व्यंग्य पर विलाप सुदीर्घ हो चला है। व्यंग्य उनके साथ खत्म हो गया, या इनके साथ खत्म होने
वाला है, यह विमर्श लगातार चल
रहा है। बल्कि अब तो इस विमर्श में यह उद्दंडता आ गयी है कि कुछ खलीफा टाइप के
व्यंग्यकार खुद ही यह कहते पाये जाते हैं कि हमारे बाद व्यंग्य का क्या होगा! उनसे
यह पूछने का मन होता है कि प्रभो आपके रहते ही व्यंग्य का क्या हो रहा है। आपके
बावजूद व्यंग्य चले जा रहा है, तो इससे व्यंग्य के पर्याप्त बेशर्म और सामक्थ्र्यवान होने के
संकेत मिलते हैं। व्यंग्य खत्म हो चुका है उन पुरानी पत्रिकाओं के साथ, जो समय के साथ नहीं चल
पाने की वजह से काल कवलित हो गयीं- इस आशय की घोषणाएं नियमित अंतराल पर हो रही
हैं। आउटडेटेड हो चुकी पत्रिकाएं खत्म हो गयीं,
यह शोक का विषय नहीं है। नयी स्थितियों के हिसाब से
जो माध्यम खुद को नहीं बदल रहे हैं,
उनको मरने से कोई नहीं रोक सकता। संक्षेप में
पत्रिकाओं के लंबे-लंबे व्यंग्य लेखों,
व्यंग्य कहानियों के दौर लगभग खत्म हुए। अब के
व्यंग्यकार के पास मोटे तौर पर विकल्प हैं कि या तो वह अत्यंत जुगाड़ू और लगभग
गिरोहबंदी से चलने वाली बहुत ही कम सरकुलेशन वाली पत्रिकाओं के अत्यल्प सीमित
संकुचित पाठकवर्ग के लिए लिखकर खुद को पंजीकृत व्यंग्यकार मानता रहे या दूसरा
विकल्प यह है कि पुस्तक प्रकाशकों से निवेदन कर-करके किताबें छपवा ले, जिनके लिए प्रकाशक
तमाम तरह की खरीद योजनाओं में ग्राहक तो तलाश सकता है, पर पाठक तलाशना उसकी
व्यावसायिक मजबूरी नहीं है। पाठक विहीन होकर लिखना, लिखते रहना भी एक किस्म की प्रतिबद्धता की
मांग करता है। कई लेखकों के पास ऐसी प्रतिबद्धता होती है। पर सबके पास नहीं है।
ऐसे में तीसरा विकल्प यह है कि लेखक तमाम अखबारों में नियमित व्यंग्य लिखे, जैसा अविनाश वाचस्पति
करते रहे हैं। वह अखबारी व्यंग्य के माहिर व्यंग्यकार हैं। ऐसा कई बार देखा गया है
कि जिन व्यंग्यकारों को अखबार नहीं छापते या जो नये हिसाब से लिखने में खुद को
असमर्थ पाते हैं, वह नियमित अंतराल पर यह घोषणाएं करते हैं कि हाय-हाय अखबार का व्यंग्य भी
कोई व्यंग्य है। व्यंग्य तो वही, जो गिरोहबंदी वाली अत्यल्प संकुचित सरकुलेशन वाली पत्रिकाओं
में छपे। ऐसे माहौल में भी अविनाश वाचस्पति व्यंग्य के साथ अखबारों में सक्रिय हैं, इससे साफ होता है कि
व्यंग्य का शून्यकाल नहीं है। यद्यपि उनकी पुस्तक का नाम यही है। अयन प्रकाशन
द्वारा प्रकाशित आलोच्य पुस्तक हाल के व्यंग्य के नये तेवर को साफ करती है। उसके
विषय, उसके प्रस्तुतीकरण को
लेकर नयी बातें सामने रखते हैं। अखबार की शब्द सीमा में रहकर धारदार तरीके से अपनी
बात रखने के लिए सिर्फ हुनर काफी नहीं होता,
होमवर्क की भी जरूरत होती है। नेता और बीवी पर
लिखकर नाम और दाम कमाने के दिन गये। अखबार साफ करते हैं कि नये जमाने के विषयों को
