खास के जमाने हवा हुए। अब आम चर्चा में है। सर्दियां हैं और आम चर्चा में, कैसा विरोधाभास है। जरूर जनाब कोरी गप्प हांक रहे हैं। जबकि यह सरासर गप्प नहीं है। धूल में लट्ठमारी भी नहीं की जा रही है क्योंकि आजकल किसी भी मौसम में कोई भी तरकारी बाजार में मिल जाती है, वैसे ही मौसम कोई भी हो मौसम और बे-मौसमी फल उपजते ही नहीं, पकते भी हैं। पूरी तरह पकने के बाद फल को या तो कोई खा लेता है अथवा पके हुए फल को देखकर अन्य वृक्षों पर लदे फल भी पकने लगते हैं। संगत का असर सिर्फ इंसान और हैवान की ही नहीं, अपितु प्रकृति की प्रत्येक कसक और तरंग की गत बना देता है। एक सड़ा आमफल, भरी पूरी आमों की टोकरी को सड़ा कर खास बना देता है। बिजनेसपुरुष उससे भी नोट बनाने नहीं चूकता और सड़ा आम काट-निकाल कर, बाकी के गूदे का आम पापड़ बनाकर जब बेचता है तो खाने वाले उसे जीभ चटका चटका और आंखें मटका मटका कर स्वाद लेते हैं।
आम पकाने की कोशिशें जारी हैं। सिर्फ गर्मियों में ही पकने वाला आम नहीं है आम आदमी। खासजन आजकल किसी भी मौसम में भी पकने और पकाने में शातिर हो चुके हैं। कई बार तो अधपके फलों में से भी आवाज आने लगती है कि पक गए, पक गए,पक गए। आम पके या न पके, कोई फल पका या कच्चा रह गया किंतु आम आदमी की चर्चा सुनकर खास आदमी के कान जरूर पक चुके हैं। उनके कानों को आम आदमी के पकने के प्रभाव से मुक्ति दिलाने वाला चाहिए। खास आदमी आज आम आदमी से बेइंतहा नाखुश है और अपनी नाराजगी का खुलकर इजहार कर रहा है। कान पके तो दर्द दिमाग में होता है इसलिए कानों को पकने से बचाना चाहिए। आपके कानों को पकाने वाले,आपके तो कान पका रहे हैं किंतु वे जिस खिचड़ी को पकाने में मशगूल हैं, उसका आपको झूठे भी इल्म नहीं है। खिचड़ी बनाने में कम आग लगती हैं। कम समय लगता है फिर भी कितनी ही खिचडि़यों को पकने में पूरे जमाने लग जाते हैं। बीरबल की बनाई जाने वाली खिचड़ी का आज तक स्वादुजन इंतजार कर रहे हैं। खाने वाले इंतजार करते हुए गुजर जाते हैं परंतु खिचड़ी नहीं पकती, पकाने वाला पक जाता है। अब अगर खिचड़ी बुखार से पीडि़त को खिलानी है या पेट दर्द से दुखी को, फिर तो खिचड़ी का पका होना जरूरी हो जाता है। कई बार खिचड़ी तो पक जाती है किंतु वे कंकर नहीं पकते जो कभी पकने के लिए नहीं पैदा होते हैं। जबकि पकने वाली खिचड़ी को कोई नहीं पूजता है जबकि वह रोगों में राहत पहुंचाती है और पूजनीय होनी चाहिए। लेकिन आज तक खिचड़ी को पूजने की कोई मिसाल न तो ढूंढने पर मिलती है और न पूजने पर।
पत्थर को पूजो तो हरि मिल जाते हैं, इंसान को पूजो तो खास जन मिल जाते हैं। फिर आम आदमी कैसे मिलेगा। आम आदमी को खोलने की यह प्रक्रिया, कहो कैसी रही ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
ऐसी कोई मंशा नहीं है कि आपकी क्रियाए-प्रतिक्रियाएं न मिलें परंतु न मालूम कैसे शब्द पुष्टिकरण word verification सक्रिय रह गया। दोष मेरा है लेकिन अब शब्द पुष्टिकरण को निष्क्रिय कर दिया है। टिप्पणी में सच और बेबाक कहने के लिए सबका सदैव स्वागत है।