एफडीआई और वालमार्ट से सब रिश्तेदारी जोड़ने में जुट गए हैं। बवाल मचा हुआ है। कोई मित्र उन्हें चच्चा बतला रहे है तो कोई उन्हें दद्दू कह रहे हैं। मेरे एक मित्र उनके साथ वाली को भौजी कहते नहीं अघा रहे हैं। दूसरे गरीब की जोरू बतला रहे हैं। मेरी मानो तो पहली बार इसे अमीर की बेगम बनने का मौका मिला है। सो खुद बेगम हो जाएंगी और अपने चाहने वालों को गमों से सराबोर कर देंगी। अभी तक तो यह भी नहीं फाईनल हुआ है कि वे समलिंगी हैं अथवा उभयलिंगी। कुछ कुछ मुगालता फिज़ा में महका हुआ है। फिर यह क्यों नहीं बतलाते कि अब तक इनके अपने वे कहां पर छिपे बैठे थे, बैठे होते तो दिखलाई दे जाते, हो सकता है छिपे लेटे हों। जो भी हों, आखिर वे कहां थे, क्या किसी कुंभ, महाकुंभ में बिछड़े थे या फिरंगी आजादी देते समय किसी गोपनीय डील के तहत उन्हें अपने साथ ले गए थे। अब क्यों आजाद कर दिया है। फिर भी इतना तो पक्का तय है कि एफडीआई नहीं किसी की माई है। जो बच्चों के हित के लिए काम करे, यह तो सबको हिट ही करेगी।
सोचा होगा कि अब तक खूब मालदार हो गया होगा इंडिया, बन जाओ चच्चा या दद्दू और खाली करो इंडिया की हंडिया। हंडिया तब तक ही भाती है जब तक उसका ढक्कन नहीं खोला जाता। ज्यों ही ढक्कन खुलता है सारी असलियत नमूदार हो जाती है। इससे कई बार इज्जत का फलूदा बन जाता है। फलूदा न बन पाए तो ये घनिष्ठ नातेदार चच्चा या दद्दू अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं और इज्जत को लूटने में लग जाते हैं। यही तो इनकी आघातें हैं। दरअसल, ये चच्चा, दद्दू कोई और नहीं ‘अंकल’ ही हैं और इन्हें मुगालता रहा है कि इनमें ‘अकल’ बहुतायत से लबालब है। ‘अंकल’ कहलवाते हैं और ‘अकल’ अपनी भिड़ाते हैं। नब्बे प्रतिशत को मूर्ख बतलाते हैं। अपनी इस तथाकथित अक्ल के बूते उन्होंने नेताओं को तो फांस ही रखा है अब किसानों को भी उलझाने का उपक्रम चालू कर दिया है। काफी हद तक उनकी अक्ल के घोड़ों में रवानगी आ गई है। रही सही कसर गति उनके नाते-रिश्तेदारी खोजक यार पूरी कर रहे हैं।
जहां तक मालदार होने का मामला है तो इसमें एक ही राय है कि जहां होता है माल, वहीं पर वॉलमार्ट की आर्ट निखरकर सामने आती है और वहीं पर कला के गलियारे ओपन होते हैं, वहीं पर भ्रष्टाचार अपने बवाल से सबको मोहित किए रहते हैं। घपले-घोटालों की किस्मत खुल खुल जाती है। ईमानदारी को अपनी नानी,चाची, दादी सब याद आती हैं और ‘नॉस्टेल्जिया’ सक्रिय हो उठता है। अतीत की यादें सोडे में उफान की मानिंद सुर्खियों में कहर बरपाती हैं। चैनलों को जोर का झटका पूरी ताकत से लगाने का कार्य मिलता है। मालदार की ऐसी तैसी करने के नाम पर किसानों और पब्लिक का बेड़ा गर्क किया जाता है।
जबकि सही मायनों में एफडीआई की सटीक व्याख्या ‘फुल ड्रामा इन इंडिया’ की जा सकती है परंतु इसे ‘फॉरेन डायरेक्ट इंवेस्टमेंट’ कहकर सदा से सबको लुभाया जाता रहा है। जबकि इस असलियत की कलई कुछ लोग‘फेल्ड डेमोक्रेसी इन इंडिया’ का नाम देकर खोलते हैं और ‘फटाफट डकारो इंडिया’ कहकर इनकी नीयत पर ही सवाल उठा देते हैं। सोशल मीडिया पर इनकी फजीहत जारी है किंतु संसद में सांसद इनकी नित नई गोलाईयां उभारने में बिजी हैं। चक्करघिन्नी की तरह घूमते देश के सिर पर कभी कोई इस बहाने और कभी उस बहाने से सवार हो जाता है और लूट कर किसी भी स्टेशन पर जानबूझकर छूट जाता है फिर नए लुटेरे मौका देख सवार हो जाते हैं। लूट का खेल जारी है। रही सही कसर वे नोंच खरोंच कर पूरी कर रहे हैं।
पब्लिक और किसान हैरान हैं, परेशान हैं, माल मिलेगा या उनके और माल के मध्य में वॉल खींच दी जाएगी। वाल पारदर्शी शीशे की होगी, माल खूब दिखेगा, लगेगा कि इस बार घर जरूर भरेगा परंतु जब किसान उस माल को लेने के लिए आगे बढ़ेगा तो शीशे से टकराएगा और वॉलमार्ट का शीशा नहीं, इस देश का किसान चूर चूर हो जाएगा। किसान की नियति टूटना ही है और इस बार बिखर जाएगा कांच की किरचों की मानिंद। रिटेल की टेल हनुमान की पूंछ की तरह लंका जलाती दिखाएगी, सबको लेगी लपेट, पेट पर देगी तीखी और गहरी चोट। देश के शरीर पर घाव दर घाव होते रहेंगे और उससे भी तेजी से वस्तुओं के भाव चढ़ेंगे, इंडिया की हंडिया खाली करने की यह क्रिया, कहो कैसी रही ?
बेहतर लेखनी !!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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