महंगाई की तरफदारी का मंत्र : दैनिक हिंदी मिलाप 31 अगस्‍त 2012 अंक में 'बैठे-ठाले' स्‍तंभ में प्रकाशित



महंगाई की तरफदारी करना एक मंत्री के लिए इस कदर फायदे की डील रही कि उसकी टीआरपी में खूबसूरत इजाफा हो गया है। जबकि वे अपना नंगपना देखकर खुद ही अचंभे में हैं। क्‍या वे इतने नंगे हो सकते हैं कि उन्‍हें देखकर उनका नंगपना ही शर्मा जाए, लेकिन वे यह सोचकर निश्चिंत हैं कि आजकल नंगेपन का ही बाजार है। जिसे देखो आज इसी के प्रभाव के चलते दूसरे के कम, अपने कपड़े उतारने के लिए लालायित है। कमाई चाहे नोटों की हो अथवा ख्‍याति की, कमाई आखिर कमाई ही होती है। अगर आपको कम पब्लिक जानती है, आपको वोट भी कम ही मिलेंगे। इसलिए पब्लिक को जनवाने यानी पहचान बनाने के लिए कर्म करना और अंटशंट बकने से भी परहेज नहीं किया जाता है। वे सब कुछ सहन कर सकते हैं किंतु वोटों में गिरावट के सूचकांक को ख्‍वाबों में भी नहीं गिरने देना चाहते हैं।
‘मैंने महंगाई की शान में दो मीठे कसीदे क्‍या पढ़ दिए, सब करेले और नीम के रस की कड़वाहट लेकर मुझे हटाने में जुट गए हैं। मेरे सच्‍चे वचनों को बड़बोलापन की संज्ञा दी जा रही है।‘ किस्‍सा कोताह यह है कि उन्‍होंने महंगाई की नंगाई की तारीफ की है इसलिए मीडिया समेत सभी उनके कपड़े फाड़ने पर उतारू हैं। संपादक, लेखक और कार्टूनकार अपनी-अपनी कलम और कूंची लेकर उनका मुंह काला करने और साख कलम करने के लिए मुस्‍तैद हो गए हैं। जब कोई वस्‍तु महंगी बिकती है तो उससे किसी न किसी को फायदा होता ही है और उन्‍होंने सिर्फ जिन्‍हें नुकसान हो रहा था, उनको फायदा होना बतला दिया। फिर क्‍या था आसमान फट पड़ा। वे प्रसन्‍न हैं कि आखिर फायदा तो हो रहा है, अब फायदा हो रहा है परंतु भला नहीं हो रहा है और इसका जिक्र भर करने से उन्‍हें बदले में उपहारस्‍वरूप मीडिया की सुर्खियां मिल सकती हैं, फिर वे क्‍यों न बहकें। वैसे वे इसे बहकना नहीं, महंगाई का हक मानते  हैं और चाहते हैं कि महंगाई के हक को छीनने की कोई अनधिकार चेष्‍टा न करे।
इससे पहले उनके एक अन्‍य सहयोगी ने कड़ी मेहनत करने वालों के लिए थोड़ी-बहुत चोरी की वकालत क्‍या कर दी, मानो सारे जहान ने ही भाई के विरोध में मोर्चा खोल लिया। इससे जाहिर है कि किसी को भी दूसरे की खुशी रास नहीं आती है। जबकि इससे चोरी करने वालों का हौसला बुलंद हुआ होगा और उन्‍होंने और अधिक मेहनत करने की ठान ली होगी। सो उन्‍होंने यह कह दिया कि जो किसान सब्जियों, दालों इत्‍यादि की उपज के लिए जिम्‍मेदार है, वही उसका लाभ लेते हैं इसलिए महंगाई का तेजी से बढ़ना किसानहित में है, मैं इसकी सफलता की कामना कर रहा हूं। जबकि वे यह अच्‍छी तरह जानते हैं कि इससे किसान को कम, दलालों को अधिक लाभ हो रहा है।
अब उनके बयान पर किसान उनका कुछ भी बिगाड़ पाने से रहे परंतु दलालों के खिलाफ बोलते तो दलाल उनका मुंह काला और गाल लाल करके भी नहीं छोड़ते। मान लो, किसान सब्जियों और दालों का उत्‍पादन ही नहीं करे, फिर दलालों को लाभ कैसे मिलेगा, इसलिए खाद्य वस्‍तुओं की महंगाई से जो लाभ हो रहा है, वह किसान के खाते में ही माना जाएगा। चाहे लौकिक रूप से वह दलाल की जेब में जा रहा है किंतु अगर दलाल किसान की सब्जियों, दालों को बेचने का धंधा नहीं करे, तब भी किसान आत्‍महत्‍या करेगा। इसलिए दलाल किसान का भगवान है जो उसे जीवनदान दे रहा है और बदले में खूब सारा लाभ ले रहा है। फिर जान है तो जहान है और जहान है तो दलाल है।
इस मजबूत आधार पर दिए गए उनके वक्‍तव्‍य पर न जाने क्‍यों बवाल मच रहा है। वे मंत्री हैं और मंत्री को प्रत्‍येक तरह के मंत्र फूंकने का अधिकार है। उनके इस अधिकार पर किसी को ऊंगली अथवा अंगूठा उठाने का तनिक भी अधिकार नहीं है। इस सत्‍य से सबको परिचित होना ही चाहिए। कुछ अंजान लोग जिनमें उनके खास अपने साथी भी हैं, इसे अंटशंट बयानों की संज्ञा दे रहे हैं। जबकि मैं भी कह सकता हूं कि उनकी हरकतें ऊटपटांग हैं किंतु मैं बिना लाभ वाले मुद्दों पर प्रतिक्रिया नहीं दिया करता। उन्‍हें इससे सिर्फ यही लाभ होगा कि मेरी साख गिराकर वे अपनी साख उठाने के चक्‍कर में चक्रायमान हो उठे हैं। वे नहीं जानते कि इस फेर में उनके राख होने का जोखिम अधिक है इसलिए मैं उन्‍हें आगाह कर रहा हूं। वे नहीं जानते कि वे क्‍या कर रहे हैं। उन्‍हें बुद्धि मत देना ईश्‍वर, वरना वे मेरे बाल नोचने जैसा बवाल भी कर सकते हैं।
आप खुद तो कुछ कह नहीं पा रहे हैं और जब मैंने कह दिया है तो हल्‍ला मचा कर घिनौनी हरकतें बतला रहे हैं। भारतीय संस्‍कृति में सदैव दुश्‍मन को भी उचित सम्‍मान दिए जाने की एक लंबी परंपरा है। आप महंगाई को पब्लिक का दुश्‍मन मानते हैं तब भी उसका हक बनता है कि आप उसके सम्‍मान में कोई कमी न आने दें और अगर आप वस्‍तुओं के रेट इंक्रीज होने को महंगाई का दुर्गुण मानते हैं, तब मेरी तरह उसके दुर्गुण को गुण मानकर उसकी प्रशंसा में तनिक भी कोताही न बरतें। इससे आज नहीं तो कल जब मध्‍यस्‍थों को बीच में से हटा दिया जाएगा और मल्‍टीनेशनल कंपनियां किसानों से डायरेक्‍ट डील करेंगी तब किसानों को जरूर अधिक पैसा मिलेगा। उम्‍मीद पर दुनिया कायम है और आप उम्‍मीदों को पंख लगाना तो दूर रहा, उन्‍हें नोचने जैसा निर्दयी कार्य कर रहे हैं। मुझे तो आपकी मंशा पर ही शक हो रहा है।
आप जानते ही हैं कि सबको काला धन बहुत पसंद है और इसी ध्‍येय को फलीभूत करने के  लिए जवान और बूढ़े सभी सत्‍ता में बार-बार लगातार घूम-घूम कर आते रहते हैं बल्कि वहीं टहलते रहते हैं, कहना अधिक समीचीन होगा। यह पावन उद्देश्‍य तभी पूरा हो सकता है, अगर महंगाई तेज गति से बढ़ती और विकास के सोपानों पर सबसे लड़-झगड़-उलझ कर भी चढ़ती रहे।
जहां तक शर्माने का सवाल है, पहले शर्म नाक को आती है और इस शर्माने से अब कान भी नहीं बच पा रहे हैं, कान भी अब शर्मसार होने लगे हैं। यह सब काले धन का प्रताप है। इसके ताप में झुलसने से कोई साधु अथवा संत नहीं बच सका है, फिर हमारी क्‍या बिसात है कि उसे हम अपने देश के बैंकों में रखकर भीषण आग का जोखिम मोल लें और इतनी जरा सी बात काले धन को देश में लाने के लिए चिल्‍लाने वाले नहीं समझ पा रहे हैं। उनकी अल्‍प बुद्धि पर मुझे अधिक तरस आ रहा है।
इस सारी कवायद से मुझे ऐसा लग रहा है कि इसमें उनका व्‍यंग्‍यकार बनने का स्‍वार्थ है और वे इस प्रकार के अंटशंट बयान देकर खुद को महान व्‍यंग्‍यकार साबित करने की होड़ में व्‍यंग्‍य लेखकों से पंगा ले रहे हैं। संभावना उनके बहकने की भी है किंतु यह बहकना कैसा है कि महंगाई के हक में बहक रहे हैं जबकि वह उनकी गर्ल फ्रेंड भी नहीं है। वैसे इसमें उनकी गलती नहीं है, गलत सारी पब्लिक की है जो भैंस के समान विराट दिमाग वालों को चुनकर देश रूपी वाहन को चलाने के लिए भेज देती है और लाईसेंस भी चैक नहीं करती। जिसका खामियाजा पब्लिक को भुगतना पड़ रहा है क्‍योंकि वे नासमझी की हालत में सरकार चलाकर, इस प्रकार की दुर्घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। इसकी असली कसूरवार पब्लिक ही हुई, जो सब जानती है, जो उनको वोट देकर चुनती है, जो बाद में सिर अपना ही धुनती है। कहीं आप यह सब पढ़कर अपना सिर धुनने में निमग्‍न तो नहीं हो गए हैं ?

