हजारी लाल ने आज अपनी दुकान बंद कर रखी है। बाहर एक टैन्ट लगा हुआ है और नीचे बिछे गद्दों पर आठ दस लोग मुंह लटकाए बैठे हैं। मानो किसी का मातम मना रहे हों। मैं किसी अनहोनी की आशंका से स्तब्ध हूं। क्या हुआ हजारीलाल मैं पूरी तरह गंभीरता ओढ़कर पूछता हूं। मुन्नाभाई आज मुझे पहली बार अपने हज्जाम होने पर दुख हो रहा है, कि क्यों मैंने नाई की दुकान खोली, जबकि देश में रोजगार के इतने अधिक अवसर मौजूद हैं। मैंने कहा और वह भी तब जब तुम उच्च शिक्षा प्राप्त हो तो .... । पढ़ा लिखा हूं इसलिए ही तो बाल काट रहा हूं, उस घड़ी को कोस रहा हूं जिस दिन मैंने हज्जाम बनने का फैसला लिया था मुन्नाभाई। सीखने में पैसा खर्च किया अलग, उसके बाद दुकान किराए पर लेना, उसमें फर्नीचर पर खर्चा – मेरी तो मति मारी गई थी। अब भी दुकान किराए की ही है। उसी का किराया भर रहा हूं।
मुझे लगा कि हजारी लाल दो-तीन महीने से किराया नहीं देने का रोना रोएगा या बिजली के बढ़े बिल का भुगतान नहीं कर पाने से दुखी होगी और बिजली कट गई होगी। मुझे उससे सहानुभूति हो आई, मेरा मन उसके दुख से द्रवित हो उठा, सोचा इसकी कुछ आर्थिक मदद कर दूं। आख्रिर इंसान ही इंसान के काम आता है। कुछ बताओगे भी हजारी लाल ? दुख साझा करने से ही कम होते हैं। हो सकता है कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं, मैंने इंसान बनते हुए कहा। आप कुछ नहीं कर पाओगे मुन्नाभाई। मैं सचमुच की कैंची से पब्लिक के बाल कतरता हूँ और वो अपनी जुबान की कैंची से दिमाग को कुतर रहा है। उसने अपने धंधे में पूंजी भी नहीं लगाई और करोड़पति बन बैठा । अब हाल यह है कि करोड़पति और नेता तक उसके दरबार में हाजिरी बजाने के लिए लालायित रहते हैं और मौका मिल जाए तो धन्य हो जाते हैं। आज वह बाबाओं का किंग बना हुआ है।
मैं तुम्हारे दुख का सिर-पैर नहीं समझ पा रहा हूँ हजारीलाल। उसने कहा, एक हो तो गिनवाऊं मुन्नाभाई और हजारीलाल फूट फूट कर रोने लगा। मुझे लगा जरूर इसके किसी नजदीकी सगे-संबंधी की मौत हो गई है तभी यह बहकी-बहकी बातें करके विलाप कर रहा है। कीमती आंसुओं को मर्द यूं ही जाया नहीं करते हैं। अब कुछ बताओगे भी हजारीलाल या मुझे भी रोने के लिए मजबूर करोगे। मुझे अपनी आंखों के आंसुओं का बांध टूटता हुआ महसूस होने लगा।
ऐसा कुछ नहीं है पर जो है वह बहुत पीड़ादायक है। दरअसल, बात यह है कि बाबा बनकर नाम, दाम कमाने और इसे रोजगार बनाने का धंधा आजकल बहुत उपजाऊ है। यहां पब्लिसिटी भी खूब मिलती है, भीड़ बिना बटोरे सामने निकम्मे घुग्गू की तरह बैठी रहती है और जिस चीज को हाथ लगा दो, वह हाथों हाथ खूब बिक जाती है। आलम यह है कि वह मिट्टी को हाथ लगा दे तो अंधभक्तगण मुट्टी भर-भर मिट्टी खरीद कर ले जाते हैं। किसी पॉर्न पत्रिका की प्रचार-प्रसार संख्या भी इसकी पत्रिका के आगे पानी नहीं भर पाती है। चाहे अच्छी-से-अच्छी सामग्री प्रकाशित कर लें, कलरफुल फोटो छाप लें परंतु थोक के भाव नहीं बिक पाती हैं और इधर इनकी पत्रिका बिना किसी विज्ञापन और सरकारी सहायता के लाखों की संख्या में प्रकाशित होती है तथा बिक्री के सभी रिकार्ड तोड़ती है।
यह अपनी पर आ जाएं तो ‘राम नाम’ की मदिरा बनवाकर मदिरा बेचने के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दें और एक पैसे का टैक्स भी न चुकाएं। ‘मछलियों के किंग’ को किसी ने बुद्धि नहीं दी होगी, अगर उन्होंने सरकार की जगह इनकी शरण ली होती तो अब तक वारे-न्यारे हो गए होते। जहाज उड़ाकर कमाने की तो बात छोड़िए, वह अगर इनसे केवल दीक्षा ले लेता तो आज रंगीन कलेंडर छाप रहा होता !
