एक फिल्मकार ने जब खुले-आम ऐलान कर दिया कि वह देश के हालात से दुखी होकर देश को छोड़ देगा, तब मालूम हुआ कि देश के न गिरने की असली वजह उनके द्वारा देश को पकड़ कर रखना था। इससे यह भी पता चला कि न जाने कितने फिल्मकारों, कलाकारों ने देश को संभाल रखा है। जनता में अब तक यही सन्देश जा रहा था कि इन्होंने तमाम करेंसी नोटों को ही पकड़ा हुआ है। इसी के कारण आयकर विभाग भी उनसे कर वसूलने की जुगत में साल भर सक्रिय रहता है। इस भेद के जग-जाहिर होने से नेताओं के चेहरों पर अजीब तरह की खुशी चमकने लगी है कि उन पर बे-वजह ही देश के धन का मुंह काला करने और उसे अगवा करके विदेशी बैंकों की कैद में रखने का आरोप निरंतर लगाया जाता है। एक योगी बाबा ने तो इसी मुद्दे पर खूब ख्याति लूटी है और आकाश-पाताल एक कर रखा है। फिल्मकार के हालिया बयान के बाद योगी बाबा की सारी धौंस धरी रह गई है।
सरकार ने सभी स्तरों पर बहुत कोशिशें की थीं पर पता नहीं चल रहा था कि देश के रुकने का असली कारण क्या है ?पेट्रोल, डीजल, आलू, गोभी, दाल, प्याज और दूध, चावल जैसी जरूरी चीजों को महंगा करने के बाद भी देश में तनिक सी हरकत न महसूस होना सदा से चिंतनीय रहा है। इसे हिलता हुआ देखने के लिए इलैक्ट्रानिक्स आइटम्स, कंप्यूटर, मोबाइल,लैपटाप से करेंट लगाने सरीखी चीजों की कीमतें बढ़ाने पर भी देश कोमा से बाहर नहीं आ पा रहा है। महंगाई का कद और मद दोनों बढ़ने के बावजूद देश मुर्दे के माफिक संज्ञाशून्य कैसे है?
सरकार को बार बार ऐसा भी महसूस हुआ था कि किसी ने देश को किसी खूंटे से बांध रखा है। जबकि खूंटे से बंधने के बाद भी खूंटे से छूटने की कोशिश जानवर भी जरूर करता है। देश का विकास इतनी सारी कोशिशों के बाद सागर न सही, नदी जितना होना चाहिए था। जबकि वह न तालाब जितना हो रहा था और न कुंए जितना ही, ऐसा लगता था कि कुंए में मेढकों की भी मौत हो गई है।
देश को पकड़ने वाले की नीयत कैसी है, उसका चाल चलन और चरित्र संदिग्ध तो नहीं है ? हो सकता है कि देश की पुलिस ने देश को पकड़ रखा हो क्योंकि पकड़ा-धकड़ी के मामलों में पुलिस का नाम सबसे पहले आता है। जबकि सच्चाई यह भी है कि पुलिस को मासूम पब्लिक को पकड़ने से ही कहां फुरसत मिलती है बल्कि कभी कभार उसे पब्लिक पर आंसू गैस छोड़ने और ठंडे पानी की तेज बौछार छोड़ने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी सौंप दी जाती है। ऐसे मौके पुलिस को बामुश्किल मिलते हैं इसलिए वह इससे हासिल होने वाली खुशी को बर्दाश्त नहीं कर पाती और बेइंतहा खुशी में डंडो का उपयोग करना शुरू कर देती है। उसे इतना भी मालूम नहीं चलता कि डंडे मारने से मासूम पब्लिक की पिटाई हो रही है या महिलाओं अथवा बच्चों की टांग-तुड़ाई । वह अपने ‘डंडा मारो और हड्डी पसली तोड़ो अभियान’ में इस कदर जुटती है कि उसे अपने पीने, खाने, ओढ़ने, सोने तक का होश नहीं रहता। इसलिए जब उसे अपनी इन शौर्यगाथाओं के चित्र खींचने या वीडियो बनाने की जानकारी मिलती है तो वह कैमरों की पिटाई भी शुरू कर देती है।
वह तो भला हो कि फिल्मकार अभिव्यक्ति की आजादी के चलते बतला पाए कि वे देश छोड़ देंगे। जिसके निहितार्थ यह हैं कि आप अब संभाल लीजिए देश को, कहीं गिर गिरा गया तो फिर आप यह मत कहिएगा कि चेताया नहीं। उधर सरकार इस चिंता में घुली जा रही है कि देश को छोड़ देने पर गिरने का श्रेय उसके होते हुए कोई दूसरा कैसे ले सकता है ? इस वज़ह से संयुक्त राष्ट्र में उसकी किरकिरी भी हो सकती है। सरकार किसी कलाकार या आम आदमी की किरकिरी को बर्दाश्त कर सकती है पर जब बात विश्व-मंच की हो, तो वह चुप नहीं बैठ सकती। इसलिए देश के गिरने का श्रेय वह किसी और को नहीं देने के लिए कटिबद्ध है !
हम तो सोच रहे थे कि हम ही पकड़े हैं देश को।
जवाब देंहटाएंलाजवाब व्यंग्य।
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