महंगाई की तरफदारी का मंत्र : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 28 अगस्‍त 2012 'उलटबांसी' में प्रकाशित


महंगाई की तरफदारी करना एक मंत्री के लिए इस कदर फायदे की डील रही कि उसकी टीआरपी में खूबसूरत इजाफा हो गया है। जबकि वे अपना नंगपना देखकर खुद ही अचंभे में हैं। जिसे देखो आज नंगई प्रभाव के चलते दूसरे के कम, अपने कपड़े उतारने के लिए लालायित है। पब्लिक को जनवाने यानी पहचान बनाने के लिए कर्म करना और अंटशंट बकने से भी परहेज नहीं किया जाता है। वे सब कुछ सहन कर सकते हैं किंतु वोटों में गिरावट के सूचकांक को ख्‍वाबों में भी नहीं गिरने देना चाहते हैं। ‘मैंने महंगाई की शान में दो मीठे कसीदे क्‍या पढ़ दिए, सब करेले और नीम के रस की कड़वाहट लेकर मुझे हटाने में जुट गए हैं। मेरे वचनों को बड़बोलापन की संज्ञा दी जा रही है।‘ किस्‍सा कोताह यह है कि उन्‍होंने महंगाई की नंगाई की तारीफ की है इसलिए मीडिया समेत सभी उनके कपड़े फाड़ने पर उतारू हैं। संपादक, लेखक और कार्टूनकार अपनी-अपनी कलम और कूंची लेकर उनका मुंह काला करने और साख कलम करने के लिए मुस्‍तैद हो गए हैं। पहले उनके एक अन्‍य सहयोगी ने कड़ी मेहनत करने वालों के लिए थोड़ी-बहुत चोरी की वकालत क्‍या कर दी, मानो सारे जहान ने ही भाई के विरोध में मोर्चा खोल लिया। इससे जाहिर है कि किसी को भी दूसरे की खुशी रास नहीं आती है। जबकि इससे चोरी करने वालों का हौसला बुलंद हुआ होगा और उन्‍होंने और अधिक मेहनत करने की ठान ली होगी। सो इन्‍होंने यह कह दिया कि जो किसान सब्जियों, दालों इत्‍यादि की उपज के लिए जिम्‍मेदार है, वही उसका लाभ लेते हैं इसलिए महंगाई का तेजी से बढ़ना किसानहित में है, मैं इसकी सफलता की कामना कर रहा हूं। जबकि वे यह अच्‍छी तरह जानते हैं कि इससे किसान को कम, दलालों को अधिक लाभ हो रहा है।
अब उनके बयान पर किसान उनका कुछ भी बिगाड़ पाने से रहे परंतु दलालों के खिलाफ बोलते तो दलाल उनका मुंह काला और गाल लाल करके भी नहीं छोड़ते। मान लो, किसान सब्जियों और दालों का उत्‍पादन ही नहीं करे, फिर दलालों को लाभ कैसे मिलेगा, इसलिए खाद्य वस्‍तुओं की महंगाई से जो लाभ हो रहा है, वह किसान के खाते में ही माना जाएगा। चाहे लौकिक रूप से वह दलाल की जेब में जा रहा है इसलिए दलाल किसान का भगवान है जो उसे जीवनदान दे रहा है और बदले में खूब सारा लाभ ले रहा है। फिर जान है तो जहान है और जहान है तो दलाल है। न जाने क्‍यों बवाल मच रहा है। वे मंत्री हैं और मंत्री को प्रत्‍येक तरह के मंत्र फूंकने का अधिकार है। आज नहीं तो कल जब मध्‍यस्‍थों को बीच में से हटा दिया जाएगा और मल्‍टीनेशनल कंपनियां किसानों से डायरेक्‍ट डील करेंगी तब किसानों को जरूर अधिक पैसा मिलेगा। उम्‍मीद पर दुनिया कायम है और आप उम्‍मीदों को पंख लगाना तो दूर रहा, उन्‍हें नोचने जैसा निर्दयी कार्य कर रहे हैं। गलती सारी पब्लिक की है जो भैंस के समान विराट दिमाग वालों को चुनकर देश रूपी वाहन को चलाने के लिए भेज देती है और लाईसेंस भी चैक नहीं करती। इसकी असली कसूरवार पब्लिक ही हुई, जो सब जानती है, जो उनको वोट देकर चुनती है, जो बाद में सिर अपना ही धुनती है। कहीं आप यह सब पढ़कर अपना सिर धुनने में निमग्‍न तो नहीं हो गए हैं ?

अनशन पर हूं किंतु मीठे से डरता हूं : दैनिक हिंदी मिलाप 24 अगस्‍त 2012 'बैठे-ठाले' स्‍तंभ में प्रकाशित