इस कारण सिर्फ अनपढ़ ही नहीं, पढ़े लिखे भी बाबा की मस्ती के दीवाने हैं। हजारीलाल बतलाए जा रहा था कि जितने भी बाबा हैं,सभी एक ही थैली के चटावन लाल हैं। वे चाहे आसाराम हों, निर्मल बाबा हों या किसी मंदिर के पुजारी बाबा। सबकी मुंडियां और मुट्ठियां नोटों की कड़ाही में डूबी रहती हैं। इनके लुभावने नाम इनकी ओर सहज ही आकर्षण पैदा करते हैं। धर्म को धंधा बनाने के लिए इनका किया गया योगदान अतुलनीय है मुन्नाभाई। अब मुझे हजारीलाल का दुख समझ में आने लगा। मैंने कहा, तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो। अगर ईश्वर पृथ्वी पर होता तो इनकी कारगुजारियां देखकर जरूर विस्मित हो रहा होता और उसे अपने ईश्वर होने पर पछतावा होता। ईश्वर को भी महसूस हो जाता कि भगवान बनने से अधिक अच्छा धंधा तो बाबा बनने में है। महात्मा गांधी यानी बापू ने जितना नाम और ख्याति अपने जीवन भर में नहीं कमाई, उससे अधिक तो तथाकथित बाबा आज पल भर में बटोर लेते हैं, चाहे इसके लिए इन्हें बकवास ही क्यों न करनी पड़े। जिन महिलाओं को यह इज्जत देने का दावा करते हैं, और जिनके जुड़ने से इनका धंधा जमा है, उन्हीं को मौका पड़ने पर ‘बाजारू’कहने से नहीं चूकते हैं। मतलब तो सुर्खियां बटोरने से है, इन्हें‘सुर्खीखोर’ कहा जा सकता है।
वैसे बाबा कहना तो इनकी तौहीन करना है। इन्हें तो ‘बिगबाबा’ के नाम से संबोधित किया जाना चाहिए। नेता तो इनकी बराबरी करने की सोच भी नहीं सकते इसलिए इनके मंचों पर पहुंचकर पब्लिक को संबोधन करने के लिए लालायित रहते हैं। सबकी कमजोरी भीड़ है और भीड़ की कमजोरी बाबा हैं। वोटर में फिर भी कुछ दिमाग होता है और उसे वे इस्तेमाल करते हैं जबकि इनका भक्त आफताब होता है और चांद पर पत्थर मिलने की जानकारी है परन्तु वहां दिमाग होता होगा इसकी हमें बहुत सीमित जानकारी भी अभी तक नहीं मिली है।
इसलिए मुझे अपने नाई होने पर आज पहली बार शर्म आ रही है मुन्नाभाई । श्रम करो और शर्म न करो, किसी बाबा पर यह बात बिल्कुल लागू नहीं की जा सकती। अगर मैंने अब तक जुबान की कैंची चलाई होती तो न जाने कितनी दौलत पाई होती। जितना धन, समय और श्रम मैंने नाई कर्म की एक्सपर्टीज में खर्च किया उससे कम में कई गुना अधिक कमाई तो सिर्फ ‘बाबा कर्म’ में ही मिल जाती। मैं समझ रहा था कि हजारीलाल का व्यक्तित्व, ऊंचाई,चौड़ाई, शारीरिक गठन, सौंदर्य – सब बाबाओं के हिसाब से पूरी तरह योग्य है इसलिए उसकी चरमपीड़ा स्वाभाविक है। बाबा के आते ही महिलाओं और पुरुषों में उनके चरण छूने के लिए भगदड़ मच जाती है। बस उसने जितनी पूंजी हज्जाम के पेशे में लगाई, उतने में उसे शुरू में अपने लिए कुछ चेले-चपाटे हायर करने ‘गुरुघंटाल बनना पड़ता। बाबा के बारे में पंचर लगाने के बारे में उसका यह भी कहना है कि अगर तब वह पंचर लगाता था तो अब पब्लिक के दिमाग को पंचर करने का काम कर रहा है और इसमें पूरी तरह सफल भी है। मैं भी वर्तमान माहौल को देखकर समझ गया हूं कि उसकी सोच को ‘मुंगेरीलाल का हसीन सपना’ कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है।
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