फेरबदल का फेर : दैनिक जनसत्‍ता 31 अक्‍टूबर 2012 की चौपाल में प्रकाशित

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मौन रहके कोई कितना मुखर हो सकता है,मौनी बाबा से बेहतर मिसाल नहीं मिलेगी। उनके कुनबे में फेरबदल होती है तो शतरंज की तरह मोहरे बदले जाते हैं और मुखिया खुद मोहरा बन जाता है। ऐसी हेराफेरी निःशब्द होती है और मीडिया प्रायोजित रूप से स्तब्ध रह जाता है। यह सब पूरी ईमानदारी के साथ होता है और जनता को काटने के लिए हथियार बदल दिए जाते हैं। जनता को नए सपने देखने का संकेत किया जाता है और इस बहाने कई फूटे-अधूरे सपने पूरे कर लिए जाते हैं। मलाई खाने वाले अघाकर एक ओर हो जाते हैं तो नई पारी के लिए दूसरे अपनी जीभ तैयार करने लगते हैं। मलाई खाकर देशसेवा का बोनस मिलता है, सो अलग मन को मोह लेता है।
ईमानदार को यह अधिकार है कि वह ईमानदारी पर डटा रहेसो जमा हुआ है अंगद के पांव के माफिक। फिर उसे हिलाने वाले कैसे कामयाब हो रहे हैंइसे जानने के लिए हालातों पर गहराई से गौर करना निहायत अनिवार्य है। बजाय इसके देश और इसके नागरिक फीलपांव का सुंदर अहसास कर रहे हैं क्‍योंकि उनके सामने परिस्थितियां ही ऐसी पेश की जा रही हैं। पब्लिक वही देखने के लिए मजबूर है जो उसे सत्‍ता पक्ष दिखलाना चाहता है। पूरा मोहल्‍ला तो नहीं बदलाहल्‍का सा फेरबदल ही किया है। कौन कह रहा है कि हेराफेरी का बाजार जमा लिया है। अंत भला सो सब भला। सब भले रहेंचंगे रहेंचाहे पब्लिक के सामने नंगे रहें।
पंगे सिर्फ पब्लिक से ही लिए जाते हैं। टीम के मुखिया ने भूल कर दी तो कौन सा पहाड़ टूट कर आ गिराचुनाव आने पर उसकी पीठ पर हाथ फिरा देंगे। वह तसल्‍ली पाएगा,उनके चुनने का जुगाड़ सध जाएगा। एकाध नुक्‍कड़ वाले से ही तो बदला लिया है। कैप्‍टेन वही है जो चुप रहता हैचुप सहता है। जब विचारों की बाढ़ आती हैटीम सारी जुट जाती है। जिसका नाम टीम में नहीं हैजो सिर्फ दर्शक की हैसियत से शुमार हुआ था। फेरबदल को हेराफेरी की तर्ज पर बिठाकर इंतहा तक पहुंचायाअहसास यह किया कि इसको पीठ पर लादे चल रहे हैं। इसे ही कहते हैं कि आजकल गधों के ही नहींघोड़ों के भी सींग निखर रहे हैं। एक को सींग मारादूसरे से सींग पर पालिश करवाकर चमकवाया। सींग पर भरपूर चमक आई जिससे पब्लिक समेत विपक्ष चौंधिया गया। इसको टीम से निकालाउसको टीम में घुसेड़ा। दो चार को रुसवा किया। पब्लिक को हंसने के तोहफे दिए। एक दो ने भड़ास निकाली। डेढ़ ढाई की आस पूरी हुई। टीम में परिवर्तन से कामयाबी में तेजी की उम्‍मीद बंधी है किंतु इसके सिवाय कोई और निष्‍कपट रास्‍ता ही नहीं था। आपका सोचना भी सही है कि रास्‍ता नहीं था तो हवाई मार्ग से जाना चाहिए था। रेल की पटरियों को आजमाना चाहिए था किंतु क्‍या करें इतना सब्र होता तो अगले चुनाव होने तक इंतजार नहीं करते।
मंत्रियों को आप सिर्फ लोकल मंतर मारने वाला ही मत मान लीजिएगा। वे अपने खेल और मैदान के माहिर खिलाड़ी हैं। क्रिकेट टीम में फेरबदल और मंत्रिमंडल में यह फेरबदल हेराफेरी के पर्याय के तौर पर जाने जाते हैं। यह फेरबदल तो ऐसा है कि जो अभी तक साईकिल चलाता रहा हैउसको कार थमा दी गई है कि इस पर खूब सारी एवरेज निकालिएचाहे हादसे होते रहें। रेल और कार से दुर्घटनाएं करने के बाद भी हवाई जहाज उड़ाने को थमा दिया जाता है। देश के मौजूदा कानूनों से खिलवाड़ करने की योग्‍यता हासिल करने के बाद इन्‍हें विदेश तक जाने का लाईसेंस थमा दिया गया है। देश में मधुर संबंधों की जरूरत नहीं है किंतु विदेशों से नाते रिश्‍तों को मधुर बनाने के ठेके इन्‍हें सौंप दिए गए हैं।