अनशन शब्‍द को तनिक भी बेध्‍यानी में सुनो तो अंटशंट सुनाई देता है। अनशन और अंटशंट शब्‍द खूब लुभा रहे हैं। सरकारें जब अंटशंट कारनामे करती हैं तब अनशन करना अनिवार्य हो जाता है। अंटशंट का प्रतिकार अनशन के सिवाय किसी और तरीके से संभव नहीं है। अनशन शब्‍द का उत्‍पादन मेरी स्‍मृति के अनुसार गांधी जी के जमाने से शुरू हुआ है। मैं गलत ही हूं, ऐसा मान रहा हूं। मैंने गांधी जी को सुना नहीं है किंतु गांधीगिरी के शोर से अच्‍छी तरह वाकिफ हूं।
शब्‍द कोई भी हो अपनी शक्ति से वाक्‍यों को मजबूती प्रदान करते हैं। जबकि इसके अपवाद चिल्‍लाहटों, बुक्‍का फाड़ के हंसने और धमाके रूपी क्रियाएं हैं जिनमें शब्‍द नहीं होते किंतु वे जड़ से हिला देते हैं। यही स्थिति कार्टूनों के साथ होती हैं, उनमें से कईयों में वाक्‍य और शब्‍द अनुपस्थित होते हैं परंतु उनका असर हैरत में डाल देता है। सौ साल पुराने कार्टूनों का डरावना अहसास हाल ही में हुआ है और सुर्खियों में कार्टून बनाने वाले भी आए हैं। इन्‍हें हटाने के लिए सरकारें नादिरशाही पर उतर आई हैं और साहित्‍य में अभिव्‍यक्ति की अन्‍य विधाओं पर भी जोखिम नज़र आने लगा है। जबकि मेरी राय में कार्टूनों को अंटशंट बतलाना बिल्‍कुल गलत है। कार्टून त्‍वरित विमर्श के लिए प्रेरित करते हैं और तंज के साथ हंसाना उनके मूल में रहता है।
कार्टून से डरी सरकारें अब अनशन शब्‍द के हो-हल्‍ले से भयभीत हो जाती हैं। यह हल्‍ला इतनी जोर से मचता है कि सरकारें हिल जाती हैं। अनशन माने अन्‍न से नाराज होना जबकि यह नाराजगी अन्‍न से न होकर अन्‍याय से होती है। सब अन्‍ना के लिए सारे ठठाकर्म करते हैं। अन्‍न से तो कभी कोई जानवर भी नाराज होता नहीं देखा गया है। बल्कि धार्मिक लोग भी भजन से पहले भोजन को वरीयता देते देखे गए हैं। उनके अनुसार भूखे पेट अंटशंट विचार और कार्य ही किए जा सकते हैं। सद्कार्यों को करने के लिए भोजन बहुत जरूरी है। अन्‍याय और अराजकता के विरोध के लिए अन्‍न का विरोध किसी भी तरह से जायज नहीं माना जा सकता है। अन्‍याय के लिए आजकल सत्‍ता और सरकारें खूब प्रसिद्धि पा रही हैं और बदहवासी में अंटशंट करतूतों को अंजाम दे रही हैं किंतु इनसे पब्लिक को मुक्ति दिलवाने के लिए समय-समय पर संतों का आर्विभाव होता है। कई अवसरों पर असंत भी चतुरता बरतते हुए ऐसे उपाय अपना लेते हैं। खाना छोड़ना मतलब जनहित में प्राण देने के लिए तत्‍पर होना।  अन्‍ना और बाबा रामदेव ने इसमें तीव्र भूकंप की स्थिति पैदा की है जिससे सरकारें बेभाव के हिली हैं और उन्‍हें अपने अस्तित्‍व पर आए खतरे से डर लगने लगा है। आज सरकारें अनशन के नाम पर कंपकंपाने लग जाती हैं और तुरंत अंटशंट बक जाती हैं।
फिर लुभावने प्रयासों द्वारा येन केन प्रकारेण अनशन तुड़वाना ही सरकारों का एकमात्र ध्‍येय रह जाता है। मैं भी अनशन के प्रति अब गंभीर हो गया हूं। सोच रहा हूं एक घंटे वाला अनशन रख लूं जिसे जरूरत होने पर दो घंटे तक बढ़ाया जा सके क्‍योंकि इससे अधिक मेरे शरीर की सामर्थ्‍य नहीं है। मेरे शरीर पर डायबिटीज ने अपने मीठे पंजे गड़ा रखे हैं और वे मिठास का नहीं, कड़वाहट का ही अहसास कराते हैं। जिससे बेखर्च के एक गिलास मौसमी का ज्‍यूस फ्री में‍ किसी विशिष्‍ट हस्‍ती के हाथों में थामे गिलास से पीकर अनशन को तोड़कर सुर्खियां पा लूं। चिंतन से भी मुझे मौसमी के ज्‍यूस से अनशन तुड़वाने के पीछे का रहस्‍य समझ नहीं आया है क्‍योंकि मुझे अनार का ज्‍यूस पसंद है पर अनार की मेरी पसंद पर मेरा कब्‍जा डायबिटीज ने क्षीण कर दिया है। मेरा विचार है कि अनार का ज्‍यूस अनशन तोड़ने के मामले में अनार के पीछे चिपकी नार और ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली स्थिति के कारण पसंद नहीं किया जा रहा है। अनार का ज्‍यूस पीने वाला खुद बीमार होगा, अपने साथ के निन्‍यानवै साथियों को भी बीमार करेगा। वैसे भी मीठे को देखकर मुझे डर लगने लगता है। यहां पर मेरी यह थ्‍योरी भी फेल हो जाती है कि ‘मुझे किसी से डर नहीं लगता है।‘ इसलिए मैं मानता हूं कि मैं मीठे के सिवाय किसी से बिल्‍कुल नहीं डरता हूं।
अनार शब्‍द के साथ नार के चिपके होने के कारण नर इसे नारीवादी बतलाकर इसे पीने से परहेज करते हैं तो इसमें हैरानी कैसी, जबकि मौसमी का कूल स्‍वभाव प्रत्‍येक मौसम और किसी भी वय के लोगों के लिए सदैव हितकर रहता है। आप तो अनशन करने पर तुड़वाने के लिए मौसमी का ज्‍यूस पीना ही पसंद करेंगे न।

मैं भी अनशन पर हूं : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 22 अगस्‍त 2012 के स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित





अनशन शब्‍द को तनिक भी बेध्‍यानी में सुनो तो अंटशंट सुनाई देता है। अनशन और अंटशंट शब्‍द खूब लुभा रहे हैं। सरकारें जब अंटशंट कारनामे करती हैं तब अनशन करना अनिवार्य हो जाता है। अंटशंट का प्रतिकार अनशन के सिवाय किसी और तरीके से संभव नहीं है। अनशन शब्‍द का उत्‍पादन मेरी स्‍मृति के अनुसार गांधी जी के जमाने से शुरू हुआ है। मैं गलत ही हूं, ऐसा मान रहा हूं।
शब्‍द कोई भी हो अपनी शक्ति से वाक्‍यों को मजबूती प्रदान करते हैं। जबकि इसके अपवाद चिल्‍लाहटों, बुक्‍का फाड़ के हंसने और धमाके रूपी क्रियाएं हैं जिनमें शब्‍द नहीं होते किंतु वे जड़ से हिला देते हैं। यही स्थिति कार्टूनों के साथ होती हैं, उनमें से कईयों में वाक्‍य और शब्‍द अनुपस्थित होते हैं परंतु उनका असर हैरत में डाल देता है। सौ साल पुराने कार्टूनों का डरावना अहसास हाल ही में हुआ है और सुर्खियों में कार्टून बनाने वाले भी आए हैं। मेरी राय में कार्टूनों को अंटशंट बतलाना बिल्‍कुल गलत है।
बिल्‍कुल इसी प्रकार अनशन शब्‍द का हो-हल्‍ला इतनी जोर से मचता है कि सरकारें हिल जाती हैं। अनशन माने अन्‍न से नाराज होना जबकि यह नाराजगी अन्‍न से न होकर अन्‍याय से होती है। अन्‍याय के लिए आजकल सत्‍ता और सरकारें खूब प्रसिद्धि पा रही हैं और बदहवासी में अंटशंट करतूतों को अंजाम दे रही हैं किंतु इनसे पब्लिक को मुक्ति दिलवाने के लिए समय-समय पर संतों का आर्विभाव होता है। खाना छोड़ना मतलब जनहित में प्राण देने के लिए तत्‍पर होना।  अन्‍ना और बाबा रामदेव ने इसमें तीव्र भूकंप की स्थिति पैदा की है जिससे सरकारें बेभाव के हिली हैं और उन्‍हें अपने अस्तित्‍व पर आए खतरे से डर लगने लगा है। आज सरकारें अनशन के नाम पर कंपकंपाने लग जाती हैं और तुरंत अंटशंट बक जाती हैं।
फिर लुभावने प्रयासों द्वारा येन केन प्रकारेण अनशन तुड़वाना ही सरकारों का एकमात्र ध्‍येय रह जाता है। मैं भी अनशन के प्रति अब गंभीर हो गया हूं। सोच रहा हूं एक घंटे वाला अनशन रख लूं जिससे बेखर्च के एक गिलास मौसमी का ज्‍यूस फ्री में‍ किसी विशिष्‍ट हस्‍ती के हाथों में थामे गिलास से पीकर अनशन को तोड़कर सुर्खियां पा लूं। चिंतन से भी मुझे मौसमी के ज्‍यूस से अनशन तुड़वाने के पीछे का रहस्‍य समझ नहीं आया क्‍योंकि मुझे अनार का ज्‍यूस पसंद है। मेरा विचार है कि अनार का ज्‍यूस अनशन तोड़ने के मामले में अनार के पीछे चिपकी नार और ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली स्थिति के कारण पसंद नहीं किया जा रहा है। अनार का ज्‍यूस पीने वाला खुद बीमार होगा, अपने साथ के निन्‍यानवै साथियों को भी बीमार करेगा।
अनार शब्‍द के साथ नार के चिपके होने के कारण नर इसे नारीवादी बतलाकर इसे पीने से परहेज करते हैं तो इसमें हैरानी कैसी, जबकि मौसमी का कूल स्‍वभाव प्रत्‍येक मौसम और किसी भी वय के लोगों के लिए सदैव हितकर रहता है। आप तो अनशन करने पर तुड़वाने के लिए मौसमी का ज्‍यूस पीना ही पसंद करेंगे न।

