फिर निभाई गई परम्‍परा : दैनिक डीएलए 26 सितम्‍बर 2012 के अंक में प्रकाशित


हिंदी दिवस है हिंदी का जन्‍मदिन। जिसे मनाने के लिए हम ग्‍यारह महीने पहले से इंतजार करते है और फिर 15 दिन पहले से ही नोटों की बिंदिया गिनने के लिए सक्रिय हो उठते हैं। अध्‍यक्ष और जूरी मेंबर बनकर नोट बटोरते हैं और उस समय अंग्रेजी बोल-बोल कर सब हिंदी को चिढ़ाते हैं। हिंदी की कामयाबी के गीत अंग्रेजी में गाते हैं। कोई टोकता है तो सॉरी’ कहकर खेद जताते हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी के लिए सितम्‍बर माह में काम करने पर पुरस्‍कारों का अंबार लग जाता है। जिसे अनुपयोगी टिप्‍पणियांशब्‍दों के अर्थ-अनर्थ लिखकरनिबंध,कविताएं लिख-सुना कर लूटा जाता है। लूट में हिस्‍सा हड़पने के लिए सब आपस में घुलमिल जाते हैं। हिंदी को कूटने-पीटने और चिढ़ाने का यह सिलसिला जितना तेज होगाउतना हिंदी की चर्चा और विकास होगा।
हिंदी के नाम पर सरकारी नौकरी में चांदी ही नहींविदेश यात्राओं का सोना भी बहुतायत में है किंतु सिर्फ हिंदी में लेखन से रोजी रोटी कमाने वालों का एक जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं होता हैखीर खाना तो टेढ़ी खीर है। प्रकाशक और अखबार छापने वाले हिंदी लेखकों को जी भर कर लूटे जा रहे हैं। प्रकाशक लेखक से ही सहयोग के नाम पर दाम वसूलकर पुस्‍तकें छाप कर बेचते हैं,जिसके बदले में छपी हुई किताबें एमआरपी मूल्‍य पर भेड़ देते हैं। गजब का सम्‍मोहन है कि लेखक इसमें मेहनत की कमाई का निवेश कर गर्वित होता है। किताबें अपने मित्र-लेखकोंनाते-रिश्‍तेदारों को फ्री में बांट-बांट कर खुश होता है कि अब उसका नाम बेस्‍ट लेखकों में गिन लिया जाएगा।
छपास रोग इतना विकट होता है कि लेखक मुगालते में जीता है कि जैसा उसने लिखा हैवैसा कोई सोच भी नहीं सकतालिखना तो दूर की बात है। बहुत सारे अखबारपत्रिकाएंलेखक को क्‍या मालूम चलेगाकी तर्ज पर ब्‍लॉगों और अखबारों में से उनकी छपी हुई रचनाएं फिर से छाप लेती हैं। इसका लेखक को मालूम चल भी जाता है किंतु वह असहाय सा न तो अखबार मैगज़ीन वाले से लड़ पाता हे और न ही अपनी बात पर अड़ पाता है। लेखक कुछ कहेगा तो संपादक पान की लाल पीक से रंगे हुए दांत निपोर कर कहेगा कि आपका नाम तो छाप दिया है रचना के साथअब क्‍या आपका नाम करेंसी नोटों पर भी छापूं ।‘ उस पर लेखक यह कहकर कि मेरा आशय यह नहीं हैमैं पैसे के लिए नहीं लिखता हूं।‘ ‘जब नाम के लिए लिखते हैं तब आपका नाम छाप तो दिया है रचना के साथ।‘ फिर क्‍यों आपे से बाहर हुए जा रहे हैं और सचमुच संपादक की बात सुनकर लेखक फिर आपे के भीतर मुंह छिपाकर लिखना शुरू कर देता है।  इससे साफ है कि हिंदी का चौतरफा विकास होता रहेगा और हम सब राष्‍ट्रभाषा के नाम पर हिंदी का जन्‍मदिन मना साल भर खुशी बटोरते रहेंगे ?

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