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देशबंधु पर घूम रहा था
मैंने देखा और अपने
प्रिय पाठकों लिए
पकड़ लाया हूं।
जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ और उसका मुख्य किरदार ‘नन्हकू’ खूब फेमस हुआ। गुंडागिरी, लंपटता, चोरी, डकैती में कमाई की भरपूर संभावनाएं रही हैं जबकि इनके विकल्प के तौर पर आजकल राजनीति जरायमपेशाओं के लिए काफी मुफीद हो गई है। चोरी करना वह काम है जो छिपकर और बचते बचाते और मुंह छिपाते किया जाता है किंतु जब इसे निर्लज्ज, बेशर्म या दबंग होकर ढीठता से अंजाम तक पहुंचाया जाए तो वही डकैती हो जाती है। चोरी और डकैती के भिन्न अर्थों का यह सामान्यीकरण है।
समाज में गुंडई और दबंगई के नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं, इससे गुंडों की रुचि-संपन्नता का पता चलता है। नेता वही जो गुंडई करें और इन्हीं के कारनामों से गुंडई के निहितार्थों को पब्लिक बेहतर तरीके से जानने और समझने लग गई है। इसमें रोजाना हो रहे बदलावों से आम पब्लिक रूबरू हो रही है।
फिल्मों में सभी प्रकार के गुंडों का वर्चस्व रहा है और वे पब्लिक को भाते हैं। फिल्मों का सबसे मनपसंद गुंडा शोले के गब्बर सिंह को माना जा सकता है जिसने गुंडा-सह-डाकू के कॉम्बो किरदार में जीवन के अनूठे रंग भरकर विलेनत्व को भरपूर ऊंचाइयां दीं। कितने डाकू और विलेन आए परंतु कोई गब्बर की महानता को छू भी नहीं पाए। गब्बर सिंह की ऐसी शख्सियत से प्रभावित होकर नेता भी गुंडई पर उतर आएं है तो इसमें हैरान होने की बात नहीं है, यह समय की पुकार है। नेता यूं तो सभी कारनामों पर अपना अवैध कब्जा कर चुके हैं परन्तु जिम्मेदारी लेने से सदा पीछे रहे हैं। कुछ कहें और शोर मच जाए तो डर कर तुरंत मुकर जाते हैं। गुंडईकर्म की पहचान आजकल नेताधर्म से होने लगी है। नेताओं के इस क्षेत्र में धाक जमाने से गुंडई में निर्भीकता का बोलबाला बढ़ गया है।
गुंडाकर्म जिसे मवालीगिरी कहा जाता है, को भरपूर प्रतिष्ठा मिली है। यह गर्व का सूचकांक बन गया है। इसके विरोध में चाहे मीडिया कितना ही चीखे चिल्लाए, पब्लिक सोशल साइटों पर कमेंट करे, लाइक करे या जमकर हल्ला–गुल्ला करे। फिल्मों में चोर खुद शोर मचाते रहे हैं। शशिकपूर अभिनीत फिल्म ‘चोर मचाए शोर’ का नाम बेसाख्ता आपके जहन में कौंध गया होगा। वही शोर मचाने का जिम्मा आजकल ‘आम आदमी’ ने संभाल लिया है। इसी के परिणामस्वरूप शोर मचाने को वैधानिक मान्यता दिलाने के लिए ‘आम आदमी’ नामक एक दल रूपी दलदल की स्थापना हो चुकी है। जल्दी ही आप ‘शोरगुल’नामक पार्टी को चुपचाप राजनीति में घुसता देखेंगे।
‘आम आदमी’ जब चर्चा में है तो ‘आम औरत’ क्यों न चर्चित होना चाहेगी। उनके मन में भी ‘आम आदमी’ के कंधा से कंधा मिलाकर कंधा मिलाने का सुख लूटने की हसरत पलती होगी। बस मेरी आपसे इतनी गुजारिश है कि आप लूटने को लेटना मत समझ लीजिएगा। चर्चा गुंडई के विभिन्न रूपों की हो रही थीं कि लूटना से लेटना तक भटक गई जबकि विमर्श गुंडई पर केन्द्रित हो गया। दरअसल, इसके लिए दोषी व्यंग्य लेखक नहीं है। यह सब चीजें आपस में इतनी रली मिली हैं कि इनमें मिलावट होने का भ्रम होने लगता है। एक की चर्चा हो रही हो तो दूसरी भी उसमें कूद पड़ती है और मानव मन इनकी कूदन--कला से मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। जो सहज अपनी गति से चल रहा है,वह परदे के पीछे छिप जाता है।
‘वर्दीवाला गुंडा’ फिल्म हिट हुई और इसका उपन्यास खूब बिका। यह गुंडों की शराफत है वरना वे बे-वर्दी वाला गुंडई कर्म निबाहने में पीछे नहीं रहते हैं, बलात्कार इसी को तो कहते हैं। गुंडे का क्या है विवस्त्र होकर भी कूद सकता है। वर्दी खाकी भी हो सकती है और खाली भी, सेना की भी और खादी की भी। सुर्खियों में आने के लिए एक चिकित्सा मंत्री ने अपना ही इलाज कर डाला, इसे कहते हैं ‘अपना इलाज बवाले जान’। मंत्री ने खुद को ‘खादीवाला सफेदपोश गुंडा’ कहकर हल्की सर्दी के माहौल में गजब की गरमाहट ला दी है। इससे उनकी मल्टीटास्किंग प्रतिभा का परिचय बखूबी मिल जाता है। खादी को प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाने के लिए महात्मा गांधी जी चरखा काता। उसी को कुख्याति और अपमान का सूचक सिद्ध करने में मंत्री ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। खादी की साख को राख करने के लिए नेताओं ने सफेद खाकी में खूब कारनामे किए हैं परंतु अब खुले आम स्वीकार करके अपनी नेकनीयत को जाहिर कर दिया है। देश का खूब तेजी से विकास हो रहा है इसलिए उन्होंने खुद को खादीवाला गुंडा कहकर परोक्ष तौर पर गांधीगिरी को दोबारा से जीवंत कर दिया है और खादी की इज्जत को सरेआम मिट्टी में सान करके लूट लिया है। गुंडों का खादी पहनना मुझे तो अचंभित नहीं कर रहा, कहिए कैसी रही ?
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