गरीबी का लाभ मुफ्त मोबाइल : दैनिक जनवाणी 22 अगस्‍त 2012 अंक में 'तीखी नजर' स्‍तंभ में प्रकाशित


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सरकार गरीबों को फ्री में मोबाइल बांटकर उनकी इज्‍जत के सिग्‍नल डाउन करना चाह रही है अथवा उनसे ‘गरीबी’ का रुतबा छीनकर, देश को विश्‍व के समक्ष विकसित देशों के समकक्ष दिखलाने के जुगाड़ में जुट गई है। गेहूं, चावल, किरोसीन और लोन बांटने से तो गरीबों की गरीबी दूर नहीं हो पाई है। इसलिए इस बार मोबाइल बांटने की जुगत भिड़ाई है। अब सवाल यह है कि क्‍या सरकार स्‍मार्ट फोन बांटेगी या आर्डीनरी मोबाइल, जिनसे बात करने में भी गरीबों को खासी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसे मुफ्त में आफत गले पड़ना कहा जाएगा। अगरचे स्‍मार्ट फोन होगा तो उन्‍हें फेसबुक की लत पड़ जाएगी और वे अपनी दिहाड़ी से भी जाएंगे और जल्‍दी ही अपनी जान गंवाएंगे। फेसबुक कोई ‘फेस’ देखकर रोटी नहीं दे रहा है। आप फेसबुक पर कितना ही श्रम कर लीजिए। चौबीसों घंटे जुटे रहिए, आपको कोई एक गिलास पानी के लिए भी पूछ ले तो कहिएगा। फेसबुक की उपयोगिता समय का खून करने में है, इसका उपयोग करने से बीमारी से बीमार के खून में भी इजाफा हो सकता हैं किंतु अगर आप यह सोच रहे हैं कि कोई आपको दो सूखी रोटी के लिए भी पूछ लेगा, तब आप मुगालते में जी रहे हैं। जबकि फेसबुक पर सभी प्रकार के व्‍यंजनों के मनमोहक चित्रों की भरमार तो मिलेगी लेकिन उन्‍हें देखने से भूख नहीं मिटा करती है।

लगता है सरकार यह सोच रही है कि मैसेज पढ़कर और काल सुनकर भूख और प्‍यास का इंतकाल हो जाएगा और गरीब जान देने से बच जाएगा। अभी यह भी नहीं मालूम कि कौन से बजट से सरकार इनका इंतजाम करेगी। कितने टैक्‍स बढ़ाएगी, कितनी वस्‍तुओं के सेवाकर में बढ़ोतरी करेगी या चालान अथवा टोल टैक्‍स की राशि एकदम से बढ़ा देगी। सरकार बिजली नहीं दे रही है, सिर्फ गरीबों में मोबाइल फोन बांट रही है जबकि सब जानते हैं कि बिना बिजली के इन फोनों की कोई उपयोगिता नहीं है क्‍योंकि निष्‍प्राण फोन पर आने से मिस काल भी कतराती है। यह भी हो सकता है किसी घोटाले और घपलेबाज इन फोनों को स्‍पांसर कर रहे हों ताकि सरकार उनका खास ख्‍याल रख सके और यह भी संभव है कि फोनों को बांटने में खरीदने से लेकर ही घपले तथा घोटाले शुरू हो जाएं। संभावनाएं खूब सारी हैं लेकिन यह तो पक्‍का है गरीब की गरीबी जब गेहूं, चावल और लोन पाकर नहीं मिट सकी है तो मोबाइल फोन पाकर मिट सकेगी, इस बात की तनिक भी संभावना नहीं है।

फिर सरकार और करे भी क्‍या जब वोटों को हथियाने के लिए इस तरह के हथकंडे ही काम में लाए जाते हैं फिर समय के हिसाब से तो बदलना ही होगा। अब कोई भी आसानी से चावल, गेहूं, किरोसीन अथवा राशनकार्ड लेकर के अपने वोट हड़पने नहीं देता है। वोटर भी जान गया है कि आज का युग तकनीकी का है और मोबाइल सारी तकनीक का बाप। जी हां, फादर ही कहा जाएगा मोबाइल को। आजकल यह सभी गुणों से युक्‍त है। इसके जितनी खूबियां अन्‍य किसी उपकरण में नहीं पाई जाती हैं। पीसी लोगे तो फोन नहीं कर पाओगे, प्रिन्‍टर लोगे तो स्‍कैन नहीं कर पाओगे, स्‍कैनर लोगे तो फोटो नहीं खींच पाओगे – यह बतलाने के मायने हैं कि सब एक दूसरे पर अवलंबित हैं। जबकि एक स्‍मार्ट फोन इन और अन्‍य सभी खूबियों में अपने लघुतम स्‍वरूप में समेटे हुए सबको लुभा रहा है।

जिसने स्‍मार्ट फोन ले लिया, समझ लीजिए उसे बिजली के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी बाहरी उपकरण की जरूरत नहीं है। बिजली रूपी आत्‍मा मोबाइल रूपी परमात्‍मा से मिलकर प्रत्‍येक इंसान का बेड़ा पार कर रही है। ऐसे में इंसान अगर मोबाइल पाकर खुद को खुदा समझने लग गया है तो इसमें तनिक भी अतिश्‍योक्ति इसलिए नहीं है क्‍योंकि वह सीसीटीवी अपने घर अथवा आफिस में लगवाकर दुनिया की किसी भी जगह से सब पर नजर रख सकता है और यह काम इंसान या तो खुदा की मदद से कर सकता है अथवा ईश्‍वर के साथ मिलकर अपनी हसरतों को खूबसूरत अंज़ाम तक पहुंचा सकता है।
सरकार चाहे गरीबों में मोबाइल फोन बांटे या पीसी, लैपटाप अथवा कैमरे लेकिन इतना तो तय है कि महंगाई की सौत गरीबी का खात्‍मा किसी भी सरकारी दान से नहीं किया जा सकता। हां, ये जरूर संभव है कि इस नेक कार्य से जुड़े अनेक अमीर लोग और अमीर बन जाएं और नेता चुनाव लड़कर मंत्री से पीएम और राष्‍ट्रपति बनने की कवायद में जुट जाएं। यह अमीर होने का नुकसान ही है कि उन्‍हें फ्री के मोबाइल मिलने के लुत्‍फ से वंचित रहना होगा। वैसे भी अमीर होने के तो नुकसान ही नुकसान है और गरीब होने पर खूब सरकारी माल मिला करता है, क्‍या हुआ जो बदले में पांच साल में सिर्फ एक बार अपना वोट देना पड़ता है ?