पढ़िए, समझिए, तब आइए व्यंग्य के
मैदान में। अविनाश वाचस्पति ने नये हालात को बखूबी समझा है, तब उन पर कलम चलायी
है। 1990 के बाद
देश-दुनिया कैसे बदली है, यह समझने के लिए यह किताब जरूरी है,
जो बहुत रोचक,
महीन और मारू अंदाज में बताती है कि देखते ही देखते
सब कुछ बदल रहा है। तकनीक ने बहुत कुछ बदल दिया है। माऊस का मतलब सिर्फ चूहा नहीं
रहा। चूहे की बोली नामक व्यंग्य में
अविनाश लिखते हैं- चूहों ने कंप्यूटर के आविष्कार के साथ ही माऊस के नाम से कंप्यूटर नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया।
बिल और बिल के भाषाई खेल अविनाश ने बहुत असरदार तरीके से रेखांकित किये हैं, जैसे-मोबाइलधारक को
अपना मोबाइल का बिल भी दुश्मन लगता है,
बल्कि यूं कहना चाहिए कि इंसान को सभी प्रकार के
बिल पीड़ा देते है।.. एक चूहा ही है,
जिसे अपने बिल से खूब प्यार होता है।..।
अर्थव्यवस्था में हो रहे नये बदलावों पर भी अविनाश कड़ी निगाह रखते हैं। जादू की
छड़ी व्यंग्य लेख में वह लिखते हैं- वे गरीबी की सीमा सुंदरी से मिलवा रहे हैं या
बत्तीसी दिखा रहे हैं। शहरियों पर अपनी बत्तीसी चमकाने का मौका भी हाथ से नहीं
छोड़ेंगे। यह नहीं कि 36 ही बतला देते, तो पता तो चलता कि सरकार और पब्लिक में 36 का आंकड़ा है। 36 के आंकड़े के जरिये गहरी चोट की है अविनाश ने। की बोर्ड पर कुत्ते नामक व्यंग्य लेख में व्यंग्यकार ने नयी तकनीक के माध्यम से इंसानी चरित्र
को समझने की कोशिश की है। इस लेख में वह लिखते हैं कि ब्रिटिश चिकित्सा विज्ञान
अकादमी के वैज्ञानिकों की मानें, भविष्य में कुत्ते कंप्यूटर के की बोर्ड पर टकाटक टाइप करते नजर
आयेंगे।..यह भी संभव है कि फ्लाइंग किस देते भी दिखलाई दे जायें।..अभी तक तो बाइक
सवारों द्वारा मोबाइल और सोने की चेनें झपटने की खबरें पढ़ने में आती हैं, जल्द ही बेबाइक कुत्ते
इन करतूतों को अंजाम देते दिखलाई देंगे।.. कुल मिलाकर आलोच्य व्यंग्य संग्रह बताता
है कि विषयों का कोई टोटा नहीं है,
अगर लेखक अपने परिवेश को गहराई से देखने की कोशिश
करे। संग्रह यह भी बताता कि थोड़े में बहुत कहने का हुनर अगर नहीं है, तो पाठक तलाशना
मुश्किल ही नहीं, असंभव कोटि का काम हो जाएगा। बहरहाल,
व्यंग्य का शून्यकाल बताता है कि व्यंग्य नये तेवर दिखा रहा है और नये विषय सामने ला रहा है।
पुस्तक समीक्षा के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विकेश जी
हटाएंबहुत अच्छी समीक्षा..व्यंग की अपनी एक गम्भीर कहानी है..
जवाब देंहटाएंकहानी से व्यंग्य को जीवन
हटाएंजीवन से तरंगित हर सज्जन
दुर्जनों पर किया जाता वार है
विसंगतियों की भरमार है
उसे मारने का औजार है
व्यंग्य का यह रंग है अनूठा
चलाओ उठाओ कलम हथौड़ा।
...जय हो !
जवाब देंहटाएंसंतोष में हीविजय है।
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