मैं फोन का जिक्र इसलिए निडर होकर कर रहा हूं क्योंकि कार्टून नहीं बना रहा हूं। कार्टून बना रहा होता तो जरूर मेरी डर के मारे घिग्घी बन गई होती और मैं कार्टून बनाने से पहले ही बेहोश हो गया होता या कर दिया गया होता। अब चूंकि मैं व्यंग्य लिख रहा हूं और आज तक किसी व्यंग्यकार को उसके व्यंग्य के लिए सजा या प्रताडि़त करने की मिसाल इसलिए नहीं मिलती है क्योंकि लोग देख कर समझने में विश्वास रखते हैं। पढ़कर समय बेकार करने में उनका यकीन नहीं होता। अब आप इस न पढ़ने के रुझान का प्रभाव देख लीजिए कि लेखक को प्रकाशक निचोड़ता रहता है और लेखक नींबू की तरह पूरा निचुड़ जाने और पाठकों को ठंडक व खटाई पहुंचाने में खप जाता है। इस मेहनत के लिए उसे मजदूर की श्रेणी में भी नहीं लाया गया है और उसे न्यूनतम मजदूरी के लायक भी नहीं समझा जाता है। लेखक वही जो बेगार करे, लिख लिखकर बेकार पन्नों को काला करे और सरकार कागज को कोरा ही रहने दे। किसी भी प्रकार के कारधारक होने के तो फायदे अब रहे नहीं हैं। यह सब पेट्रोल की बदमाशी है। अब साइ्रकिल अथवा रिक्शाधारक होना खूब सुकून देता है।
आरोप रोपने के बाद अंकुरित होगा या नहीं होगा। इस बारे में राजनैतिक किसान जानते हैा कि खेती और फसल वाले सारे नियम यहां लागू नहीं होते हैं। सियासत के नियम खूब लचीले होते हैं और सत्तासीन उन्हें लीची सरीखा बना लेते हैं। लीची की रसधार खूब गुदगुदाती है और अधिक चाहिए तो रसभरी ले आइए। जैसे लियोनी की देह और पूनम पांडेय के वस्त्रों को सब निगाह में ही खींच उधेड़ डालते हैं। यह कपड़ों से वीतरागीपन है । संन्यासी भी सिर्फ एक ही कार्य कर सकता है। ऐसा नहीं है, आजकल के संन्यासी भी मल्टीटॉस्किंग में भरोसा रखते हैं। पहले संन्यास सिर्फ गृहस्थ धर्म से मुक्ति पाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता था, जिसे आज दुरुपयोग समझा जाता है। संन्यास चाहे जिससे ले लो। लो मत सिर्फ घोषणा ही कर दो और सारे लाभ झटक लो। संन्यास लो और किसी के साथ भी लटक लो। कोई भटक जाए पर आप लटकना मत छोडि़ए।
आप मन मोहन के साथ संन्यासी परमानेंट मोहन हैं, इसे मत भूलिएगा। इसी के बल पर आप जमे रहेंगे और कोई फसल का एक पौधा भी नहीं उखाड़ पाएगा। कोशिश करेगा तो बुरी तरह पिछड़ जाएगा। संन्यासी के लिए मंदिर बेहद मुफीद जगह है। वैसे पहले पहाड़ और उनकी गुफाएं हुआ करती थीं, आजकल विदेशी बैंक हुआ करते हैं। इतना अंतर तो तकनीक की प्रगति के साथ अपेक्षित है प्यारे मोहन जी। मोहन जी को मेरी बातों में हनी का आस्वादन हो रहा था और इसके विपरीत वह संन्यासी होने के लिए भाषणिक रूप से तैयार चुके हैं। इसी आस्वाद में रमण करते करते वह हनी में डूबने उतराने लगे और उन्हें बेहद रंगीले संगीन सपने आंखों में आने लगे, दिल में समाने लगे। वही सपने रूप बदलकर प्यारे मोहन जी अब पब्लिक को दिखला रहे हैं और पब्लिकसिटी का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। इस प्रकार के फायदे उठाने में जोर नहीं लगता है और इससे पैदा हुए उभार भी दिखलाई नहीं देते हैं, इसलिए इन्हें भार नहीं माना जाता। वैसे भी उभार मन को ललचाते रहे हैं।
पीएम की बातों के रस रहस्य जंगल में मुझे भी आनंद आने लगा था और में व्यंग्य की कार छोड़कर अब रिक्शा चलाने लगा था। यह सलाह भी प्यारे मोहन ने ही फोन पर बातचीत में दी थी ताकि बढ़े हुए पेट्रोल रेटों का वेट व्यंग्यलेखक की रूखी सूखी काया पर असर न डाल सके। आप भी मेरी तरह प्यारे मोहन जी की राय से सहमत हैं न ?
बेचारा कार्टूनिस्ट
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