रायता फैलाना हमारी आज़ादी है : डीएलए 20 अगस्‍त 2012 में प्रकाशित



हम भारतवासियों को तिरंगा फहराने की आजादी मिल गई है लेकिन उतने से संतोष नहीं है। इसलिए प्रत्‍येक क्षेत्र में आज देश भर में सब बड़े बड़े लोग रायता फैलाने में जुट गए हैं। एक साल से अधिक हो गया है अन्‍ना को जंतर पर मंतर मारते हुए लेकिन वे ‘लोकपाल’ का रायता फैलाने से सरकार को नहीं रोक पा रहे हैं। जबकि सरकार उनका रायता पूरी तरह फैला चुकी है। उधर बाबाराम (रामदेव) यह समझाने-बतलाने में जुटे हुए हैं कि उनका रायता अलग वैरायटी का है, पब्लिक के लिए हितकर है, गुणकारी है लेकिन सरकार उसे भी फैलाने से बाज नहीं आ रही है। लग रहा है कि सरकार का भी एक काम रायता फैलाने का रह गया है। जबकि रायतानिर्माताओं और धारकों ने अपने बरतनों, लोटों में मजबूत पेंदों की व्‍यवस्‍था कर ली है। फिर भी ताकतवर सरकार उनके रायते को लुढ़काने में हर बार कामयाब हो जाती है। सब जानते हैं कि रायता पेट के लिए हितकर होता है। इसका मूल स्‍वरूप दही और दही का मूल रूप दूध है। इन सबका रंग सफेद है तो अपनी मरजी से सरकार चलाने वाले ‘सफेदपोश’ भला किसी के रायते को सुरक्षित कैसे रहने देंगे, इसलिए यह कहकर लुढ़का देते हैं कि जिस दूध का रायता बनाया जा रहा है, वह मिलावटी है, सर्फ और रिफाइंड से बनाया गया है।
क्रिकेट जैसे महाखेल में जब से फिक्सिंग का रायता फैलना शुरू हुआ तब खूब हो-हल्‍ला मचा लेकिन रायता फैलाने का यह काम सिर्फ देश में ही नहीं होता है। यह कार्य खिलाड़ी ओलंपिक जैसे आयोजनों के नाम पर विदेशों में जाकर खेलों में शामिल होकर और ओलंपिक न जीतकर देश के रायते को विदेशों में फैलाने का मोह भी नहीं छोड़ पा रहे हैं तथा हारने के बाद भी हार पहनकर खुशी-खुशी आजादी का जश्‍न मना रहे हैं।  देश में नेता इस फील्‍ड में न जाने कब से बाजी मार कर रिकार्ड बना रहे हैं। प्रत्‍येक कार्य में घपले-घोटाले करके नेता खूब खा-कमा रहे हैं। अभी हाल ही में नेताओं के रायता फैलाने की खबरें खूब प्रमुखता से सुर्खियों में हैं। जिसमें एक ओर फिजा ने चन्‍द्रमोहन ऊर्फ चांद मोहम्‍मद का रायता फैला दिया है, उधर गीतिका ने गोपाल कांडा का रायता इतनी बुरी तरह से फैलाया है कि गोपाल को गो गो गो करके फरार होना पड़ा है । जब अपनी जान और आन सांसत में हो तब आम आदमी तो सांस लेना भूल जाता है किंतु नेता तब भी दूसरों का सांस लेना दूभर करने में सफल हो जाते हैं।  विदेशी बैंको में ‘काला धन’ जमा करके भी देश की आजादी का रायता न जाने कब से फैलाया जा रहा है। फैल फैल कर रायता काला हो गया है जिसे वापिस सफेद करने के लिए बाबा रामदेव प्रयासरत हैं।
सरकार का कहना है कि जब देशवासियों को कपालभाति, भ्रामरी इत्‍यादि प्राणायाम करने की आजादी मिली हुई है फिर बाबा रामदेव क्‍यों काले धन पर सरकार का रायता फैलाने का मोह नहीं तज पा रहे हैं। जब पतंग उड़ाने की आजादी मिली हुई है फिर क्‍यों सब लोग पतंग न उड़ाकर बाबा रामदेव के साथ काले धन का काला रायता फैलाने की मूर्खतापूर्ण हरकतों को अंजाम दे रहे हैं।   
रायता फैलाने की आजादी से पहले रायता बनाने की आजादी पर विचार करना चाहिए लेकिन जरूरी नहीं कि दोनों आजादियां एक के पास ही हों। रायता कोई बनाए और उसे दूसरा फैलाए तो रायता फैलाने में, लाने से अधिक लुत्‍फ आता है। स्थिति यह है कि आजादी के 66वें बरस में आकर देश ने अपनी का‍बलियत में इजाफा करके ‘रायता’ फैलाने में विशेषज्ञता हासिल कर ली है। आप जान लीजिए कि जिस वस्‍तु की अधिकता होती है, वही बांटी या फैलाई जाती है। बचाने से अधिक फैलाने में मजा आता है। रायता फैलने से बचाने के लिए मेरीकॉम जैसी बॉक्‍सर के मुक्‍कों जैसी हिम्‍मत चाहिए, सो कोई तैयार नहीं है। चाहे पड़ा पड़ा खराब हो जाए, खराब होने के बाद फैलाने वाले का इंतजार करते रहते हैं। आप देख रहे हैं कि आज देश का रायता खराब हो चुका है लेकिन उसे फैलाने से बचाने का पब्लिक को मौका नहीं मिल रहा है। रायता फैलाने के लिए नेता खूब तल्‍लीन हैं। रायता फैलाने पर भी जिनका सम्‍मान किया जाता है, वे भी नेता ही होते हैं।
आजादी के इस 66वें पड़ाव पर विचार किया जाना चाहिए कि एकदम से रायता सुर्खियों में कैसे आ गया है। दरअसल, आज हर नकारात्‍मक चीज तुरंत सुर्खियों में आ जाती है, जैसे गालियां चर्चा में हैं, सेक्‍स की बात करके टीआरपी बढ़ाई जा रही है। कितनी ही देशभक्‍त कन्‍याएं खुद नंगी होकर देश को नंगा कर रही हैं। इसी प्रकार बात-बेबात में रायते का जिक्र करके, रायते को देश की समस्‍याओं के लिए जिम्‍मेदार ठहराने का शुभ अवसर कोई नहीं चूकता है। हालत यह हो गई है कि ‘रायता’ सिर्फ ‘दही’ का ही नहीं बनता। किसी भी समस्‍या का रायता बनाकर फैला दिया जाता है। अपने सिवाय किसी का भी रायता हो, उसे ही फैलाने में आनंद की प्राप्ति होती है जिसे सब लूटना चाह रहे हैं।  
यह कहना गलत नहीं है कि जो देश दूध दही की नदियों के लिए फेमस था, वह आज रायते के समन्‍दर के लिए प्रख्‍यात हो चुका है। जिधर देखो उधर रायता। मानो बरसात के पानी में सर्फ, सोडा, रिफाइंड तेल इत्‍यादि डालकर उसे दूध, मतलब मिलावटी दूध में तब्‍दील कर लिया गया हो, फिर उसका रायता बनाकर देश भर में फैला दिया हो। देश में आज रायते की नदियां उफान मार रही हैं और लोग उह ... लाला .... उह ... ला ... ला ... गा रहे हैं। जिन राज्‍यों में समन्‍दर हैं, वहां रायते अनाकरली के डिस्‍को में मगन हैं, चारों ओर रायता ही रायता है। हालत यह हो गई है कि नलों में से पानी की जगह रायता, पैट्रोल पंपों में पैट्रोल/डीजल/गैस की  बजाय रायते की नदियां बह रही हैं। नलकों के लिए बाल्टियां, ड्रम, गिलास, कटोरी लगाकर भर तो रहे हैं परंतु उसे पीने के लिए नहीं, फैलाने के लिए उपयोग कर रहे हैं।
कोई भी अपना रायता खुद नहीं फैलाता है बल्कि उसे दूसरे को फैलाने का अवसर देकर पुण्‍य हासिल कर रहा है। अब यह दीपावली पर फोड़ने-जलाने वाली आतिशबाजी तो है नहीं कि जब तक खुद माचिस की तीली या मोमबत्‍ती की लौ में सुलगाएंगे नहीं, आनंद ही नहीं आएगा। दीवाली मनाने के लिए तीली के जरिए फुलझड़ी, बम, पटाखों का खुद सुलगाना ही आनंद देता है और उसका आनंद दूना तब हो जाता है जब आवाज पड़ोसी सुन रहे हैं और तिगुना मजा लेने के लिए आतिशबाजी को वर्जित समय में गाया-बजाया जाता है।
आजादी के इस अवसर पर पूरा राष्‍ट्र रायतामय हो गया है। सिर्फ कुछ जगहों पर अभी भी बरसात का बदबूदार पानी हिलोंरे ले रहा है। जैसे इंडिया गेट के पास बनाई गई नहरों में जो पानी की लहरें हैं, वे न जाने क्‍यों अभी तक ‘रायता’ क्‍यों नहीं बन पाई हैं। हो सकता है कि इनका ठेका दिया जाना हो और उन ठेकों से किसी मंत्री को ‘काला धन’ मिलने का मंतर मिलने वाला हो। लगे कीबोर्ड आपको रहस्‍य की बात बतलाता चलूं कि जिस रायते का यहां पर जिक्र किया जा रहा है, वह ‘सफेदपोश’ नहीं है बल्कि एकदम ‘स्‍याह काला’ है।
काले रायते का जिक्र सुनकर आप चौंकिएगा मत, जब देश मंत्रियों के व्‍यभिचार से नहीं चौंकता फिर आपका चौंकना कैसे जायज करार दिया जा सकता है। आजादी मनाइए परंतु चौंकने की आजादी बिल्‍कुल नहीं है आपको। हां, आप आजादी का रायता फैलाने के लिए बिल्‍कुल आजाद थे, आजाद हैं और सदा आजाद रहेंगे। आज यह महसूस हो रहा है कि ‘रायता फैलाना हमारी जन्‍मसिद्ध आज़ादी है’।

