अनशन बनाम अंटशंट ! : दैनिक ट्रिब्‍यून 19 अगस्‍त 2012 'खरी-खरी' स्‍तंभ में प्रकाशित


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अनशन शब्‍द को तनिक भी बेध्‍यानी में सुनो तो अंटशंट सुनाई देता है। अनशन और अंटशंट शब्‍द खूब लुभा रहे हैं। सरकारें जब अंटशंट कारनामे करती हैं तब अनशन करना अनिवार्य हो जाता है। अंटशंट का प्रतिकार अनशन के सिवाय किसी और तरीके से संभव नहीं है। अनशन शब्‍द का उत्‍पादन मेरी स्‍मृति के अनुसार गांधी जी के जमाने से शुरू हुआ है। मैं गलत ही हूं, ऐसा मान रहा हूं। मैंने गांधी जी को सुना नहीं है किंतु गांधीगिरी के शोर से अच्‍छी तरह वाकिफ हूं।
शब्‍द कोई भी हो अपनी शक्ति से वाक्‍यों को मजबूती प्रदान करते हैं। जबकि इसके अपवाद चिल्‍लाहटों, बुक्‍का फाड़ के हंसने और धमाके रूपी क्रियाएं हैं जिनमें शब्‍द नहीं होते किंतु वे जड़ से हिला देते हैं। यही स्थिति कार्टूनों के साथ होती हैं, उनमें से कईयों में वाक्‍य और शब्‍द अनुपस्थित होते हैं परंतु उनका असर हैरत में डाल देता है। सौ साल पुराने कार्टूनों का डरावना अहसास हाल ही में हुआ है और सुर्खियों में कार्टून बनाने वाले भी आए हैं। इन्‍हें हटाने के लिए सरकारें नादिरशाही पर उतर आई हैं और साहित्‍य में अभिव्‍यक्ति की अन्‍य विधाओं पर भी जोखिम नज़र आने लगा है। जबकि मेरी राय में कार्टूनों को अंटशंट बतलाना बिल्‍कुल गलत है। कार्टून त्‍वरित विमर्श के लिए प्रेरित करते हैं और तंज के साथ हंसाना उनके मूल में रहता है।
कार्टून से डरी सरकारें अब अनशन शब्‍द के हो-हल्‍ले से भयभीत हो जाती हैं। यह हल्‍ला इतनी जोर से मचता है कि सरकारें हिल जाती हैं। अनशन माने अन्‍न से नाराज होना जबकि यह नाराजगी अन्‍न से न होकर अन्‍याय से होती है। सब अन्‍ना के लिए सारे ठठाकर्म करते हैं। अन्‍न से तो कभी कोई जानवर भी नाराज होता नहीं देखा गया है। बल्कि धार्मिक लोग भी भजन से पहले भोजन को वरीयता देते देखे गए हैं। उनके अनुसार भूखे पेट अंटशंट विचार और कार्य ही किए जा सकते हैं। सद्कार्यों को करने के लिए भोजन बहुत जरूरी है। अन्‍याय और अराजकता के विरोध के लिए अन्‍न का विरोध किसी भी तरह से जायज नहीं माना जा सकता है। अन्‍याय के लिए आजकल सत्‍ता और सरकारें खूब प्रसिद्धि पा रही हैं और बदहवासी में अंटशंट करतूतों को अंजाम दे रही हैं किंतु इनसे पब्लिक को मुक्ति दिलवाने के लिए समय-समय पर संतों का आर्विभाव होता है। कई अवसरों पर असंत भी चतुरता बरतते हुए ऐसे उपाय अपना लेते हैं। खाना छोड़ना मतलब जनहित में प्राण देने के लिए तत्‍पर होना।  अन्‍ना और बाबा रामदेव ने इसमें तीव्र भूकंप की स्थिति पैदा की है जिससे सरकारें बेभाव के हिली हैं और उन्‍हें अपने अस्तित्‍व पर आए खतरे से डर लगने लगा है। आज सरकारें अनशन के नाम पर कंपकंपाने लग जाती हैं और तुरंत अंटशंट बक जाती हैं।
फिर लुभावने प्रयासों द्वारा येन केन प्रकारेण अनशन तुड़वाना ही सरकारों का एकमात्र ध्‍येय रह जाता है। मैं भी अनशन के प्रति अब गंभीर हो गया हूं। सोच रहा हूं एक घंटे वाला अनशन रख लूं जिसे जरूरत होने पर दो घंटे तक बढ़ाया जा सके क्‍योंकि इससे अधिक मेरे शरीर की सामर्थ्‍य नहीं है। मेरे शरीर पर डायबिटीज ने अपने मीठे पंजे गड़ा रखे हैं और वे मिठास का नहीं, कड़वाहट का ही अहसास कराते हैं। जिससे बेखर्च के एक गिलास मौसमी का ज्‍यूस फ्री में‍ किसी विशिष्‍ट हस्‍ती के हाथों में थामे गिलास से पीकर अनशन को तोड़कर सुर्खियां पा लूं। चिंतन से भी मुझे मौसमी के ज्‍यूस से अनशन तुड़वाने के पीछे का रहस्‍य समझ नहीं आया है क्‍योंकि मुझे अनार का ज्‍यूस पसंद है पर अनार की मेरी पसंद पर मेरा कब्‍जा डायबिटीज ने क्षीण कर दिया है। मेरा विचार है कि अनार का ज्‍यूस अनशन तोड़ने के मामले में अनार के पीछे चिपकी नार और ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली स्थिति के कारण पसंद नहीं किया जा रहा है। अनार का ज्‍यूस पीने वाला खुद बीमार होगा, अपने साथ के निन्‍यानवै साथियों को भी बीमार करेगा। वैसे भी मीठे को देखकर मुझे डर लगने लगता है। यहां पर मेरी यह थ्‍योरी भी फेल हो जाती है कि ‘मुझे किसी से डर नहीं लगता है।‘ इसलिए मैं मानता हूं कि मैं मीठे के सिवाय किसी से बिल्‍कुल नहीं डरता हूं।
अनार शब्‍द के साथ नार के चिपके होने के कारण नर इसे नारीवादी बतलाकर इसे पीने से परहेज करते हैं तो इसमें हैरानी कैसी, जबकि मौसमी का कूल स्‍वभाव प्रत्‍येक मौसम और किसी भी वय के लोगों के लिए सदैव हितकर रहता है। आप तो अनशन करने पर तुड़वाने के लिए मौसमी का ज्‍यूस पीना ही पसंद करेंगे न।

2 टिप्‍पणियां:

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