कुर्सी उनकी ताकत है लेकिन एक सीढ़ी से अधिक अहमियत नहीं रखती। सारी हदें उसी की ताकत पर फर्लांगते हैं और उनकी नई पहचान बनती है - माफिया दादा और चालीस केस। इतने पर भी धरे नहीं जाते हैं। राजनीति में माफिया के भेस में आते हैं और जनता को समझते हैं भैंस। ऐसे माफिया सरगना नहीं लगाते काला चश्मा, होते हैं उनके काले केस, चुस्त ड्रेस नहीं पहनते, रिवाल्वर नहीं रखते। पहनते हैं खादी के कपड़े, खादी की टोपी लेकिन दिमाग होता है उनका शातिराना। षडयंत्र रचते हैं और माफिया से मिलाते हैं जुर्म का काफिया, नोट सहेजते हैं और अधिक से अधिक बुरे काम करते-करवाते हैं। फिर भी दोनों हाथ जोड़कर गीत देशभक्ति के गाते हैं। गांधी जयंती की सुबह राजघाट पर सिर नवाते हैं। कसम खाते हैं और खाया-पिया पचाने के लिए कुपथ पर जम जाते हैं। ड्राई डे को कर देते हैं गीला, ऐसे हैं राजनीति के माफिया मिस्टर रंगीला।
लोहे के पुल पर लदकर घोटाले के ढोल बजाते हैं। नोट सचमुच में पाते हैं परंतु कार्य सभी कागजों में संपन्न करवाते नहीं अघाते। फाईलों के कागजों को हरे, लाल कागजों में बदलने का गुर जानते हैं इसलिए ही तो वे खुद को नेता नहीं, माफिया मानते हैं। न वे गांधी हैं परंतु नोटों पर छपे गांधी की छवि से करते हैं प्यार,उसी पर जाते हैं बारंबार बलिहार। अपने विदेशी खातों में गांधी की छवियां सहेजते हैं बेशुमार। माफिया को नोटों से ही होता है पहला प्यार। राजनीति में पब्लिक,वोटर, कुर्सी यानी सत्ता पाने के बाद सब बेकार। पांच साल बाद फिर दौड़ाएंगे लोक लुभावन वायदों की कार,जिस पर होकर सवार, जीत कर फिर आएंगे अगली बार। रोक पाओ तो रोक लेना वोटर बरखुरदार।
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