ओबामा ने मक्‍खी मारी : हैलो हिन्‍दुस्‍तान पाक्षिक पत्रिका इन्‍दौर 15 अगस्‍त 2012 अंक में प्रकाशित

अनशन बनाम अंटशंट ! : दैनिक ट्रिब्‍यून 19 अगस्‍त 2012 'खरी-खरी' स्‍तंभ में प्रकाशित


दैनिक ट्रिब्‍यून का वह पन्‍ना यहां पर खुलेगा जिस पर आलेख मौजूद है। मुझे क्लिक करने पर जिस लेख को पढ़ना चाहें उसे भी अवश्‍य क्लिक कीजिएगा।


अनशन शब्‍द को तनिक भी बेध्‍यानी में सुनो तो अंटशंट सुनाई देता है। अनशन और अंटशंट शब्‍द खूब लुभा रहे हैं। सरकारें जब अंटशंट कारनामे करती हैं तब अनशन करना अनिवार्य हो जाता है। अंटशंट का प्रतिकार अनशन के सिवाय किसी और तरीके से संभव नहीं है। अनशन शब्‍द का उत्‍पादन मेरी स्‍मृति के अनुसार गांधी जी के जमाने से शुरू हुआ है। मैं गलत ही हूं, ऐसा मान रहा हूं। मैंने गांधी जी को सुना नहीं है किंतु गांधीगिरी के शोर से अच्‍छी तरह वाकिफ हूं।
शब्‍द कोई भी हो अपनी शक्ति से वाक्‍यों को मजबूती प्रदान करते हैं। जबकि इसके अपवाद चिल्‍लाहटों, बुक्‍का फाड़ के हंसने और धमाके रूपी क्रियाएं हैं जिनमें शब्‍द नहीं होते किंतु वे जड़ से हिला देते हैं। यही स्थिति कार्टूनों के साथ होती हैं, उनमें से कईयों में वाक्‍य और शब्‍द अनुपस्थित होते हैं परंतु उनका असर हैरत में डाल देता है। सौ साल पुराने कार्टूनों का डरावना अहसास हाल ही में हुआ है और सुर्खियों में कार्टून बनाने वाले भी आए हैं। इन्‍हें हटाने के लिए सरकारें नादिरशाही पर उतर आई हैं और साहित्‍य में अभिव्‍यक्ति की अन्‍य विधाओं पर भी जोखिम नज़र आने लगा है। जबकि मेरी राय में कार्टूनों को अंटशंट बतलाना बिल्‍कुल गलत है। कार्टून त्‍वरित विमर्श के लिए प्रेरित करते हैं और तंज के साथ हंसाना उनके मूल में रहता है।
कार्टून से डरी सरकारें अब अनशन शब्‍द के हो-हल्‍ले से भयभीत हो जाती हैं। यह हल्‍ला इतनी जोर से मचता है कि सरकारें हिल जाती हैं। अनशन माने अन्‍न से नाराज होना जबकि यह नाराजगी अन्‍न से न होकर अन्‍याय से होती है। सब अन्‍ना के लिए सारे ठठाकर्म करते हैं। अन्‍न से तो कभी कोई जानवर भी नाराज होता नहीं देखा गया है। बल्कि धार्मिक लोग भी भजन से पहले भोजन को वरीयता देते देखे गए हैं। उनके अनुसार भूखे पेट अंटशंट विचार और कार्य ही किए जा सकते हैं। सद्कार्यों को करने के लिए भोजन बहुत जरूरी है। अन्‍याय और अराजकता के विरोध के लिए अन्‍न का विरोध किसी भी तरह से जायज नहीं माना जा सकता है। अन्‍याय के लिए आजकल सत्‍ता और सरकारें खूब प्रसिद्धि पा रही हैं और बदहवासी में अंटशंट करतूतों को अंजाम दे रही हैं किंतु इनसे पब्लिक को मुक्ति दिलवाने के लिए समय-समय पर संतों का आर्विभाव होता है। कई अवसरों पर असंत भी चतुरता बरतते हुए ऐसे उपाय अपना लेते हैं। खाना छोड़ना मतलब जनहित में प्राण देने के लिए तत्‍पर होना।  अन्‍ना और बाबा रामदेव ने इसमें तीव्र भूकंप की स्थिति पैदा की है जिससे सरकारें बेभाव के हिली हैं और उन्‍हें अपने अस्तित्‍व पर आए खतरे से डर लगने लगा है। आज सरकारें अनशन के नाम पर कंपकंपाने लग जाती हैं और तुरंत अंटशंट बक जाती हैं।
फिर लुभावने प्रयासों द्वारा येन केन प्रकारेण अनशन तुड़वाना ही सरकारों का एकमात्र ध्‍येय रह जाता है। मैं भी अनशन के प्रति अब गंभीर हो गया हूं। सोच रहा हूं एक घंटे वाला अनशन रख लूं जिसे जरूरत होने पर दो घंटे तक बढ़ाया जा सके क्‍योंकि इससे अधिक मेरे शरीर की सामर्थ्‍य नहीं है। मेरे शरीर पर डायबिटीज ने अपने मीठे पंजे गड़ा रखे हैं और वे मिठास का नहीं, कड़वाहट का ही अहसास कराते हैं। जिससे बेखर्च के एक गिलास मौसमी का ज्‍यूस फ्री में‍ किसी विशिष्‍ट हस्‍ती के हाथों में थामे गिलास से पीकर अनशन को तोड़कर सुर्खियां पा लूं। चिंतन से भी मुझे मौसमी के ज्‍यूस से अनशन तुड़वाने के पीछे का रहस्‍य समझ नहीं आया है क्‍योंकि मुझे अनार का ज्‍यूस पसंद है पर अनार की मेरी पसंद पर मेरा कब्‍जा डायबिटीज ने क्षीण कर दिया है। मेरा विचार है कि अनार का ज्‍यूस अनशन तोड़ने के मामले में अनार के पीछे चिपकी नार और ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली स्थिति के कारण पसंद नहीं किया जा रहा है। अनार का ज्‍यूस पीने वाला खुद बीमार होगा, अपने साथ के निन्‍यानवै साथियों को भी बीमार करेगा। वैसे भी मीठे को देखकर मुझे डर लगने लगता है। यहां पर मेरी यह थ्‍योरी भी फेल हो जाती है कि ‘मुझे किसी से डर नहीं लगता है।‘ इसलिए मैं मानता हूं कि मैं मीठे के सिवाय किसी से बिल्‍कुल नहीं डरता हूं।
अनार शब्‍द के साथ नार के चिपके होने के कारण नर इसे नारीवादी बतलाकर इसे पीने से परहेज करते हैं तो इसमें हैरानी कैसी, जबकि मौसमी का कूल स्‍वभाव प्रत्‍येक मौसम और किसी भी वय के लोगों के लिए सदैव हितकर रहता है। आप तो अनशन करने पर तुड़वाने के लिए मौसमी का ज्‍यूस पीना ही पसंद करेंगे न।