फेरबदल, फेरबदल, फेरबदल : दैनिक देशबंधु 31 अक्‍टूबर 2012 के अंक में प्रकाशित



मौन रहके कोई कितना मुखर हो सकता है,मौनी बाबा से बेहतर मिसाल नहीं मिलेगी। उनके कुनबे में फेरबदल होती है तो शतरंज की तरह मोहरे बदले जाते हैं और मुखिया खुद मोहरा बन जाता है। ऐसी हेराफेरी निःशब्द होती है और मीडिया प्रायोजित रूप से स्तब्ध रह जाता है। यह सब पूरी ईमानदारी के साथ होता है और जनता को काटने के लिए हथियार बदल दिए जाते हैं। जनता को नए सपने देखने का संकेत किया जाता है और इस बहाने कई फूटे-अधूरे सपने पूरे कर लिए जाते हैं। मलाई खाने वाले अघाकर एक ओर हो जाते हैं तो नई पारी के लिए दूसरे अपनी जीभ तैयार करने लगते हैं। मलाई खाकर देशसेवा का बोनस मिलता है, सो अलग मन को मोह लेता है।
ईमानदार को यह अधिकार है कि वह ईमानदारी पर डटा रहेसो जमा हुआ है अंगद के पांव के माफिक। फिर उसे हिलाने वाले कैसे कामयाब हो रहे हैंइसे जानने के लिए हालातों पर गहराई से गौर करना निहायत अनिवार्य है। बजाय इसके देश और इसके नागरिक फीलपांव का सुंदर अहसास कर रहे हैं क्‍योंकि उनके सामने परिस्थितियां ही ऐसी पेश की जा रही हैं। पब्लिक वही देखने के लिए मजबूर है जो उसे सत्‍ता पक्ष दिखलाना चाहता है। इससे अलग अहसास पब्लिक कैसे करेइसके लिए नया मीडिया आज अपने पूरे रुतबे के साथ मौजूद है। इसी से आत्‍मबल डगमग है। जिसकी डगमगाहट मुखिया के निर्णय में देखी जा रही है। पूरा मोहल्‍ला तो नहीं बदलाहल्‍का सा फेरबदल ही किया है। कौन कह रहा है कि हेराफेरी का बाजार जमा लिया है। अंत भला सो सब भला। सब भले रहेंचंगे रहेंचाहे पब्लिक के सामने नंगे रहें। किंतु वस्‍त्रों का अहसास होना ही काफी समझा जा रहा हैउन्‍हें पहनें अथवा नहीं पहनें। इसकी वजह में जाना सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं है।
पंगे सिर्फ पब्लिक से ही लिए जाते हैं। टीम के मुखिया ने भूल कर दी तो कौन सा पहाड़ टूट कर आ गिराचुनाव आने पर उसकी पीठ पर हाथ फिरा देंगे। वह तसल्‍ली पाएगा,उनके चुनने का जुगाड़ सध जाएगा। एकाध नुक्‍कड़ वाले से ही तो बदला लिया है। कैप्‍टेन वही है जो चुप रहता हैचुप सहता है। जब विचारों की बाढ़ आती हैटीम सारी जुट जाती है। जिसका नाम टीम में नहीं हैजो सिर्फ दर्शक की हैसियत से शुमार हुआ था। फेरबदल को हेराफेरी की तर्ज पर बिठाकर इंतहा तक पहुंचायाअहसास यह किया कि इसको पीठ पर लादे चल रहे हैं। इसे ही कहते हैं कि आजकल गधों के ही नहींघोड़ों के भी सींग निखर रहे हैं। एक को सींग मारादूसरे से सींग पर पालिश करवाकर चमकवाया। सींग पर भरपूर चमक आई जिससे पब्लिक समेत विपक्ष चौंधिया गया। इसको टीम से निकालाउसको टीम में घुसेड़ा। दो चार को रुसवा किया। पब्लिक को हंसने के तोहफे दिए। एक दो ने भड़ास निकाली। डेढ़ ढाई की आस पूरी हुई। टीम में परिवर्तन से कामयाबी में तेजी की उम्‍मीद बंधी है किंतु इसके सिवाय कोई और निष्‍कपट रास्‍ता ही नहीं था। आपका सोचना भी सही है कि रास्‍ता नहीं था तो हवाई मार्ग से जाना चाहिए था। रेल की पटरियों को आजमाना चाहिए था किंतु क्‍या करें इतना सब्र होता तो अगले चुनाव होने तक इंतजार नहीं करते।
मंत्रियों को आप सिर्फ लोकल मंतर मारने वाला ही मत मान लीजिएगा। वे अपने खेल और मैदान के माहिर खिलाड़ी हैं। यह अकेले खेलने वाला खेल हैइसमें विजय पक्‍की होती है। उनकी जीत पर सिर्फ टिप्‍पणियां ही कर सकते हैं यहजबकि इनकी टिप्‍पणियों को कोई गंभीरता से लेता नहीं है। न सत्‍ता पक्ष और न आम जनता यानी पब्लिक। क्रिकेट टीम में फेरबदल और मंत्रिमंडल में यह फेरबदल हेराफेरी के पर्याय के तौर पर जाने जाते हैं। यह फेरबदल तो ऐसा है कि जो अभी तक साईकिल चलाता रहा हैउसको कार थमा दी गई है कि इस पर खूब सारी एवरेज निकालिएचाहे हादसे होते रहें। रेल और कार से दुर्घटनाएं करने के बाद भी हवाई जहाज उड़ाने को थमा दिया जाता है। देश के मौजूदा कानूनों से खिलवाड़ करने की योग्‍यता हासिल करने के बाद इन्‍हें विदेश तक जाने का लाईसेंस थमा दिया गया है। देश में मधुर संबंधों की जरूरत नहीं है किंतु विदेशों से नाते रिश्‍तों को मधुर बनाने के ठेके इन्‍हें सौंप दिए गए हैं।

कैमरों से पंगा, कर देंगे नंगा : जनसंदेश टाइम्‍स 30 अक्‍टूबर 2012 में 'उलटबांसी' स्‍तंभ में प्रकाशित



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कैमरे फुलटॉस खुंदक में हैं। सवाल पत्रकारों ने पूछा और वे हमारे से चिढ़ गएक्विटलों गालियां फेंकीं और धमकाते हुए भिड़ गए। हमें तोड़ कर वे अपना नुकसान करेंगे। कायर अभद्र न होते तो मुकाबला करते। सवाल सम कोई और नहीं। देखा नहीं पब्लिसिटी की थर्स्‍टी अभिनेत्री, ओपन मैन से सवाल करने के मूड में मौके को समझ रही त्‍यौहार है। चारों ओर सवालों का मौसम तारी है इसलिए बाजी मारने की फिराक में, फ्राक उतार लघु वस्‍त्र धारण किए है। सवाल क्‍या कर लिए, वे तो सिरे से ही उखड़ गए, भूल गए कि उनके बुलाने पर पहुंचे थे। जिसकी जड़ें होती हैंवह अच्‍छी तरह जानता है कि किसी भी जड़वान को उखाड़ने की धमकी देना व्‍यर्थ है। क्‍योंकि असली मट्ठे के अभाव में चाणक्‍य की शपथ की मानिंद जड़ें उखाड़कर उसमें मट्ठा डालने की ख्‍वाहिश पूरी करना भी पॉसीबल नहीं है।

ताव खाकर बेजुबान कैमरों को ही धमकाने में जुट गए। देश के पुराने कानून मंत्री ने पिछले दिनों धमकाने को कानूनी मान्‍यता क्‍या दे डाली हैइतराने लगे। माना कि उनके कहे पर आंख,नाककान मूंद कर अमल करना है। पर हम भयभीत नहीं हैसमझ लो। हमारे भीतर प्राण नहीं हैं किंतु सबके पल-पल को जीवंत करते हैं। सिरफिरे मंत्रियों के मंतर से बचने के लिए इंश्‍योर्ड हैं।  तोड़ लोजितना मन करे। टूटने के बाद हमारे से बेहतर क्‍वालिटी के कैमरे आ जाएंगे। जो फोटो खींचेंगेआवाज रिकार्ड करेंगे और बदतमीजी की तो गाली भी देंगे। गालियां बकने के ठेके के हकदार सिर्फ वे ही नहीं है। एफएम चैनलों पर ही देख लोइसकी उसकी सबकी बजाई जा रही है। किसी को टोपी पहनाई और किसी की सरेआम आरती उतारी जा रही है।
वाह रेहिमाचल के तथाकथित वीर। पुरातनता के एंटीक पीस। चोर कहने पर ही इतना बिफर गएडकैत कह दिया होता, तब तो अवश्‍य ही एक बयानवीर की तरह गोली मार देते।  पब्लिक के वोटों पर खुलकर डकैती डालने वाले दस्‍यु। आरोप साबित हो जाएंगेतब तिहाड़ की दीवारों में कैद कर दिए जाओगे। धमकी देकर कौन सा गिन्‍नीज बुक में नाम दर्ज हो जाएगा। गुजरे जमाने के सुल्‍तान। सोच रहे हो कि मीडिया के सवालों से डरने वाले को सरकार मैडल देगी। सेब के फलों का भी कर रहे हो धंधा। एक सेब का सेवन डॉक्‍टरों को दूर रखता है लेकिन उनका धंधा करने से पौष्टिकता नहीं मिला करती। धन मिलता है और धनवेदना में इजाफा होता है। फल को कुफल बनाने की चेष्‍टा करने वाले पब्लिक तेरा और तेरे हिमायतियों का भरपूर गुणगान करेगी। कैमरों से पंगा ले रहो हो, मालूम नहीं है कि नई टैक्‍नीक वाले कैमरे आपके वस्‍त्रसहित चित्रों को वस्‍त्रविहीन कर देंगे और नहला देंगे गंगा। कैमरों को बेजुबान समझने के मुगालते में मत रहना। पहनकर हिमालय की खाल, मत बघारो शानपब्लिक गर्म हो गई तो उसकी गर्मी से बर्फ की मानिंद पिघल जाओगे, कितनी भी कोशिश कर लो पब्लिक के लिए मीठी बर्फी नहीं बन पाओगे ?

