मैंने दो बार लिखकर भेजा था, अखबार ने एक बार भी नहीं छापा, लेख नहीं लेखक का नाम।
ओलंपिक खेलों में कुश्ती के लिए चांदी जीतकर सुशील कुमार ने प्रत्येक भारतवासी का मन सोना-सोहना कर दिया है। जबकि खेलों में शामिल होने के लिए ‘कुश्ती’ के निराले खेल राजनीति में रोजाना दिखाई दे रहे हैं। ओलंपिक में हमारे पहलवान ने कुश्ती में चांदी जीत ली है इससे राजनीतिज्ञ मायूस हो गए हैं क्योंकि वे तो रोजाना ‘संसद में कुश्ती’ खेलते हैं। फिर भी न तो उनको चांदी मिलती है और न इतनी सारी सुर्खियां, न ओलंपिक जैसे खेलों में उनको शामिल होने के लिए सरकारी दौरे को मंजूरी ही मिलती है। उनकी कुश्ती से प्रभावित होकर कहीं दीपावली भी नहीं मनाई जाती है।
खेलों में कुश्ती की पुरानी परंपरा रही है। कुश्ती की खासियतों से प्रभावित होकर अब अन्य क्षेत्रों में भी कुश्तियां जारी हैं। रोज ही आप कुश्ती की सगी बहन धींगामुश्ती के अजूबों से दो-चार-छह होते रहते हैं। खेलों में ‘कुश्ती की धींगामुश्ती’ पर लिखने के लिए खूब सारी संभावनाएं हैं। ओलंपिक में सरकारी मेहमान बनकर शामिल होने के लिए ‘खिलाड़ी’ सभी उपाय अपनाते हैं, जो खेलों में जाने की मंजूरी पा जाते हैं, वे खिलाड़ी और बाकी अनाड़ी साबित हो जाते हैं। जबकि खेलों में शामिल होने के लिए सिफारिश से लेकर नोटों तक की बारिश करने के लिए तैयार रहते हैं। खेलों में कुश्ती की शुरूआत यहीं से मानी जा सकती है।
‘सच्चे खिलाड़ी’ चाहे लाख कोशिश करते रहें किंतु वे अपनी सच्चाई के बल पर ओलंपिक में शामिल नहीं हो पाते। शामिल नहीं हो पाते इसलिए चांदी सोने और कांस्य के मिलने से वंचित रह जाते हैं। इसी खूबसूरत कुश्ती के चलते न जाने कितनी प्रतिभाएं गुमनामी के भंवर में घूम गई हैं, जिनमें से बहुत सारी तो डूब गई हैं। कोई सड़क के किनारे खड़े होकर छोले-भटूरे बेच रहा है, तो कोई चाय का ठिया चला रहा है, अब उस खिलाड़ी में इतनी ताकत भी नहीं बची है कि वह कुश्ती में शामिल होने के ख्वाब भी देख सके, शामिल होकर खेलना ‘दूर की कुश्ती’ है।
खिलाड़ी से पहले इस प्रकार के समारोहों में भाग लेने के लिए सबसे अधिक उतावले हमारे चयनित प्रतिनिधि रहते हैं। फिर मंत्रालयों के अधिकारी शामिल होने के लिए जुगाड़ भिड़ाते रहते हैं। इन सबकी कोशिशें सपरिवार जाने की होती हैं। मानो, इनके न शामिल होने से खेलों का आयोजन खटाई में पड़ जाएगा। इनमें एक और नई श्रेणी इन दिनों उजागर हुई है, घपले-घोटाले करने के बाद भी खेलों में शामिल होने के उनके द्वारा की जारी ‘कुश्ती’ प्रशंसनीय रही है। संसद और विधानसभाओं में तो रोजाना ‘कुश्ती के जौहर दिखलाने का मौसम’ बना रहता है।
कुश्ती विधा की देश को प्रत्येक क्षेत्र में खासी जरूरत है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता। आप इंकार करेंगे तब भी कुश्ती विधा, किश्ती बनकर तैरते हुए डूबने से तो रही। कुश्ती को आप हाकी, बैडमिंटन, बॉलीबाल अथवा क्रिकेट मत समझ लीजिएगा जबकि कुश्ती का व्यापक असर इन खेलों पर भी पड़े बिना नहीं रहा है।
जहां भी जब भी खेलों का आयोजन होता है, वहां पर सबको कुश्तियों का दिव्य-भव्य स्वरूप अवलोकित करने का अवसर मिलता है। इन कुश्तियों के दीदार के सामने, किसी भी खेल में खेलकर चांदी, सोना पाना भी कोई अहमियत नहीं रखता है। ‘कुश्ती का रोमांच’ बड़े-बड़े सभी प्रकार के मंचों पर आप रोज ही देखते हैं। आजकल ‘बाबाओं की कुश्ती’ जंतर पर अपना मंतर दिखला रही है, इससे तो आप इत्तेफाक रखते हैं न !
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