सभी सांसद चोर-उचक्‍के नहीं हैं : शुक्रवार पत्रिका के 23 अगस्‍त 2012 अंक में 'टेढ़ी नज़र' स्‍तंभ में प्रकाशित




सभी सांसद चोर उचक्‍के नहीं हैं और मैंने सबको चोर उचक्‍का  कहा भी नहीं है। मीडिया ने हंगामा मचा दिया जिससे सारे सांसद नाराज हो गए। वैसे भी यह तो साफ जाहिर है कि जब सारे बलात्‍कारी नहीं हो सकते तो सारे चोर उचक्‍के कैसे हो सकते हैं। उसी प्रकार सारे बाबा किरपा नहीं बरसाते। कुछ की किरपा तो सदा खुद पर ही बरसती रहती है। देखने वाला सोचता रहता है कि किरपा उस पर बरस रही है जबकि बरस व लौटकर बरसाने वाले पर ही रही होती है। इसी प्रकार सारे साधु, स्‍वादु नहीं कहे जा सकते, एक प्रकार से कहा भी जा सकता है क्‍योंकि सभी साधुओं को चरस, गांजे, भंग में स्‍वाद नहीं आता है जबकि कुछ तो इनके बिना स्‍वाद नहीं आता है। जिनको इनमें स्‍वाद नहीं आता है वह आपको गुटका, पान, तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट का सेवन करने देखे जा सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि साधु हैं तो दारू का स्‍वाद नहीं लेंगे। आखिर आनंद की प्राप्ति के लिए साधु चोला धारण किया है और उस चोले में भी मजा नहीं पाया तो किस बात के साधु मतलब स्‍वादु। कितने ही साधुओं को तो भीख मांगने में असीम आनंद आता है। अब अगर उनकी पोल खोली जा रही है तो किसी सांसद को एतराज नहीं है। सांसदों की सच्‍चाई के बारे में जब भी जनता को बतलाने की कोशिश की जाती है तो वह ऐसे हाय तौबा मचाने लगते हैं, मानो दूध पीते बच्‍चे हों और उनके दूध के दांत अभी टूटे नहीं हों। जबकि उनके दूध तो दांत छोडि़ए, चाय के दांत भी नहीं बचे हैं और अब उनके सभी दांत दारू के दांत बनकर आवाम के सामने बहुत ही दुर्गंधयुक्‍त बेशर्मी से खिलखिला रहे हैं। इस पर किसी को तनिक भी एतराज नहीं है।
साधुओं को तो सांसद न जाने कब से स्‍वादु, ढोंगी, कपटी, चरसी और न जाने क्‍या क्‍या कहते रहते हैं, कभी कभार एकाध साधु नारी शक्ति का स्‍वाद लेते हुए पकड़ा जाता है तो उसे पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जाता है। जब भगवान के सीधे सच्‍चे प्रतिनिधि साधु के लिए ऐसे नियम सर्वमान्‍य हो सकते हैं तो सांसदों के लिए क्‍यों नहीं, क्‍या वे सृष्टि की परम सत्‍ता से भी ऊपर हैं। संसद को कोई भगवान या देवता तो चला नहीं रहे हैं। फिर सभी सांसदों की गारंटी क्‍यों ली जा रही है, एक को कुछ कहा जाता है, तो सब समवेत स्‍वर में गीत गाना शुरू कर देते हैं, बिना यह जाने कि इस प्रकार के गीतों की असलियत से अब जनता पूरी तरह वाकिफ हो चुकी है।
मैं मानता हूं कि मेरे से भूल हो गई है लेकिन अगली दफा मैं इस प्रकार की गलती नहीं करूंगा। मैं भी कोई भगवान तो हूं नहीं, हूं तो आपकी तरह इंसान ही, इंसान से गुरु ही तो बन रहा हूं, गुरुघंटाल तो नहीं बनना चाह रहा हूं। भविष्‍य में सांसदों को चोर-उच्‍क्‍का नहीं कहूंगा बल्कि यह बयान दूंगा कि सभी सांसद चोर उचक्‍के नहीं हैं, तब तो आपमें से किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी न। आपकी खुशी का मैं अपने आगामी बयानों में पूरी तरह ध्‍यान रखूंगा। आखिर आप भी ‘सा’ से सांसद हैं और हम भी ‘सा’ से साधु हैं। अब अगर ऐसे में कुछ किरपा बरसाने वाले खुद को खुदा घोषित करके वे अपनी अलग कैटेगिरी ‘बाबा’ की हथिया चुके हैं। वैसे भी ‘बाबा’ शब्‍द के उच्‍चारण से मन निर्मल हो जाता है, एक पारिवारिक अटूट भावना नजर आती है।
अब तो ऐसा महसूस होने लगा है कि हम साधुओं को भी नेताई गुणों का विकास करना होगा। वरना शातिर नेता हमें कहां सामान्‍य वस्‍त्रों में जीने देंगे और हमें बार बार इनसे बचकर लेडीज सूट, साड़ी, सलवार, जींस, टॉप इत्‍यादि पहनकर ही अपनी जान बचानी होगी। वैसे भी मीडिया तो चाहता है कि हम वस्‍त्रविहीन हो जाएं और वह सारी दुनिया को दिखलाकर कमाई करता रहे। सारी दुनिया आपस में उलझती फिरे और वह फिर कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने  कमाई करता रहे।  अपनी टीआरपी बढ़ाकर अपने दर्शकों पर कहर ढाता रहे। कभी वे नक्‍सली का मुद्दा उछाल देते हैं, कभी नुपूर तलवार पर वार करते दिखाई देते हैं, कभी निर्मल बाबा को तलाश लेते हैं और जब हर तरफ से निराश हो जाते हैं तब मेरे जैसे सीधे साधे सच्‍चे योगगुरु को अपना चेला बनाने के लिए जाल बिछाने लग जाते हैं। फिर यह तो पुराने घाघ हैं, मैं यह सांसदों को नहीं कह रहा हूं बल्कि मीडिया और चैनल वालों को कह रहा हूं। अब अगर इसको भी चैनल वाले तोड़-मरोड़कर सांसदों के खिलाफ साबित कर देंगे तो मैं साधु क्‍या कर लूंगा, सांसद मेरे बयान पर चिल्‍लाते रहेंगे और मीडिया वाले अपनी टीआरपी बढ़ाने के साथ उन्‍हें बार बार चैनल पर अड़तालीस घंटे दिखलाते रहेंगे।
क्‍या अब भी सांसदों को मेरे से कोई शिकायत है, मैं अपनी गलती मानते हुए फिर से कह रहा हूं कि सभी सांसद चोर-उचक्‍के नहीं हैं ?