कैमरों से पंगा ... : आई नेक्‍स्‍ट स्‍तंभ 'खूब कही' 30 अक्‍टूबर 2012 में प्रकाशित

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कैमरे फुलटॉस खुंदक में हैं। सवाल पत्रकारों ने पूछा और वे हमारे से चिढ़ गएक्विटलों गालियां फेंकीं और धमकाते हुए भिड़ गए। हमें तोड़ कर वे अपना नुकसान करेंगे। कायर अभद्र न होते तो मुकाबला करते। सवाल सम कोई और नहीं। देखा नहीं पब्लिसिटी की प्‍यासी अभिनेत्री, केजरीवाल से सवाल करने के मूड में मौके को समझ रही त्‍यौहार है। चारों ओर सवालों का मौसम तारी है इसलिए बाजी मारने की फिराक में, फ्राक उतार लघु वस्‍त्र धारण किए है। सवाल क्‍या कर लिए, वे तो सिरे से ही उखड़ गए,  भूल गए कि उनके बुलाने पर पहुंचे थे। जिसकी जड़ें होती हैंवह अच्‍छी तरह जानता है कि किसी भी जड़वान को उखाड़ने की धमकी देना व्‍यर्थ है। क्‍योंकि असली मट्ठे के अभाव में चाणक्‍य की शपथ की मानिंद जड़ें उखाड़कर उसमें मट्ठा डालने की ख्‍वाहिश पूरी करना भी पॉसीबल नहीं है।

ताव खाकर बेजुबान कैमरों को ही धमकाने में जुट गए। देश के कानून मंत्री ने पिछले दिनों धमकाने को कानूनी मान्‍यता क्‍या दे डाली हैइतराने लगे। माना कि उनके कहे पर आंखनाककान मूंद कर अमल करना है। पर हम भयभीत नहीं हैसमझ लो। हमारे भीतर प्राण नहीं हैं किंतु सबके पल-पल को जीवंत करते हैं। सिरफिरे मंत्रियों के मंतर से बचने के लिए इंश्‍योर्ड हैं।  तोड़ लोजितना मन करे। टूटने के बाद हमारे से बेहतर क्‍वालिटी के कैमरे आ जाएंगे। जो फोटो खींचेंगेआवाज रिकार्ड करेंगे और बदतमीजी की तो गाली भी देंगे। गालियां बकने के ठेके के हकदार सिर्फ वे ही नहीं है। एफएम चैनलों पर ही देख लोइसकी उसकी सबकी बजाई जा रही है। किसी को टोपी पहनाई और किसी की सरेआम आरती उतारी जा रही है।
वाह रेहिमाचल के तथाकथित वीर। पुरातनता के एंटीक पीस। चोर कहने पर ही इतना बिफर गएडकैत कह दिया होता, तब तो अवश्‍य ही एक बयानवीर की तरह गोली मार देते।  पब्लिक के वोटों पर खुलकर डकैती डालने वाले दस्‍यु। आरोप साबित हो जाएंगेतब तिहाड़ की दीवारों में कैद कर दिए जाओगे। धमकी देकर कौन सा गिन्‍नीज बुक में नाम दर्ज हो जाएगा। गुजरे जमाने के सुल्‍तान। सोच रहे हो कि मीडिया के सवालों से डरने वाले को सरकार मैडल देगी। सेब के फलों का भी कर रहे हो धंधा। एक सेब का सेवन डॉक्‍टरों को दूर रखता है लेकिन उनका धंधा करने से पौष्टिकता नहीं मिला करती। धन मिलता है और धनवेदना में इजाफा होता है। फल को कुफल बनाने की चेष्‍टा करने वाले पब्लिक तेरा और तेरे हिमायतियों का भरपूर गुणगान करेगी। कैमरों से पंगा ले रहो हो, मालूम नहीं है कि नई टैक्‍नीक वाले कैमरे आपके वस्‍त्रसहित चित्रों को वस्‍त्रविहीन कर देंगे और नहला देंगे गंगा। कैमरों को बेजुबान समझने के मुगालते में मत रहना। पहनकर हिमालय की खाल, मत बघारो शानपब्लिक गर्म हो गई तो उसकी गर्मी से बर्फ की मानिंद पिघल जाओगे, कितनी भी कोशिश कर लो पब्लिक के लिए मीठी बर्फी नहीं बन पाओगे ?

नेशनल दुनिया की पत्रिका 28 अक्‍टूबर 2012 में 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' का परिचय

पुस्‍तक का परिचय किंतु लेखक का पूरा नाम भी नहीं


विचारोत्‍तेजक धारदार व्‍यंग्‍य : दैनिक हरिभूमि 28 अक्‍टूबर 2012 के रविवार भारती में 'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' की समीक्षा प्रकाशित

'भ्रष्‍टाचार बाबा' के लिए पीएम ने खोला मुंह ! : मिलाप हिंदी स्‍तंभ बैठे ठाले 27 अक्‍टूबर 2012 में प्रकाशित



पीएम ने अंततः मुंह खोल ही लिया। वैसे भी इतने दिन तक मुंह बंद रखने से उनके मुख मंडल पर थकान हावी हो गई थी और वे पस्‍त दिखाई दे रहे थे। अपनी पस्‍तता को चुस्‍तता में बदलने के लिए मुंह खोलना अनिवार्य हो गया था। मुंह खोल तो लिया किंतु वे किसी से भी पंगा नहीं लेना चाहते थे क्‍योंकि वे कुर्सी पर जमे रहने की अपने मन में छिपी आकांक्षा  को निराश नहीं करना चाह रहे थे क्‍योंकि मन और आकांक्षाएं दोनों उन्‍हीं की हैं।   
उन्‍होंने  बतलाया कि भ्रष्टाचार की छवि बनाने में बहुत मेहनत की गई है।  मैं भी अपनी छवि बिगड़ने के डर से मुंह नहीं खोलता हूंमुंह खोलने पर दांत दिखलाई देने का खतरा रहता हैजीभ साफ न हो तो वह लपलपाती नजर आती हैफिर मुंह खोलने से किस्‍मकिस्‍म की भीतरी दुर्गंध भी बाहर आने लगती हैं। इसलिए स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा के लिहाज से मुंह खोलने में सदैव रिस्‍क रहता है। यह वह रहस्‍य है जो पब्लिक के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए भी हितकर नहीं हैइससे मेरी अपनी इमेज की मेज भी लड़खड़ाने लगती है।  

अब लाचार होकर मुझे जोखिम लेना पड़ा क्‍योंकि भ्रष्‍टाचार की छवि बिगाड़ने की कोशिश में बिगाडू किस्‍म के तत्‍व सक्रिय हो चुके हैं। जबकि हमने अपने अरमानों की बलि देकर ‘भ्रष्‍टाचार बाबा’ का ब्‍यूटीफुल मेकअप करवाया है। हम दोबारा से पब्लिक का इतना पैसा इस कार्य में झोंक नहीं सकते।  मैं यह भी जानता हूं कि जो पहले से ही बिगड़ा हुआ होउसकी छवि कैसे बिगड़ सकती है। जबकि गांधी जी ने जब कहा था कि जो सचमुच सो रहा है उसे तो जगाया जा सकता है किंतु जो सोने का स्‍वांग रच रहा हैउसे नहीं जगाया जा सकता।‘  अब वही स्थिति ‘भ्रष्‍टाचार बाबा’ के मामले में हैवे अनुभवी और बुजुर्गों में शुमार किए जाने के काबिल हो गए हैंउनको सम्‍मान देना तो दीगरउनकी खिल्‍ली उड़ाने में सबको खुशी मिल रही है।  

