हाथ में गिल्ली डंडा मतलब बैट बल्ला संभालने से अब मां-बाप बच्चों को इसलिए मना नहीं किया करेंगे। इस इसलिए में बहुत से किंतु किंतु हैं और परंतु एक भी नहीं है क्योंकि कैरियर के नजरिए से यह एक लाभकारी धंधा पहले से ही है और सचिन भगवान के राज्यसभा में पहुंचने से इस पर पक्की स्वर्णिम मुहर लग गई है। अरबपति होने का खूब सारा स्कोप है, छोटा सा भी ढाई तीन अक्षरों का नाम हो तो इतना फेमस हो जाता है कि भगवान के कोटि कोटि नाम भी इसके आगे अपनी चमक धुंधली कर बैठते हैं, इसमें मारे गए चौके छक्कों पर सिर्फ तालियां और हुड़दंग ही नहीं मचता है, अल्पवस्त्रों में बालाएं तन के साथ साथ मन से खुशी भी बिखेरती हैं, बिखेरना तो वह और भी बहुत कुछ चाहती हैं, पर सब कहां बिखेर पाती हैं, एक पूनम पांडेय ने सिर्फ कपड़े बिखरने की घोषणा की और बिना बिखेरे ही पता नहीं किन किनके दिल उधेड़ कर रख दिए, उससे उत्पन्न हुई राख को भी आज तक सहेजा नहीं जा सका है। खुशी बिखेरना उन कमनीय बालाओं का काम है जो चिमनी के माफिक तन और मन को यहां वहां यानी कहां कहां से चिकना कर डालती हैं, भारत रत्न नहीं मिला तो क्या हुआ, संभावना तो बनी हुई है। बल्कि इसलिए कि राज्य सभा की मेम्बरशिप भी बिना इलेक्शन लड़े मिलती है। कोई ऐसा काम नहीं है जो बैट बल्ला थामने वाले थाम न सकें।
बैट बल्ला थामे हुए ही अगर राज्य सभा में वह चौकस नजर आएं तो सदन में जूते-चप्पल, माइक, कुर्सियों के चलने की संभावना ही खत्म हो जाएगी और दूरदृष्टि का उपयोग करके सदन में हाजिर रहने के लिए हेलमेट, पैड, ग्लव्ज यानी दस्ताने, बैट बल्ला थामे हाथों से बचने के लिए तानने अनिवार्य कर दिए जाएंगे, मतलब कमाई का एक और स्कोप। बाहर खेला जाने वाला सट्टा सदन में एक एक गेंद पर खेला जाने लगेगा जिससे सवाल पेश करने के लिए नोट वसूलने के धंधे में बहुत तेजी से गिरावट आएगी। फिक्सिंग में तेजी जरूर आएगी। संभावना यह भी है कि अभिभावक अपने बच्चों के लिए नहीं, अपने लिए ही मन में खिलाड़ी बनने के सपने बुनने लगेंगे, चाहे इसके लिए उन्हें दिन में ही ओवरटाइम लगाकर ही सोना पड़े।
बिना वोट डाले ही चुने जाने की इसकी इतनी पक्की बुनियाद है कि इसकी बाहर दिखाई दे रही ईंटों को भी कोई नहीं हिला सकता। अभिनेता चुनाव लड़ें तो हार सकते हैं, अभिनेत्रियों में भी जीत की पूरी संभावनाएं नहीं होती हैं। लेकिन खिलाड़ी और वह भी क्रिकेट का हो तो समझ लीजिए कि हारेगा नहीं । आप उस खबर को याद करके मत डरिएगा कि धोनी को भी मौका आने पर धोने वालों ने नहीं बख्शा। आप देखेंगे कि एक दिन वे धोने वाले ही अपनी गलती पर जरूर पछताएंगे और धोनी को दुग्ध-शहद से स्वयं ही स्नान कराने के लिए ले जाएंगे। क्रिकेट के खेल में ऐसी ही किरपाएं हुआ करती हैं और इन किरपाओं के लिए बाबाओं की नहीं, पब्लिक की जरूरत ही होती है। पब्लिक जो भेड़ होते हुए भी भेड़ नहीं है। जब चाहती है तो वह भिड़ जाती है और दिल-दिमाग के सभी दरवाजे भेड़ कर भिड़ जाती है। आंखें, कान, मुंह बंद करके भिड़ जाती है। इस भिड़ने का अपना ही आनंद है और इस आनंद को या तो भेड़ अथवा भीड़ ही महसूस कर सकती है।
मेरा मानना है कि धंधा वही अच्छा जो बहुमुखी हो। धंधे में से इतने धंधे निकलें कि अंधों को भी बिना देखे साफ दिखाई दे रहे हों। खेल खेल में धंधा और हर धंधे में खेल। मेल मिलाप की इससे बड़ी मिसाल तो कोई हो ही नहीं सकती। जिसमें करेंसी नोटों का मिलन हो, खूब तेजी का चलन हो, उससे बलवान नहीं कोई पहलवान। काले गोरे नोटों का मामला तो बाद में उजागर होता है। बाबाओं के चमत्कार तो यही साबित कर रहे हैं, क्रिकेट का खेल भी इस मायने में किसी चमत्कार से कम नहीं है। आप जानते ही हैं कि इसकी वजह से हाकी, बैडमिटन के खिलाड़ी तक अनाड़ी सिद्ध हो रहे हैं। क्रिकेट को नमस्कार नहीं बल्कि चरण स्पर्श (पैरी पैना) किया जाता है, इसमें कोई धर्म आड़े नहीं आता है। इस खेल के खेलने वाले नहीं, देखने वाले मुरीदों की संख्या बेहिसाब है। बेहिसाब से यह मत सोचिएगा कि इसमें इस खेल को खेलने वालों को गिनती नहीं आती, क्या हुआ जो वे एम्पायर रखते हैं जबकि कितनी जीवंत कमेंट्रियां की जा रही होती हैं, लेकिन भरोसा सिर्फ एम्पायर पर ही होता है। यहां पर इतनी तरह की और इतनी गिनतियां गिनी जाती हैं कि जीवन के सभी पहाड़े यहां पर खाई हो जाते हैं। लेकिन इन खाईयों में भी इतना स्कोप है कि विदेशी पहाडों में भी संदेह नहीं, पूरा विश्वास है कि इससे बड्डा बिजनेस दूसरा हो ही नहीं सकता। आपके मन में कोई विचार आ रहा हो तो चुप मत रहिएगा, यह क्रिकेट का खेल है, खुलकर अपनी बात कहिएगा ?
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