राजनीति के माफिया पर चलें चालीस केस : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स 9 अक्‍टूबर 2012 'उलटबांसी' स्‍तंभ में प्रकाशित

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राजनीति में माफिया की अजब लीला की किस्‍सागोई वे खूब खुश होकर कर रहे हैं। जो माफिया नहीं बन सका उसका कैरेक्‍टर ढीला है जो माफिया हैं उनका चरित्र बहुत टाइट, ब्राइट और रंगीला है। कोयले की कालिमा पर जो गर्व करे, उसके पाने को पर्व की तरह सेलीब्रेट करेकाले से भी प्‍यार का इजहार करेअपनी ईमानदारी निछावर बार-बार करेविचारों में इतनी कालिमा भर ले कि काले कायेले को भी शर्मिन्‍दा होना पड़े, पत्‍नी को मनोरंजन का सामान बतला दे। यह काम आम अवाम का कैसे हो सकता  है। नोट बटोरू कवि या प्रख्‍यात नेता ऐसे कार्यों और बयानों को अंजाम देने में सिद्ध होते हैं। राजनीति में माफिया की घुसपैठ से भला कौन परिचित नहीं है, वोटर के वोट के बल पर वहां प्रवेश पाया जाता है जिसे हड़पने के बाद उसे धकिया दिया जाता है। दिखावटीपन से वे कोसों दूर हैंकरने में यकीन रखते हैंसब तरह के घोटाले वह मुमकिन करते हैं। सब कुछ बेच खाते हैंघपलों को सुर्खाब के पर लगाते हैं उन्‍हीं के बल पर उड़कर वोटरों को लुभाते हैं। पांच साल बाद जनता के बीच में जा कर आश्‍वासनों का घमासान लुटाते हैंभाषणों की भरपूर खेप झाड़ते हैं।

कुर्सी उनकी ताकत है लेकिन एक सीढ़ी से अधिक अहमियत नहीं रखती। सारी हदें उसी की ताकत पर फर्लांगते हैं और उनकी नई पहचान बनती है - माफिया दादा और चालीस केस। इतने पर भी धरे नहीं जाते हैं। राजनीति में माफिया के भेस में आते हैं और जनता को समझते हैं भैंस। ऐसे माफिया सरगना नहीं लगाते काला चश्‍मा, होते हैं उनके काले केस, चुस्‍त ड्रेस नहीं पहनते, रिवाल्‍वर नहीं रखते। पहनते हैं खादी के कपड़ेखादी की टोपी लेकिन दिमाग होता है उनका शातिराना। षडयंत्र रचते हैं और माफिया से मिलाते हैं जुर्म का काफियानोट सहेजते हैं और अधिक से अधिक बुरे काम करते-करवाते हैं। फिर भी दोनों हाथ जोड़कर गीत देशभक्ति के गाते हैं। गांधी जयंती की सुबह राजघाट पर सिर नवाते हैं। कसम खाते हैं और खाया-पिया पचाने के लिए कुपथ पर जम जाते हैं। ड्राई डे को कर देते हैं गीलाऐसे हैं राजनीति के माफिया मिस्‍टर रंगीला।

लोहे के पुल पर लदकर घोटाले के ढोल बजाते हैं। नोट सचमुच में पाते हैं परंतु कार्य सभी कागजों में संपन्‍न करवाते नहीं अघाते। फाईलों के कागजों को हरेलाल कागजों में बदलने का गुर जानते हैं इसलिए ही तो वे खुद को नेता नहींमाफिया मानते हैं। न वे गांधी हैं परंतु नोटों पर छपे गांधी की छवि से करते हैं प्‍यार,उसी पर जाते हैं बारंबार बलिहार। अपने विदेशी खातों में गांधी की छवियां सहेजते हैं बेशुमार। माफिया को नोटों से ही होता है पहला प्‍यार। राजनीति में पब्लिक,वोटरकुर्सी यानी सत्‍ता पाने के बाद सब बेकार। पांच साल बाद फिर दौड़ाएंगे लोक लुभावन वायदों की कार,जिस पर होकर सवारजीत कर फिर आएंगे अगली बार। रोक पाओ तो रोक लेना वोटर बरखुरदार। 

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