मैं गांधी जी के वचनों की उपयोगिता समझकर उस पर अमल करता हूं और उन्‍हीं पर कायम हूं।  फिर भी ऐसे मामलों में रिस्‍क नहीं लिया जा सकता क्‍योंकि यही जोखिम बाद में कुर्सी के लिए दीमक बनकर उसे चट कर सकता है, तब मैं सत्‍ता में न रहने के कारण खुद को असहाय पाऊंगा। कुर्सी से बेइंतहा मोहब्‍बत  की खातिर हमें ऐसा आचरण करना पड़ता है कि पब्लिक को लगे कि हम गूंगे और बहरे हैं । विकृतियां कब श्रेष्‍ठतम कृतियों के मानिंद हो जाती हैं यह मुझसे अधिक कौन जानेगा ?
भ्रष्‍टाचार सरकार के लिए बहुत उपादेय है, वैसे गहरा चिंतन करके यह जाना जा सकता है कि सबके लिए यही सबसे मुफीद है। करने में और रोकने में सबको यही पसंद आता है इसलिए सबसे अधिक विरोध भी इसी का किया जाता है। यह दुधारी कटार है, इसमें यह सुभीता रहता है कि जिस ओर से या छोर से कटाई कर लोफसल पौष्टिक ही होगी। कितने ही घोटाले-घपले हमने पूरी शिद्दत से किए हैं, उनमें चुप रहकर सहयोग दिया है। जिससे भ्रष्‍टाचार देव रोम रोम में बस गए हैं। हमें ऐसा करने में सामूहिक और निजी सफलताएं मिलीं हैं। इन उपलब्धियों से हमारा हौसला बढ़ा है।  यह हमारा ही उधम मचाने का स्‍वभाव रहा कि हमें खूब लाभ ही लाभ हुए। भ्रष्‍टाचार के कारण ही सबने हमारा विरोध करना छोड़कर भ्रष्‍टाचार का विरोध करना शुरू कर दिया, जिसका लाभ उठाकर हम भ्रष्‍टाचार के उन्‍नयन में जुटे रहे। हमारी यह सफलता काफी उल्‍लेखनीय रही है। अब अगर भ्रष्‍टाचार पर मारक वार किए जाएंगे तो हमारा डिस्‍टर्ब होना स्‍वाभाविक है।
हम चाहें कुछ भी हैं किंतु जो हमारे ऊपर अहसान करते हैं, उनसे अहसान फरामोश करने वाले हम कतई नहीं हैं, भला यह कोई अच्‍छी बात है कि किसी बच्‍चे के विकास में मदद करना तो दूर आप उसके खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए नीतियां बना लें। बच्‍चे के विकास के लिए सदैव सबको तत्‍पर रहना चाहिए। माना कि भ्रष्‍टाचार सृष्टि के आदि से इंसान के साथ है, किंतु वह अभी भी बच्‍चा है, बच्‍चा ही रहेगा क्‍योंकि इसमें काफी व्‍यापक संभावनाएं खोजी जाती रहेंगी। उम्र के लिहाज से वह भ्रष्टाचार बाबा की पुकार का हकदार बनता है और बाबा बच्चे और बुजुर्गों के लिए समान रूप से प्रयोग किया जाता है, यह टू इन वन संबोधन है। लोकपाल को कानून बनाने की हमारी नीयत ही नहीं थी, परंतु भ्रष्‍टाचार बाबा के समर्थन के लिए हमें कानून बनाने से कोई नहीं रोक सकता और कोई रोकेगा भी तो क्‍या हम रुक जाएंगे, बिल्‍कुल नहीं रुकेंगे, यह पब्लिक को भी जान लेना चाहिए।  

हम ऐसा कानून बनाने में जुट गए हैं, जिसमें भ्रष्‍टाचार की छवि बिगाड़ने वालों के लिए सजा व जुर्माने के कड़े प्रावधान होंगे और उन्‍हें पूरी सख्‍ती के साथ अमल में लाया जाएगा। न कि सिगरेट पर पाबंदी लगा दी गुटखा और पॉलीथीन पर रोक लगा दीकिंतु कोई नहीं रुका क्‍योंकि हमारी नीयत ही गंदी है। अब हम ‘भ्रष्‍टाचार बाबा’ की खिलाफत बिल्‍कुल बर्दाश्‍त नहीं करेंगे क्‍योंकि हम जानते हैं कि इसके उपयोगकर्ता खुलकर मैदान में आ गए हैं और कानूनों का मजाक उड़ाने लगे हैं। पर मैं बतला रहा हूं कि भ्रष्‍टाचार की खुली खिलाफत बिल्‍कुल बर्दाश्‍त नहीं की जाएगीइसे सिगरेटगुटखा या पालीथीन मत समझ लीजिएगा।

सब जानते हैं कि हमारे देश को विदेशों में सुर्खियों में लाने में भ्रष्‍टाचार का एक अहम् रोल है। अब इसे मिटाने अथवा भगाने की बुरी नीयत से कोई गोल समझकर अचीव करना चाहेगा तो हम उसे क्‍यों करने देंगे। यह हमारी साख का सवाल है। हमारी इन कोशिशों पर टांग उठाकर ......... न .. न ... मुझे ऐसा बोलने की आदत नहीं हैमैं तो इशारा भी नहीं करता किंतु मजबूत हूं इसलिए अपनी ताकत का संकेत दे रहा हूं । सच को कहने से आखिर कब तक रोका जाएगा और मैं और मेरी सरकार रोकने वालों को अपने आखरी दम तक रोकेगी।

किसी भी देश में देशवासी अपने देश की छवि नहीं बिगाड़ते हैं अपितु उसको संवारने के समस्‍त उपाय करते हैं। मैं भी कर रहा हूं तो इसमें बुरा क्‍या हैआखिर अपनी जिम्‍मेदारी को मैं नहीं समझूंगा तो और कौन समझेगा या समझाएगा। आप यह मत समझने लगिएगा कि मुझे ऐसा कहने के ऊपर से आदेश मिले हैं। अब इतनी समझ तो मुझमें भी है। आखिर, मैं पीएम होने के साथ साथ एक माहिर अर्थशास्त्री भी हूं और भ्रष्‍टाचार की इतनी जानकारी हासिल कर ली है कि इसमें पारंगत हो गया हूं। पर आप इस रंगत की संगत में मत आइएगाइसका संग साथ सरकार व इसके कारिंदों के लिए ही हितकर है। पब्लिक ऐसी कोशिश करेगी तो उसे मसलकर ऐसी-तैसी कर कर दी जाएगी। भला पब्लिक का क्‍या हक बनता है कि ताकतवर हृष्‍ट-पुष्‍ट भ्रष्‍टाचार का चौखटा गंदा करने का उपक्रम करते फिरें।

मेरा यह भी मानना है कि कभी किसी को किसी का चेहरा नहीं बिगाड़ना चाहिए। यह कार्य भगवान का हैभगवान के काम में दखल किसी को नहीं देना है। रावण का चेहरा आज तक किसी ने बिगाड़ने की कोशिश नहीं की हैउसे चाहे सब फूंकते हैं पर चेहरा तो ब्‍यूटीफुल बनाते हैं। यह फूंक ही रावण के लिए ऑक्‍सीजन साबित हुई है। भ्रष्‍टाचार को भी आप ऐसी ही ऑक्‍सीजनात्‍मक फूंकें मार सकते हैंहमें कतई एतराज नहीं होगा। आप रावण को तो फूंक मार रहे हैं किंतु ‘भ्रष्‍टाचार बाबा’ के साथ सौतेला व्‍यवहार कर रहे हैं, इससे ही पब्लिक की दोहरी मानसिकता का पता चलता है ?

