मकड़जाल में फांसने में माहिर नेता : दैनिक जनसंदेश टाइम्‍स स्‍तंभ 'उलटबांसी' में 23 अक्‍टूबर 2012 को प्रकाशित



चाट वही जो चाटी जाए। चाट को खाना, उसके साथ रेप करने जैसा है। चबाने वाली चीज को चाटना, अच्‍छा नहीं लगता। आज बलात्‍कार को साबित करना ही सबसे अधिक कठिन कार्य है। इसमें हादसे के शिकार को ही जांच के नाम पर प्रताडि़त किया जाता है। शिकारी सदा सुरक्षित रहा है, बचने के लिए उपाय नहीं ढूंढने पड़ते।
चाट का आनंद चाटने में ही है क्‍योंकि चाटना जीभ का गुण है, चबाते दांत हैं। इसे गुनाह मानने वालों की कमी नहीं है। मीठी गोली सिर्फ चूसने पर ही आनंद देती है, उसे चबाओगे तो आनंद भी नहीं देगी और इर्रीटेट भी करेगी। कड़वी गोली को मीठे लेप के साथ इसलिए निगला जाता है, क्‍योंकि चूसना चाहा तो गोली के लाभ दूर हो जाएंगे, इर्रीटेशन कड़वा होगा तो झुलसा देगा। टाफी को दांतों से कुचलकर खाने में स्‍वाद आता है। कई टाफियां निर्लज्‍ज होती हैं और खाने वाले के दांतों में इस कुशलता से चिपक जाती हैं कि जीभ को मजबूरन उन्‍हें चाटना ही पड़ता है।
अब चूसने और चाटने में जो बारीक भेद है, उसका ज्ञान सबको सरलता से नहीं होता है। आम आदमी तो चूसने और चाटने को एक नियमित प्रक्रिया समझ कर गलतफहमी में घिरा रहता है। आम को काटा और चूसा जाता है इसलिए नेताओं के लिए अवाम आम है जिसे मौके की नजाकत देखकर काटा या चूसा जाता है। चूसने और चाटने में भेद करने के लिए अधिक ज्ञानवान होना जरूरी नहीं है। परंतु अज्ञानी इसे एक जैसा समझ बैठने की खुशफहमी पाल बैठते हैं। चाटने वाले तो दिमाग चाटते हैं, इसे आजकल पकाना कहा जाता है। कच्‍चा दिमाग का ऑनर रेल और पटरी दोनों का सत्‍यानाश कर देता है। माहिर से माहिर व्‍यंग्‍यकार भी दिमाग को चूसने की कूबत नहीं रखते हैं, वे पाठक का दिमाग चाटते हैं, संपादक का दिमाग चाटते हैं, उन्‍हें तो कोई भी मिल जाना चाहिए, अगर दिमाग का फलूदा नहीं बना दिया, तो कौन मानेगा उन्‍हें व्‍यंग्‍यकार ?
चाटने के गुण चटाई में पूरी शिद्दत से मौजूद रहते हैं। चटाई जमीन पर बिछकर अपने चटाई धर्म को साकार करती है और अपने ऊपर बैठने वालों को मिट्टी और धूल से बचाती है। चटाई का कार्य जनसेवा की मानिंद है। खुद गंदे होकर गंदगी और धूल मिट्टी से बचाव करना चटाई की क्‍वालिटी है। इसके लिए चटाई की बिछाई सलीके से की जानी चाहिए। चटाई यूं चटकती नहीं है परंतु अगर बेढंगी बिछी हो तब भी बैठने वाले को मिट्टी से सान देती है।
आप मकड़ी को ही देखिए, अपनी लार से ऐसा जाला बुनती है कि बेचारी मक्‍खी उसमें फंस कर तड़पती रहती है। जिसे अपनी नुकीली सुईयां चुभा चुभा कर चूसना मकड़ी का कारनामा है। मकडि़यों के इस हुनर को आजकल नेताओं ने अपना लिया है, वे वोटर को अपनी बातों के जाल में फंसाकर वोट हड़प लेते हैं और फिर पांच साल तक लगातार उसे आम के माफिक काटते तथा चूसते रहते हैं। मकड़ी से इतर नेता वोटर को जीवित छोड़ मकड़पने का हुनर दिखाते हैं। जिसमें उनके सत्‍ता में फिर से काबिज होने की संभावनाएं छिपी रहती हैं। आखिर पांच साल बाद भी वोट लेना है, आप भी तो अगली बार वोट देने को तैयार हैं न ?

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