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अन्ना
राजनीति में, राजनीति गन्ना है, गंडेरी नहीं, गौर कीजिएगा। गंडेरी सीधे दांतों
में चबाकर उसके रस का आनंद लिया जा सकता है जबकि गन्ने के सख्त छिलके को पहले
छीलना पड़ता है। गन्ने को यूं ही उठाकर डण्डे के माफिक भी मारा जा सकता है।
इसमें खाने वाले को (गौर कीजिएगा चबाने वाले को नहीं) चोट लगेगी, मारने में गन्ना
टूटने पर भी उपयोगिता कम नहीं होती। मीठे रस से भरपूर गन्ना बे-रस हो जाता है
किंतु राजनीति कभी बे-रस होकर बरसती नहीं, नीरस भी नहीं होती, संभावनाएं सदा जिंदा
रहती हैं।
आप
चाहे पक्ष में हों या विपक्ष में, पशु हों या पक्षी, राजनीति की कुशल नीतियां सबका
भला करती हैं। सबका भला करे भगवान, राजनीति भी सबका भला ही करती है। लाभ लेने का सबसे
सरल तरीका भ्रष्टाचार, जिसे देश में रोजाना त्यौहार की तरह मनाया जाता है।
नेताओं को ऐसे मौके तोहफे में प्रदान किए जाते हैं, जिससे वे घपले और घोटालों को
अंजाम देते हैं।
अन्ना
पहले भ्रष्टाचार के पीछे बिना भूख प्यास की चिंता किए दौड़े जा रहे थे, उन्हें
घोड़े की तरह राजनीति के पीछे पेट भर के दौड़ने की चुनौती दी गई है। अन्ना को यह
बोध हुआ कि जिसका खात्मा करना हो, उसे नज़दीक से जानना बहुत जरूरी होता है। रावण
को जानने-मारने के लिए राम ने विभीषण का सहारा लिया। राजनीति में पक्ष वा विपक्ष सब
एक-दूसरे के अवलंब होते हैं। ‘जो तेरा है वह मेरा है, जो मेरा है वह तेरा है, जो
तेरा है वह तेरा है, जो मेरा है वह मेरा है। इस तेरे मेरे की उलझन में कोई नहीं
मरा है। इस तेरे मेरे ने ही सबको तरा है।‘ सब राम बन गए हैं।
अब
देखना यह महत्वपूर्ण है कि अन्ना राजनीति में कौन से मीठे गुल खिलवाते हैं, लोकपाल
को लागू करवाते हैं या पहले की तरह ही लोक को पागल बनना होगा। पागल बनकर पब्लिक
जंतर मंतर पर इकट्ठा होना छोड़ देगी। अन्ना में राजनीति या राजनीति में अन्ना –
यह तराना बहुतों को लुभा रहा है। मलाई-राबड़ी
चाटने के सपने दिखलाई दे रहे हैं। विशिष्ट व्यक्तियों का पर्यावरण यूं ही हरा
नहीं होता, उसमें हरियाली लाने के प्रयत्न करने पड़ते हैं। जंतर पर भीड़ लगाकर
मंतर बहुत जोर से फूंका गया है।
अन्ना पर फूंका
गया मंतर मिशन इलेक्शन है। इस मंतर के प्रभाव से कई मंत्री बनेंगे, कितने ही
संतरियों के दिन फिरेंगे। आज गन्ने का रस निकाला जा रहा है। गन्ने के मजबूत
छिलके छीलने के बाद ही, संतरों के मुलायम छिलकों को छीलने के अवसर
मिलते हैं। आप छिलकों की उपयोगिता से परिचित हैं कि नहीं। बादाम के दाम यूं ही
नहीं बढ़ते हैं। छिलके वाले साबुत बादाम के दाम सबसे कम, छिलके रहित
बादाम के दाम अधिक और बादामगिरी के दाम आसमान छूते हैं। राजनीति बादामगिरी है।
पब्लिक इसे अन्नागिरी और गन्नागिरी तक ही पहचानती है। मालूम नहीं क्यों फिल्म 'रोटी' का यह लोकप्रिय
गीत राजनीति में ऐसे गठबंधनों की पोल खोलता दिखाई देता है। गीत के बोल हैं - ‘ये जो पब्लिक है सब जानती है, भीतर क्या है
बाहर क्या है, यह सब पहचानती है’। अगर पब्लिक सब
जानती-पहचानती होती तो अन्ना की गन्नागिरी के फेर में न उलझकर, नेताओं की
बादामगिरी की अहमियत पर सवाल न उठाती ? पाठकों, आप तो बादामगिरी
के सफर को पहचान चुके हैं न।
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