दामादगिरी की राजनीति : नेशनल दुनिया स्‍तंभ चिकोटी 25 अक्‍टूबर 2012 अंक में प्रकाशित



राजनीति में दामादगिरी जोरों की कयामत ढा रही है जिसकी वजह से केला और आम चर्चित हो गए हैं। वैसे आम उत्‍सव के मौके पर आम की कई किस्‍मों के दाम बादाम को भी मात कर देते हैं आंधियों के कारण आम का असमय गिरना भी उसके दामों में इजाफे के लिए दोषी होता है।  केले कभी आंधियों से नहीं गिरतेकेलों को तहस-नहस करने का श्रेय सदा से हाथियों और बंदरों के नाम रहा है। हाथी और बंदर का स्‍वभाव नेताओं में नहीं पाया जातावे सदा आम चूसना ही पसंद करते हैं और कॉमनमैन को आम की तरह चटकारे लेकर चूसते ही पाए जाते हैं।
पब्लिक को केला बनाना जितना आसान है उतना ही आम को चूसना। पब्लिक को केला बनाकर छिलका छीलकर कहीं भी फेंक दो और केले की लचीली गिरी उदरस्‍थ कर लोपब्लिक फिसल जाएगीफिर खूब हंस लोठहाके लगा लो और लाफ्टर चैलेंज के शो में बढ़त बना लो। केले के छिलके पर पब्लिक फिसलेतुरत जुर्माना लगा दो। पब्लिक वह आम है जो सदा चूसी जाती है,पब्लिक केले के छिलके पर फिसलती है और नेता पब्लिक पर। फिसलता भी है और पब्लिक को घसीटता भी है। यही युगीन सत्‍य है। आम का पापड़पापड़ होते हुए भी उसके अवगुणों से मुक्‍त रहता है। आम का पापड़ खाते हुए कड़ तड़ पड़ की आवाज नहीं करता, यह चबाए जाने पर भी मौन रहता है। इस पापड़ को युगों युगों से चटकारे लेकर चाटा जाता रहा है और चाटा ही जाता रहेगा। यह आम की खासियत हैऐसा समझ रहे हैं तो आप मुगालते में हैं क्‍योंकि आम का मुरब्‍बा भी बनता हैजैसे नेता पब्लिक का स्‍वादिष्‍ट मुरब्‍बा बनाती है। पब्लिक को जानवर (गधा) या पक्षी (उल्‍लू) भी बनाया जाता है।
वो मुरब्‍बा ही क्‍या जिसके खाने पर अब्‍बा की याद नहीं आई और अब्‍बा की याद के पीछे अम्‍मा न दौड़ी चली आई।  देश की पब्लिक केले के छिलके पर रोजाना फिसल रही है। उस पर तुर्रा यह कि नियम बना दिया गया है कि केले के छिलके पर फिसलने पर चालान जरूर होगा। आम चूसने पर दामादगिरी का मसला होने पर भी चर्चा नहीं होती। आम फल पर सामान्‍यत:न बंदर और न हाथी की नीयत डोलती है। हाथी और बंदर गन्‍ना और केला देखकर डोलते हैं और मन के रंजन के लिए केले के बागों को उजाड़ते भी रहते हैं। जबकि  लोकतंत्र में हाथी आम पर ललचायी नजरें गड़ाए रखते हैं।
हाथी का मोह गन्‍ने से भंग हो चुका है। बंदर गन्‍ना नहीं खाता है। बंदर गन्‍ना हाथ में लेकर डांस कर सकता हैहाथी के बस का यह नहीं है। हाथी को सांकल डालकर बंदर के माफिक डांस नहीं कराया जा सकता। जरूरत भी नहीं है क्‍योंकि पब्लिक भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के डांस करने में मशगूल रहती है।
हाथी को नचाना पब्लिक और नेता के बस का नहीं है इसलिए वे खतरा सामने देखकर हाथी को ढककर काम चलाते हैं। हाथी को अक्‍ल से बड़ा मान लिया गया हैभैंस इस मामले में पिछड़ गई है। इसी से देश के चहुंमुखी विकास की जानकारी मिलती है। जिनके हाथ नहीं होतेउनके हाथी होते हैं और जिनके हाथ होते हैंउनके ही हाथों में हथियार होते हैंवे महावत को भी बांधकर रखते हैं, अब समझ रहे हैं आप कि देश का महावत क्‍यों मौन है ?

केले की गिरी बनाम दामादगिरी : दैनिक ट्रिब्‍यून स्‍तंभ 'गागर में सागर' 24 अक्‍टूबर 2012 अंक में प्रकाशित



राजनीति में दामादगिरी जोरों की कयामत ढा रही है जिसकी वजह से केला और आम चर्चित हो गए हैं। वैसे आम उत्‍सव के मौके पर आम की कई किस्‍मों के दाम बादाम को भी मात कर देते हैं आंधियों के कारण आम का असमय गिरना भी उसके दामों में इजाफे के लिए दोषी होता है।  केले कभी आंधियों से नहीं गिरतेकेलों को तहस-नहस करने का श्रेय सदा से हाथियों और बंदरों के नाम रहा है। हाथी और बंदर का स्‍वभाव नेताओं में नहीं पाया जातावे सदा आम चूसना ही पसंद करते हैं और कॉमनमैन को आम की तरह चटकारे लेकर चूसते ही पाए जाते हैं।
पब्लिक को केला बनाना जितना आसान है उतना ही आम को चूसना। पब्लिक को केला बनाकर छिलका छीलकर कहीं भी फेंक दो और केले की लचीली गिरी उदरस्‍थ कर लो,पब्लिक फिसल जाएगीफिर खूब हंस लोठहाके लगा लो और लाफ्टर चैलेंज के शो में बढ़त बना लो। केले के छिलके पर पब्लिक फिसलेतुरत जुर्माना लगा दो। पब्लिक वह आम है जो सदा चूसी जाती हैपब्लिक केले के छिलके पर फिसलती है और नेता पब्लिक पर। फिसलता भी है और पब्लिक को घसीटता भी है। यही युगीन सत्‍य है। आम का पापड़पापड़ होते हुए भी उसके अवगुणों से मुक्‍त रहता है। आम का पापड़ खाते हुए कड़ तड़ पड़ की आवाज नहीं करता, यह चबाए जाने पर भी मौन रहता है। इस पापड़ को युगों युगों से चटकारे लेकर चाटा जाता रहा है और चाटा ही जाता रहेगा। यह आम की खासियत हैऐसा समझ रहे हैं तो आप मुगालते में हैं क्‍योंकि आम का मुरब्‍बा भी बनता हैजैसे नेता पब्लिक का स्‍वादिष्‍ट मुरब्‍बा बनाती है। पब्लिक को जानवर (गधा) या पक्षी (उल्‍लू) भी बनाया जाता है।
वो मुरब्‍बा ही क्‍या जिसके खाने पर अब्‍बा की याद नहीं आई और अब्‍बा की याद के पीछे अम्‍मा न दौड़ी चली आई।  देश की पब्लिक केले के छिलके पर रोजाना फिसल रही है। उस पर तुर्रा यह कि नियम बना दिया गया है कि केले के छिलके पर फिसलने पर चालान जरूर होगा। आम चूसने पर दामादगिरी का मसला होने पर भी चर्चा नहीं होती। आम फल पर सामान्‍यत:न बंदर और न हाथी की नीयत डोलती है। हाथी और बंदर गन्‍ना और केला देखकर डोलते हैं और मन के रंजन के लिए केले के बागों को उजाड़ते भी रहते हैं। जबकि  लोकतंत्र में हाथी आम पर ललचायी नजरें गड़ाए रखते हैं।
हाथी का मोह गन्‍ने से भंग हो चुका है। बंदर गन्‍ना नहीं खाता है। बंदर गन्‍ना हाथ में लेकर डांस कर सकता हैहाथी के बस का यह नहीं है। हाथी को सांकल डालकर बंदर के माफिक डांस नहीं कराया जा सकता। जरूरत भी नहीं है क्‍योंकि पब्लिक भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के डांस करने में मशगूल रहती है।
हाथी को नचाना पब्लिक और नेता के बस का नहीं है इसलिए वे खतरा सामने देखकर हाथी को ढककर काम चलाते हैं। हाथी को अक्‍ल से बड़ा मान लिया गया हैभैंस इस मामले में पिछड़ गई है। इसी से देश के चहुंमुखी विकास की जानकारी मिलती है। जिनके हाथ नहीं होतेउनके हाथी होते हैं और जिनके हाथ होते हैंउनके ही हाथों में हथियार होते हैंवे महावत को भी बांधकर रखते हैं, अब समझ रहे हैं आप कि देश का महावत क्‍यों मौन है ?

