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सरकार ने कानून बनाकर पढ़ने वाले बच्चों को इतना बिगाड़ दिया है कि शिक्षक दिवस पर मास्टरों की चाहे न हो किंतु विद्यार्थियों की मौजूदगी और चर्चा बहुत जरूरी है। आखिर वे विद्या की अर्थी उठाने में निष्णात हो चुके हैं। नतीजा मास्टर सहमे सहमे से स्कूल जाते हैं। कितनी ही बार मैंने मास्टरों को बच्चों के डर के कारण स्कूल से बंक मारते देखा है। बंक मारने में स्कूल के प्रिंसीपल भी यदा कदा अग्रणी भूमिका निभाते पाए जाते हैं। प्रत्यक्ष में तो बहाना और ही होता है किंतु परोक्ष में प्रिंसीपल और मास्टर बच्चों से डरने को मजबूर हैं क्योंकि उनके पास कार, मोबाइल, गर्ल फ्रेंड्स के लेटेस्ट वर्जन मौजूद हैं जबकि मास्टर सार्वजनिक बस अथवा मेट्रो में सफर करते हैं और लोकल कंपनियों के आउटडेटेड फोन रखते हैं। सरकार मास्टरों को इत्ता डरा रही है या बच्चे। अब यह शोध का भी विषय नहीं रहा है क्योंकि सब जान गए हैं कि यह कारनामा सरकार का ही है। कारनामा में आगे कार और सरकार में पीछे कार – कार से मास्टरों का आगा-पीछा सदा घिरा रहता है। मास्टर कोशिश करके भी इस घेरे से बाहर नहीं निकल पाते हैं।
इस पर तुर्रा यह भी है कि मास्टर बच्चों को फेल करने की हिमाकत भी नहीं कर सकते क्योंकि सरकार ने इनके हाथ काट दिए हैं और कलम की स्याही फैला दी है और निब तोड़कर निकाल दी है। बच्चों को फेल करना खतरनाक श्रेणी का जुर्म करार दे दिया गया है। बच्चे स्कूल से बंक मारें, गर्ल फ्रेंड के साथ सिनेमा देखें, पार्क में कोने कोने का फायदा उठाएं। जबकि मास्टर ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते हैं। मास्टर अगर बंक मारते हैं तो प्रधानाचार्य और प्रशासन के ज्ञापन और सजा से बच नहीं सकते।
सोच रहा हूं कि इसे विकास मानूं या बच्चों का जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास। मास्टरों में आत्मा रहने ही नहीं दी गई है इसलिए विश्वास का तो सवाल ही नहीं उठता। आज स्थिति यह है कि मास्टर तो मास्टर माता-पिता भी बच्चों से डरने को मजबूर हैं और अपने बच्चों की मजदूरी कर रहे हैं। न जाने कब उनकी आंखों का तारा अथवा तारारानी उनकी सरेआम बोलती बंद कर दे इसलिए उन्होंने भी बोलने की जहमत उठाना बंद कर दिया है। मास्टरों पर अंकुश और उनसे पढ़ने वाले बच्चे निरंकुश। आजकल के बच्चे मानो, सरकार हो गए हैं और मास्टर विपक्षी दल, जिन्हें हल्की सी फूंक से बच्चे उड़ाने में सफल हैं। मास्टर की किस्मत में सदा हारना ही लिख दिया गया है।
यह वह इक्कीसवीं सदी है जब मास्टर होना कलंक का पर्याय हो गया है और बच्चे कलगी लगाए चहचहा रहे हैं, धूम मचा रहे हैं,रेव पार्टी में शिरकत कर रहे हैं। धूम एक, दो, तीन तथा पौ एकदम बत्तीस और मास्टर अपनी बत्तीसी दिखाकर हंसने में भी खौफज़दा। अजीब आलम है, बच्चों की ताकत को कम करके आंकना मास्टरों के लिए तो कम से कम अब संभव नहीं रहा है। मास्टरों की इस दुर्गति के लिए न जाने, कौन जिम्मेदार है,लगता है कि मास्टर ही जिम्मेदार हैं जो इतना होने पर भी मास्टर बनने में फख्र महसूस कर रहे हैं। मास्टर बनने की तालीम पाने के लिए जुटी भीड़ को देखकर लगता है कि उम्मीदवारों को नवाबी के पद पर नियुक्त किया जा रहा हो।
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