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नब्बे फीसदी भारतीय बेवकूफ हैं, न्यायमूर्ति काटजू के इस कथन का सकारात्मक पक्ष भीहै कि बेवकूफ बहुमत में हैं। लोकतंत्र ही बहुमत, बहुमत ही लोकतंत्र है, इसके मुकाबले न ठहरा कोई तंत्र है। मतलब लोकतंत्र में बहुमत की तूती बोलती है और पुंगी बजती है। सोचिए भला, सिर्फ दस प्रतिशत बुद्धिमान क्या घास छील लेंगे, कोशिश करेंगे भी तो थक जाएंगे। उनने माहिर चिकित्सक की भांति कहा है कि इनके दिमाग में भेजा नहीं होता। इससे यह भी लगता है कि वे बेवकूफों के सिर में भेजा ढूंढ रहे होंगे। बेवकूफों के सिर में भेजा ढूंढना वैसा ही है, जैसा गाजर के हलुवे में तरबूज की तलाश। पहले से नियत यह आम धारणा बिल्कुल बेबुनियाद है कि जिस के पास जो चीज नहीं होती, वह जमाने भर में दीवानों की तरह उस चीज की बहुत शिद्दत से खोज करता है। उन्हें इतने भर से तसल्ली नहीं हुई और उसके बाद नब्बे फीसदी बहुमत वालों को पागल कह दिए। उनके दिमाग को भूसामय बतला दिया। मतलब यह है कि वे खुद ही निश्चित नहीं हैं कि भारतीय बेवकूफ हैं, पागल हैं या उनका दिमाग भूसे का भंडार है। मूर्ख लोगों को आसानी से बहकाया जा सकता है, कहकर उन्होंने शराब पीकर बहकने वाली प्रक्रिया को अनजाने ही संदिग्धतता के तौर पर सर्टीफाइड कर दिया।
नाक की सीध में मूर्ख ही चलते हैं। जबकि पगडंडी भी सीधी नहीं हुआ करती हैं। उन्हें सीधा करने के प्रयत्न इसी प्रकार किए जाते हैं जिस प्रकार यह बयान दिया गया है। अब पता नहीं पगडंडी सीधी होगी या इसे सीधे करने वाले सीधे होने को मजबूर हो जाएंगे। भेड़ और भीड़ एक दूसरे का अनुसरण करती हैं। यही मूर्खों की ताकत है, गधा मूर्खता का पर्याय है तो क्या घोड़ा विपरीत अर्थ देता है। गधा घोड़ा सब मूर्खता के दायरे में ही आते हैं। एक लगाम से काबू आता है और दूसरा बिना लगाम के भी बेलगाम नहीं हो पाता। बेलगाम लेकिन काबू में आने वाले गधे दिमाग से पैदल होते हैं और लगाम से काबू में लाए जाने वाले घोड़े बुद्धि से पैदल नहीं होते, वे किसी भी तरह के मैदान में तेजी से दौड़ने में निष्णात होते हैं। दौड़ने में अपनी मर्जी उनकी भी नहीं दौड़ा करती। गर वे अपनी मर्जी से दौड़ते पाए जाते तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का यूं नाम न होता, चेतक का नाम लगाम के दुरुस्त इस्तेमाल से चर्चा में आया। इस पर कविताएं लिखी गईं, क्या यह सौभाग्य बेलगाम घोडों या लगामधारी गधों के हिस्से आता।
चाहे बुद्धिमान गधे हों या घोड़े वे नुक्कड़ पर अवश्य मुड़ जाते हैं और नुक्कड़ से जुड़ने की कला में दक्ष होते हैं। अगर यह कहा गया होता कि नब्बे प्रतिशत बुद्धिमान हैं तो चर्चा ही नहीं होती। कोई हंगामा नहीं मचता। कोई पहाड़ नहीं उछालता। अब उछाला गया वह पहाड़ टुकड़ों में बंटकर दस प्रतिशत बुद्धिमानों के सिरों पर गिर रहा है जबकि सब जानते हैं कि उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता के हेलमेट धारण कर रखे हैं। वैसे यह गिरना सचमुच का गिरना नहीं है फिर भी क्योंकि आजकल आभासी संसार की शक्ति वास्तविकता दुनिया से अधिक मजबूत है इसलिए सिर्फ मूर्ख और नब्बे प्रतिशत ने कोहराम मचा ही दिया। कवि दुष्यंत कह गए हैं कि एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो, पर कहने वाले अब इसे बदनियति से पहाड़ उछालना बतला रहे हैं। कई लोग तबीयत से पहाड़ उछालते हैं परंतु दुर्भाग्य देखिए कि उनके उछालने का न तो दस प्रतिशत और न नब्बे प्रतिशत ही नोटिस लेते हैं, पहाड़ भी बे-नोटिस खड़े रहते हैं।
बवाल मचाने के लिए भी बयान देना एक कला है जिसमें अल्पमतों द्वारा बहुमतधारकों को गरियाया जाता है, इस कला में सब पारंगत नहीं होते। इन मामलों में कई लोगों की कला पिलपिली होती है। पारंगत न होने के कारण बयानबाजी के समूचे रंगों का प्रभाव फि़ज़ा में नहीं गमकता और न बरसता है।
गधे घोड़े की चर्चा करके लगता है, मैंने उल्लू से दुश्मनी कर ली है। मूर्खता में उल्लू की कोई मिसाल नहीं है। भला जो दिन में सोए और रात को जागे, उसे यूं ही तो उल्लू नहीं कहा जाता है। जिन बच्चों के बाप का सम्मान करना हो उन्हें उल्लू का पट्ठा कह कर बेधड़क चने के झाड़ पर प्रतिष्ठापित कर दिया जाता है। गधे घोड़े उल्लू की यह मूर्खीय व्यथा, कहो कैसी रही ?
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