आजादी के रायते को कौन लुढ़का रहा है ? : मनमीत मासिक पत्रिका के अक्‍टूबर 2012 अंक में प्रकाशित

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मकड़जाल में फांसने में माहिर नेता : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' में 23 अक्‍टूबर 2012 को प्रकाशित



चाट वही जो चाटी जाए। चाट को खाना, उसके साथ रेप करने जैसा है। चबाने वाली चीज को चाटना, अच्‍छा नहीं लगता। आज बलात्‍कार को साबित करना ही सबसे अधिक कठिन कार्य है। इसमें हादसे के शिकार को ही जांच के नाम पर प्रताडि़त किया जाता है। शिकारी सदा सुरक्षित रहा है, बचने के लिए उपाय नहीं ढूंढने पड़ते।
चाट का आनंद चाटने में ही है क्‍योंकि चाटना जीभ का गुण है, चबाते दांत हैं। इसे गुनाह मानने वालों की कमी नहीं है। मीठी गोली सिर्फ चूसने पर ही आनंद देती है, उसे चबाओगे तो आनंद भी नहीं देगी और इर्रीटेट भी करेगी। कड़वी गोली को मीठे लेप के साथ इसलिए निगला जाता है, क्‍योंकि चूसना चाहा तो गोली के लाभ दूर हो जाएंगे, इर्रीटेशन कड़वा होगा तो झुलसा देगा। टाफी को दांतों से कुचलकर खाने में स्‍वाद आता है। कई टाफियां निर्लज्‍ज होती हैं और खाने वाले के दांतों में इस कुशलता से चिपक जाती हैं कि जीभ को मजबूरन उन्‍हें चाटना ही पड़ता है।
अब चूसने और चाटने में जो बारीक भेद है, उसका ज्ञान सबको सरलता से नहीं होता है। आम आदमी तो चूसने और चाटने को एक नियमित प्रक्रिया समझ कर गलतफहमी में घिरा रहता है। आम को काटा और चूसा जाता है इसलिए नेताओं के लिए अवाम आम है जिसे मौके की नजाकत देखकर काटा या चूसा जाता है। चूसने और चाटने में भेद करने के लिए अधिक ज्ञानवान होना जरूरी नहीं है। परंतु अज्ञानी इसे एक जैसा समझ बैठने की खुशफहमी पाल बैठते हैं। चाटने वाले तो दिमाग चाटते हैं, इसे आजकल पकाना कहा जाता है। कच्‍चा दिमाग का ऑनर रेल और पटरी दोनों का सत्‍यानाश कर देता है। माहिर से माहिर व्‍यंग्‍यकार भी दिमाग को चूसने की कूबत नहीं रखते हैं, वे पाठक का दिमाग चाटते हैं, संपादक का दिमाग चाटते हैं, उन्‍हें तो कोई भी मिल जाना चाहिए, अगर दिमाग का फलूदा नहीं बना दिया, तो कौन मानेगा उन्‍हें व्‍यंग्‍यकार ?
चाटने के गुण चटाई में पूरी शिद्दत से मौजूद रहते हैं। चटाई जमीन पर बिछकर अपने चटाई धर्म को साकार करती है और अपने ऊपर बैठने वालों को मिट्टी और धूल से बचाती है। चटाई का कार्य जनसेवा की मानिंद है। खुद गंदे होकर गंदगी और धूल मिट्टी से बचाव करना चटाई की क्‍वालिटी है। इसके लिए चटाई की बिछाई सलीके से की जानी चाहिए। चटाई यूं चटकती नहीं है परंतु अगर बेढंगी बिछी हो तब भी बैठने वाले को मिट्टी से सान देती है।
आप मकड़ी को ही देखिए, अपनी लार से ऐसा जाला बुनती है कि बेचारी मक्‍खी उसमें फंस कर तड़पती रहती है। जिसे अपनी नुकीली सुईयां चुभा चुभा कर चूसना मकड़ी का कारनामा है। मकडि़यों के इस हुनर को आजकल नेताओं ने अपना लिया है, वे वोटर को अपनी बातों के जाल में फंसाकर वोट हड़प लेते हैं और फिर पांच साल तक लगातार उसे आम के माफिक काटते तथा चूसते रहते हैं। मकड़ी से इतर नेता वोटर को जीवित छोड़ मकड़पने का हुनर दिखाते हैं। जिसमें उनके सत्‍ता में फिर से काबिज होने की संभावनाएं छिपी रहती हैं। आखिर पांच साल बाद भी वोट लेना है, आप भी तो अगली बार वोट देने को तैयार हैं न ?

महावत क्‍यों मौन है ? : दैनिक हरिभूमि 23 अक्‍टूबर 2012 अंक में प्रकाशित


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राजनीति में दामादगिरी जोरों की कयामत ढा रही है जिसकी वजह से केला और आम चर्चित हो गए हैं। वैसे आम उत्‍सव के मौके पर आम की कई किस्‍मों के दाम बादाम को भी मात कर देते हैं आंधियों के कारण आम का असमय गिरना भी उसके दामों में इजाफे के लिए दोषी होता है।  केले कभी आंधियों से नहीं गिरतेकेलों को तहस-नहस करने का श्रेय सदा से हाथियों और बंदरों के नाम रहा है। हाथी और बंदर का स्‍वभाव नेताओं में नहीं पाया जातावे सदा आम चूसना ही पसंद करते हैं और कॉमनमैन को आम की तरह चटकारे लेकर चूसते ही पाए जाते हैं।
पब्लिक को केला बनाना जितना आसान है उतना ही आम को चूसना। पब्लिक को केला बनाकर छिलका छीलकर कहीं भी फेंक दो और केले की लचीली गिरी उदरस्‍थ कर लो,पब्लिक फिसल जाएगीफिर खूब हंस लोठहाके लगा लो और लाफ्टर चैलेंज के शो में बढ़त बना लो। केले के छिलके पर पब्लिक फिसलेतुरत जुर्माना लगा दो। पब्लिक वह आम है जो सदा चूसी जाती हैपब्लिक केले के छिलके पर फिसलती है और नेता पब्लिक पर। फिसलता भी है और पब्लिक को घसीटता भी है। यही युगीन सत्‍य है। आम का पापड़पापड़ होते हुए भी उसके अवगुणों से मुक्‍त रहता है। आम का पापड़ खाते हुए कड़ तड़ पड़ की आवाज नहीं करतायह चबाए जाने पर भी मौन रहता है। इस पापड़ को युगों युगों से चटकारे लेकर चाटा जाता रहा है और चाटा ही जाता रहेगा। यह आम की खासियत हैऐसा समझ रहे हैं तो आप मुगालते में हैं क्‍योंकि आम का मुरब्‍बा भी बनता हैजैसे नेता पब्लिक का स्‍वादिष्‍ट मुरब्‍बा बनाती है। पब्लिक को जानवर (गधा) या पक्षी (उल्‍लू) भी बनाया जाता है।
वो मुरब्‍बा ही क्‍या जिसके खाने पर अब्‍बा की याद नहीं आई और अब्‍बा की याद के पीछे अम्‍मा न दौड़ी चली आई।  देश की पब्लिक केले के छिलके पर रोजाना फिसल रही है। उस पर तुर्रा यह कि नियम बना दिया गया है कि केले के छिलके पर फिसलने पर चालान जरूर होगा। आम चूसने पर दामादगिरी का मसला होने पर भी चर्चा नहीं होती। आम फल पर सामान्‍यत:न बंदर और न हाथी की नीयत डोलती है। हाथी और बंदर गन्‍ना और केला देखकर डोलते हैं और मन के रंजन के लिए केले के बागों को उजाड़ते भी रहते हैं। जबकि  लोकतंत्र में हाथी आम पर ललचायी नजरें गड़ाए रखते हैं।
हाथी का मोह गन्‍ने से भंग हो चुका है। बंदर गन्‍ना नहीं खाता है। बंदर गन्‍ना हाथ में लेकर डांस कर सकता हैहाथी के बस का यह नहीं है। हाथी को सांकल डालकर बंदर के माफिक डांस नहीं कराया जा सकता। जरूरत भी नहीं है क्‍योंकि पब्लिक भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के डांस करने में मशगूल रहती है।
हाथी को नचाना पब्लिक और नेता के बस का नहीं है इसलिए वे खतरा सामने देखकर हाथी को ढककर काम चलाते हैं। हाथी को अक्‍ल से बड़ा मान लिया गया हैभैंस इस मामले में पिछड़ गई है। इसी से देश के चहुंमुखी विकास की जानकारी मिलती है। जिनके हाथ नहीं होतेउनके हाथी होते हैं और जिनके हाथ होते हैंउनके ही हाथों में हथियार होते हैंवे महावत को भी बांधकर रखते हैंअब समझ रहे हैं आप कि देश का महावत क्‍यों मौन है ?


