ममता की मकड़ी का जाला : दैनिक जनवाणी 9 अक्‍टूबर 2012 स्‍तंभ 'तीखी नजर' में प्रकाशित


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ममता की मकड़ी जब चिपट जाती है तो मकड़ी के मानिंद त्‍वचा में भीतर तक धंस जाती है। रोम छिद्रों में गहरे तक गड़ जाती है, जड़ बन जाती है। इस ममता की गहरी जड़ों से छुटकारा दिलाने के लिए कौन चाणक्‍य आएगा? ममता यूं तो दिखलाई नहीं देती किंतु नादान नवशिशु को भी समझ आती है। मकड़ी दिखाई पड़ती है जब वह मक्‍खी को अपने तीखे जबड़े में दबोच कर चूसती है, किंतु मासूम जान पड़ती है। ममता और मकड़ी की मासूमियत से सदा बचकर रहना चाहिए और मक्‍खी की मानिंद गफलत में नहीं डूबना चाहिए।
मासूमियत आजकल स्‍नेह प्रदर्शन करते हुए लूट लेती है। ममता स्‍वयं छांव की तलाश में हो तो सबको चौकन्‍ना हो जाना चाहिए। ममता जानती है कि कौन से पत्‍ते से हरियाली आएगी, मन की कली खिल खिल जाएगी और कौन से सूखे पत्‍ते से पतझड़ का वायरस बन झड़ जाएगी। टहनी या पेड़ के तने को हिलाने से कौन सा अटका हुआ पत्‍ता झड़ेगा और कौन सा पत्‍ता टूटकर गिरेगा,  पत्‍ते के झड़ने और गिरने का यह रहस्‍य ममता भी नहीं जान पाती है इसलिए ऐसे जोखिम मोल लेना हितकर नहीं रहता। ममता का न तो पत्‍तों का कारोबार है और न लत्‍तों का, परंतु यह इन दोनों की क्‍वालिटी को अवश्‍य पहचानती है। लत्‍ते न होने पर पत्‍तों को शरीर छिपाने के लिए उपयोग करने की कई मिसालें आज भी मौजूद हैं।
पत्‍तों का समूह सिर्फ पतझड़ में ही पेड़ की टहनियों से संबंध विच्‍छेद करता है – यह प्राकृतिक व्‍यवस्‍था है जबकि पेड़ को बिना हिलाए, बे-पत्‍ता करने में पृथ्‍वी की ममता का कोई सानी नहीं है। वैसे पत्‍ते बोलते भी हैं, उनकी सरसराहट आपने भी सुनी होगी पर वे क्‍या कहना चाह रहे हैं, यह आपकी समझ में आज तक नहीं आया होगा। पत्‍तों की सरसराहट उनकी बोली है। इस बोली को केवल पेड़ ही समझते हैं – ऐसा भी नहीं है क्‍योंकि वायु के मेल से यह सरसराहट जन्‍म लेती है। हवा का रुख कैसा है, किस तरफ है, किसके प्रतिकूल और किसके अनुकूल है – इसी से पेड़ और पत्‍ते के मन में छिपे भेद उजागर होते हैं। पत्‍तों के जरिए ही पेड़ पर हो रहे दुराचार का अहसास होता है। पेड़ का पीला पत्‍ता बतलाता है कि पेड़ बीमार है। उसे पौष्टिकता देने की बात तो भूल जाइए साफ पानी तक  नहीं दिया जा रहा है। इस सबके लिए दोषी सिर्फ इंसान ही है। पीले पत्‍ते देकर इंसान पेड़ को काट डालता है और लकड़ी को उपयोग में ले लेता है। वह यह विचार भी नहीं करता कि एक पेड़ का कत्‍ल करके वह पर्यावरण और खुद को कितना बड़ा नुकसान पहुंचा रहा है। जो ममता पेड़ों से होनी चाहिए, वह मोह पैसों से हो गया है। पेड़ों पर भी अगर पैसे उगने लगें तो सारे संसार में एक भी पेड़ न काटा जाए।  यह लालच नहीं तो और क्‍या है ?
ममता यूं तो गलतियों को बिसरा देती है परंतु शर्त यही रहती है कि भूल बच्‍चे ने की हो और सच्‍ची हो। झूठी और बनावटी भूलों की माफी के लिए मन में न कभी कोई जगह रही है और न रहनी ही चाहिए। बालपन और बच्‍चे की चूक तो यों भी सच्‍ची मानी जाती हैं। बच्‍चों को मन का सच्‍चा माना गया है लेकिन मन का झूठा कौन है, इसकी न तो कभी खोज ही की गई है और न ही ढूंढने की जरूरत ही पड़ी है। झूठ से यों ही काम चल जाता है वहां पर मन की जरूरत नहीं होती है। वहां पर भी मन मिल गया तो झूठ बोलना भी दुश्‍वार हो जाएगा। वह तो यूं भी किसी भी कदम पर दम तोड़ देता है।  
ममता की मकड़ी ऐसी कड़ी है जो ममता नहीं है, हवस या वासना जरूर है। मकड़ी अपनी भूख-प्‍यास को मिटाने के लिए मक्‍खी को जाल में फंसाती है और उस पर बुरी तरह टूट पड़ती है। बडी मकड़ी छोटी मकड़ी के मामले में भी ममता नहीं दिखलाती है,  वैसे ही जैसे बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को खा जाती हैं। मकडि़यों के मामले में भी ऐसा है और ममता के मामले में जानने के लिए आपको अपनी छठी इंद्रिय या तीसरी आंख को सक्रिय करना होगा ? अन्‍यथा मकड़ी के इस जाले से आपको कोई बचा नहीं पाएगा, जाल में ही उलझकर रह जाएगा।

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