ओलंपिक में कुश्‍ती की धींगामुश्‍ती : नवभारत 15 अगस्‍त 2012 में प्रकाशित


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ओलंपिक खेलों में कुश्‍ती के लिए चांदी जीतकर सुशील कुमार ने प्रत्‍येक भारतवासी का मन सोना-सोहना कर दिया है। जबकि खेलों में शामिल होने के लिए ‘कुश्‍ती’ के निराले खेल राजनीति में रोजाना दिखाई दे रहे हैं। ओलंपिक में हमारे पहलवान ने कुश्‍ती में चांदी जीत ली है इससे राजनीतिज्ञ मायूस हो गए हैं क्‍योंकि वे तो रोजाना ‘संसद में कुश्‍ती’ खेलते हैं। फिर भी न तो उनको चांदी मिलती है और न इतनी सारी सुर्खियां, न ओलंपिक जैसे खेलों में उनको शामिल होने के लिए सरकारी दौरे को मंजूरी ही मिलती है। उनकी कुश्‍ती से प्रभावित होकर कहीं दीपावली भी नहीं मनाई जाती है।
खेलों में कुश्‍ती की पुरानी परंपरा रही है। कुश्‍ती की खासियतों से प्रभावित होकर अब अन्‍य क्षेत्रों में भी कुश्तियां जारी हैं। रोज ही आप कुश्‍ती की सगी बहन धींगामुश्‍ती के अजूबों से दो-चार-छह होते रहते हैं। खेलों में ‘कुश्‍ती की धींगामुश्‍ती’ पर लिखने के लिए खूब सारी संभावनाएं हैं। ओलंपिक में सरकारी मेहमान बनकर शामिल होने के लिए ‘खिलाड़ी’ सभी उपाय अपनाते हैं, जो खेलों में जाने की मंजूरी पा जाते हैं, वे खिलाड़ी और बाकी अनाड़ी साबित हो जाते हैं। जबकि खेलों में शामिल होने के लिए सिफारिश से लेकर नोटों तक की बारिश करने के लिए तैयार रहते हैं। खेलों में कुश्‍ती की शुरूआत यहीं से मानी जा सकती है।
‘सच्‍चे खिलाड़ी’ चाहे लाख कोशिश करते रहें किंतु वे अपनी सच्‍चाई के बल पर ओलंपिक में शामिल नहीं हो पाते। शामिल नहीं हो पाते इसलिए चांदी सोने और कांस्‍य के मिलने से वंचित रह जाते हैं। इसी खूबसूरत कुश्‍ती के चलते न जाने कितनी प्रतिभाएं गुमनामी के भंवर में घूम गई हैं, जिनमें से बहुत सारी तो डूब गई हैं। कोई सड़क के किनारे खड़े होकर छोले-भटूरे बेच रहा है, तो कोई चाय का ठिया चला रहा है, अब उस खिलाड़ी में इतनी ताकत भी नहीं बची है कि वह कुश्‍ती में शामिल होने के ख्‍वाब भी देख सके, शामिल होकर खेलना ‘दूर की कुश्‍ती’ है।
खिलाड़ी से पहले इस प्रकार के समारोहों में भाग लेने के लिए सबसे अधिक उतावले हमारे चयनित प्रतिनिधि रहते हैं। फिर मंत्रालयों के अधिकारी शामिल होने के लिए जुगाड़ भिड़ाते रहते हैं। इन सबकी कोशिशें सपरिवार जाने की होती हैं। मानो, इनके न शामिल होने से खेलों का आयोजन खटाई में पड़ जाएगा। इनमें एक और नई श्रेणी इन दिनों उजागर हुई है, घपले-घोटाले करने के बाद भी खेलों में शामिल होने के उनके द्वारा की जारी ‘कुश्‍ती’ प्रशंसनीय रही है। संसद और विधानसभाओं में तो रोजाना ‘कुश्‍ती के जौहर दिखलाने का मौसम’ बना रहता है।
कुश्‍ती विधा की देश को प्रत्‍येक क्षेत्र में खासी जरूरत है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आप इंकार करेंगे तब भी कुश्‍ती विधा, किश्‍ती बनकर तैरते हुए डूबने से तो रही। कुश्‍ती को आप हाकी, बैडमिंटन, बॉलीबाल अथवा क्रिकेट मत समझ लीजिएगा जबकि कुश्‍ती का व्‍यापक असर इन खेलों पर भी पड़े बिना नहीं रहा है।
जहां भी जब भी खेलों का आयोजन होता है, वहां पर सबको कुश्तियों का दिव्‍य-भव्‍य स्‍वरूप अवलोकित करने का अवसर मिलता है। इन कुश्तियों के दीदार के सामने, किसी भी खेल में खेलकर चांदी, सोना पाना भी कोई अहमियत नहीं रखता है। ‘कुश्‍ती का रोमांच’ बड़े-बड़े सभी प्रकार के मंचों पर आप रोज ही देखते हैं। आजकल ‘बाबाओं की कुश्‍ती’ जंतर पर अपना मंतर दिखला रही है, इससे तो आप इत्‍तेफाक रखते हैं न !

हिंदी ब्‍लॉगिंग में घूमने से कमाई : लीगेसी इंडिया अगस्‍त 2012 'ब्‍लॉगरी' स्‍तंभ में प्रकाशित


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चाहते हैं घूमना और घूमने से पहले ही घूमना। निश्चिंत रहें यह घूमना सुबह की सैर नहीं है, इस सैर से किसी को भी बैर नहीं है। विरले ही होते हैं जो घूमना नहीं चाहते, जानी-अनजानी जगहों पर जाने से परहेज करते हैं। जो घूमने को सिर्फ पर्यटन के नाते पहचानते हैं और एक महंगा शौक मानते हैं, वे भी अब घूमने के लिए तैयार हो जाएं। हिंदी ब्‍लॉगिंग के आगमन के साथ ही घूमने का एक नया तरीका विकसित हुआ है जिसका अवलोकन आप हिंदी ब्‍लॉगर नीरज जाट के लोकप्रिय और चर्चित ब्‍लॉग ‘मुसाफिर हूं यारो’ पर कर सकते हैं। वैसे तो सारा जीवन ही भ्रमण है। भ्रमण घनचक्‍करी नहीं है। भ्रमण इस सृष्टि पर है, पृथ्‍वी पर है जबकि मन की उड़ान के लिए तैयार सारा जहान है। जहां नहीं जा सकते, चांद, सितारे, चन्‍द्रमा, मंगल, शुक्र, पाताल, आकाश, वहां पर खोज करने के बहाने मानव ने घूमने की तकनीक विकसित कर ली है। कल्‍पना की उड़ान से बेहतर पर्यटन और भ्रमण का कोई मुकाबला नहीं है। घूमने वाले तो सपनों में भी घूम लेते हैं। इसे कहते हैं‘मन के जीते जीत है’ और यह जीत ही है, जिसमें किसी प्रकार की हार नहीं है।
नीरज अपने ब्‍लॉग पर रेल से घूमने का विवरण और उन जगहों के नक्‍शे पूरे विस्‍तार के साथ अपने ब्‍लॉग पर पेश करते चलते हैं और सबके मन में कौतूहल और जज्‍बे की आग लगा देते हैं। आग उन स्‍थानों को घूमने की, जहां जाने का मन होता है परंतु जानकारी नहीं होती। अखबार में पढ़ा है, सहेजा नहीं। अब इन दिक्‍कतों से पार पाने के लिए आप बेहिचक (http://neerajjaatji.blogspot.in/) दौड़े चले आइए और अपने घूमने के सपने को बुलंदियों का आकाश घुमाइए।
जब नीरज कहते हैं कि ‘’घुमक्कड़ी जिंदाबाद ... पर्यटन एक महंगा शौक है। समय खपाऊ और खर्चीला। जबकि घुमक्कड़ी इसके ठीक विपरीत है। यहां पर आप देखेंगे किस तरह कम समय और सस्ते में बेहतरीन घुमक्कड़ी की जा सकती है। घुमक्कड़ी के लिये रुपये-पैसे की जरुरत नहीं है, रुपये -पैसे की जरूरत है टैक्सी वाले को,जरूरत है होटल वाले को। अगर यहीं पर कंजूसी दिखा दी तो समझो घुमक्कड़ी सफल है।‘’  तो यकीन मानिए वे बिल्‍कुल सच कह रहे हैं।
नीरज जहां घूमे हैं, उन स्‍थलों और राज्‍यों की सूची रेल की तरह लंबी है और जहां घूमने जाने वाले हैं, वह छोटी है’ इसी तरह का ध्‍यान धरकर वे खूब घूम रहे हैं और अपने पाठकों से अपने घुमक्‍कड़ी के अनुभवों को साझा कर रहे हैं। राजस्‍थान, हिमाचल प्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, जम्‍मू कश्‍मीर, उत्‍तराखंड इत्‍यादि स्‍थलों, मंदिरों, पहाड़ों के बेहतरीन संस्‍मरण और मौसम उनके ब्‍लॉग पर आपका बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। लेकिन आप किसकी प्रतीक्षा में हैं। अगर आप कमाई की सोच रहे हैं तो इससे आय भी होती है लेकिन उस रहस्‍य से रूबरू होने के लिए आपको अवश्‍य ही नीरज जाट के हिंदी ब्‍लॉग ‘मुसाफिर हूं यारो’ की यात्रा तो करनी ही होगी श्रीमान्।
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