धमकाने की कानूनी मान्‍यता : दैनिक जनवाणी 23 अक्‍टूबर 2012 स्‍तंभ 'तीखी नजर' में प्रकाशित


चश्‍मारहित पाठन के लिए मुझे क्लिक कीजिए। 


निहायत ही शरीफ कानून मंत्री का सड़कछाप आम आदमी को धमकाना जायज ठहरता है क्‍योंकि इस समय वे अपने पूरे रुआब और शबाब पर हैं, वैसे भी आम आदमी की मजाल कैसे हुई कि उसने अपनी सड़क की करतूतों को अखबार की खबरों और चैनल की फिल्‍मों में जारी करवाने की हिमाकत की। ऐसे में कोई भी ऐरा-गैरा अगर उनको आईना दिखाता है तो वे आईन को ताक पर रखने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करेंगे। माननीय मंत्री ने इसी दिन के लिए कई साल पढाई की थी क्‍या, कि कोई भी आकर उन्‍हें पढ़ा जाए। दमदार हैसियत के मालिक होकर न धमकाना और अपने तर्क पेश करनातभी पॉसीबल होता है जब सामने रुतबे के बराबर योग्‍य व्‍यक्तित्‍व हो।
पोल खोल कर अपने व्‍यक्तित्‍व का निर्माण इस संसार में कोई चिरकुट किस्‍म का जासूस भी कर सकता है। अब जो उनकी पोल खोलना चाह रहा है या उन्‍हें धमका रहा हैवह सिर्फ विकलांगों का शेर बनकर सामने आया हैउससे मुकाबले के लिए उनकी फौज (पुलिस) ही काफी है। वैसे उनके पास पुलिस से इतर खतरनाक टाइप के बन्‍दे भी बहुतायत में हैं परन्‍तु वे धमकाने में नहीं,खुला फर्रुखाबादी खेल खेलने या ऐसे दुष्‍टों को निपटाने में ही यकीन रखते हैं। इस प्रकार धमकाना वे स्‍वयंहित में नहीं कर रहे हैं बल्कि ऐसा कदम उन्‍होंने देशहित में उठाया है। अब क्‍योंकि वे हर प्रकार से समर्थ हैं और कानूनों का भरपूर ज्ञान ही नहीं रखते बल्कि उन्‍हें परिस्थिति के अनुरूप ढालने की योग्‍यता भी रखते हैं। ऐसा करके उन्‍होंने धमकाने को कानूनी मान्‍यता प्रदान कर दी है।
फिर तुलसी बाबा इसी दिन के लिए कह गए हैं कि ‘समरथ को नहीं दोष गुंसाईं। वे देशहित में आपको अरुचिकर रखने वाले कतिपय कदम उठा रहे हैं तो इसके लिए दोषी आप और उन्‍हें ऐसा करने के लिए मजबूर करने वाले ही हुए। उनके साथ सभी वोटरों की शक्ति है जिन्‍होंने वोट नहीं दिया था उनकी भीक्‍योंकि ऐसे फैसलों में नेगेटिव मार्किंग का नियम लागू होता है। हारने वाला हार चुका है इसलिए सभी वोट कानून के अनुसार जीतने वाले के वोटों में ही जुड़े क्‍योंकि हारने वाले को अलग से हारत्‍व की शक्तियां नहीं मिलतीं।
जो लोग मंत्री के इस कारनामे को सीनाजोरी की संज्ञा दे रहे हैंउनसे कानून मंत्री इसलिए इत्‍तेफाक रखते हैं क्‍योंकि जिसके पास सीना होगावही तो सीनाजोरी करेगा। कितनी ही हसीन महिलाएं विशाल सीने की स्‍वामिनी होते हुए भी न तो जोर जबरदस्‍ती करती हैं और न करवाती हैं। जिसको सीना नहीं आतावह क्‍या खाक तो शब्‍दों की सिलाई-बुनाई करेगा और क्‍या किसी का पसीना निकालेगा। मैं आपका ध्‍यान उस ओर भी दिलाना चाहूंगा जिसमें मंत्री ने आरोपी को ‘गटर का कीड़ा’ कहा है। अब गटर के कीड़ों को वही तो पहचानेगाजिसने अपनी पूरी उम्र गटर में रहकर गुजारी हो और अब भी गटर पर उसका आशियाना हो, अब कोई उन्‍हें ‘गटर कीड़ा विशेषज्ञ’ नहीं मान रहा है तो इसमें भी दोष उन कीड़ों का ही है।  मिल्कियत का यह दंभ गटर में रहकर ही आता है और इसे हम संसद कहते हैं। जिसके भीतर से बाहर वाले गटरवासी ही दिखते हैं।
जीवन मूल्‍यों का इस तेजी से पतन हुआ है कि कुटिया या गरीबखाने की संज्ञा चलन में नहीं है। ताजा हालात के मुतल्लिक दोष सिर्फ एक मंत्री का ही नहीं है अपितु उन सभी मंत्रियों का सामूहिक तौर पर बनता है जो मंत्रियों के मुखिया के तौर पर फेमस हैं और सदैव एक के ही गुणगान करते मिलते हैं। वैसे मेरी समझ में यह भी नहीं आ रहा है किलौटना मुश्किल’ को धमकीस्‍वरूप क्‍यों लिया जा रहा हैआप बात पूरी होने से पहले ही चिंघाड़ने लगे हैं। लौटना इसलिए मुश्किल है क्‍योंकि फर्रुखाबाद में उस दिन इस मसले पर परिवहन की हड़ताल हो सकती है। अंत मेंकानून मंत्री का यह मानना कि सारी दुनिया में सबकी खिल्‍ली उड़ रही है तो सोचा कि हम भी थोड़ी सी खिल्‍ली उड़वा कर लोकप्रियता के नए पायदानों पर काबिज हो जाएंभी नाजायज नहीं ठहरता है।

केलागिरी, दामादगिरी बनाम राजनीति : दैनिक हिंदी मिलाप 20 अक्‍टूबर 2012 स्‍तंभ बैठे ठाले में प्रकाशित

