं उनकी सलाह पर गौर करने के बारे में सोचने की सोचता। किंतु मिलावटी दूध के स्नानित सलाहकारों पर विश्वास करना अपने ही ताबूत में लोहे की कील ठोकना है और मैं मरने से पहले अपने ताबूत में न तो कील ठोकूंगा और न किसी को ऐसा करने दूंगा। करने की तो भली चलाई, सोचने भी नहीं दूंगा।
कील ठुंकने की फीलिंग कितनी तीखी होती है क्योंकि एक बार मैं बेध्यानी में एक कील निकली कुर्सी पर बैठ गया था। मुक्तभोगी हूं इसलिए जानता हूं कि कील की चुभन कार्टून से भी तीखी होती है। कार्टून की चुभन एक बार सही जा सकती है,ना-समझी का बहाना कर दिया जाए, व्यंग्यकारों के कंटीले बाणों को भी बर्दाश्त कर लिया जाए किंतु कील की चुभन होने पर तिलमिलाना लाजमी हो जाता है। मैं जब कील चुभने पर भिनभिनाया था, तब मुझे अहसास यह हुआ कि कील के चुभने से राहत दिलाने के लिए कोई शातिर वकील भी किसी काम नहीं आता है। इंजेक्शन की सुई इतना दर्द नहीं देती, जितना अपनों की ‘मक्खन मेड कील’ घायल कर देती है। माहौल इतना कीलनुमा हो चुका है कि चुभोने वाले तो कोयले में कीलें चुभोने की चतुरता दिखला रहे हैं और वकील अपने-अपने दड़बों में छिपे बैठे हैं। कभी आपने किसी चील को कील चुभोने का प्रयास किया हो तो जानो कि चील को कील चुभोने की कोशिश करने पर वह आपकी आंखों पर बेहद निर्ममतापूर्वक प्रहार करके डैने बाहर खींच लेती है। क्या आप चाहेंगे कि आपकी ऐसी दुखद स्थिति हो, नहीं न, तो फिर समझ लो कि आपकी पीएम की तलाश पूरी हो चुकी है और अब आपको कहीं पर भी अटकना-भटकना नहीं पड़ेगा।
डरे-सहमे से अध्यापक : जनसंदेश टाइम्स 'उलटबांसी' स्तंभ में 5 सितम्बर 2012 को प्रकाशित
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सरकार ने कानून बनाकर पढ़ने वाले बच्चों को इतना बिगाड़ दिया है कि शिक्षक दिवस पर मास्टरों की चाहे न हो किंतु विद्यार्थियों की मौजूदगी और चर्चा बहुत जरूरी है। आखिर वे विद्या की अर्थी उठाने में निष्णात हो चुके हैं। नतीजा मास्टर सहमे सहमे से स्कूल जाते हैं। कितनी ही बार मैंने मास्टरों को बच्चों के डर के कारण स्कूल से बंक मारते देखा है। बंक मारने में स्कूल के प्रिंसीपल भी यदा कदा अग्रणी भूमिका निभाते पाए जाते हैं। प्रत्यक्ष में तो बहाना और ही होता है किंतु परोक्ष में प्रिंसीपल और मास्टर बच्चों से डरने को मजबूर हैं क्योंकि उनके पास कार, मोबाइल, गर्ल फ्रेंड्स के लेटेस्ट वर्जन मौजूद हैं जबकि मास्टर सार्वजनिक बस अथवा मेट्रो में सफर करते हैं और लोकल कंपनियों के आउटडेटेड फोन रखते हैं। सरकार मास्टरों को इत्ता डरा रही है या बच्चे। अब यह शोध का भी विषय नहीं रहा है क्योंकि सब जान गए हैं कि यह कारनामा सरकार का ही है। कारनामा में आगे कार और सरकार में पीछे कार – कार से मास्टरों का आगा-पीछा सदा घिरा रहता है। मास्टर कोशिश करके भी इस घेरे से बाहर नहीं निकल पाते हैं।
इस पर तुर्रा यह भी है कि मास्टर बच्चों को फेल करने की हिमाकत भी नहीं कर सकते क्योंकि सरकार ने इनके हाथ काट दिए हैं और कलम की स्याही फैला दी है और निब तोड़कर निकाल दी है। बच्चों को फेल करना खतरनाक श्रेणी का जुर्म करार दे दिया गया है। बच्चे स्कूल से बंक मारें, गर्ल फ्रेंड के साथ सिनेमा देखें, पार्क में कोने कोने का फायदा उठाएं। जबकि मास्टर ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते हैं। मास्टर अगर बंक मारते हैं तो प्रधानाचार्य और प्रशासन के ज्ञापन और सजा से बच नहीं सकते।
सोच रहा हूं कि इसे विकास मानूं या बच्चों का जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास। मास्टरों में आत्मा रहने ही नहीं दी गई है इसलिए विश्वास का तो सवाल ही नहीं उठता। आज स्थिति यह है कि मास्टर तो मास्टर माता-पिता भी बच्चों से डरने को मजबूर हैं और अपने बच्चों की मजदूरी कर रहे हैं। न जाने कब उनकी आंखों का तारा अथवा तारारानी उनकी सरेआम बोलती बंद कर दे इसलिए उन्होंने भी बोलने की जहमत उठाना बंद कर दिया है। मास्टरों पर अंकुश और उनसे पढ़ने वाले बच्चे निरंकुश। आजकल के बच्चे मानो, सरकार हो गए हैं और मास्टर विपक्षी दल, जिन्हें हल्की सी फूंक से बच्चे उड़ाने में सफल हैं। मास्टर की किस्मत में सदा हारना ही लिख दिया गया है।
यह वह इक्कीसवीं सदी है जब मास्टर होना कलंक का पर्याय हो गया है और बच्चे कलगी लगाए चहचहा रहे हैं, धूम मचा रहे हैं,रेव पार्टी में शिरकत कर रहे हैं। धूम एक, दो, तीन तथा पौ एकदम बत्तीस और मास्टर अपनी बत्तीसी दिखाकर हंसने में भी खौफज़दा। अजीब आलम है, बच्चों की ताकत को कम करके आंकना मास्टरों के लिए तो कम से कम अब संभव नहीं रहा है। मास्टरों की इस दुर्गति के लिए न जाने, कौन जिम्मेदार है,लगता है कि मास्टर ही जिम्मेदार हैं जो इतना होने पर भी मास्टर बनने में फख्र महसूस कर रहे हैं। मास्टर बनने की तालीम पाने के लिए जुटी भीड़ को देखकर लगता है कि उम्मीदवारों को नवाबी के पद पर नियुक्त किया जा रहा हो।
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