फीका गुड़ चखा है या चखने का अवसर मिला है। जब यह जाना होगा कि गुड़ भी फीका होता है, तब हैरानी तो बहुत हुई होगी जब किसी एक शातिर चखने वाले ने स्वाद गोबर का बतलाया होगा। मैं मानता हूं कि किसी ने चखा न होगा, बस यूं ही बका होगा। बकबक करना यानी बकबकाहट कब किसको अपने चंगुल में गुल कर दे, अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। गुड़ का गोबर करने वाले को भी नहीं अंदाज हुआ होगा। सोचा होगा कि फ्री में मिल रहा है, चलो, कुछ तो बकें। चखने की जगह खाते भी रहें और बकते भी रहें। मुंह के भीतर जो चटोरी देवी विराजमान है, उसको प्रसन्न करने के लिए ब्यान दिया होगा। आपकी तरह मुझे भी बहुत आश्चर्य हुआ था, जब मैंने ‘फील गुड’ शब्द पहली बार सुना था। ऐसे लगा था कोई बार बार बहुत प्यार से ‘फ्री गुड़’ खाने के लिए न्यौत रहा है। गुड़ वैसे डायबिटीज वालों को भी अधिक नुकसान नहीं पहुंचाता है, अधिक खा लिया जाए तो फिर बख्शता भी नहीं है। यह उन सबके लिए चेतावनी है जो फ्री और दो दो नहीं, फ्री और चार सौ बीस में यकीन रखते हैं। मतलब फ्री का माल भी हड़पेंगे और उसमें भी अपने कारनामों से चार सौ बीसी अवश्य प्रदर्शित कर देंगे। इससे उनमें कई तरह की संभावनाओं और क्षमताओं का पता चलता है। आप उनका लाभ चाहे न ले पाएं, पर सतर्क तो अवश्य रह सकते हैं।
सतर्क रहना जीवन के आधे जोखिम खत्म कर देता है। फिर फ्री का गुड़ मिले और फील गुड का अहसास तक न हो, यह संभव नहीं है। फिर भी आपको यह सावधानी तो रखनी ही होगी कि जो फ्री गुड़ आपको मिल रहा है, वह फीका तो नहीं है। उसी में फील गुड के परमतत्व का अहसास समाया हुआ है। फ्री गुड़ का अहसास गांवों के निवासियों को,खेतों में फ्री गन्ना मिलने नहीं, तोड़ने अथवा बैलगाड़ी में लादकर ले जाए जा रहे गट्ठर में से खींच लेने से ही हो जाता है। यह गुड़ के प्राकृतिक स्वाद का अहसास है और इसमें दांतों को चबाने जैसी कसरत अवश्य करनी पड़ती है, इसी से वह मुहावरा चलन में आया होगा कि मेहनत का फल मीठा होता है, जबकि होना चाहिए था कि मेहनत का रस मीठा होता है। बशर्ते कि जिसके गन्ने फ्री में हथियाए हैं, वह मरम्मत न कर दे, जबकि गांवों में ऐसा होता नहीं है,ऐसे कार्यों को लूट-झपट या राहजनी शहरों में माना जाता है। गांवों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। इसलिए शहर धन से अमीर होते हुए भी, गांवों के मन से गरीब ही होते हैं। पर यह तय मानिए कि इसमें किसानों की आत्महत्या के मामले का एक भी सूत्र नहीं है। शहरों में इसके बदले जो कुटिल टकराहटें होती हैं, वह सब अच्छे और सुखद अनुभवों को ‘फ्री गोबर’ में बदल कर रख देती हैं जबकि गांव वाले गोबर को उपयोगी मानते हैं। गोबर होता ही उपयोगी है, उसके लाभ इतने अनेक और नेक हैं परंतु शहर वालों की आंखें इस कदर चौंधियाई हुई हैं कि उनमें इसमें फील गुड की संवेदना नहीं जागती और वे नाक भौं तक सिकोड़ने लगते हैं। जबकि सिकुड़ना जीभ का बनता है।
वैसे फील गुड का अहसास सामने वाले को मूर्ख बनाने और समझने में भी खूब होता है। वह बन जाए तो अहसास की मात्रा आपमें कई हजार गुना बन जाती है। सामने वाला जानते-बूझते मूर्ख बनने का कुशल अभिनय कर रहा है तो फील गुड दोनों को खूब शिद्दत से होता है। वैसे इसे अब तक गलतफहमी माना जाता रहा है। किसको कितनी मात्रा में अहसास हो रहा है – इसको तोलने-मापने के लिए वैज्ञानिक अभी तक कोई तराजू भी नहीं बना पाए हैं और कंप्यूटर भी इस काम को नहीं कर पा रहा है। कंप्यूटर को तो वही काम करना आता है जो इंसान उसे सिखाता है। मतलब वही है कि किस तरह के साफ्टवेयर उसमें घुसाता है। इसके बाद अगर किसी को इस आइडिये को अपनाने का आइडिया मन में आ जाएगा तो वह इसे जरूर कापी कर लेगा और कापी किया हुआ ऑरीजनल और ऑरीजनल कापी बनकर रह जाएगा। यह तकनीक के नुकसान भी हैं पर प्रेरणा भी इनसे ही मिलती है और प्रेरणा देने वाला सदा गुमनाम ही रहता है। उसका जिक्र कोई उसका पाठक भी नहीं करता कि भला कौन सिरदर्दी में फील गुड महसूस करे।
पिछले काफी समय से फील गुड की धमक अब सबके मन में, कार्यों में धमाल मचा रही है। इसने मजबूत पैठ बनाई है, व्यंग्य भी इससे नहीं बच पाया है। कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो इसकी जद में आने से बचा हो। किसी को जंक फूड खाने में, किसी को कोल्ड ड्रिंक पीने में, किसी को इन्हें रोकने में सदा से इसका अहसास होता रहा है। किसी को धोखा देने में इसका जबर्दस्त रोल मालूम चल गया है और नेताओं को वोटर को चकमा देने में इसका अनूठा अहसास होता है। जिसका कोई सानी नहीं है।
साधारणतया, बस में यात्रा करने वाला टिकट बचाकर,जुर्माने से बचकर अपने हिस्से के लिए फील गुड बटोर लेता है। मतलब यही है कि सब अपनी अपनी औकात के अनुसार फील गुड की मौजूदगी में रमे रहते हैं और जीवनदायिनी सकारात्मक ऊर्जा एकत्र कर उसका उपयोग कर लेते हैं। काम वाली आ जाए तो गृहिणी को और उसके ग्रहण (पतिदेव) को उसके अपने नजरिए से यह निराला अहसास होता है। छुट्टी कर ले तो काम वाली बाई को इससे उसके अपने मन के भीतर तक मनभावन सुकून मिलता है। कुल मिलाकर इससे यही साबित होता है कि गुड़ और गोबर दोनों में फील गुड कराने के कीटाणु मौजूद रहते हैं, क्या आपको इस बारे में कुछ कहने का मन हो रहा है तो फील गुड का अहसास पाने के लिए मौनी बाबा मत बनिएगा ?
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