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राजनीति में दामादगिरी जोरों की कयामत ढा रही है जिसकी वजह से केला और आम चर्चित हो गए हैं। वैसे आम उत्‍सव के मौके पर आम की कई किस्‍मों के दाम बादाम को भी मात कर देते हैं आंधियों के कारण आम का असमय गिरना भी उसके दामों में इजाफे के लिए दोषी होता है।  केले कभी आंधियों से नहीं गिरतेकेलों को तहस-नहस करने का श्रेय सदा से हाथियों और बंदरों के नाम रहा है। हाथी और बंदर का स्‍वभाव नेताओं में नहीं पाया जातावे सदा आम चूसना ही पसंद करते हैं और कॉमनमैन को आम की तरह चटकारे लेकर चूसते ही पाए जाते हैं।
पब्लिक को केला बनाना जितना आसान है उतना ही आम को चूसना। पब्लिक को केला बनाकर छिलका छीलकर कहीं भी फेंक दो और केले की लचीली गिरी उदरस्‍थ कर लो,पब्लिक फिसल जाएगीफिर खूब हंस लोठहाके लगा लो और लाफ्टर चैलेंज के शो में बढ़त बना लो। केले के छिलके पर पब्लिक फिसलेतुरत जुर्माना लगा दो। पब्लिक वह आम है जो सदा चूसी जाती हैपब्लिक केले के छिलके पर फिसलती है और नेता पब्लिक पर। फिसलता भी है और पब्लिक को घसीटता भी है। यही युगीन सत्‍य है। आम का पापड़पापड़ होते हुए भी उसके अवगुणों से मुक्‍त रहता है। आम का पापड़ खाते हुए कड़ तड़ पड़ की आवाज नहीं करता, यह चबाए जाने पर भी मौन रहता है। इस पापड़ को युगों युगों से चटकारे लेकर चाटा जाता रहा है और चाटा ही जाता रहेगा। यह आम की खासियत हैऐसा समझ रहे हैं तो आप मुगालते में हैं क्‍योंकि आम का मुरब्‍बा भी बनता हैजैसे नेता पब्लिक का स्‍वादिष्‍ट मुरब्‍बा बनाती है। पब्लिक को जानवर (गधा) या पक्षी (उल्‍लू) भी बनाया जाता है।
वो मुरब्‍बा ही क्‍या जिसके खाने पर अब्‍बा की याद नहीं आई और अब्‍बा की याद के पीछे अम्‍मा न दौड़ी चली आई।  देश की पब्लिक केले के छिलके पर रोजाना फिसल रही है। उस पर तुर्रा यह कि नियम बना दिया गया है कि केले के छिलके पर फिसलने पर चालान जरूर होगा। आम चूसने पर दामादगिरी का मसला होने पर भी चर्चा नहीं होती। आम फल पर सामान्‍यत:न बंदर और न हाथी की नीयत डोलती है। हाथी और बंदर गन्‍ना और केला देखकर डोलते हैं और मन के रंजन के लिए केले के बागों को उजाड़ते भी रहते हैं। जबकि  लोकतंत्र में हाथी आम पर ललचायी नजरें गड़ाए रखते हैं।
हाथी का मोह गन्‍ने से भंग हो चुका है। बंदर गन्‍ना नहीं खाता है। बंदर गन्‍ना हाथ में लेकर डांस कर सकता हैहाथी के बस का यह नहीं है। हाथी को सांकल डालकर बंदर के माफिक डांस नहीं कराया जा सकता। जरूरत भी नहीं है क्‍योंकि पब्लिक भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के डांस करने में मशगूल रहती है।
हाथी को नचाना पब्लिक और नेता के बस का नहीं है इसलिए वे खतरा सामने देखकर हाथी को ढककर काम चलाते हैं। हाथी को अक्‍ल से बड़ा मान लिया गया हैभैंस इस मामले में पिछड़ गई है। इसी से देश के चहुंमुखी विकास की जानकारी मिलती है। जिनके हाथ नहीं होतेउनके हाथी होते हैं और जिनके हाथ होते हैंउनके ही हाथों में हथियार होते हैंवे महावत को भी बांधकर रखते हैं, अब समझ रहे हैं आप कि देश का महावत क्‍यों मौन है ?

अभिव्‍यक्ति के विकास का जीवंत दौर : मीडिया विमर्श त्रैमासिक पत्रिका के सितम्‍बर 2012 अंक में प्रकाशित

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निर्देशक को चाहिए पूरी आजादी : दैनिक नवभारत टाइम्‍स, नई दिल्‍ली 22 फरवरी 1995 में प्रकाशित

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दमादम मस्‍त दामादम : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 16 अक्‍टूबर 2012 स्‍तंभ 'उलटबांसी' में प्रकाशित

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दामादजी हम तुम्‍हारे साथ हैं, की चिल्‍लाहटें सुर्खियों में हैं। चैनल और प्रिंट मीडिया के नलों की सुर्खियों से प्रचार का रिसना अब भी जारी है। पचास  लाख का भाग्‍य जागा और वे तीन सौ करोड़ हो गए।  दामाद, नोट और प्रचार तीनों एक, दूसरे और तीसरे पर टिके हुए हैं। सिर्फ दामाद कहना अब जुर्म हो गया है इसलिए अब उन्‍हें दामाद जी कह कर  संबोधित किया जा रहा है। वैसे जी लगाने से घोटालों की याद आने लगती है।  शब्‍दों के अर्थ उनके कारनामों से डिसाइड होते हैं। जी अनेक नेक अर्थों से मालामाल है। दो जी के घोटाले तब होते हैं, जब दो को टू कहा जाता है। इसी प्रकार थ्री लगाने से भी घोटाला और फोर लगाने से भी होने वाले घोटाले को टाला नहीं जा सकता। जी को दोहराएंहोता तब जीजी है किंतु बहन और तीन बार जीजीजी बहन के प्रति आदरभाव प्रकट करता है। जी शब्‍द की फजीहत सरकार ने घोटाले-घपलों की ओर से आंख मूंद कर होने दी है। दामाद का दामाद जी होना उसी का असर है। जी कहना अपमानसूचक हो गया है।
दामाद शब्‍द के मध्‍य से ‘मा’ को निकाल दिया जाए, इससे बाकी रह जाती है दाद । कौन रोक सकेगा इसके बदलते अर्थ की जिहाद। दाद के दो मायने लोकप्रिय हैं। एक बीमारी है और  दूसरा कवियों और ग़ज़लकारों के उत्‍साहवर्द्धन के लिए बादाम। इसे जानने के लिए बनाना रि‍पब्लिक को अलग से बनाना नहीं पड़ेगा।
दामाद को उर्दू के माफिक उल्‍टी गिनती की मानिंद पढ़ने पर और हिंदी के पहले अक्षर से पहले एकाएक ब्रेक लगाने पर दमा बचता है। दमा नुकसानदेह है, दमदार का भी दम निकाल देता है। दामाद का दम निकला हुआ है। इतिहास साक्षी है कि दामाद ने सदा बेदम किया है। दामाद का दम बचाने के लिए सरकार के पालतू अपना दम न्‍यौछावर करने के लिए तैयार हैं। जबकि ऐसे कारनामों को खुदकुशी की संज्ञा दी गई है। सरकार दामाद को महिमामंडित करते हुए इसे शहीद बतला रही है। सरकार को दमा हो गया है और सांस फूल रही है। उठापटक पटककर उठाने और फिर से पटकने की कबड्डी जारी है। जान देने की जगह लेने के उपक्रम जोरों पर है, ऐसी सुगबुगाहटें माहौल में हैं।
दामाद का जी नश्‍तर की धार पर है। दामाद चिल्‍लाएं नहीं तो और क्‍या करें  दामाद को जान बचाने के लाले पड़ गए हैं। सरकार के गाल भी लाल हैं। कोई भी लाड लड़ाते हुए चिकोटी काट लेता है। उनकी सम्‍पत्ति और नोटों की मुनादी ने सबको इसी धंधे की ओर खींचा है। सरकार से रिश्‍तेदारी में ऐसा ही होता है। नाते-रिश्‍ते सब फरेब में बदल जाते हैं। दरक-चटक जाते हैं  रिश्‍तों की चमक मंद पड़ जाती है दोस्‍ती बुरी चीज नहीं है। फेसबुक की दोस्‍ती और ट्विटर की चहचहाहट सबसे अधिक सफल है। दोस्‍ती खत्‍म किंतु चहचहाना जारी है। सब कुछ समझ में आ गया किंतु यह नहीं आया है कि फेसबुक से ऑलविदा के नए मायने क्‍या हैं ?